-दोहा-
श्रीबाहूबलि! आपको, नमूँ-नमूँ शत बार।
तव प्रतिमा चिन्तामणी, चिंतित फल दातार।।१।।
भरतराज ने पोदनपुर में, बाहुबली की मूर्ति महा।
भक्ति भाव से की स्थापित, पंचशतक धनु तुंग महा।।
सुर-नर-मुनिजन प्रतिदिन पूजें, भक्तिभाव से दर्श करें।
महामहिम जिनबिंब दर्श से, जन्म-जन्म के पाप हरें।।२।।
कर्नाटक में श्रवणबेलगुल, अतिशय क्षेत्र प्रसिद्ध महा।
भद्रबाहु श्रुतकेवलि गुरु की, हुई समाधी श्रेष्ठ जहाँ।।
चन्द्रगुप्त सम्राट् दिगंबर, मुनिवर की गुरु भक्त्ती का।
दृश्य दिखा स्मरण कराता, गुरुभक्ती भवाब्धि नौका।।३।।
नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती गुरुवर के शिष्य प्रधान।
चामुंडराय प्रथित गुणभूषित, श्रावककुल अवतंस महान।।
विंध्यगिरी पर्वत के ऊपर, सत्तावन फुट तुंग महा।
अति मनोज्ञ मूर्ति स्थापित की, वीतराग की छवी महा।।४।।
धैर्य वीर्य गांभीर्य सौम्य शुभ, गुण मूर्ती में प्रगट अहो।
सचमुच में ही दर्श दे रहे, बाहुबली साक्षात् अहो।।
लंबित हैं घुटनों तक बाहू, नासा दृष्टि विकाररहित।
स्मित मुख प्रकटित करता, अन्त:कालुष्य विषादरहित।।५।।
सर्पों के मुख की विष अग्नी, चरणों का आश्रय पाकर।
शांत हो गई जय जय भुजबलि, शांति सुधामय रत्नाकर।।
जय जय सकल मध्य युद्धत्रय, में भरतेश्वर को जीता।
राज्यभोग सुख त्याग मुक्ति के, लिए आदरी जिनदीक्षा।।६।।
भरतराज ने सकल दिग्विजय, कर जो जयकीर्ती पाई।
वो ही चक्र रूप मूर्तिक बन, जगमग ज्योति ज्वलित आई।।
सब जन बीच बाहुबलि प्रभु की, प्रदक्षिणा त्रय दीनी थी।
फिर भी प्रभु से त्यक्त तिरस्कृत, लज्जित सम ही उस क्षण थी।।७।।
वही कीर्ति श्री योगरूढ को, लता छद्म से वेढ लिया।
अद्यावधि माहात्म्य प्रकट कर, रही जगत सब व्याप्त किया।।
स्वानुभूति रस रसिक जनों के, मन समुद्र की वृद्धि करें।
ध्यानामृत का बोध करा कर, सब संकल्प-विकल्प हरें।।८।।
करना नहीं रहा कुछ भी, कृतकृत्य प्रभो! भुज लंबित हैं।
नहीं भ्रमण करना जग में अब, अत: चरण युग अचलित हैं।।
देख चुके सब जग की लीला, अंंतरंग अब देख रहे।
सुन-सुन करके शांति न पाई, अत: विजन में खड़े हुये।।९।।
वर्षा ऋतु में मेघदेव, भक्ती से जल अभिषेक करें।
शीत काल में हिम कण सुन्दर, शर्करसम अभिषेक करें।।
मेघ पंक्तियाँ घिर-घिर आतीं, इक्षू रस इव दिखती हैं।
पुन: सूर्य की किरण सुनहरी, घृत अभिसिंचन करती हैं।।१०।।
पूर्ण चंद्र रात्री में आकर, भक्ति भाव से मुदित हुआ।
दुग्धाब्धी अमृतसम किरणों, से प्रभु का बहु न्हवन किया।।
शशि ज्योत्स्ना शुक्ल ध्यान सम, शुभ्र दही ले आती हैं।
भक्ति भाव से स्नपन करती, रहती तृप्ति न पाती हैं।।११।।
भास्कर देव सहस्र करों से, केशर चंदन को लेकर।
हर्षित प्रेम भक्ति से गद्गद, हो अभिषेक करें दिनभर।।
प्रकृती देवी निज सुषमा से, नित प्रति पूजन करती हैं।
मधुर हास्यमय सुमन वृष्टि कर, जन-जन का मन हरती हैं।।१२।।
मुनिजन श्रावकगण आ-आकर, दर्शन-वंदन करते हैं।
भक्ती से हर्षित मन गद्गद, हो बहु स्तवन उचरते हैं।।
सौम्य मूर्ति को देख-देखकर, रोमांचित हो जाते हैं।
जन्म-जन्म कृत पाप दूर कर, प्रेमाश्रू को बहाते हैं।।१३।।
देश-विदेशों से जन आते, कौतुक से दर्शन करते।
शिल्पकला सौंदर्य देखते, मन में बहु हर्षित होते।।
उनके मन का हर्ष भाव भी, पापपुंज का नाश करे।
भक्ति बिना अज्ञातरूप ही, पुण्य कर्म का बंध करे।।१४।।
प्राकृत रूप अनूप निरंबर, निराभरण तनु शोभ रहा।
जग की कला सृष्टि में अनुपम, कला रूप सौंदर्य अहा।!
दर्शकगण अपूर्व शांतीरस, का अनुभव कर सुख पाते।
यही रूप इक परम शांतिप्रद, नहीं और यह कह जाते।।१५।।
नास्तिकवादी भी दर्शन कर, बहु विस्मित हो जाते हैं।
जिनमत द्विष मिथ्यादृष्टी के, भी मस्तक झुक जाते हैं।।
धर्मद्रोहि मूर्तिध्वंसक भी, चरणों में नत हुए अहो।
चमत्कार से जन-जन के मन, आश्चर्यान्वित हुए अहो।।१६।।
दक्षिणवासी जैनेतर भी, प्रभु को इष्ट देव कहते।
मनोकामना पूरी होती, दु:ख दारिद्र कष्ट हरते।।
चिंतामणि पारस कल्पद्रुम, मन चिंतित फलदायक हैं।
वीतराग छवि दर्श अहो!, अनुपम अचिंत्य फलदायक हैं।।१७।।
युग-युग से यह मूर्ति जगत को, शुभ संदेश सुनाती है।
यदि सुख शांति विभव चाहो, सब त्याग करो सिखलाती है।।
यदि नश्वर धन इन्द्रिय सुख तज, तनु निर्मम बन जावोगे।
अविनश्वर अनंत सुख पा, त्रैलोक्य धनी बन जावोगे।।१८।।
जय जय संवत्सर निश्चल तनु! जय जय महा तपस्वी हो।
जातरूपधर! विश्व हितंकर! जय जय महा मनस्वी हो।।
नाभिराज के पौत्र मदनतनु, पुरुदेवात्मज नमो नमो।
मात सुनंदासुत भरताधिप-नुत पादाम्बुज नमो नमो।।१९।।
इन्द्र-नरेन्द्र-मुनीन्द्र भक्ति से, घिस-घिस शीश प्रणाम करें।
लिखी भाल में कुकर्म रेखा, मानों घिस-घिस नाश करें।।
चित्सुखशांति सुधारस दाता, भविजन त्राता नमो नमो।
शिवपथनेता शर्म विधाता, मन-वच-तन से नमो नमो।।२०।।
जो जन भक्तिभाव से प्रभु का, गुण संकीर्तन करते हैं।
नर-सुर के अभ्युदय भोगकर, नि:श्रेयस को पाते हैं।।
मुनिजन हृदय सरोरुहबंधु! भवि कुमुदेंदु! नमो नमो।
भुक्तिमुक्ति फलप्रद! गुण सिंधु! हे जग बंधु! नमो नमो।।२१।।
हे दु:खित जनवत्सल! शरणागत-प्रतिपालक! बाहुबली।
त्राहि त्राहि हे करुणासिंधो! पाहि जगत से महाबली।।
जय जय मंगलमय लोकोत्तम, जय जय शरणभूत जग में।
जय जय सकल अमंगल दु:खहर! जय जयवंतो प्रभु जग में।।२२।।
जय जय हे जग पूज्य! जिनेश्वर, जय जय श्री गोम्मटेश्वर की।
जय जय जन्म मृत्युहर! सुखकर! जय जय योग चक्रेश्वर की।।
जय जय हे त्रैलोक्य हितंकर, सब जग में मंगल कीजे।
जय जय रत्नत्रय पूर्ती कर, ‘केवलज्ञानमती’ दीजे।।२३।।
-दोहा-
श्रवणबेलगुल तीर्थ पर, सत्तावन फुट तुंग।
श्री बाहूबलि मूर्ति को, जजत लहें भवि पुण्य।।२४।।
ॐ ह्रीं अनन्तबलप्राप्तये श्रीबाहुबलिस्वामिने जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।।
-गीता छंद-
श्रीबाहुबली विधान ये, जो भव्य श्रद्धा से करें।
वे रोग शोक दरिद्र दुखहर, सर्वसुख संपति भरें।।
मनबल वचनबल प्राप्त कर, तनु में अतुलशक्ती धरें।
निज ‘ज्ञानमति’ कैवल्यकर, फिर सिद्धिकन्या वश करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
इति बाहुबली विधानं समाप्तम्।