-दोहा-
परमपुरुष परमातमा, परमानन्द स्वरूप।
आह्वानन कर मैं जजूँ, कुंथुनाथ शिवभूप।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-बसंततिलका छंद-
गंगानदी जल लिये त्रय धार देऊँ।
स्वात्मैक शुद्ध करना बस एक हेतू।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूँ मैं।
छूटूँ अनंत भव संकट से सदा जो।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर केशर घिसा कर शुद्ध लाया।
संसार ताप शम हेतु तुम्हें चढ़ाऊँ।।श्री कुंथु.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली अखंड सित धौत सुथाल भरके।
अक्षय अखंड पद हेतु तुम्हें चढ़ाऊँ।।श्री कुंथु.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब अरविंद सुचंपकादी।
कामारिजित पद सरोरुह में चढ़ाऊँ।।श्री कुंथु.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू पुआ अंदरसा पकवान नाना।
क्षुध रोग नाश हित नेवज को चढ़ाऊँ।।श्री कुंथु.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर दीप लव ज्योति करें दशों दिक्।
मैं आरती कर प्रभो निज मोह नाशूँ।।श्री कुंथु.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू सुरभि धूप जले अगनि में।
संपूर्ण पाप कर भस्म उड़े गगन में।।श्री कुंथु.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम फल अमृतसम मंगाके।
अर्पूं तुम्हें सुफल हेतु अभीष्ट पूरो।।श्री कुंथु.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अष्ट शुभद्रव्य सुथाल भरके।
पूजूँ तुम्हें सकल ‘‘ज्ञानमती’’ सदा हो।।श्री कुंथु.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
कनकभृंग में नीर, सुरभित कमलपराग से।
मिले भवोदधितीर, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल गुलाब सुपुष्प, सुरभित करते दश दिशा।
पुष्पांजलि से पूज, पाऊँ आतम निधि अमल।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
श्रावण वदि दशमी तिथी, गर्भ बसे भगवान।
इंद्र गर्भ मंगल किया, मैं पूजूँ इत आन।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रावणकृष्णादशम्यां श्रीकुंथुनाथजिनगर्भकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकम सित वैशाख की, जन्में कुंथुजिनेश।
किया इंद्र वैभव सहित, सुरगिरि पर अभिषेक।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनजन्मकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, दीक्षा ली जिनदेव।
इन्द्र सभी मिल आय के, किया कुंथु पद सेव।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल तिथि तीज में, प्रगटा केवलज्ञान।
समवसरण में कुंथुजिन, करें भव्य कल्याण।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रशुक्लातृतीयायां श्रीकुंथुनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, तिथि निर्वाण पवित्र।
कुंथुनाथ के पदकमल, जजतें बनूँ पवित्र।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनमोक्षकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
श्री तीर्थंकर कुंथु जिन, करुणा के अवतार।
पूर्ण अर्घ्य से जजत ही, मिले सौख्य भंडार।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
तीर्थंकर की अर्चना, भरे स्वात्म विज्ञान।
रोक शोक दुख वंचना, करके करे महान।।१।।
।।अथ मंडलस्योपरि तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
चौपाई (१५ मात्रा)
‘महाशोकध्वज’ आप जिनेश।
वृक्ष अशोक चिह्न परमेश।।
आप नाम सब सुख की खान।
पूजत मिलता आत्म निधान।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाशोकध्वजनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अशोक’ शोक से हीन।
आप भक्त हों शोक विहीन।।आप.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं अशोकनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘क’ नाम आत्म आधार।
सब भक्तों को सुखदातार।।आप.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं ‘क’ नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्ष की सृष्टि करंत।
‘स्रष्टा’ नाम सुरेन्द्र यजंत।।आप.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्रष्टानामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पद्मविष्टर’ तुम नाम।
आसन स्वर्णकमल तुम स्वामि।।आप.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पद्मविष्टरनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मेश’ आप विख्यात।
लक्ष्मी के स्वामी हो नाथ।।आप.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पद्मेशनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘पद्मसंभूति’ जिनेश।
चरण कमल तल कमल हमेश।।आप.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पद्मसंभूतिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मनाभि’ पंकजसम नाभि।
वंदत मिटती सर्व उपाधि।।आप.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पद्मनाभिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अनुत्तर’ तुम सम अन्य।
श्रेष्ठ नहीं प्रभु तुम ही धन्य।।
आप नाम सब सुख की खान।
पूजत मिलता आत्म निधान।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनुत्तरनामसमन्विताय श्री कुंथुंनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मयोनि’ माता का गर्भ।
पद्माकृति से तुम उत्पत्ति।।आप.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं पद्मयोनिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगद्योनि’ धर्ममय जगत्।
उसकी उत्पत्ति कारण जिनप।।आप.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं जगद्योनिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘इत्य’ आप की प्राप्ती हेतु।
भविजन तप तपते बहुभेद।।आप.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं इत्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्तुत्य’ इन्द्र मुनि आदि।
सबकी स्तुति योग्य अबाधि।।आप.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्तुत्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘स्तुतीश्वर’ कहे।
स्तुति के ईश्वर ही रहें।।आप.।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्तुतीश्वरनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्तवनार्ह’ स्तुति के योग्य।
आप समान न अन्य मनोज्ञ।।आप.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं स्तवनार्हनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हृषीकेश’ इंद्रिय के ईश।
विजितेंद्रिय हो सर्व अधीश।।आप.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं हृषीकेशनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितजेय’ अनूप।
जीता मोह आदि अरि भूप।।आप.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं जितजेयनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करने योग्य क्रियायें सर्व।
पूर्ण किया ‘कृतक्रिय’ नामार्ह।।आप.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं कृतक्रियनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह गण के स्वामी आप।
अत: ‘गणाधिप’ हो निष्पाप।।आप.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं गणाधिपनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वजनों में तुम ही श्रेष्ठ।
अत: जगत में हो ‘गणज्येष्ठ’।।आप.।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं गणज्येष्ठनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणना योग्य आप ही ‘गण्य’।
चौरासी लख गुण युत धन्य।।आप.।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं गण्यनामसमन्विताय श्री कुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण पवित्र आप ही ‘पुण्य’।
सबको पावन करें सुपुण्य।।आप.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब गण शिवपथ में ले जाव।
‘गणाग्रणी’ प्रभु आप कहाव।।आप.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं गणाग्रणीनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानाद्यनंत गुण की खान।
नाथ ‘गुणाकर’ आप महान।।आप.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणाकरनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लाख चुरासी गुण की वार्धि।
‘गुणाम्भोधि’ हरते भव व्याधि।।आप.।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणाम्भोधिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग-भरतरी
नाथ! ‘गुणज्ञ’ कहावते, गुणमणि ज्ञाता आप।
सर्वदोष मुझ हान के, करो शीघ्र निष्पाप।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणज्ञनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणनायक’ चौरासी लख, गुणमणि के हो नाथ।
रोग शोक दुखनाश कर, गुण से करो सनाथ।।नाम.।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणनायकनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्त्व आदि गुण आदरा, ‘गुणादरी’ तुम नाम।
क्रोध मोह सब नाशिये, झुक झुक करूँ प्रणाम।।नाम.।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणादरिन्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रजतम आदि विभावगुण, नाश किया प्रभु आप।
अत: ‘गुणोच्छेदी’ भये, करो मुझे निष्पाप।।नाम.।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणोच्छेदिन्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैभाविक गुण हीन हो, ‘निर्गुण’ कहें मुनीश।
या निश्चित ज्ञानादि गुण, धरते निर्गुण ईश।।नाम.।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्गुणनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यगी’ पुण्यमय, पावनवाणी आप।
मुझ वाणी पावन करो हरो सकल भव ताप।।नाम.।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यगीर्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणयुत और प्रधान हो, अत: नाम ‘गुण’ आप।
भव्य आपको ही गुने, हरो सकल यम ताप।।नाम.।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शरण्य’ हो जगत में, शरणागत प्रतिपाल।
सब दुख मथन करो सदा, नमूँ नमूँ नत भाल।।नाम.।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं शरण्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यवाक्’ प्रभु तुम वचन, भरें पुण्य भण्डार।
आतम निधि को देय के, करें मृत्यु संहार।।नाम.।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यवाक््नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूत’ आप पावन परम, भक्तन करो पवित्र।
अंतर आत्म उपाय से, लहूँ परमपद शीघ्र।।नाम.।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूतनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वरेण्य’ मुक्तीरमा, वरण किया स्वयमेव।
सबमें श्रेष्ठ तुम्हीं कहे, करो सकल दुख छेव।।नाम.।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं वरेण्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यनायक’ तुम्हीं, सकल पुण्य के ईश।
पुण्यसंपदा देउ मुझ, नमूँ नमूँ नत शीश।।नाम.।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यनायकनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अगण्य’ गणना नहीं, माप रहित गुण आप।
मेरे अनवधि गुण मुझे, देय हरो संताप।।नाम.।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अगण्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यधी’ पावना, बुद्धि आपकी शुद्ध।
मुझ मन पावन कीजिये, होय आतमा शुद्ध।।नाम.।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यधीनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुण्य’ सर्वगण हित किया, गुण अनंत युत आप।
सर्वगुणों से पूर्ण कर, हरो दोष दुख पाप।।नाम.।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुण्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘पुण्यकृत्’ आपही, किया पुण्य हरपाप।
सब जन मन पावन किया, हो पवित्र निष्पाप।।नाम.।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यकृत्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यशासन’ वहाँ, तुम शासन-मत शुद्ध।
आतम अनुशासन करूँ, देवो ऐसी बुद्धि।।नाम.।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यशासननामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्माराम’ तुम्हीं प्रभो! धर्मोद्यान विशाल।
छाया फल दे स्वर्ग शिव, हरिये ताप दयालु।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।४३।।
ॐ ह्रीं अर्हं धर्मारामनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘गुणग्राम’ हैं, मूलोत्तर गुण युक्त।
इंद्रियगांव उजाड़के, आप हुये जग मुक्त।।नाम.।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुणग्रामनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यापुण्यनिरोधका’, शुद्ध आत्म में लीन।
पुण्य पाप को रोक के, भये मुक्ति आधीन।।नाम.।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यापुण्यनिरोधकनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पापापेत’ तुम्हीं प्रभो! पाप रहित निष्पाप।
मेरे सब संकट हरो, पुण्य भरो हत पाप।।नाम.।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पापापेतनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विपापात्मा’ कहे, पाप हीन अतिशुद्ध।
मेरे सब अघ क्षय करो, होऊँ सिद्ध विशुद्ध।।नाम.।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं विपापात्मन्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विपाप्मा’ कर्म अघ, चूर किया भगवान्।
तुम भक्ती से भव्यजन, बने सकल धनवान।।नाम.।।४८।।
ॐ ह्रीं अर्हं विपाप्मान्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव नोकर्ममल कल्मष धोकर शुद्ध।
प्रभो! ‘वीतकल्मष’ तुम्हीं मुझे करो झट शुद्ध।।नाम.।।४९।।
ॐ ह्रीं अर्हं वीतकल्मषनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘निर्द्वंद्व’ हैं, द्वंद्व-कलह से मुक्त।
सर्व परिग्रह हीन हैं, करो हमें भव मुक्त।।नाम.।।५०।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्द्वंद्वनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग-वंदों दिगंबर गुरू……….
प्रभु आप ‘निर्मद’ आठ विध मद रहित पूज्य महान।
तुम भक्त अतिशय स्वाभिमानी आत्म गौरववान।।
तुम नाम की अर्चा करूँ मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।५१।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्मदनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शांत’ क्रोधादी कषायें नष्ट कर दी आप।
तुम पद कमल की भक्ति भी करती भविक मन शांत।।तुम.।।५२।।
ॐ ह्रीं अर्हं शांतनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्मोह’ प्रभु सब मोह अरु अज्ञान से भी दूर।
तुम भक्त का चारित्र दर्शन मोह करते दूर।।तुम.।।५३।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्मोहनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘निरुपद्रव’ उपद्रव, उपसरग से हीन।
तुम भक्त भी जड़मूल से करते उपद्रव क्षीण।।तुम.।।५४।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरुपद्रवनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु दिव्यचक्षु नेत्रस्पंदन रहित विख्यात।
इससे कहें मुनि ‘निर्निमेष’ सुपाय ज्ञानविकास।।तुम.।।५५।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्निमेषनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निराहार’ न आपको है कभी कवलाहार।
तुम भक्त भी आहार विरहित होंय निर्नीहार।।तुम.।।५६।।
ॐ ह्रीं अर्हं निराहारनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्क्रिय’ प्रभो! सामायिकादि क्रियाओं से शून्य।
संसार की सबही क्रियाओं से रहित सुखपूर्ण।।तुम.।।५७।।
ॐ ह्रीं अर्हं निष्क्रियनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘निरुपप्लव’ विघन बाधारहित भगवान।
तुम पाद अर्चन से सभी निर्विघ्न होते काम।।तुम.।।५८।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरुपप्लवनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निष्कलंक’ कलंक-अपवादादि अघ से हीन।
संपूर्ण कर्मकलंक नाशा विश्वज्ञान प्रवीण।।
तुम नाम की अर्चा करूँ मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।५९।।
ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरस्तैना’ सर्व एनस-पाप से हो दूर।
तुम भक्त भी मोहारि अघ नाशन करें बन शूर।।तुम.।।६०।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरस्तैनस्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्धूतआगस्’ आप हैं अपराध अघ से हीन।
हे नाथ मुझ अपराध नाशो करो ज्ञान अधीन।।तुम.।।६१।।
ॐ ह्रीं अर्हं निर्धूतागस्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरास्रव’ संपूर्ण आस्रव रोक संवररूप।
मुझ पाप आस्रव नाशिये हो शुद्ध आतमरूप।।तुम.।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरास्रवनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘विशाल’ अनुपम शांति देते नित्य।
सबसे महान-विशाल मानें नमूँ मैं धर प्रीत्य।।तुम.।।६३।।
ॐ ह्रीं अर्हं विशालनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘विपुलज्योति’ समस्त लोकालोकव्यापक ज्ञान।
तुम ज्ञानज्योति से हनें भवि मोह ध्वांत महान्।।तुम.।।६४।।
ॐ ह्रीं अर्हं विपुलज्योतिर्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अतुल’ तुलनारहित जग में मुक्तिलक्षमीनाथ।
निंह तोल सकते गुण तुम्हारे सर्व गण के नाथ।।तुम.।।६५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अतुलनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘अचिन्त्यवैभव’ विभव त्रिभुवन मान्य।
मन से न सुरपति योगिगण भी सोच सकते साम्य।।तुम.।।६६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्यवैभवनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘सुसंवृत’ आप सम्यक पूर्ण संवर युक्त।
तुम पदकमल की भक्ति से हों भव्य आस्रव मुक्त।।तुम.।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुसंवृतनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगुप्तात्मा’ आप आत्मा कर्मअरि से गुप्त।
तुम भक्त भी मन वचन कायिक गुप्ति से हों युक्त।।तुम.।।६८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुगुप्तात्मन्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुबुध’ अच्छी तरह त्रिभुवन जानते हैं आप।
मुझको निजातम तत्त्व का सुखबोध देवो आज।।तुम.।।६९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुबुधनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुनयतत्त्ववित्’ सापेक्ष नय का मर्म।
जानों तुम्हीं बतला दिया जिन अनेकांत सुधर्म।।तुम.।।७०।।
ॐ ह्रीं अर्हं सुनयतत्त्ववित्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘एकविद्य’ सुएक केवलज्ञान विद्या युक्त।
मतिश्रुत अवधि मनपर्ययी चउज्ञान विद्या मुक्त।।तुम.।।७१।।
ॐ ह्रीं अर्हं एकविद्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘महाविद्य’ महान् केवलज्ञान विद्याधार।
अठरा महाभाषा लघु तुम सात सौ ध्वनि कार।।तुम.।।७२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाविद्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मुनि’ आप त्रिभुवन चराचर को जानते प्रत्यक्ष।
मैं आपका वंदन करूँ हो स्वात्मज्ञान प्रत्यक्ष।।तुम.।।७३।।
ॐ ह्रीं अर्हं मुनिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘परिवृढ’ सब गुणों का वर्धन किया जिनराज।
तुम वन्दना से सर्व मेरे गुण प्रगट हो आज।।तुम.।।७४।।
ॐ ह्रीं अर्हं परिवृढनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पती’ प्राणीवर्ग को संसार दुख से काढ़।
रक्षा करो त्रिभुवनपती सुर नमें रुचिधर गाढ़।।तुम.।।७५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पतिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वसंततिलका छंद
वैâवल्यज्ञानमय बुद्धि धरंत ‘धीश’।
मेरे सुज्ञानमय ज्योति करो मुनीश।।
हे कुंथुनाथ! तुम मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।७६।।
ॐ ह्रीं अर्हं धीशनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विद्यानिधी’ स्वपर शास्त्र सुज्ञानरूपा।
भंडार आप उसके निधि हैं अनूपा।।हे कुंथुनाथ।।७७।।
ॐ ह्रीं अर्हं विद्यानिधिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य की सकल वस्तु प्रतक्ष जानो।
‘साक्षी’ कहें सुरपती प्रभु ज्ञान भानू।।हे कुंथुनाथ।।७८।।
ॐ ह्रीं अर्हं साक्षिन्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्षैक मार्ग प्रकटी करते ‘विनेता’।
पादाब्ज में नित नमूँ मुझ विघ्न नाशो।।हे कुंथुनाथ।।७९।।
ॐ ह्रीं अर्हं विनेतृनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु विनाश ‘विहितांतक’ नाम धारा।
मेरे समस्त दुख रोष मिटाय दीजे।।हे कुंथुनाथ।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्हं विहितांतकनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा करो दुर्गती दुख से बचाते।
साधू ‘पिता’ कह रहे सुख के जनक हो।।हे कुंथुनाथ।।८१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पितृनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य के गुरू कहें सबके सुत्राता।
इससे ‘पितामह’ तुम्हें कहते गणीशा।।हे कुंथुनाथ।।८२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पितामहनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा करो नित भवोदधि दु:ख से ही।
‘पाता’ कहें सुरपती मुझको उबारो।।हे कुंथुनाथ।।८३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पातृनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा पवित्र कर ली निज की तुम्हीं ने।
इससे ‘पवित्र’ मुझको भि पवित्र कर दो।।हे कुंथुनाथ।।८४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पवित्रनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भव्य जन को सुपवित्र करते।
‘पावन’ कहें मुनि तुम्हें मुझ पाप नाशो।।हे कुंथुनाथ।।८५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पावननामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भव्य तप कर प्रभु आप जैसा।
होना चहें ‘गति’ अत: सबको शरण भी।।हे कुंथुनाथ।।८६।।
ॐ ह्रीं अर्हं गतिनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्राता’ समस्त जन रक्षक भी तुम्हीं हो।
पादाब्ज आश्रय लिया अतएव मैंने।।हे कुंथुनाथ।।८७।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रातृनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो वैद्य आप भव रोग विनाश कर्ता।
इससे ‘भिषग्वर’ तुम्हीं मुझ व्याधि नाशो।।हे कुंथुनाथ।।८८।।
ॐ ह्रीं अर्हं भिषग्वरनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वर्य’ आप जग में अतिश्रेष्ठ माने।
मुक्तीरमा तुम वरण अभिलाष धारे।।हे कुंथुनाथ।।८९।।
ॐ ह्रीं अर्हं वर्यनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छानुकूल सब वस्तु प्रदान करते।
इससे ‘वरद’ सुरग मोक्ष तुम्हीं प्रदाता।।हे कुंथुनाथ।।९०।।
ॐ ह्रीं अर्हं वरदनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादि से ‘परम’ आप त्रिलोक लक्ष्मी।
धारें अत: जन सभी तुम पास आते।।हे कुंथुनाथ।।९१।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा व अन्य जन को भि पवित्र करते।
इससे ‘पुमान्’ तुम ही जग के हितैषी।।हे कुंथुनाथ।।९२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुमान्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘कवि’ द्वादश अंग वर्णे।
सद्धर्म के कथन में अतिशायि पटुता।।
हे कुंथुनाथ! तुम मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।९३।।
ॐ ह्रीं अर्हं कविनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ना आदि नांत अतएव ‘पुराण पुरुष’।
आत्मा पुराण पुरुषा प्रभु आपकी है।।हे कुंथुनाथ।।९४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुराणपुरुषनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादि से अतिशयी प्रभु वृद्ध ही हो।
इस हेतु नाम तुम ‘वर्षीयान्’ पाया।।हे कुंथुनाथ।।९५।।
ॐ ह्रीं अर्हं वर्षीयान्नामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुश्रेष्ठ हो ‘ऋषभ’ नाम धरा तुम्हीं ने।
इन्द्रादि वंद्य सुरपूजित सौख्य देवो।।हे कुंथुनाथ।।९६।।
ॐ ह्रीं अर्हं ऋषभनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे देव! आप ‘पुरु’ हैं युग के विधाता।
संपूर्ण द्वादश गणों मधि मुख्य ही हो।।हे कुंथुनाथ।।९७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुरुनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्पत्ति है प्रतिष्ठा गुण की तुम्हीं से।
इससे तुम्हीं ‘प्रतिष्ठाप्रसवादि’ नामा।।हे कुंथुनाथ।।९८।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रतिष्ठाप्रसवनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण कार्य हित कारण ‘हेतु’ आप।
संपूर्ण ज्ञानमय नाथ! सुज्ञानदाता।।हे कुंथुनाथ।।९९।।
ॐ ह्रीं अर्हं हेतुनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो एकमात्र गुरू सर्व त्रिलोक में भी।
अतएव आप ‘भुवनैकपितामहा’ हो।।हे कुंथुनाथ।।१००।।
ॐ ह्रीं अर्हं भुवनैकपितामहनामसमन्विताय श्रीकुंथुनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पद्धड़ी छंद—
तुम प्रगट प्रगट अतिशय महात्म्य।
हरि हर ब्रह्मा नहिं करें साम्य।।
जिन कुंथु निरंजन निर्विकार।
मैं नमूँ सौख्य पाऊँ अपार।।१०१।।
ॐ ह्रीं अर्हं उदितोदितमाहात्म्यनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सो रहे जगत् व्यवहार हीन, जगते निज में प्रभु स्वात्म लीन।
तुम इष्ट अनिष्ट विभाव दूर, पूजत ही पाऊँ स्वात्मपूर।।१०२।।
ॐ ह्रीं अर्हं व्यवहारसुषुप्तनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरगुण हैं चौरासि लाख, इनसे पाया निज पूर्ण राज्य।
मिटते अनिष्ट संयोग शोक, पूजन करते जन मन अशोक।।१०३।।
ॐ ह्रीं अर्हं चतुरशीतिलक्षगुणनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सिद्धिपुरी के पथिक आप, श्री कुंथुनाथ पाया स्वराज्य।
दुख इष्ट वियोगादिक न होंय, पूजत ही निजपद प्राप्त होय।।१०४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धिपुरीपान्थनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
अर्हत्प्रभु योग निरोध किया, तब समवसरण भी विघट गया।
दिव्यध्वनि खिरनी बंद हुई, वच काय योग संकोच लिया।।
कर्मारि अघाती नष्ट हुये , शिवधाम मिला प्रभु सिद्ध बने।
पूजत ही वचन सिद्धि होती, प्रभु ध्याते आत्मा शुद्ध बने।।१०५।।
ॐ ह्रीं अर्हं संहृतध्वनिगुणविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
योगों से ईर्यापथ आस्रव, वह किट्टि लेप है अर्हत् को।
व्युपरत क्रियनिवृती शुक्लध्यान, ध्याया तब हना अघाती को।।
प्रभु योग किट्टि निर्लेपन में, उद्यत हो शिवपद प्राप्त किया।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर पूजत ही, शुद्धात्म ज्ञान को प्राप्त किया।।१०६।।
ॐ ह्रीं अर्हं योगकिट्टिनिर्लेपनउद्यतनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—चौपाई—
टूट रहे कर्मो के फंद, हुये अयोगी जिन निर्द्वंद।
सिद्धधाम में काल अनंत, निवसें जजूँ कुंथु भगवंत।।१०७।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रुटत्कर्मपाशनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
परमनिर्जरा तत्त्व धरंत, जिन अयोगि हों सिद्ध तुरंत।
अशुभ कर्म निर्जीरण हेतु, नमूँ कुंथुप्रभु भवदधि सेतु।।१०८।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमनिर्जरनामविभूषिताय श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
प्रभु महाशोक ध्वज आदि नाम, इक शतक आठ धारक प्रभु हो।
सौ इन्द्रों से वंदित गणधर, मुनिगण से वंदित संस्तुत हो।।
प्रभु सात परमस्थान हेतु, मैं नितप्रति तुम गुण को गाऊँ।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तुमपद में ही मैं रम जाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाशोकध्वजनामादि अष्टोत्तरशतनाममंत्रविभूषिताय श्रीकुंथुनाथ-
तीर्थंकरायपूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-जाप्य-
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ—अरनाथतीर्थंकरेभ्यो नम:।
अथवा
ॐ ह्रीं अर्हं तीर्थंकरचक्रवर्तिकामदेवपदसमन्वितश्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ—
अरनाथेभ्यो नम:।
(दोनों में से कोई भी एक मंत्र १०८ बार या ९ बार सुगंधित
पुष्पों से या लवंग से या पीले चावल से जपें।)
-दोहा-
लोकोत्तर फलप्रद तुम्हीं, कल्पवृक्ष जिनदेव।
कुंथुनाथ तुमको नमूँ, करूँ भक्ति भर सेव।।१।।
-त्रिभंगी छंद-
पैंतिस गणधर मुनि साठ सहस, भाविता आर्यिका गणिनी थीं।
सब साठ सहस त्रय शतपचास, संयतिकायें अघ हरणी थीं।।
श्रावक दो लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चिन्ह बकरा शोभे।
आयू पंचानवे सहस वर्ष, पैंतिस धनु तनु स्वर्णिम दीपे।।२।।
-गीता छंद-
जय कुंथुनाथ जिनेंद्र तीर्थेश्वर जगत विख्यात हो।
जय जय अखिल संपत्ति के, भर्ता भविकजन नाथ हो।।
लोकांत में जा राजते, त्रैलोक्य के चूड़ामणी।
जय जय सकल जग में तुम्हीं, हो ख्यात प्रभु चिंतामणी।।३।।
एकेन्द्रियादिक योनियों में, नाथ! मैं रुलता रहा।
चारों गती में ही अनादी, से प्रभो! भ्रमता रहा।।
मैं द्रव्य क्षेत्र रु काल भव, औ भाव परिवर्तन किये।
इनमें भ्रमण से ही अनंतानंत काल बिता दिये।।४।।
बहुजन्म संचित पुण्य से, दुर्लभ मनुज योनी मिली।
तब बालपन में जड़ सदृश, सज्ज्ञान कलिका ना खिली।।
बहुपुण्य के संयोग से, प्रभु आपका दर्शन मिला।
बहिरातमा औ अंतरात्मा, का स्वयं परिचय मिला।।५।।
तुम सकल परमात्मा बने, जब घातिया आहत हुए।
उत्तम अतीन्द्रिय सौख्य पा, प्रत्यक्ष ज्ञानी तब हुए।।
फिर शेष कर्म विनाश करके, निकल परमात्मा बने।
कल-देहवर्जित निकल अकल, स्वरूप शुद्धात्मा बने।।६।।
हे नाथ! बहिरात्मा दशा को, छोड़ अंतर आतमा।
होकर सतत ध्याऊँ तुम्हें, हो जाऊँ मैं परमात्मा।।
संसार का संसरण तज, त्रिभुवन शिखर पे जा बसूँ।
निज के अनंतानंत गुणमणि, पाय निज में ही बसूँ।।७।।
-दोहा-
कामदेव चक्रीश प्रभु, सत्रहवें तीर्थेश।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मुझे, दो त्रिभुवन परमेश।।८।।
सूरसेन नृप के तनय, श्रीकांता के लाल।
जजें तुम्हें जो वे स्वयं, होते मालामाल।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भाक्तिकजन तीर्थंकरत्रय—विधान भक्ती से करते हैं।
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, अरनाथ प्रभू को यजते हैं।।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सब रोग शोक भय हरते हैं।
नवनिधि ऋद्धी सिद्धी पाकर, वैवल्य ज्ञानमति लभते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।