जैनेंद्र भाषित तपश्चर्या जो करें नित चाव से।
वे विक्रिया ऋद्धी प्रगट वरते अपूरब भाव से।।
उन ऋद्धिधर ऋषिनाथ को मैं भक्ति से पूजूँ यहाँ।
इन ऋद्धि ग्यारह भेद विक्रिय को जजूँ थापूँ यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
हिमाद्रि गंग नीर लाय, स्वर्ण भृंग में भरूँ।
गणेश पादपद्म धार, देत ही तृषा हरूँ।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।१।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंध अष्ट गंध लेय हर्ष भाव ठानिये।
गणेश पाद पद्म चर्च मोह ताप हानिये।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।२।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
कमोद जीरिका अखंड शालि धान्य लाइये।
सुपुंज आप पास दे अखंड सौख्य पाइये।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।३।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
गुलाब कुंद पारिजात पुष्प अंजली लिये।
गणेश पाद पूज कामदेव को हनीजिये।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।४।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सुहाल फेनि लाडु व्यंजनादि भांति भांति के।
गणेश पाद पूजते भगे क्षुधा पिशाचिके।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।५।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखंड ज्योति हेतु दीप स्वर्ण पात्र में जले।
गणेश पाद पूजते हि मोह ध्वांत भी टले।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।६।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशांग धूप लेय अग्निपात्र में सुखेइये।
गणेश सन्निधी तुरंत कर्म भस्म देखिये।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।७।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इलायची लवंग द्राक्ष औ बदाम लाइये।
गणेश को चढ़ाय मुक्तिवल्लभा को पाइये।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।८।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादि अष्ट द्रव्य लेय अर्घ को बनाइये।
अनर्घ सौख्य हेतु नित्य नाथ को चढ़ाइये।।
विक्रियर्द्धि ग्यारहों को, भक्त पूजते सदा।
महान भक्ति भाव धार, आज मैं जजूँ मुदा।।१०।।
ॐ ह्रीं एकादशविक्रियाऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा— विक्रिय ऋद्धि समूह को, जलधारा से नित्य।
पूजत ही शांति मिले, चहुंसंघ में भी इत्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल बेला कुसुम, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
पुष्पांजलि विकिरंत, गणधर गुरु के चरण में।
विक्रियऋद्धि धरंत, विष्णुकुमार मुनी नमूँ।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
अणु बराबर छिद्र, में जो ऋषि घुस जावें।
चक्रवर्ति का कटक क्षण में पूर्ण बनावें।।
उनके अणिमा ऋद्धि धरे विक्रिया भारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूूं जगत् हितकारी।।१।।
ॐ ह्रीं अणिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू बराबर देह, विक्रिय से जो करते।
महिमा ऋद्धि समेत तप बल से ही बनते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।२।।
ॐ ह्रीं महिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायू से भी अधिक हल्की देह बनावें।
लघिमा ऋद्धिविशिष्ट, मुनिवर के गुण गावें।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।३।।
ॐ ह्रीं लघिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अधिक भारयुत वङ्का सदृश देह धरें जो।
गरिमा ऋद्धि धरंत, तप अतिशायि करें जो।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को हितकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।४।।
ॐ ह्रीं गरिमाविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूमी पर ही रहें, सूर्य चंद्र छू लेते।
अंगुलि से ही साधु मेरु शिखर छू लेते।।
प्राप्तिनाम विक्रिया, सब जन को हितकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।५।।
ॐ ह्रीं प्राप्तिविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू पर भी जलसदृश उन्मज्जन कर सकते।
जल में भी भू सदृश, सरल गमन कर सकते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को हितकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।६।।
ॐ ह्रीं प्राकाम्यविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में बढ़े प्रभुत्व, यह ईशत्व कहावे।
सब जन करें प्रशंस, यह अतिशय बन आवे।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।७।।
ॐ ह्रीं ईशत्वविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन वश में होंय, सब गुरु के गुण गाते।
ऋद्धि वशित्व समेत, जजत सभी दुख जाते।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।८।।
ॐ ह्रीं वशित्वविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके बल से शैल, शिला आदि के मधि से।
वृक्ष आदि में छेद, किये बिना ही चलते।।
विक्रिय अप्रतिघात, ऋद्धि जगत उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।९।।
ॐ ह्रीं अप्रतिघातविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धि से साधु, हों अदृश्य नहिं दिखते।
ऋद्धी अन्तर्धान, तप बल से ही उपजे।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।१०।।
ॐ ह्रीं अंतर्धानविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकहि साथ अनेक रूप बना सकते जो।
काम रूप यह ऋद्धि, तप बल से प्रगटे जो।।
विक्रिय ऋद्धि माहात्म्य, सब जन को उपकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय बनूँ जगत् हितकारी।।११।।
ॐ ह्रीं कामरूपविक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मन वचन तन के विकारों को तजें शुचिभाव से।
उनके प्रगट हो विक्रिया ऋद्धी विशुद्धि प्रभाव से।।
विष्णूकुमार मुनी सदृश सब विक्रियाधर को नमूँ।
उन साधु को अरु ऋद्धि को पूजूँ स्वपरिणति में रमूूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं एकादशविधिविक्रियाऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं विक्रियाऋद्धिभ्यो नम:।
विक्रिय ऋद्धी प्राप्त कर, हुये सिद्ध भगवंत।
गाऊँ उन गुणमालिका, मिले भवोदधि अंत।।१।।
जय जय श्रीगणधर गुरु महान, जय ऋद्धि सिद्धिवर सुगुण खान।
जय मूल सुगुण अठवीस सांच, जय पंच महाव्रत समिति पाँच।।२।।
जय पंचेन्द्रिय वश में करंत, जय षट् आवश्यक नित करंत।
जय भूमि शयन कर केशलुंच, जय स्थिति भोजन एक भुक्त।।३।।
जय नहिं स्नान कभी करंत, जय दंत अधावन व्रत धरंत।
जय वस्त्ररहित निर्ग्रंथ वेष, जय दिशावस्त्र धर शुद्ध वेष।।४।।
जय मूलगुणों से युत महंत, जय छत्तिस उत्तरगुण धरंत।
जय बारहविध तप को तपंत, जय बाइस परिषह को सहंत।।५।।
जय आकिंचन व्रत को धरंत, जय रत्नत्रयनिधि से महंत।
जय काम क्रोध मद मोह मार, जय रागद्वेष ईर्ष्या विसार।।६।।
जय जय कषाय अरि को जयंत, जय रोग शोक का किया अंत।
जय तुम गुणमणि महिमा अपार, जय ऋषिगण भी निंह लहे पार।।७।।
जय निज आतम अनुभव करंत, जय ध्यानामृत सुख स्वादवंत।
जय भाक्तिक जन के दुख हरंत, जय सिद्धि धाम देते तुरंत।।८।।
जय तप से विक्रिय ऋद्धि प्राप्त, जय जय भक्तों के तुम्हीं आप्त।
जय जय विक्रिय ऋद्धी महान्, मैं नमॅूं तुम्हें गुणमणि निधान।।९।।
ऋद्धि प्राप्त मुनि को नमूँ, नमॅूं विक्रिया ऋद्धि।
‘‘ज्ञानमती’’ शैवल्य कर, पाऊँ नवनिधि सिद्धि।।१०।।
ॐ ह्रीं एकादशविधविक्रियाऋद्धिभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।