-स्थापना-गीता छंद –
सोलह सुकारण भावना में, है तृतिय जो भावना।
शील अरु व्रत में नहीं, अतिचार हों यह कामना।।
इस भावना की अर्चना में मैं करूँ आह्वानना।
मन में बिठाऊँ भावना कर पुष्प से स्थापना।।१।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचार भावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचार भावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचार भावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-शंभु छंद-
मैं पद्म सरोवर का निर्मल जल, झारी में भर लाया हूँ।
निज जन्म जरा मृति नाश हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।१।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मिला चंदन घिस कर, मैं स्वर्ण पात्र भर लाया हूँ।
संसार ताप के नाश हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।२।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं बासमती के शुद्ध धवल, तंदुल धो करके लाया हूँ।
बस अक्षय पद की प्राप्ति हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँâ मिले तब मोक्ष मही।।३।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं कल्पवृक्ष के फूलों की, माला ले करके आया हूँ।
निज काम व्यथा के नाश हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।४।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मीठे नमकीन सरस व्यंजन का, थाल सजा कर लाया हूँ।
निज क्षुधा रोग विध्वंस हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।५।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन थाली में घृत दीपक ले, आरति करने आया हूँ।
निज मोह तिमिर के नाश हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।६।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं धूप दशांगी को अग्नी में, ज्वालन करने आया हूँ।
निज अष्ट कर्म विध्वंस हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।७।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
खट्टे मीठे नाना विध के, फल थाल सजाकर लाया हूँ।
मैं मोक्ष महाफल प्राप्ति हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।८।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
‘‘चन्दनामती’’ आठों द्रव्यों का, अर्घ्य बनाकर लाया हूँ।
मैं पद अनर्घ्य की प्राप्ति हेतु, प्रभु पूजन करने आया हूँ।।
हों शील व व्रत अतिचार रहित, बस पूजन का है लक्ष्य यही।
मैं यथाशक्ति इनका पालन, कर सवूँ मिले तब मोक्ष मही।।९।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- शांतीधारा मैं करूँ, लेकर प्रासुक नीर।
जग में शांति रहे सदा, मैं पाऊँ भव तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि जिनपद करूँ, नाना पुष्प मंगाय।
निज जीवन पुष्पित करूँ, गुण सुरभी महकाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(तृतीय वलय में 27 अर्घ्य, 1 पूर्णार्घ्य)
दोहा- शीलव्रतेष्वनतिचार की, पूजन करूँ महान।
मण्डल पर पुष्पांजली, करके पाऊँ ज्ञान।।
इति मण्डलस्योपरि तृतीयदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चौबोल छंद-
वचनगुप्ति-मनगुप्ती-ईर्या, समिती को जो धरते हैं।
देख शोधकर वस्तु उठाना-रखना-भोजन करते हैं।।
पाँच भावना सहित अहिंसा, व्रत का जो पूजन करते।
शीलव्रतों में अनतिचार की, शुद्ध भावना वे धरते।।१।।
ॐ ह्रीं पंचभावनासहितनिरतिचारअहिंसाव्रतरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच व्रतों में दुतिय सत्य का, पालन भी है प्रमुख कहा।
क्रोध लोभ भीरुत्व हास्य, अनुवीची भाषण रहित महा।।
पाँच भावना सहित सत्य व्रत, का जो अर्चन करते हैं।
शीलव्रतों में अनतिचार, भावना वही जन धरते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं पंचभावनासहितनिरतिचारसत्यव्रतरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शून्यागारावास विमोचित, आवासों में जो रहते।
परोपरोधाकरण भैक्ष्यशुद्धी, आदिक पालन करते।।
जो अचौर्य व्रत पंच भावना, सहित सदा पूजन करते।
शीलव्रतों में अनतिचार की, शुद्ध भावना वे धरते।।३।।
ॐ ह्रीं पंचभावनासहितनिरतिचारअचौर्यव्रतरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
स्त्रीराग कथा सुनने का, त्याग सदा जो करते हैं।
अंग निरीक्षण विषयभोग, को याद नहीं जो करते हैं।।
ब्रह्मचर्य व्रत पंच भ्ाावना, सहित का जो अर्चन करते।
शीलव्रतों में अनतिचार की, शुद्ध भावना वे धरते।।४।।
ॐ ह्रीं पंचभावनासहितनिरतिचारब्रह्मचर्यव्रतरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पंचेन्द्रिय के इष्ट-अनिष्ट, आदि में राग न जो करते।
द्वेषरूप भी भाव न करके, परिग्रह पाप से हैं बचते।।
पंचभावना सहित परिग्रह, त्याग का जो अर्चन करते।
शीलव्रतों में अनतिचार की, शुद्ध भावना वे धरते।।५।।
ॐ ह्रीं पंचभावनासहितनिरतिचारपरिग्रहत्यागव्रतरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों समिति में प्रथम समिति, ईर्या समिती कहलाती है।
चउ हाथ भूमि को देख गमन, करने से यह पल जाती है।।
इस समिति सहित मुुनि आचार्यों की, पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं ईर्यासमितिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों समिति में दुतिय समिति, भाषा समिती कहलाती है।
हितमित प्रिय वाणी धारक, मुनियों में पाई जाती है।।
इस समिति सहित मुुनि आचार्यों की, पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।७।।
ॐ ह्रीं भाषासमितिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों समिति में तृतिय समिति, एषणा समिति कहलाती है।
छ्यालीस दोष विरहित आहार, लेने से यह पल जाती है।।
इस समिति सहित मुुनि आचार्यों की, पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं एषणासमितिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आदाननिक्षेपण नाम सहित, समिति चतुर्थ कहलाती है।
शोधन कर वस्तु उठाने रखने, से ही यह पल जाती है।।
इस समिति सहित मुुनि आचार्यों, की पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं आदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
पाँचों समिति में पंचम जो, उत्सर्ग समिति कहलाती है।
मल मूत्र विसर्जन करने में, यह सावधानी बतलाती है।।
इस समिति सहित मुुनि आचार्यों, की पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।१०।।
ॐ ह्रीं उत्सर्गसमितिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनगुप्ति वचनगुप्ति व काय-गुप्ती ये तीन कहाती हैं।
मन पर अनुशासन कर लेने से, प्रथम गुप्ति पल जाती है।।
इस गुप्ति सहित मुनि आचार्यों, की पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।११।।
ॐ ह्रीं मनगुप्तिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनगुप्ति वचनगुप्ती व काय-गुप्ती ये तीन कहाती हैं।
जिह्वा पर अनुशासन करने से, वचन गुप्ति पल जाती है।।
इस गुप्ति सहित मुनि आचार्यों, की पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।१२।।
ॐ ह्रीं वचनगुप्तिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनगुप्ति वचनगुप्ती व काय-गुप्ती ये तीन कहाती हैं।
तनचेष्टा पर अनुशासन करके, कायगुप्ति पल जाती है।।
इस गुप्ति सहित मुनि आचार्यों, की पूजन जो भी करते हैं।
वे शीलव्रतों में अनतिचार, भावना स्वयं ही धरते हैं।।१३।।
ॐ ह्रीं कायगुप्तिपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसादिक पाँचों पापों का जो, आंशिक त्याग किया जाता।
वह ही अणुव्रत कहलाता है, श्रावक में वो पाया जाता।।
उनमें से प्रथम अहिंसा अणुव्रत, की पूजन का भाव जगा।
शीलव्रतों में अनतिचार के, भावों से मिथ्यात्व भगा।।१४।।
ॐ ह्रीं अहिंसाणुव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसादिक पाँचों पापों का जो, आंशिक त्याग किया जाता।
वह ही अणुव्रत कहलाता है, श्रावक में वो पाया जाता।।
उनमें से सत्यअणुव्रत दूजे, की पूजन का भाव जगा।
शीलव्रतों में अनतिचार के, भावों से मिथ्यात्व भगा।।१५।।
ॐ ह्रीं सत्याणुव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसादिक पाँचों पापों का जो, आंशिक त्याग किया जाता।
वह ही अणुव्रत कहलाता है, श्रावक में वो पाया जाता।।
उनमें से तीजे अचौर्य, अणुव्रत पूजन का भाव जगा।
शीलव्रतों में अनतिचार के, भावों से मिथ्यात्व भगा।।१६।।
ॐ ह्रीं अचौर्याणुव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसादिक पाँचों पापों का जो, आंशिक त्याग किया जाता।
वह ही अणुव्रत कहलाता है, श्रावक में वो पाया जाता।।
उनमें से चौथे ब्रह्मचर्य, अणुव्रत पूजन का भाव जगा।
शीलव्रतों में अनतिचार के, भावों से मिथ्यात्व भगा।।१७।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्याणुव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसादिक पाँचों पापों का जो, आंशिक त्याग किया जाता।
वह ही अणुव्रत कहलाता है, श्रावक में वो पाया जाता।।
उनमें से परिग्रहपरीमाण, अणुव्रत पूजन का भाव जगा।
शीलव्रतों में अनतिचार के, भावों से मिथ्यात्व भगा।।१८।।
ॐ ह्रीं परिग्रहपरिमाणअणुव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावक के पाँच अणुव्रत त्रय-गुणव्रत चउ शिक्षाव्रत जानो।
उनमें तीनों गुणव्रत में से, पहले दिग्व्रत को पहचानो।।
इस व्रत में दशों दिशा के, गमनागमन की सीमा होती है।
तब शीलव्रतों में अनतिचार, भावना की रक्षा होती है।।१९।।
ॐ ह्रीं दिग्व्रतनामगुणव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावक के पाँच अणुव्रत त्रय-गुणव्रत चउ शिक्षाव्रत जानो।
उनमें हि देशव्रत नामक दूजे, गुणव्रत को तुम पहचानो।।
इस व्रत में गली मुहल्ले की, भी मर्यादा बन जाती है।
तब शीलव्रतों में अनतिचार, भावना हृदय में आती है।।२०।।
ॐ ह्रीं देशव्रतनामगुणव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावक के पाँच अणुव्रत त्रय-गुणव्रत चउ शिक्षाव्रत जानो।
उनमें हि अनर्थदण्डविरति, गुणव्रत तृतीय को पहचानो।।
पापोपदेश हिंसादानादिक, पाँचों का तुम त्याग करो।
फिर शीलव्रतों में अनतिचार, की पूजन में अनुराग करो।।२१।।
ॐ ह्रीं अनर्थदण्डविरतिनामगुणव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
त्रय गुणव्रत के पश्चात् चार, शिक्षाव्रत भी पालन करना।
मनवचतन कृतकारित अनुमति, से पाप त्याग समता धरना।।
यह सामायिक शिक्षाव्रत है, इसके पालन से सुख मिलता।
अतिचार रहित शीलादि व्रतों की, पूजन से भव दुख टलता।।२२।।
ॐ ह्रीं सामायिकनामशिक्षाव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
त्रय गुणव्रत के पश्चात् चार, शिक्षाव्रत भी पालन करना।
अष्टमी चतुर्दशि को प्रोषध, उपवास यथाशक्ती करना।।
यह है द्वितीय शिक्षाव्रत इस, पालन से आतम सुख मिलता।
अतिचार रहित शीलादि व्रतों की, पूजन से भव दुख टलता।।२३।।
ॐ ह्रीं प्रोषधोपवासनामशिक्षाव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
त्रयगुणव्रत के पश्चात् चार, शिक्षाव्रत भी पालन करना।
भोगोपभोगपरिमाण नाम के, व्रत को तुम धारण करना।।
यह है तृतीय शिक्षाव्रत इसका, पालन करके सुख मिलता।
अतिचार रहित शीलादि व्रतों की, पूजन से भव दुख टलता।।२४।।
ॐ ह्रीं भोगोपभोगपरिमाणनामशिक्षाव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
त्रयगुणव्रत के पश्चात् चार, शिक्षाव्रत भी पालन करना।
आहारदान के द्वारा अतिथी, संविभाग व्रत को धरना।।
यह है चतुर्थ शिक्षाव्रत इसका, पालन करके सुख मिलता।
अतिचार रहित शीलादि व्रतों की, पूजन से भव दुख टलता।।२५।।
ॐ ह्रीं अतिथिसंविभागनामशिक्षाव्रतपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जीवन में सबसे मूल्यवान, सम्यग्दर्शन को माना है।
वह मोक्षमार्ग के लिए प्रथम, सोपान उसे अब पाना है।।
सम्यक्त्व बिना आत्मा के सारे, गुण मिथ्या बन जाते हैं।
शीलादि व्रतों की शुद्धि हेतु, सम्यग्दर्शन गुण ध्याते हैं।।२६।।
ॐ ही सम्यक्त्वगुणपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चाहे गृहस्थ हों या मुनिवर, कर सकते सब सल्लेखना ग्रहण।
अपनी आयु के अन्तकाल में, कर सकते हैं समाधि मरण।।
इसके द्वारा अगले भव में भी, सुगति गमन का सुख मिलता।
अतिचार रहित शीलादि व्रतों की, पूजन से भव दुख टलता।।२७।।
ॐ ह्रीं सल्लेखनागुणपालनरूपशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
सोलहकारण में तृतिय भावना, शीलव्रतेष्वनतिचार कही।
मुनि के तेरह चारित्र व श्रावक, के बारहव्रतयुक्त सही।।
सम्यक्त्व व सल्लेखना सहित, सत्ताइस अर्घ्य चढ़ा करके।
‘‘चन्दनामती’’ शिवसुख हेतू, पूर्णार्घ्य चढ़ाऊँ आ करके।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तविंशतिगुणसमन्वितशीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै नम:।
तर्ज-कभी राम बनके………
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।टेक.।।
सोलहकारण की पूजा रचाई।
अष्ट द्रव्यों की थाली सजाई।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।१।।
सोलहकारण में है तीजी भावना।
उसमें शील और व्रत सभी पालना।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।२।।
तेरहविध चारित्र मुनि पालते।
श्रावक बारह व्रतों को धारते।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में आए।।३।।
इनमें तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत।
सात शीलनाम से ये कहे सात व्रत।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।४।।
बारह तप बाइस परिषह जो पालते।
ये हैं चौंतिस गुण कहे मुनिराज के।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।५।।
शील और व्रतों को जो भी पालते।
अपने मानव जीवन को वे सुधारते।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।६।।
इसकी पूजा करके पूज्य बन जाओगे।
आत्मसुख ‘चन्दनामति’ पाओगे।।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए मंदिर में चले आए।।७।।
ॐ ह्रीं शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।