जलहोम कुंड भी तीर्थंकर कुंड के समान चौकोन बनावें, या बालू से
चौकोन 2 ² 2 या 1 (1/2) 2 1/2 फुट का चबूतरा बनाकर उसमें चारों तरफ
तीन कटनी बनावें, उसके पश्चिम में दो कुंभ स्थापित करें।
तत्रादौ तावत्संकल्पपूर्वकपुण्याहवाचनं कुर्यात्।
(शांतिहोम से पुण्याहवाचन से लेकर ‘‘मौनव्रतं गृण्हामि’’ पर्यंत क्रम विधि करके पुन: आगे से विधि करें)
घण्टाटंकारवीणाक्वणित-मुरजधा-धां-क्रियाकाहलाच्छें।
छेंकारोदार – भेरी – पटह – धलधलंकार – सम्भूतघोषे।।
आक्रम्याशेषकाष्ठातटमथ झटिति प्रोच्छटत्युद्भटेऽभ्रं।
शिष्टाभीष्टार्हदिष्टिप्रमुख इह लतान्तांजलिं प्रोत्क्षिपाम:।।१।।
वाद्यमुद्घोषपूर्वकं पुष्पांजलिं क्षिपामि।
क्षेत्रं मखेऽस्मिन् परिपालयन्तं, विघ्नानशेषानपसारयन्तं।
वैश्वानराशापरिकल्पितेन, श्रीक्षेत्रपालं बलिना धिनोमि।।२।।
ॐ ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपाल! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्वाहा।
ॐ ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपालाय इदं अर्घ्यं इत्यादि।
सर्वेषु वास्तुषु सदा निवसंतमेनं, श्रीवास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकारं।
प्रागेव वास्तुविधिकल्पितयज्ञभागस्येशानकोणदिशि पूजनया धिनोमि।।३।।
ॐ ह्रीं वास्तुकुमार देव! अत्र आगच्छ आगच्छ, तिष्ठ तिष्ठ, ठ: ठ: स्वाहा।
ॐ ह्रीं वास्तुकुमाराय इदं अर्घ्यं इत्यादि।
अनंतर वायुकुमार आदि की पूर्व और ईशान दिशा के मध्य स्थापना करना।
आलेप्याखिलकुंडवेदिजगतीमृत्पञ्चगव्यैर्मरुन्,-
मेघाग्नीनमरान् समर्च्य वसुधामेतैर्विशोध्य त्रिधा।
सन्तर्प्यामृततोप्यहीन् कुशमथो, निक्षिप्य दिक्षु क्रमात्।
वार्दर्भादिभिरर्चयामि महितां सर्वज्ञयज्ञक्षितिम्।।४।।
प्रकृतक्रमविध्यवधानाय वेद्यां पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
विहारकाले जगदीश्वराणां, अवाप्तसेवार्थकृतापदान।
हुत्वार्चितो वायुकुमार देव, त्वं वायुना शोधय यागभूमिम्।।५।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारदेव महीं पूतां कुरु कुरु ह्रूँ फट् स्वाहा।
(षट्दर्भपूलेन भूमिं सम्मार्जयेत्) वायुकुमार की स्थापना व अर्घ्य।
विहारकाले जगदीश्वराणां, अवाप्तसेवार्थकृतापदान।
हुत्वार्चितो मेघकुमार देव! त्वं वारिणा शोधय यागभूमिम्।।६।।
ॐ ह्रीं मेघकुमारदेव! धरां प्रक्षालय प्रक्षालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
(षट्दर्भपूलोपात्तजलेन भूमिंसिंचेत्) मेघकुमार की स्थापना व अर्घ्य
गर्भान्वयादौ महितद्विजेन्द्रै:, निर्वाणपूजासु कृतापदान।
हुत्वार्चितो वन्हिकुमारदेव! त्वं ज्वालया शोधय यागभूमिम्।।७।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेव! भूमिं ज्वालय ज्वालय अं हं सं वं झं ठं क्ष: फट् स्वाहा।
ज्वलद्दर्भपूलानलेन भूमिं ज्वालयेत्। अग्निकुमार की स्थापना व अर्घ्य
आगे का मंत्र बोलकर ईशान दिशा में पानी की अँजुली देवें।
तुष्टा अमी षष्टिसहस्रनागा, भवंत्ववार्या भुवि कामचारा:।
यज्ञावनीशानदिशाप्रदत्त-सुधोपमानांजलि-पूर्णवार्भि:।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रों षष्टिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्य: स्वाहा। नागतर्पणार्थमैशान्यां दिशि जलांजलिं क्षिपेत्।
दश दिक्षु दर्भन्यास:।
ब्रह्मप्रदेशे निदधामि पूर्वं, पूर्वादिकाष्ठासु पुन: क्रमेण।
दर्भं जगद्गर्भजिनेन्द्रयज्ञ-विघ्नौघ-विध्वंसकृते समंत्रम्।।९।।
ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नम: स्वाहा। इंद्रदर्भ: इसी प्रकार आग्नेयदर्भ:, यमदर्भ:,
नैऋत्यदर्भ:, वरुणदर्भ:, पवनदर्भ:, कुबेरदर्भ:, ईशान्यदर्भ:, धरणेंद्रदर्भ:, सोमदर्भ:।
(ऐसा बोलते हुए दशों दिशा में दर्भ स्थापना करें)
भूदेवता का सत्कार करने हेतु आगे के मंत्रों से अष्टद्रव्य चढ़ावें।
वार्दर्भगंधै: सुमनोऽक्षतोघै:, धूपप्रदीपैरमृतोपमान्नै:।
क्रमान्महामो महितां महद्भि: महीं महादेवमहामहस्य।।१०।।
ॐ नीरजसे नम: जलं। शीलगंधाय नम: गंधं। अक्षताय नम: अक्षतान्।
विमलाय नम: पुष्पं। परमसिद्धाय नम: चरुं। ज्ञानोद्योतनाय नम: दीपं। श्रुतधूपाय
नम: धूपं। अभीष्टफलदाय नम: फलं। दर्पमथनाय नम: दर्भं।
।। इति भूम्यर्चनम्।।
आगे की वेदी के पास आकर विधि करें।
वेद्या मूर्घ्नि विधाय पीठमुचितं प्रक्षाल्य तीर्थांबुभि:,
प्रत्यग्रेन महाधनेन परित: प्रच्छाद्य दर्भैरपि।
अभ्यर्च्योपरि तस्य सज्जिनपतेरर्चां सतामर्चितां।
न्यस्यार्चामि सयक्ष-यक्ष्युपगतां चक्रातपत्रांचिताम्।।११।।
प्रकृतक्रमविध्यवधानाय पुष्पांजलिं क्षिपामि।
श्रीपाण्डुकाव्हय-शिलाग्रिमपीठकल्पं, तद्वेदिकोपरितटे निदधामि पीठम्।
प्रक्षालयामि शुचिभि: सलिलै: पटेन, प्रच्छादितेऽत्र निदधेऽक्षत-पुष्पदर्भान्।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठ: ठ: श्रीपीठस्थापनं करोमि स्वाहा।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन श्रीपीठप्रक्षालनं
करोमि स्वाहा। तत्पीठोपरि प्रागग्रवस्त्राच्छादनं करोमि स्वाहा।
ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नम: दर्भस्थापनं करोमि स्वाहा। (सकुसुमाक्षतदर्भ-
स्थापनम्) स्वच्छैस्तीर्थ-पीठं समभ्यर्चये। पीठ-जिसमें भगवान् विराजमान करना
है, उसे अर्घ्य चढ़ावें।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय पीठार्चनम् करोमि स्वाहा।
संस्थापयाम्युपरि तस्य जिनेश्वरार्चां, चक्रत्रयं जिनपतेरपसव्यभागे।
छत्रत्रयं तदनु तस्य तु सव्यभागे, वादित्रजालजटिले सति सर्वलोके।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन् इह पाण्डुकशिलापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।
प्रतिमा-स्थापनम्। दक्षिण-पार्श्वे चक्रत्रय-स्थापनम्। वामपार्श्वे छत्रत्रयस्थापनम्।
(श्रीपीठ-सिंहासन पर भगवान विराजमान करें। प्रतिमा के दायीं तरफ तीन चक्र एवं बायीं तरफ तीन छत्र स्थापित करें)
आहूता भवनामरैरनुगता यं सर्वदेवास्तथा,
तस्थौ यस्त्रिजगत्-सभान्तरमहापीठाग्रसिंहासने।
यं ह्नद्यं हदि संनिधाप्य सततं ध्यायन्ति योगीश्वरा:,
तं देवं जिनमर्चितं कृतधियामाव्हाननाद्यैर्भजे।।१४।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अर्हं एहि एहि संवौषट्। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:। अत्र मम सन्निहिताे भव भव वषट्।
भगवान के चरणों पर जल छोड़ें, पुन: मंत्रोच्चारण कर पुष्पांजलि छोड़ें।
गद्य- तीर्थौदवैर्जिनपादो प्रक्षाल्य तदग्रे पृथग्मंत्रानुचारयन्।
वार्गन्धाक्षतार्चितपुष्पांजलिं प्रयुंजीत।
पाद्यमंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नमोर्हते स्वाहा। (जलधारा छोड़े)
आचमन मंत्र-ॐ ह्रीं झ्वीं क्ष्वीं वं मं हं सं तं पं द्रां द्रीं हं स: स्वाहा। (जलधारा छोड़ें)
ॐ ह्रीं परब्रह्मणेऽनंतानन्तज्ञानशक्तये जलं (गंध आदि से लेकर अर्घ्य पर्यंत चढ़ावें)
राजेन्द्र-देवेन्द्र-जिनेन्द्र यौग्यं, चक्रत्रयं मंगल-वस्तु-मुख्यम्।
निवेशितं श्रीजिनबिम्बपार्श्वे, यजामहे निर्मलवारिमुख्यै:।।१५।।
ॐ नीरजसे नम: जलं। शीलगंधाय नम: गंधं। अक्षताय नम: अक्षतान्।
विमलाय नम: पुष्पं। परमसिद्धाय नम: चरुं। ज्ञानोद्योतनाय नम: दीपं। श्रुतधूपाय
नम: धूपं।अभीष्टफलदाय नम: फलं। दर्पमथनाय नम: दर्भ इत्यादि।
लोकत्रयैकाधिपतित्वचिन्हं, छत्र-त्रयं मंगल-वस्तु मुख्यम्।
निवेशितं श्रीजिनवामभागे, यजामहे निर्मलवारिमुख्यै:।।१६।।
ॐ नीरजसे नम: इत्यादि आगे की क्रिया यज्ञकुंड के आगे करें।
कुण्डात् पुरस्तात् परिमृष्टदेशे, सुविष्टरं न्यस्य सुदृष्टभृष्टम्।
तत्रोपविष्टोऽस्म्यथ पश्चिमास्य:, पर्यंकतो वाम्बुरुहासनाद्वा।।१७।।
ॐ ह्रीं क्षीं भू: शुद्ध्यतु स्वाहा। (यज्ञ भूमि शुद्धि करें)
ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठं आसनं निक्षिपामि स्वाहा। (आसन बिछावें)
ॐ ह्रीं अर्हं ह्युं ह्युं णिसिहिये णिसिहिये आसने उपविशामि स्वाहा।
(आसन पर बैठें)
ॐ ह्रीं अर्हं मौनस्थितार्हं मौनव्रतं गृण्हामि स्वाहा। (पूजापर्यंत मौन रखें)
तीर्थोम्बुपूर्णोज्ज्वलशातकुंभ-कुंभस्य नालाद्गलितेन वारा।
कुण्डं शुभं सर्वममत्रमत्र, द्रव्यं च सिंचामि समंत्रमेव।।१।।
ॐ ह्रीं नम: सर्वज्ञाय सर्वलोकनाथाय धर्मतीर्थकराय श्रीशांतिनाथाय, परमपवित्राय, पवित्रतरजलेन होमकुण्डशुद्धिं करोमि स्वाहा।
(इस मंत्र से होमकुंड पर पानी छिड़कें)
तीर्थेशसंबंधसमर्चनीय-श्रीगार्हपत्याश्रयतोर्चनीयम्।
चैत्याश्रयत्वादिव चैत्यगेहं, समर्चयामश्चतुरस्रकुण्डम्।।२।।
ॐ नीरजसे नम: जलं। शीलगंधाय नम: गंधं। अक्षताय नम: अक्षतान्।
विमलाय नम: पुष्पं। परमसिद्धाय नम: चरुं। ज्ञानोद्योतनाय नम: दीपं। श्रुतधूपाय नम:
धूपं। अभीष्टफलदाय नम: फलं। दर्पमथनाय नम: दर्भं।
होमकुंड में तंदुल से स्वस्तिक बनावें, उस पर नयी ताँबे या पीतल की पतीली रखें, उस पतीली में जलयंत्र बनावें। पुन: होमकुंड के सामने स्थापित दो कुंभों का जल निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए पतीली में डालते हुए उसका जल शुद्ध करें।
ॐ नमोऽर्हते भगवते पद्म-महापद्म-तिगिञ्छ-केसरी-महापुंडरीक-पुण्डरीक-गंगा-सिंधु-रोहिद्-रोहितास्या-हरित्-हरिकान्ता-सीता-सीतोदा-नारी-नरकांता-सुवर्णकूला-रूप्यकूला-रक्ता-रक्तोदा-अनेक-नद-नदीजलप्रवाह-परिपूर्ण-मधुरजलधि-इक्षुरससमुद्र-घृतार्णव क्षीरसागर-प्रभृत्यखिलतीर्थदेवतामणिमयं गलकलशसंशृत-नवरत्न-सुगंध-चूर्णपुष्पफलकुशाद्यैश्च रचितं तीर्थोदकं पवित्रं कुरु कुरु झ्रौं झ्रौं वं मं हं सं तं पं झ्वीं हं स: असिआउसा जलशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।
पुन: शंबर नाम के यंत्र की पूजा करें।
ॐ नीरजसे नम: जलं। शीलगंधाय नम: गंधं। अक्षताय नम: अक्षतान्। विमलाय नम: पुष्पं। परमसिद्धाय नम: चरुं। ज्ञानोद्योतनाय नम: दीपं। श्रुतधूपाय नम: धूपं। अभीष्टफलदाय नम: फलं। दर्पमथनाय नम: दर्भं।
-प्रथम-कटनी-मेखला-सत्कार-
नन्दां च भद्रां च जयां च रिक्तां, पूर्णा च भूयो भुवि वर्तयन्ति।
ये ताननेकान्त-सुपक्षपक्षान्, न्यक्षेण यक्षप्रमुखान् प्रयक्ष्ये।।३।।
ॐ आँ क्रों ह्रीं पंचदशतिथिदेवता: अत्रागच्छत-अत्रागच्छत। तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:। मम सन्निहिता भवत भवत वषट् स्वाहा।
ॐ ह्रीं क्रों ह्रीं पंचदशतिथिदेवताभ्य: इदं अर्घ्यं पाद्यं इत्यादि अर्घ्यं।
-द्वितीय-कटनी-मेखला-सत्कार-
मेरुं परीत्यैव चरन्ति नित्यं, ये निग्रहानुग्रहदा नृलोके।
अवस्थिता ये बहिरर्कमुख्या:, सर्वान् समाहूय समर्चये तान्।।४।।
ॐ आँ क्रों ह्रीं आदित्यादिनवग्रहदेवता: अत्रागच्छत अत्रागच्छत। तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:। मम सन्निहिता भवत भवत वषट् स्वाहा।
ॐ आँ क्रों ह्रीं नवग्रहदेवेभ्यो इदं अर्घ्यमित्यादि०
-तृतीय-कटनी-मेखला सत्कार-
चतुर्णिकायप्रभवामरेन्द्रान्, जिनेन्द्रसेवाप्रसितान्तरंगान्।
प्रभूतभूतद्युतिसौख्यबोधा-नाहूय मंत्रै: पृथगर्चयामि।।१५।।
ॐ आँ क्रों ह्रीं असुरेन्द्रादिद्वात्रिंशदिंद्रा: अत्रागच्छत अत्रागच्छत। तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:। मम सन्निहिता भवत भवत वषट् स्वाहा।
ॐ आँ क्रो ह्रीं नवग्रहदेवेभ्यो इदं अर्घ्यमित्यादि०
-दिक्पाल-सत्कार-
एतत्सर्वजनीनजैनसवनप्रत्यूहविध्वंसन –
प्रोद्भूताप्रतिमप्रभावविहितप्रख्यातपूजांचितान्।
स्वस्वातुच्छपरिच्छदान् दशदिशामन्याप्रधृष्यामितान्,
दिक्पालान्जगदेक-पालकजिनाधीशाध्वरे व्याव्हये।।६।।
ॐ ह्रीं इन्द्रादिदशदिक्पालदेवा: अत्रागच्छत अत्रागच्छत, तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:, मम सन्निहिता भवत भवत वषट् स्वाहा।
ॐ ह्रीं इन्द्रादिदशदिक्पालदेवेभ्यो इदमर्घ्यमित्यादि०
।। सप्तधान्याहुति:।।
दिक्पालकानिति समर्च्य यवान्विता ये, गोधूम-मुद्ग-चण-काढक-शालि-माषा:।
तत्सप्त-धान्यकृतमुष्टिभिरम्बुकुण्डे, सप्ताहुतीरिह दधे पृथगेव तेभ्य:।।७।।
सात धान्य-चना, तुवर, अरहर, उड़द, मूँग, गेहूँ, शाली और जौ इनको मिलाकर दिक्पाल मंत्रों से जलकुंभ में एक-एक मंत्र की सात-सात बार आहुति देवें।
-आहुति मंत्र-
ॐ आँ क्रों ह्रीं इन्द्राय स्वाहा। ॐ आँ क्रों ह्रीं अग्नये स्वाहा।
ॐ आँ क्रों ह्रीं यमाय स्वाहा। ॐ आँ क्रों ह्रीं नैऋत्याय स्वाहा।
ॐ आँ क्रों ह्रीं वरुणाय स्वाहा। ॐ आँ क्रों ह्रीं पवनाय स्वाहा।
ॐ आँ क्रों ह्रीं धनदाय स्वाहा। ॐ आँ क्रों ह्रीं ईशानाय स्वाहा।
ॐ आँ क्रों ह्रीं धरणेन्द्राय स्वाहा। ॐ आँ क्रों ह्रीं सोमाय स्वाहा।।
ॐ आँ क्रों ह्रीं शंबरनामधेयाय स्वाहा।
इत्थं सारसपर्ययाद्य महिता यूयं प्रसन्ना: स्थ न:।
सांगास्ताद्विकलापि मोहमुखतो युष्मत्प्रसादादियम्।
सर्वज्ञाध्वरविघ्नमाध्नत द्रुतं सर्वेऽपि दिक्पालका:,
पूर्णांगा विधिपूर्तिपूर्णफलदां पूर्णाहुतिं वोऽर्पये।।८।।
।।पूर्णार्घ्यं।।
तीन धान्य-जौ, तिल और शालिधान्य इन तीनों को मिलाकर आगे लिखे नव मंत्रों से सात-सात बार जलकुंभ में आहुति देवें।
यवैस्तिलै: शालिभिरेव सप्त-सप्तस्वमुष्टि-प्रमितैर्विशुद्धै:।
होमं विधास्यामि समंत्रमंभ: कुण्डे ग्रहाणामिह सुप्रपत्यै।।९।।
ॐ ह्रीं ह्र: फट् आदित्यमहाग्रह (अमुकस्य) शिवं कुरु कुरु स्वाहा। एवं
सोमादिष्वपि प्रयुज्जीत।
ॐ ह्रीं ह: फट् सोममहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् मंगलमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् बुधमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् गुरुमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् शुक्रमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् शनिमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् राहुमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ ह्रीं ह: फट् केतुमहाग्रह! अमुकस्य शिवं कुरु कुरु स्वाहा।
अँजुली में दर्भ, गंध, अक्षत, पुष्प लेकर अँगुलि जल हवन कुंभ पर रखकर आगे के तर्पण मंत्र पढ़ते हुए जल डालते जावें।
अन्वतो विमलाम्भोभिर्गन्धपुष्पाक्षतान्वितै:।
कुर्महे पीठिकामंत्रैस्तर्पणं परमेष्ठिनाम्।।१०।।
ॐ सत्यजाताय नम:। अर्हज्जाताय नम:। परमजाताय नम:। अनुपमजाताय नम:। स्वप्रदाय नम:। अचलाय नम:। अक्षताय नम:। अव्याबाधाय नम:। अनंतज्ञानाय नम:। अनंतदर्शनाय नम:। अनंतवीर्याय नम:। अनंतसुखाय नम:। नीरजसे नम:। निर्मलाय नम:। अच्छेद्याय नम:। अभेद्याय नम:। अजराय नम:। अमराय नम:। अप्रमेयाय नम:। अगर्भवासाय नम:। अक्षोभ्याय नम:। अविलीनाय नम:। परमघनाय नम:। परमकाष्ठयोगरूपाय नम:। लोकाग्रवासिने नम:। परमसिद्धेभ्यो नम:। अर्हत्सिद्धेभ्यो नम:। केवलिसिद्धेभ्यो नमो नम:। अंतकृतसिद्धेभ्यो नमो नम:। परंपरासिद्धेभ्यो नमो नम:। अनादिपरंपरासिद्धेभ्यो नमो नम:। अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नम:। सम्यग्दृष्टे-२ आसन्नभव्य २ निर्वाणपूजार्ह २ शंबर नामधेयाय स्वाहा।
(आगे के मंत्रों से पुण्याहमंत्र का पानी तीन बार होम कुंड पर सिंचित करें।)
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नम: स्वाहा। ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय नम: स्वाहा। ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नम: स्वाहा। (इमान्मंत्रान् त्रिरुच्चार्य जलं सिंचेत्)
द्वादशांग स्पर्शमंत्र-ॐ ॐ ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं वं मं हं सं तं पं द्रां द्रीं हं स: स्वाहा।
प्राणायाम मंत्र-ॐ भूर्भुव: स्व: असिआउसा अर्हं प्राणायामं करोमि स्वाहा।
इमं मंत्रं नासिकामंगुष्ठानामिकाग्रेण धृत्वा त्रिवारान् जपेत्।
(प्राणायाम मंत्र को अँगूठा और अनामिका अँगुली से नाक के दोनों भागों पर रखकर तीन बार जपें)
दिक्पाला: प्रतिसेवनाकुलजगद्दोषार्हदण्डोद्भटा:,
सौधर्म: प्रणयेन बद्धभगवत्-सेवानियोगेन वा।
पूजापात्रकराग्रह: सदमुपेत्योपात्य बालार्चनं,
प्रत्युहान् निखिलान् निरस्यतु जिनस्नानोत्सवोत्साहिनाम्।।११।।
आदेषणार्घ्य:
ॐ आँ क्रों ह्रीं प्रशस्तवर्ण-सर्वलक्षणसंपूर्ण-स्वायुधवाहन-वधूचिन्हसपरिवारा: हे
पंचदशतिथीदेवा: नवग्रहदेवा:, द्वािंत्रशदिन्द्रा:, दश लोकपाला:, शंबरनामधेयादि-सर्वे
देवता इदं जलादिकमर्चनं यूयं अत्र गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं ॐ भूर्भुव: स्वाहा। पुर्णाहुति:।
(यहाँ पूर्णार्घ्य देना)
।। इति जलहोमविधानम् समाप्तम्।।