अथ स्थापना-शंभु छंद
एकेक चंद्र के अट्ठासी-अट्ठासी ग्रह श्रुत में माने।
ये ज्योतिर्वासी देव अर्ध गोलक विमान में सरधाने।।
इन सब विमान में दिव्यकूट उन पर शाश्वत जिनमंदिर हैं।
जिन प्रतिमा इकसौ आठ-आठ, जिन वंदन करें मुनीश्वर हैं।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रह विमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रह विमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रह विमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-सखी छंद
गंगाजल शीतल भरिये, जिनपद में धारा करिये।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं
निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर घिसके, जिन चरणों लेपन करके।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।२।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।
शशिकिरण सदृश तंदुल हैं, पूजत ही पुण्य अमल है।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।३।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं
निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध के कुसुम खिले हैं, अर्पत मन कमल खिले हैं।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।४।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।
रसभरी जलेबी भरके, अर्पूं मैं मन सुख भरके।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।५।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर जले जगमगते, आरति करते तम हरते।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।६।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं
निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूप अगनि में खेऊ, निज आतम अनुभव लेऊँ।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।७।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर अनार चढ़ाऊँ, शिव फल की आश लगाऊँ।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।८।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
वर अर्घ समर्पूं रुचि से, निज में रत्नत्रय चमके।
ग्रहदेवन के जिनधामा, पूजत निजपद विश्रामा।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
श्री जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले स्वात्म साम्राज्य, त्रिभुवन में सुखशांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार, कुसुमांजलि अर्पण करूँ।
मिले सर्वसुखसार, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा
इक शशि के परिवार सुर, अट्ठासी ग्रह जान।
असंख्यात ग्रह के गृहे, जिनगृह जजूँ महान।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नरेन्द्र छंद
बुध ग्रह के विमान कुछ ही कम पाँच शतक मीलों के।
इसमें देव देवियों सह परिवार सहित हैं नीके।।
सब बुध ग्रह में जिन मंदिर हैं जिन प्रतिमा से सुंदर।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित प्रति ये हैं सर्व हितंकर।।१।।
ॐ ह्रीं बुधग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शुक्र ग्रहों के रजत विमाना एक सहस मीलों के।
किरण पचीस शतक हैं शीतल मंद मंद ये चमकें।।
इनके गृह में जिनमंदिर हैं जिनप्रतिमा से सुंदर।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित प्रति ये हैं सर्व हितंकर।।२।।
ॐ ह्रीं शुक्रग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘बृहस्पती’ ग्रह के विमान सब कुछ कम मील सहस हैं।
मंद किरण युत नित्य चमकते स्फटिक मणी निर्मित हैं।।
इनके गृह में जिन मंदिर हैं जिन प्रतिमा से सुंंदर।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित प्रति ये हैं सर्व हितंकर।।३।।
ॐ ह्रीं बृहस्पतिग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘मंगल’ ग्रह के पद्मराग मणिमय विमान अति शोभे।
पाँच शतक मील विस्तृत ये इससे आधे मोटे।।
इन विमान में जिन मंदिर हैं जिन प्रतिमा से सुंंदर।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित प्रति ये हैं सर्व हितंकर।।४।।
ॐ ह्रीं मंगलग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘शनि’ विमान कंचनद्युति सुंंदर मील पाँच सौ विस्तृत।
इनमें आधी मोटाई है अर्ध गोल सम चकमक।।
इन विमान में जिन मंदिर हैं जिन प्रतिमा से सुंंदर।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर नित प्रति ये हैं सर्व हितंकर।।५।।
ॐ ह्रीं शनिग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘काल’ ग्रहों के सर्वविमानों में सुर गण नित रहते।
इनके महल अकृत्रिम सुंदर पुण्य विभव को धरते।।इन.।।६।।
ॐ ह्रीं कालग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘लोहित’ ग्रह विमान में लोहित देव सपरिकर रहते।
विक्रिय से बहुविध तनु धरते जग में विचरण करते।।इन.।।७।।
ॐ ह्रीं लोहितग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘कनकदेव’ ग्रह के विमान में शाश्वत शोभा न्यारी।
देव देवियों के महलों में पुण्य विभव अति भारी।।इन.।।८।।
ॐ ह्रीं कनकदेवग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘नीलदेव’ ग्रह के विमान में दिव्य कूट वेदी हैं।
अनुपम रत्नमयी सब रचना मणिमय तट वेदी हैं।।इन.।।९।।
ॐ ह्रीं नीलदेवग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘ग्रह विकाल’ के विमान आधे गोले सम अति शोभें।
पृथिवी कायिक अनादि अनिधन विमान सुर मन लोभें।।इन.।।१०।।
ॐ ह्रीं विकालग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘केश’ ग्रहों के विमान अनुपम देव देवियां रहते।
इन विमान की मंद किरण हैं रात्रि में अति चमकें।।इन.।।११।।
ॐ ह्रीं केशग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘कवयव’ ग्रह के विमान सुंदर भूकायिक चमकीले।
सुरगण विक्रिय भूषा धरते सदा दिव्यसुख ही लें।।इन.।।१२।।
ॐ ह्रीं कवयवग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
एक एक चंद्र के ये ग्रह चंद्र असंख्ये जग में।
अत: ‘कनकसंस्थान’ ग्रहों के बिंब असंख्ये जग में।।इन.।।१३।।
ॐ ह्रीं कनकसंस्थानग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह विमान ‘दुंदुभक’ देव का मंद किरण से चमके।
देव देवियां रहते उसमें दिव्य विभव इन सबके।।इन.।।१४।।
ॐ ह्रीं दुुंदुभकग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
निज निज पुण्य उदय से सुरगण इन विमान में जन्में।
देव ‘रक्तनिभ’ ग्रह विमान में दिव्य सुखों को परणें।।इन.।।१५।।
ॐ ह्रीं रक्तनिभग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘नीलाभास’ ग्रहों के सुंदर देव विमान चलाते।
ज्योतिष में जन्में ये सुर गण जिनवर के गुण गाते।।इन.।।१६।।
ॐ ह्रीं नीलाभासग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘अशोक’ संस्थान’ इन्हों के बहु विमान नभपथ में।
विक्रिय तनु से सुरगण जाते जिनवर कल्याणक में।।इन.।।१७।।
ॐ ह्रीं अशोकसंस्थानग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
‘कंस’ ग्रहों के विमान अनुपम चमक रहें नभपथ में।
देव देवियों के बहु सुंंदर महल बने हैं उनमें।।इन.।।१८।।
ॐ ह्रीं कंसग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘रूपनिभ’ ग्रह विमान बहु द्वीप असंख्यों तक हैं।
विक्रिय तनु से देव विहरते मूलरूप निज गृह है।।इन.।।१९।।
ॐ ह्रीं रूपनिभग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘कंसकवर्ण’ ग्रहों के सुंदर बने विमान चमकते।
अर्ध गोल इनके समतल पर देव देवियां रहते।।इन.।।२०।।
ॐ ह्रीं कंसकवर्णग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
देव ‘शंखपरिणाम’ नाम ग्रह इन विमान नभ पथ में।
ज्योतिषसुरगण क्रीड़ा करते मूल देह निज गृह में।।इन.।।२१।।
ॐ ह्रीं शंखपरिणामग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ग्रह ‘तिलपुच्छ’ विमान असंख्यों द्वीप सागरों तक हैं।
आयु पूर्णकर सुर मर जाते विमान नित स्थिर हैंं।।इन.।।२२।।
ॐ ह्रीं तिलपुच्छग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चौपाई
‘शंखवर्ण ग्रह’ देव विमान, सुर परिवार रहें निधिमान्।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२३।।
ॐ ह्रीं शंखवर्णग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘उदकवर्ण’ ग्रह शुभ्र विमान, देव देवियों से धनवान्।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२४।।
ॐ ह्रीं उदकवर्णग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘पंचवर्ण’ ग्रह पुण्यनिधान। देव विमान बने अमलान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२५।।
ॐ ह्रीं पंचवर्णग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘उत्पात’ विमान अनिंद। जिनवर बिंब सुरासुर वंद्य।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२६।।
ॐ ह्रीं उत्पातग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘धूमकेतु’ ग्रह देव विमान। जिनवर बिंब नमें गुणवान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२७।।
ॐ ह्रीं धूमकेतुग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘तिल’ नामक ग्रह देव विमान। देव देवियों से सुखखान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२८।।
ॐ ह्रीं तिलग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘नभ’ ग्रह देव विमान दिपंत। देव देवियां सुख विलसंत।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।२९।।
ॐ ह्रीं नभग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘क्षारराशि’ ग्रह देव विमान। नभ पथ में है अधर सुजान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३०।।
ॐ ह्रीं क्षारराशिग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘विजिष्णू’ ग्रह गुणवान। ज्योतिषसुर के सुख अमलान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३१।।
ॐ ह्रीं विजिष्णुग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
का विभव महान्। ग्रह हो पुण्य ग्रहें सुखदान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३२।।
ॐ ह्रीं सदृशग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘संधि’ नाम ग्रह देव विमान। संधिदेव परिवार महान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३३।।
ॐ ह्रीं संधिग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘कलेवर’ नाम धरंत। ग्रह होकर विग्रह१ न करंत।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३४।।
ॐ ह्रीं कलेवरग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘अभिन्न’ बहु पुण्य प्रसाद। देव विभव सुख है न विषाद।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३५।।
ॐ ह्रीं अभिन्नग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘ग्रंथिविमान’ ग्रहों का मान्य। जिन भक्ती भरती धनधान्य।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३६।।
ॐ ह्रीं ग्रंथिग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘मानवक’ देव अभिराम। जिनवर भक्त स्वात्म विश्राम।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३७।।
ॐ ह्रीं मानवकग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘कालक’ ग्रह विमान चमकंत। देव देवियां वहां रमंत।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३८।।
ॐ ह्रीं कालकग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘कालकेतु’ ग्रह जिनवर भक्त, काल महाविकराल नशंत।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।३९।।
ॐ ह्रीं कालकेतुग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘निलय’ देव आलय सुखधाम। देव करे जिनबिंब प्रणाम।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।४०।।
ॐ ह्रीं निलयग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अनय’ ग्रहों के देव विनीत। सदाचार से करते प्रीत।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।४१।।
ॐ ह्रीं अनयग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘विद्युज्जिह्व’ विमान विशाल। सुरगण वंदे जगप्रतिपाल।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।४२।।
ॐ ह्रीं विद्युज्जिह्वग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘सिंह’ नाम ग्रह देव प्रसन्न। जिनगुण गावें चित्त प्रसन्न।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।४३।।
ॐ ह्रीं सिंहग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अलक’ विमान अलौकिक जान। पृथिवी कायिक जीव निदान।
इन विमान में जिनवर धाम, हाथ जोड़कर करूँ प्रणाम।।४४।।
ॐ ह्रीं अलकग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चाल-शेर
‘निर्दु:ख’ ग्रह विमान में ग्रह देव बसंता।
नाना सुखों को भोगते दुख रोग के हंता।।
इनके असंख्य द्वीप जलधि तक विमान हैं।
उनमें जिनेन्द्रधाम नमूँ सुख निधान हैं।।४५।।
ॐ ह्रीं निर्दु:खग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘काल’ के विमान में सुरगण निवास हैं।
ये ढाई द्वीप में भ्रमें फिर अचल खास हैं।।
इनके असंख्य द्वीप जलधि तक विमान हैं।
उनमें जिनेन्द्रधाम नमूँ सुख निधान हैं।।४६।।
ॐ ह्रीं कालग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘महाकाल’ नाम के नहिं दु:ख दें कभी।
निज पुण्य पाप उदय से सुख दुख भरें सभी।।इन.।।४७।।
ॐ ह्रीं महाकालग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘रुद्र’ रौद्र ध्यान से निज को बचावते।
सुर सौख्य भोगते वहां समकित उपावते।।इन.।।४८।।
ॐ ह्रीं रुद्रग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह के विमान ‘महारुद्र’ नाम बहुत से।
ये ज्योतिषी सुर पुण्य विभव भरें वहां पे।।इन.।।४९।।
ॐ ह्रीं महारुद्रग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘संतान’ नाम ग्रह सुरों के सौख्य घने हैं।
विक्रिय शरीर से भ्रमें जिनभक्त बने हैं।।इन.।।५०।।
ॐ ह्रीं संतानग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ज्योतिष विमान ‘विपुल’ ग्रह आकाश में रहें।
बहु देव देवियां वहाँ आनंद से रहें।।इन.।।५१।।
ॐ ह्रीं विपुलग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘संभव’ ग्रहों अधिपति संभव हि नाम के।
परिवार सहित रहते जिनभक्ति भावते।।इन.।।५२।।
ॐ ह्रीं संभवग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘सर्वार्थी’ ग्रह देव दिव्य सौख्य भोगते।
जिनबिंब की पूजा करें अति पुण्य योगतें।।इन.।।५३।।
ॐ ह्रीं सर्वार्थीग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ये ‘क्षेम’ ग्रह जगत में क्षेम हेतु विचरते।
जिनभक्ति संस्तवन से क्षेम शब्द उचरते।।इन.।।५४।।
ॐ ह्रीं क्षेमग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘चंद्र’ नाम के असंख्य मध्य लोक में।
ये चंद्रमा के ही रहें परिवार विश्व में।।इन.।।५५।।
ॐ ह्रीं चंद्रग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘निर्मंत्र’ ग्रह विमान गगन में सुशोभते।
देवों के महल बीच दिव्य कूट शोभते।।इन.।।५६।।
ॐ ह्रीं निर्मंत्रग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘ज्योतीष्मान’ यह विमान अभ्र में चमकें।
सुरगण वहां पे जन्मते निज पुण्य से दमकें।।इन.।।५७।।
ॐ ह्रीं ज्योतिष्मद्ग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘दिशसंस्थित’ ग्रह के विमान पुण्य से मिलें।
जिनभक्ति के बल से सुरों की मनकली खिले।।इन.।।५८।।
ॐ ह्रीं दिशसंस्थितग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
हैं देव ‘विरत’ नाम के ग्रह जाति में हुये।
ये पाप से विरक्त पुण्य में निरत हुये।।
इनके असंख्य द्वीप जलधि तक विमान हैं।
उनमें जिनेन्द्रधाम नमूँ सुख निधान हैं।।५९।।
ॐ ह्रीं विरतग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘वीतशोक’ चंद्र के परिवार देव हैं।
जिनराज को ‘कुलदेव’ मान करें सेव हैं।।इन.।।६०।।
ॐ ह्रीं वीतशोकग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘निश्चल’ ग्रहों में जैन धाम शोभते घने।
जो पूजते उनके समस्त पाप को हने।।इन.।।६१।।
ॐ ह्रीं निश्चलग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ज्योतिष ‘प्रलंब’ देव सौख्य दिव्य पावते।
जिनराज वंदना करें निजात्म भावते।।इन.।।६२।।
ॐ ह्रीं प्रलंबग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘भासुर’ ग्रहों के बिंब मंद रश्मि धारते।
जिन भक्ति से भवसिंधु से निज को उबारते।।इन.।।६३।।
ॐ ह्रीं भासुरग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह नाम ‘स्वयंप्रभ’ विमान अभ्र में दिपें।
जो पूजते जिनेन्द्र धाम पुण्य से दिपें।।इन.।।६४।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विमान ‘विजय’ ग्रह के दिव्य रत्न से भरे।
वंदे जिनेंद्रबिंब उनके पाप को हरें।।इन.।।६५।।
ॐ ह्रीं विजयग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘वैजयंत’ के विमान नभ में अधर हैं।
जो पूजते जिनेन्द्रबिंब वो हि अमर हैं।।इन.।।६६।।
ॐ ह्रीं वैजयंतग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
दोहा
‘सीमंकर’ ग्रह के दिपें, शुभ्र विमान असंख्य।
उनके जिन मंदिर जजूँ, गुण मणि मिले असंख्य।।६७।।
ॐ ह्रीं सीमंकरग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अपराजित’ ग्रह के यहां, जिन मंदिर अभिराम।
जिनप्रतिमा को पूजहूँ, मिले स्वात्म विश्राम।।६८।।
ॐ ह्रीं अपराजितग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘जयंत’ के गेह में, जिनगृह सुरगण वंद्य।
नमूँ नमूँ जिनबिंब को, मिले सौख्य अभिनंद।।६९।।
ॐ ह्रीं जयंतग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘विमल’ देव ग्रह मान्य है, मल से रहित शरीर।
इनके जिनगृह को जजूूं, मिटे शीघ्र भवपीर।।७०।।
ॐ ह्रीं विमलग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अभयंकर’ ग्रह के यहां, जिनगृह मणिमय कांत।
जिन प्रतिमा अतिसौम्य छवि, नमत बने शिवकांत।।७१।।
ॐ ह्रीं अभयंकरग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘विकस’ नाम के ग्रह यहां, शाश्वत जिनवर गेह।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, जिनपद अतुल सनेह।।७२।।
ॐ ह्रीं विकसग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘काष्ठी’ ग्रह के गेह में, जिन आलय स्वर्णाभ।
जो पूजें नित भाव से, लहें स्वात्म रत्नाभ।।७३।।
ॐ ह्रीं काष्ठीग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘विकट’ नाम ग्रह के यहाँ, अनुपम निधि जिनधाम।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, शत शत करूँ प्रणाम।।७४।।
ॐ ह्रीं विकटग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘कज्जली’ ग्रह कहें, पुण्य उदय से होय।
इनके जिनगृह पूजहूँ, करें निजात्म उद्योत।।७५।।
ॐ ह्रीं कज्जलीग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अग्निज्वाल’ ग्रह गेह में, मणिमय जिनवर सद्म।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, मिले शीघ्र शिवसद्म।।७६।।
ॐ ह्रीं अग्निज्वालग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘अशोक’ के गेह में, शोकरहित जिनगेह।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, जिनवर में धर नेह।।७७।।
ॐ ह्रीं अशोकग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘केतु’ महाग्रह लोक में, इनके जिनवर धाम।
ग्रह अरिष्ट सब दूर हों, पूजूँ विश्व ललाम।।७८।।
ॐ ह्रीं केतुग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘क्षीरस’ ग्रह के बिंब में, जिनवर भवन अनूप।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, मिले स्वात्म चिद्रूप।।७९।।
ॐ ह्रीं क्षीरसग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अर्घ’ ग्रह के जिनराज गृह, करें सर्व अघ नाश।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, मिले सुज्ञान प्रकाश।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्घग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘श्रवण’ महाग्रह के यहां, जिनवर भवन विशाल।
जो पूजें वे सुख लहें, छुटें सर्व जंजाल।।८१।।
ॐ ह्रीं श्रवणग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘जलकेतु’ विमान में, शाश्वत जिनवर धाम।
ग्रह अरिष्ट के नाशने, कोटी कोटि प्रणाम।।८२।।
ॐ ह्रीं जलकेतुग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘राहु’ विमानों में दिपें, जिनमंदिर मणिमंत।
जो पूजें वो शिव लहें, निज गुणमणि विलसंत।।८३।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ग्रह ‘अंतरद’ विमान में, जिनप्रतिमा राजंत।
मैं पूजूं नितभाव से, स्वपर ज्ञान भासंत।।८४।।
ॐ ह्रीं अंतरदग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘एक संस्थान’ ग्रह, इनके ग्रह जिनगेह।
मैं पूजूँ नितभाव से, करूँ मुक्ति से नेह।।८५।।
ॐ ह्रीं एकसंस्थानग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘अश्व’ नाम ग्रह बिंब में, जिन प्रतिमा राजंत।
जो पूजें उन रोग दुख, क्षण में ही भागंत।।८६।।
ॐ ह्रीं अश्वग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘भावग्रह’ के यहां, जिन मंदिर सुखधाम।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, मिले निजातम धाम।।८७।।
ॐ ह्रीं भावग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
देव ‘महाग्रह’ बिंब में, जिन मंदिर अभिराम।
महा मोक्ष फल हेतु मैं, करूँ अनंत प्रणाम।।८८।।
ॐ ह्रीं महाग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
प्रत्येक चंद्र के अट्ठासी ग्रह परिकर देव कहाये हैं।
नरलोक में इक सौ बत्तिस शशि के ग्रह गिनती में आये हैं।।
ग्यारह हजार छह सौ सोलह इन सब में ही जिन मंदिर हैं।
नरलोक बाह्य ग्रह असंख्यात उन सब जिन गृह को वंदन है।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके असंख्यातग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रति जिन मंदिर में जिन प्रतिमायें, इक सौ आठ विराजें हैं।
ये शाश्वत रत्नमयी सुंदर वंदन से पातक भाजे हैं।।
जिनबिंब पास में श्रीदेवी श्रुतदेवी मूर्तिमयी शोभें।
सर्वाण्ह व सानत्कुमार यक्ष मूर्ती सुरगण का मन लोभें।।२।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके असंख्यातग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयेषु विराजमान—
संख्यातीतजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं ज्योतिर्वासिदेवविमानस्थित—असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
दोहा
ग्रह विमान के मध्य में, दिव्य कूट विलसंत।
उस पर शाश्वत जिनभवन, नमूँ नमूूं सुखवंत।।१।।
शंभु छंद
इसचित्रा भू से आठशतक, अट्ठासी योजन पर नभ में।
बुध ग्रह रहते इससे ऊपर, ग्रह शुक्र गुरू मंगल शनि हैं।।
इन पाँचों के अतिरिक्त तिरासी, ग्रह विमान नभ में ही हैं।
ये बुध अरु शनि के अंतराल में, सदा रहें नित भ्रमते हैं।।२।
राहु केतू ग्रह के विमान, कुछ कम चउ सहस मील के हैं।
ये चंद्र सूर्य से बड़े कहे, इनके नीचे ही चलते हैं।।
इनकी ही गति से शशि रवि के, छह-छह महिने में बिंब ढकें।
इसको ही ग्रहण कहें श्रुत में, दीक्षादिक कार्य न हों इसमें।।३।।
इन ग्रह के आठ हजार देव, वाहन जाती के होते हैं।
केहरि गज वृषभ अश्व विक्रिय, धरके चउ दिश में जुतते हैं।।
सुर होकर भी पशु रूप धरें, जीवन भर वाहन बने रहें।
जो नर गुरु का अविनय करते, वे तप से वाहन गती लहें।।४।।
जो निज चारित्र मलिन करते, बहुविध मिथ्या तप करते हैं।
जिनधर्म की आसादन करते, वे ही ज्योतिष सुर बनते हैं।।
वहं जाकर जिन महिमादि देख, सम्यक्त्व ग्रहण कर सकते हैं।
फिर नर हो मुनि बन तप करके, निजआत्म सुधारस चखते हैं।।५।।
बुध शुक्र गुरू मंगल व शनी, राहू केतू ये ग्रह माने।
शशि रवि दो को भी गिन लीजे, ये नवग्रह हैं सब जग जाने।।
जो ग्रह के जिनगृह नित पूजें, उनको ग्रह कष्ट न दे सकते।
जो इनकी जिन प्रतिमा वंदे, नवग्रह उनको अभीष्ट फलते।।६।।
जिनभक्ति अकेली ही जन के, सब ग्रह अनुकूल बना देती।
जिनभक्ति अकेली ही जन को, दुर्गति से शीघ्र बचा लेती।।
जिनभक्ति अकेली ही जन के, तीर्थंकर आदि पुण्य पूरे।
जिनभक्ति अकेली ही जन को, शिवसुख देकर भव दुख चूरे।।७।।
मैं नमूँ अनंतों बार प्रभो! मेरे सब दु:ख विनाश करो।
मैं नमूँ अनंतो बार प्रभो! मुझ में निजज्ञानप्रकाश भरो।।
मैं नमूँ अनंतो बार प्रभो! सम्यग्दर्शन अक्षय कीजे।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरी होने तक, चरण शरण में रख लीजे।।८।।दोहा
जय जिनगृह चिंतामणी, चिंतित फलदातार।
एक मुक्ति के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके असंख्यातग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शंभु छंद
जो भव्य जैन ज्योतिर्विमान की, जिनप्रतिमा को यजते हैं।
वे सर्व अमंगल दोष दूर कर, नित नव मंगल भजते हैं।।
गुणमणि यश से इस भूतल पर, निज को आलोकित करते हैं।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ किरणों से, तिहुंलोक प्रकाशित करते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:।।