अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद
अमल विमल पद पाकर स्वामी, विमलनाथ कहलाये।
भाव-द्रव्य-नोकर्म मलों से, रहित शुद्ध कहलाये।।
आत्मा के संपूर्ण मलों को, धोने हेतु जजूूँ मैं।
आह्वानन स्थापन करके, पूजा करूँ भजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-दोहा-
पद्मसरोवर नीर शुचि, जिनपद धार करंत।
जन्म जरा मृति नाश हो, आतम सुख विलसंत।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन सुरभि, जिनपद में चर्चंत।
मिले आत्मसुख संपदा, निजगुण कीर्ति लसंत।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम तंदुल धवल, पुंज चढ़ाऊँ नित्य।
नव निधि अक्षय संपदा, मिले आत्मसुख नित्य।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हरसिंगार प्रसून की, माल चढ़ाऊँ आज।
सर्वसौख्य आनंद हो, मिले स्वात्म साम्राज।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली इमरती, चरू चढ़ाऊँ भक्ति।
मिले आत्म पीयूष रस, मोक्ष प्राप्ति की शक्ति।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक से आरती, करूँ तिमिर परिहार।
जगे ज्ञान की भारती, भरें सुगुण भंडार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेवते हो सुरभि, आतम सुख विलसंत।
कर्म जलें शक्ती बढ़े, मिले निजात्म अनंत।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेब आम अंगूर ले, फल से पूजूँ आज।
मिले मोक्षफल आश यह, सफल करो मम काज।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अर्घ्य ले, रजत पुष्प विलसंत।
अर्घ्य चढ़ाऊँ भक्ति से, ‘‘ज्ञानमती’’ सुख कंद।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतीधारा मैं करूँ, जिनवर पद अरविंद।
त्रिभुवन में भी शांति हो, मिले निजात्म अनिंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
मौलसिरी बेला जुही, पुष्पांजलि विकिरंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निज निधि मिले अनंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।