—स्थापना (गीता छंद)—
सीमंधरादिक बीस तीर्थंकर विदेहों में रहें।
जिनकी सभा में आज भी भविवृंद निज कल्मष दहें।।
उन विद्यमान जिनेश की मैं नित करूँ आराधना।
पूजन करूँ अति भक्ति से निज तत्त्व की ही साधना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं विदेहक्षेत्रस्थसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरसमूह !
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं विदेहक्षेत्रस्थसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरसमूह !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं विदेहक्षेत्रस्थसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरसमूह !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
—अथ अष्टक (स्रग्विणी छंद)—
पद्म द्रह का सलिल गंधवासित लिया।
नाथ चरणाब्ज में तीन धारा किया।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य:जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध कर्पूर चंदन घिसा के लिया।
आप पादाब्ज में चर्च के अर्चिया।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य:संसारतापविनाशनाय
चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
कौमुदी धौत तंदुल लिये थाल में।
आप पादाग्र में पुंज को धार मैं।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतंं निर्वपामीति स्वाहा।
मौलसिरि मालती पुष्प ताजे लिये।
कामशर के जयी आपको अर्पिये।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ियाँ लड्डुकादी भरे थाल में।
पूजते भूख व्याधी नशे हाल में।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्योति कर्पूर की ध्वांत हर जगमगे।
दीप से अर्चते ज्ञानज्योती जगे।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय
दीपंं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशगंध खेऊँ सदा अग्नि में।
कर्म संपूर्ण हों भस्म तुम भक्ति में।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपंं
निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर नींबू बिजौरा लिया।
मोक्षफल हेतु प्रभु आपको अर्पिया।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य में रत्न सुंदर मिले हैं भले।
पूजते ’’ज्ञानमति’’स्वात्म निधियाँ मिलें।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यंं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिधारा करूँ नाथ पादाब्ज में।
शांति आत्यंतिकी शीघ्र हो नाथ में।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कुंद कल्हार जूही चमेली खिले।
पुष्प अंजलि करुँ सौख्य संपति मिले।।
बीस तीर्थंकरों की करूँ अर्चना।
हो प्रभू भक्ति से मोह की वंचना।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्रीसीमंधरादिविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यो नम:।
—पंचचामर छंद—
जयो जयो जयो जिनेंद्र इंद्रवृंद बोलते।
त्रिलोक में महागुरू सु आप नाम तोलते।।
सुधन्य धन्य धन्य आप साधुवृंद बोलते।
जिनेश आप भक्त ही तो निज किवांड खोलते।।१।।
समोसरण में आपके महाविभूतियाँ भरीं।
अनेक ऋद्धि सिद्धियाँ सुआप पास में खड़ीं।।
अनंत अंतरंग गुण समूह आप में भरें।
गणीन्द्र औ सुरेंद्र चक्रि आप संस्तुती करें।।२।।
हरिन्मणी के पत्र पद्मराग के सुपुष्प हैं।
अशोक वृक्ष देखते समस्त शोक अस्त हैं।।
अनेक देववृंद पुष्पवृष्टि आप पे करें।
सुगंध वर्ण वर्ण के सुमन खिले खिले गिरें।।३।।
जिनेश आपकी ध्वनी अनक्षरी सुदिव्य है।
समस्त भव्य कर्ण में करे सुअर्थ व्यक्त है।।
न देशना कि चाह है न तालु ओष्ठ पुट हिलें।
असंख्य जीव के धुनी से चित्त पद्मिनी खिलें।।४।।
सुचामरों कि पंक्तियाँ ढुरें ये सूचना करें।
नमें तुम्हें सुभक्त वे हि ऊर्ध्व में गमन करें।।
सुसिंहपीठ आपका अनेक रत्न से जड़ा।
विराजते सु आप हैं अत: महत्व है बढ़ा।।५।।
प्रभा सुचक्र कोटि सूर्य से अधिक प्रभा करे।
समस्त भव्य के उसी में सात भव दिखा करें।।
सुदेवदुन्दुभी सदा गभीर नाद को करे।
असंख्य जीव का सुचित्त खींच के वहाँ करे।।६।।
सफेद छत्र तीन जो जिनेश शीश पे फिरें।
प्रभो त्रिलोकनाथ आप सूचना यही करें।।
सुप्रातिहार्य आठ ये हि बाह्य की विभूतियाँ।
सुरेश ने रचे तथापि आप पुण्यराशियाँ।।७।।
प्रभो !तुम्हीं महान मुक्तिवल्लभापती कहे।
प्रभो! तुम्हीं प्रधान ईश सर्व विश्व के कहे।।
प्रभो! तुम्हें सदा नमें सुभक्ति आप में धरें।
अनंत काल तक वहीं अनंत सौख्य को भरें।।८।।
—दोहा—
तुम गुण सूत्र पिरोय स्रज, विविध वर्णमय फूल।
धरें कण्ठ उन ‘‘ज्ञानमति’’, लक्ष्मी हो अनुकूल्।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यंं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
जो विहरमाण जिनेंद्र बीसों का सदा अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोग कर फिर सर्व कल्याणक धरें।
स्वयमेव केवल ‘‘ज्ञानमति’’हो मुक्ति लक्ष्मी वश करें।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पाञ्जलि: ।।