—अथ स्थापना-गीता छंद—
जो महर्षि तीर्थेश समवसृति में सदा ही तिष्ठते।
वे सात भेदों में र हें निज मुक्तिकांता प्रीति तें।।
केवलि विपुलमति, अवधिज्ञानी, पूर्वधर ऋषिवर वहां।
विक्रियधरा, शिक्षक व वादी मैं उन्हें पूजूं यहां।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—नाराच छंद
साधु चित्त के समान स्वच्छ नीर लाइये।
साधु चर्ण धार देय पाप पंक क्षालिये।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: जलं निर्वपामीति
स्वाहा।
स्वर्ण कांति के समान पीत गंध लाइये।
साधु चर्ण चर्चते समस्त ताप नाशिये।।प्राकृतीक.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्ररश्मि के समान धौतशालि लाइये।
चर्ण के समीप पुंज देत सौख्य पाइये।।प्राकृतीक.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के सुगंधि पुष्प थाल में भरे।
कामदेव के जयी मुनीन्द्र पाद में धरें।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: पुष्पं निर्वपामीतिस्वाहा।
पूरिका इमर्तियाँ सुवर्ण थाल में भरे।
भूख व्याधि नाश हेतु आप अर्चना करें।।प्राकृतीक.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीतिस्वाहा।
रत्नदीप में कपूर ज्योति को जलाइये।
साधुवृंद पूजते सुज्ञान ज्योति पाइये।।प्राकृतीक.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: दीपं निर्वपामीतिस्वाहा।
अष्ट गंध अति सुगंध धूप खेय अग्नि में।
अष्ट कर्म भस्म होत आप भक्ति रंग में।।प्राकृतीक.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: धूपं निर्वपामीतिस्वाहा।
सेव आम संतरा बदाम थाल में भरें।
पूजते ही आप चर्ण मुक्ति अंगना वरें।।प्राकृतीक.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: फलं निर्वपामीतिस्वाहा।
नीर गंध आदि से सुवर्ण पुष्प मेलिया।
सुख अनंत हेतु आप पाद में समर्पिया।।प्राकृतीक.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीतिस्वाहा।
—दोहा—
गुरुपद में धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—सोरठा—
द्विविध मोक्षपथ मूल, अट्ठाइस हैं मूलगुण।
साध करें अनुकूल, अत: साधु कहलावते।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(1)
चाल-वंदों दिगम्बर गुरुचरण……
पुरुदेव के ऋषि केवली हैं बीस सहस प्रमाण।
इन भक्ति नौका जो चढ़ें वे लहें पद निर्वाण।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य विंशतिसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि विपुलमति बारह सहस अरु, सात शतक पचास।
ये मन:पर्यय ज्ञान से, नित करें भुवन प्रकाश।।इन.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य पंचाशदधिकद्वादशहस्रसप्तशतविपुलमतिज्ञानि-
ऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव के ऋषि अवधिज्ञानी, नौ हजार प्रमाण।
इन पूजते भव व्याधि का हो, शीघ्र ही अवसान।।इन.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य नवसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री ऋषभ जिनके पूर्वधर, सब पूर्व ज्ञानी ख्यात।
उन कही संख्या चार सहस सु सात सौ पच्चास।।इन.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथतीर्थंकरस्य पंचाशदधिकचतु:सहस्रसप्तशत-
पूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रियाधारक मुनि वहाँ छह शतक बीस हजार।
वे भव्यजन को तृप्त करते तरणतारणहार।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य विंशतिसहस्रषट्शतकविक्रियाधारिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीऋषभ के शिक्षक मुनी इक शतक चार हजार।
पुनरपि पचास गिने गये, इनसे खुले शिव द्वार।।इन.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य पंचाशदधिकचतु:सहस्रएकशतशिक्षक-
ऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनी बारह सहस अरु सात शतक पचास।
ये वाद करने में कुशल नित करें धर्म प्रकाश।।इन.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य पंचाशदधिकद्वादशहस्रसप्तशतवादिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
समवसरण में ऋषभ के, ऋषि चौरासि हजार।
नमूँ नमूँ मैं अर्घ ले, जजूँ खुले शिव द्वार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथस्य चतुरशीतिसहस्रऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(2)
मुनि केवली श्री अजित के सब कहें बीस हजार।
मैं सप्त परमस्थान हेतू नमूँ शत शत बार।।इन.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य विंशतिसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि विपुलमति मनपर्ययी, करते जगत उद्योत।
बारह हजार सु चार सौ पच्चास, शिवसुख स्रोत।।इन.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य पंचाशदधिकद्वादशसहस्रचतु:शतविपुलमति-
ज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि अवधिज्ञानी नव सहस अरु चार सौ विख्यात।
सर्वावधी धारें महामुनि मैं नमूँ नत माथ।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य नवसहस्रचतु:शतअविधज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजित जिनके समवसृति में पूर्वधर मुनि ख्यात।
वे तीन सहस व सात सौ पच्चास हैं कुशलात।।इन.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य पंचाशदधिकत्रिसहस्रसप्तशतपूर्वधरऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि विक्रियाधर चार सौ अरु कहे बीस हजार।
वे आत्मरस अमृत पियें करते स्वपर उपकार।।इन.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य र्विंशतिसहस्रचतु:शतविक्रियाधारिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनी इक्किस सहस छह सौ जगत सुखकार।
निज साम्यरस पीयूष पीते, नाथ भक्ति अपार।।इन.।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य एकर्विंशतिसहस्रषट्शतशिक्षकऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज समय ज्ञानी पर समय के वाद में विख्यात।
बाहर हजार सु चार सौ उन वंदते सुखसात।।इन.।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य द्वादशसहस्रचतु:शतवादिऋषिभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
अजितनाथ के पास में, एक लाख ऋषि संत।
वंदूँ पूजूूँ भाव से, निज सुख सुधा पिबंत।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य सर्वएकलक्षऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(3)
ऋषि केवली पंद्रह सहस रहते समवसृति मध्य।
उनको नमूँ वे भक्तगण को दे रहें सुखनव्य।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य पंचदशसहस्रकेवलिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि विपुलमति मनपर्ययी नरलोक सब जानंत।
बारह हजार सु एक सौ पच्चास गुणमणिवंत।।इन.।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य पंचाशदधिकद्वादशसहस्रएकशतविपुलमति-
ज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि अवधिज्ञानी नौ सहस छह सौ कहें जगमान्य।
उनके नमन से भव्यजन भी बनें सुर नर मान्य।।इन.।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य नवसहस्रषट्शतअवधिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनेश्वर समवसृति में, पूर्वधर मुनिनाथ।
इक्कीस शतक पचास हैं, मैं नमूँ नाय सुमाथ।।।इन.।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य पंचाशदधिकद्विसहस्रएकशतपूर्वधरऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रिय धरें मुनि आठ सौ माने उनीस हजार।
जो वंदते गुरु चरण उनको मिले सौख्य हजार।।इन.।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य एकोनविंशतिसहस्रअष्टशतविक्रियाधारिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक लाख उनतिस सहस शिक्षक तीन सौ परिमाण।
नित भव्यजन को देय शिक्षा करें भवि कल्याण।।इन.।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य एकलक्षएकोनत्रिंशत्सहस्रत्रयशतशिक्षकऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनी बारह सहस निज पर समय का ज्ञान।
परवादियों का मानमर्दन करें समकितवान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य द्वादशसहस्रवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
संभव जिनके पास में, ऋषि रहते दो लाख।
गुरूभक्ति से नित्य मैं, नमूँ जोड़ जुग हाथ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य सर्वद्वयलक्षऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(4)
ऋषिकेवली वहँ राजते सोलह हजार प्रमाण।
उन वंदना से भव्यजन करते स्व पर पहिचान।।इन.।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य षोडशसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि विपुलमति राजे वहाँ मनपर्ययी गुणखान।
इक्कीस सहस सु छह शतक पच्चास सब सुखदान।।इन.।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य एकतिसहस्रषट्शतपंचाशत्विपुलमति-
ज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि अवधिज्ञानी नव हजार सु आठ सौ गुणखान।
उन ज्ञान में सब मूर्त वस्तू दिख रही अमलान।।इन.।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य नवसहस्रअष्टशत्अवधिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश अभिनंदन समवसृति में ऋषीगण मान्य।
मुनि पूर्वधर पच्चीस सौ संपूर्ण श्रुत की खान।।इन.।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य द्विसहस्रपंचशतपूर्वधरऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वहां विक्रियाऋद्धी मुनी उन्नीस सहस महान्।
वे भक्तगण के रोग शोक विपत्ति हरण प्रधान।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।२६।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य एकोनविंशतिसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनी दो लाख तीस हजार और पचास।
जो करें वर्णरसादिविरहित स्वात्मतत्त्व विकास।।इन.।।२७।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य द्विलक्षिंत्रशत्सहस्रपंचाशत्शिक्षकऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनी इक सहस माने वाद में परवीण।
जो सर्वजन की आधि व्याधी करें क्षण में क्षीण।।इन.।।२८।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य एकसहस्रवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
अभिनंदन जिनके यहाँ, तीन लाख ऋषिवृंद।
धर्ममूर्ति जिनरूप को नमूँ हरो जग फंद।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य सर्वत्रयलक्षऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(5)
—राग भरतरी-दोहा—
केवलि ऋषि तेरह सहस, मुनि परिषद् निवसंत।
उनके ज्ञानादर्श में, लोक अलोक झलकंत।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।२९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य त्रयोदशसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती दश सहस हैं, चार शतक मुनिराज।
चार ज्ञानधारी गुरू, देवें निज साम्राज।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३०।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य दशसहस्रचतु:शतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि ग्यारह सहस, मूर्तिक सब जानंत।
समवसरण में नाथ के, आतम ध्यान धरंत।।नमूँ.।।३१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य एकादशसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ के पास में, रत्नत्रय आधार।
पूर्वधारि चौबीस सौ, पूजूँ सुखदातार।।नमूँ.।।३२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य द्विसहस्रचतु:शतपूर्वधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह हजार चार सौ, विक्रियधारी साधु।
वर्ण गंध रस स्पर्श से, शून्य स्वात्मरस स्वादु।।नमूँ.।।३३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य अष्टादशसहस्रचतु:शतविक्रियाधारिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोय लाख चौवन सहस, तीन शतक पच्चास।
शिक्षक मुनि गुणनिधि भरें, पूजूँ मन उल्लास।।नमूँ.।।३४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य द्विलक्षचतु:पंचाशत्सहस्रत्रयशतपंचाशत्-
शिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परवादी को जीतने, कुशल विजेता ईश।
दश हजार अरु चार सौ, कहे पचास मुनीश।।नमूँ.।।३५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य दशसहस्रचतु:शतपंचाशत्वादिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
सुमतिनाथ के पास में, तीन लाख ऋषिराज।
बीस हजार कहें सभी, जजूँ सरें सब काज।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथसर्वत्रयलक्षविंशतिसहस्रऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(6)
केवलज्ञानी मानिये, बारह सहस प्रमाण।
पूजत स्वातम निधि मिले, शत शत करूँ प्रणाम।।नमूँ.।।३६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य द्वादशसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती मुनि दस सहस, तीन शतक सुखखान।
जो पूजें उन भक्त के, भरते सर्व निधान।।नमूँ.।।३७।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य दशसहस्रत्रयशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि मुनिव्रत सहित, मानें दश हज्जार।
यथाजात मुद्रा धरें, जजत भक्त भव पार।।नमूँ.।।३८।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य दशसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू के पूर्वधर, त्रयशत दोय हजार।
श्रुतकेवलि ये पूज्यवर, जजत मिले श्रुतसार।।नमूँ.।।३९।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य द्विसहस्रत्रिशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू की सभा में, विक्रियमुनि भवि सूर्य।
सोलह हजार आठ सौ जजत मिले गुणपूर्य।।नमूँ.।।४०।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य षोडशसहस्रअष्टशतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनि दो लाख अरु, उनहत्तर हज्जार।
चतुर्गती दुख से करें भव्यों का उद्धार।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य द्विलक्षएकोनसप्ततिसहस्रशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनिगण नव सहस, छह सौ गुणमणि धार।
जजत मिटे चहुंगति भ्रमण, मिले मोक्ष का द्वार।।नमूँ।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य नवसहस्रषट्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
पद्मप्रभू जिननाथ के, समवसरण में साधु।
तीन लाख मानें तथा, तीस हजार अबाधु।।नमूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य त्रयलक्षिंत्रशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(7)
केवलज्ञानी ऋषि वहां, ग्यारह सहस प्रमाण।
उनके केवलज्ञान में प्रतििंबबित जग जान।।नमूँ।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य एकादशसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती मुनि नव सहस, एक शतक पच्चास।
अद्भुत शशि करते सतत, भवि मन कुमुद विकास।।नमूँ।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य नवसहस्रएकशतपंचाशत्विपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि मुनिराज हैं, नव हजार परिमाण।
जजत भव्य शिवपथ लहें, करें सर्व कल्याण।।नमूँ।।४५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य नवसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व जिन पास में, दो हजार अरु तीस।
पूर्वधारि मुनि सर्वश्रुत, पारंगत मुनि ईश।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य द्विसहस्रिंत्रशतपूर्वधारिऋषिभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दश हजार त्रेपन शतक, विक्रिय ऋद्धि मुनीश।
भवदधि नौका भक्ति उन, जजूँ नमाकर शीश।।नमूँ।।४७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य दशसहस्रत्रिपंचाशत्शतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनि दो लाख अरु, चव्वालीस हजार।
नौ सौ बीस बखानिये, जजत करुँ भव पार।।नमूँ।।४८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य द्विलक्षचतुश्चत्वािंरशत्सहस्रनवशतिंवशतिशिक्षक-
ऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनि छह सौ कहे पुनरपि आठ हजार।
चिन्मय चिंतामणि पुरुष, करें हमें भव पार।।।।नमूँ.।।४९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य अष्टसहस्रषट्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री सुपार्श्व की सभा में, तीन लाख ऋषिवृंद।
जिनमुद्राधारी गुरू, सुरनर किन्नर वंद्य।।नमूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य त्रयलक्षसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(8)
केवलज्ञानी ऋषि वहां, अठरह सहस बसंत।
जो उनकी पूजा करें, परमानंद धरंत।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५०।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य अष्टादशसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
आठ सहस मुनि विपुलमति, ज्ञान धरें अभिराम।
पूजत ही चिंता टले, मिले स्वात्म विश्राम।।नमूँ.।।५१।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य अष्टसहस्रविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अवधिज्ञानि हैं दो सहस, स्वपर विकासन सूर्य।
भवभव संचित अघ सकल, जजत हुये चकचूर।।नमूँ.।।५२।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य द्विसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चंदाप्रभु जिनराज के, समवसरण में पूज्य।
पूर्वधारि मुनि हैं वहाँ, चार सहस जग पूज्य।।नमूँ.।।५३।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य चतु:सहस्रपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रियधारी छह शतक, करें कर्म चकचूर।
उनकी पूजा जो करें, करें मृत्यु को दूर।।नमूँ.।।५४।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य षट्शतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीतिस्वाहा।
दोय लाख अरु दस सहस, चार शतक मुनिराज।
शिक्षक माने हैं वहां, जजत मिले निज राज।।नमूँ.।।५५।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य द्विलक्षदशसहस्रचतु:शतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनि जिन पास में, मानें सात हजार।
वंदत ही निजपद मिले, भरें सौख्य भण्डार।।नमूँ.।।५६।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य सप्तसहस्रवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
चंद्रप्रभू की सभा में, दोय लाख ऋषिवृंद।
तथा पचास हजार भी, नमत हरे भवफंद।।नमूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य द्विलक्षपंचाशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(9)
—भुजंगप्रयात छंद—
ऋषी केवली सब पछत्तर शतक जे।
उन्हीं ज्ञान में सर्व त्रैलोक्य झलके।।
नमूं भक्ति से अर्घ लेके ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।५७।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य सप्तसहस्रपंचशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनी सात हज्जार अरु पाँच सौ हैं।
नमूँ मैं विपुलमति ज्ञानी गुरू हैं।।नमूं.।।५८।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य सप्तसहस्रपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनीश्री अवधिज्ञानि चौरासि सौ हैं।
उन्हें पूजते सर्व व्याधी नशे हैं।।नमूं.।।५९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य चतुरशीतिशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू पुष्पदंतेश की जो सभा है।
वहां पूर्वधारी सु पंद्रह शतक हैं।।नमूं.।।६०।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य एकसहस्रपंचशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
धरें विक्रिया साधु तेरह हजारा।
नमूँ मैं मिले भव समुद्री किनारा।।नमूं.।।६१।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य त्रयोदशसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनी एक लक्षा सु पचपन हजारा।
कहे पाँच सौ साधु शिक्षक प्रकारा।।नमूं.।।६२।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य एकलक्षपंचपंचाशत्सहस्रपंचशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुवादी मुनी छै सहस छै शतक हैं।
उन्हें शीश नाते सभी सौख्य हो हैं।।नमूं.।।६३।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य षट्सहस्रषट्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
पुष्पदंत जिनराज के, समवसरण में सर्व।
दोय लाख ऋषिगण कहे, नमूं हरूँ दुख सर्व।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य द्विलक्षसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(10)
वहाँ केवली सात हज्जार राजें।
सभी लोक आलोक क्षण में प्रकाशें।।नमूं.।।६४।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य सप्तसहस्रकेवलिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मुनीश्वर विपुलमति पछत्तर शतक हैं।
सभी इंद्र पूजें भजे भक्तिवश हैं।।नमूं.।।६५।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य सप्तसहस्रपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि साधू बहत्तर शतक हैं।
जजें जो सभी रोग बाधा हरे हैं।।
नमूं भक्ति से अर्घ लेके ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६६।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य सप्तसहस्रद्विशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषी पूर्वधर शीतलेश्वर सभा मेंं।
सु चौदह शतक शीश नाऊँ उन्हें मैं।।नमूं.।।६७।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य चतुर्दशशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
सुविक्रिय धरें साधु बारह हजारा।
जजें पाद पंकज लहें भव किनारा।।नमूं.।।६८।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य द्वादशसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सु शिक्षक सु उनसठ सहस दो शतक हैं।
सदा इंद्र धरणेन्द्र चक्री नमें हैं।।नमूं.।।६९।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य एकोनषष्टिसहस्रद्विशतशिक्षकऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवादी मुनीश्वर सतावन शतक हैं।
सभी लोक में वंद्य अतिशय धरे हैं।।नमूं.।।७०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य पंचसहस्रसप्तशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री शीतल जिनराज के, समवसरण में वंद्य।
एक लाख ऋषिगण कहे, नमूँ नमूँ सुखकंद।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य एकलक्षसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(11)
ऋषी केवली हैं सु पैंसठ शतक ही।
चतु: घातकर्मारि जेता बनें ही।।नमूं भक्ति से अर्घ लेके ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७१।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य षट्सहस्रपंचशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमति मन:पर्ययी जो मुनी हैं।
कहे छै हजारा महागुण धनी हैं।।नमूं.।।७२।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य षट्सहस्रविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि साधू कहे छै हजारा।
क्षमा आदि से ये लहें भव किनारा।।नमूं.।।७३।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य षट्सहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कहे पूर्वधर साधु श्रेयांस प्रभु के।
सु तेरह शतक जीत मुद्रा धरें हैं।।नमूं.।।७४।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य एकसहस्रत्रयशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषी विक्रियाधारि ग्यारह हजारा।
यथाजात मुद्रा महाशील धारा।।नमूं.।।७५।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य एकादशसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुशिक्षक मुनी अष्ट चालिस सहस्रा।
द्विशत ये कहे हैं महाव्रत धरित्रा।।नमूं.।।७६।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य अष्टचत्वारिंशद्सहस्रद्विशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कहे वादकर्ता मुनी पण सहस्रा।
दिगम्बर मुनी ये धरें ध्यान शस्त्रा।।
नमूं भक्ति से अर्घ लेके ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७७।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य पंचसहस्रवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री श्रेयांस जिनराज के, समवसरण में सिद्ध।
चौरासी हज्जार मुनि, जजत मिले निज रिद्ध।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य चतुरशीतिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(12)
ऋषी केवली हैं वहाँ छै हजारा।
इन्होंने स्वयं पा लिया भव किनारा।।नमूं.।।७८।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य षट्सहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विपुलमति मुनी छै सहस मान्य जग में।
नमूँ मैं उन्हें सर्व आपद हरें वे।।नमूं.।।७९।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य षट्सहस्रविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अवधिज्ञानि मुनि पाँच हज्जार चउ सौ।
सभी मूल उत्तर गुणों से सजें जो।।नमूं.।।८०।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य पंचसहस्रचतु:शतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू वासुपूज्येश की जो सभा है।
वहाँ पूर्वधर इक सहस दो शतक हैं।।नमूं.।।८१।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य एकसहस्रद्विशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
कहें विक्रियाधारि हैं दस सहस्रा।
सदा शील संयम गुणों से पवित्रा।।नमूं भक्ति से अर्घ लेके ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८२।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य दशसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मुनी एक कम होके चालिस हजारा।
पुन: दो शतक ये हि शिक्षक प्रकारा।।नमूं.।।८३।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य एकोनचत्वारिंशतसहस्रद्विशतशिक्षक ऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषी वादि ब्यालीस सौ शास्त्र माने।
नमूँ मैं उन्हें स्वात्म संपत्ति पाने।।नमूं.।।८४।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य द्विचत्वारिंशत्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
वासुपूज्य जिननाथ के, समवसरण में वंद्य।
बाहत्तर हज्जार मुनि, यजत हरूँ जगद्वंद।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य द्वासप्ततिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(13)
—स्रग्विणी छंद—
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।
केवली साधु पचपन शतक मान्य हैं।
पूजते ही लहें भेद विज्ञान हैं।।८५।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य पंचसहस्रपंचशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो विपुलमति मन:पर्ययी साधु हैं।
पाँच हज्जार पण सौ निजी स्वादु हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।८६।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य पंचसहस्रपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टचालिस शतक साधु अवधी धरें।
तीन ही ज्ञान से मोह तम परिहरें।।मैं.।।८७।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य अष्टचत्वारिंशत्शतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री विमलनाथ के पूर्वधर साधु जो।
पूजहूँ नित्य ग्यारह शतक मान्य वो।।मैं.।।८८।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य एकादशशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रियाधारि नौ सहस साधू कहे।
ये सदा स्वात्म के ध्यान में लीन हैं।मैं.।।८९।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य पंचसहस्रपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
साधु अड़तीस हज्जार औ पाँच सौ।
नाम शिक्षक धरें पूजहूँ भाव सो।।मैं.।।९०।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य अष्टत्रिंशत्सहस्रपंचशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
साधु छत्तीस सौ वाद को जीतते।
जो जजें वो स्वयं मृत्यु को जीतते।।मैं.।।९१।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य षत्रशत्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
विमलनाथ की सभा में, ऋषि अड़सट्ठ हजार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य अष्टषष्टिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:
(14)
केवली साधु हैं, पाँच हज्जार जो।
चार घाती हने सौख्य भंडार वो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९२।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य पंचसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
पाँच हज्जार विपुलामतीधर मुनी।
चार ज्ञानी इन्हीं से बनूँ मैं गुणी।।मैं.।।९३।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य पंचसहस्रविपुलमतिज्ञानधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानी तितालीस सौ जानिये।
मार्दवादी गुणों से भरे मानिये।।मैं.।।९४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य त्रिचत्वारिंशत्शतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंतेशजी के समोशर्ण में।
पूर्वधर एक हज्जार पूजूँ उन्हें।।मैं.।।९५।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य एकसहस्रपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
आठ हज्जार हैं विक्रियाधर मुनी।
ये सभी मूल उत्तर गुणों के धनी।।मैं.।।९६।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य अष्टसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ऊन चालिस सहस पाँच सौ मुनिवरा।
नाम शिक्षक धरें पूजहूँ गुण भरा।।मैं.।।९७।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य एकोनचत्वारिंशत्सहस्रपंचशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादि बत्तीस सौ शास्त्र ज्ञानी महा।
धर्म दशविध धरें पूजहूँ मैं यहाँ।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९८।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य द्वात्रिंशतशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री अनंत जिनराज के, ऋषि छ्यासष्ट हजार।
नग्न दिगम्बर रूपधर, नमूँ नमूँ शत बार।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य षट्षष्टिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(15)
चार हज्जार औ पाँच सौ केवली।
मृत्यु को भी हरे भक्ति ये एकली।।मैं.।।९९।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य चतु:सहस्रपंचशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चार हज्जार पण सौ विपुलमति मुनी।
पूजते ही लहूँ स्वात्म संपत् घनी।।मैं.।।१००।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य चतु:सहस्रपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
साधु छत्तीस सौ ज्ञान अवधी धरें।
शुद्ध चारित्र से स्वात्म सिद्धी करें।।मैं.।।१०१।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य षट्त्रिंशत्शतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
पूर्वधर नौ शतक धर्म तीर्थेश के।
पूजते ही लहें सौख्य निर्वाण के।।मैं.।।१०२।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्यनावशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रियाधर मुनी सात हज्जार हैं।
जो जजें वो बने ऋद्धि भरतार हैं।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०३।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य सप्तसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
साधु चालीस हज्जार औ सात सौ।
नाम शिक्षक धरें पूजहूँ चाव सो।।मैं.।।१०४।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य चत्वािंरशत्सहस्रसप्तशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वाद जेता मुनी दो सहस आठ सौ।
नग्न मुद्रा धरें पूजहूँ ठाठ सो।।मैं.।।१०५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य द्विसहस्रअष्टशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
धर्मनाथ के पास में, ऋषि चौंसट्ठ हजार।
धर्म दशों विध पूर्ण हित, जजूँ भक्ति उरधार।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य चतु:षष्टिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(16)
केवली चार हज्जार तिष्ठें वहाँ।
पूजते प्राप्त हो ऋद्धि सिद्धी यहाँ।।मैं.।।१०६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य चतु:सहस्रकेवलिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चार हज्जार विपुलामती ज्ञानि हैं।
चार गति दु:ख से कर रहे त्राण हैं।।मैं.।।१०७।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य चतु:सहस्रविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
तीन हज्जार हैं ज्ञान अवधी धरें।
जो जजें वे स्वयं स्वात्म पुष्टी करें।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०८।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य त्रयसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांति तीर्थेश के पूर्वधर आठ सौ।
चौदहों पूर्वधारी जजूँ भक्ति सो।।मैं.।।१०९।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य अष्टशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रियाधारि छै सहस साधू कहे।
रत्नत्रय को धरें आत्मशुद्धी लहें।।मैं.।।११०।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य अष्टशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
एकतालीस हज्जार औ आठ सौ।
साधु शिक्षक उन्हें मैं जजूँ भाव सो।।मैं.।।१११।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य एकचत्वािंरशत्सहस्रअष्टशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादि चौबीस सौ साधु राजें वहाँ।
भव्य भी पूजते पाप नाशें यहाँ।।मैं.।।११२।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य चतुर्विंशतिशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
समवसरण में शांति के, ऋषिगण सर्वप्रधान।
सब बासठ सु हजार हैं, नमूँ नमूँ गुणखान।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य द्विषष्टिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
गुरुदेव! दया करिये, श्रीचरणों में रख लीजिये।।गुरु.।। टेक.।।
कुंथुनाथ जिन समवसरण में, महाव्रत गुणमणि भरिये।
केवलज्ञानी प्रभु बत्तिस सौ, घाति कर्म से रहिये।
गुण आनंत चतुष्टय सहिते, पूजत ही गुण भरिये।।११३।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य त्रयसहस्रद्विशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती मुनि तेतिस सौ सु पचास सर्व दुख हरिये।
तुम पद पंकज सेवत भविजन मुक्तिरमा को वरिये।।गुरु.।।११४।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य त्रयस्त्रिंशत्शतपंचाशत्विपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि मुनिवर पचीस सौ, नग्न रूप गुण भरिये।
रोग शोक दुख दारिद नाशें, पूजत ही सुख भरिये।।गुरु.।।११५।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य पंचिंवशतिशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्वधारि मुनि सात शतक हैं, पूजत ही दुख हरिये।
गुरुदेव! दया करिये, श्री चरणों में रख लीजिये।।गुरु.।।११६।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य सप्तशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रियधारी इक्यावन सौ, दश धर्मों से सहिये।
उनके चरण कमल को पूजत, रोग शोक दुख हरिये।।गुरु.।।११७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य पंचसहस्रएकशतविक्रियाधारिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेतालीस हजार एक सौ, पचास शिक्षक कहिये।
उनके पद पंकज को पूजत, भव भव दु:ख को दहिये।।गुरु.।।११८।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य त्रिचत्वारिंशत्सहस्रएकशतपंचाशत्शिक्षकऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनिगण दो हजार हैं, उन पद पूजन करिये।
जन्म मरण के दु:ख नाश कर, जिन आतम निधि भरिये।।गुरु.।।११९।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य द्विसहस्रवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
कुंथुनाथ के पास में, साठ हजार मुनीश।
अर्घ चढ़ाकर पूजहूँ, नमूँ नमाकर शीश।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य षष्टिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(18)
मिले समरस का झरना, गुरुदेव चरण को पूजते।मिले.।।टेक.।।
केवलज्ञानी अट्ठाइस सौ, घातिकर्म क्षय करना।
अव्याबाध सौख्य गुणपूरित, पूजत ही भव हरना।।मिले.।।१२०।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य अष्टाविंशतिशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती मुनि दोय हजार सु पचपन निजसुख भरना।
जो पूजें सो शिवकांता लें, वंदत ही दुख हरना।।मिले.।।१२१।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य द्विसहस्रपंचपंचाशत्विपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि मुनि अट्ठाइस सौ, सर्व जगत दुख हरना।
पूजत ही निज संपत् मिलती, चहुँगति भय परिहरना।।मिले.।।१२२।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य अष्टाविंशतिशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अरहनाथ के समवसरण में, मुनिगण हैं जग शरना।
पूर्वधारि छह सौ दस मानें, पूजत ही भव हरना।।मिले.।।१२३।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य दशोत्तरषट्शतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रियधारी तेतालिस सौ, सर्व सौख्य अनुसरना।
जो पूजें सो निजपद पावें, पुनर्जनम नहिं धरना।।मिले.।।१२४।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य त्रिचत्वारिंशत्शतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पैंतिस सहस आठ सौ पैंतिस, शिक्षक मुनि सुख भरना।
सुर नर किन्नर गुण को गाते, नित वंदत गुरु चरना।।मिले.।।१२५।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य पंचत्रिंशत्सहस्रअष्टशतपंचत्रिंशत्शिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनि सोलह सौ मानें, सात भयों के हरना।
मैं नित पूजूँ भक्ति भाव से, हो भवदधि से तरना।।मिले.।।१२६।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य एकसहस्रषट्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
अरहनाथ की सभा में, साधु पचास हजार।
नग्न दिगम्बर वे यती, करें जगत उद्धार।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य पंचाशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(19)
मुनिराज शरण लीजे, तुम पद पंकज पूजहूँ।मुनिराज.।।
केवलज्ञानी प्रभु बाइस सौ, उनमें जग दीपे।
चार चतुष्टय लक्ष्मी के वर पूजत सुख सीझे।।मुनि.।।१२७।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य द्विसहस्रद्विशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती मुनि सत्रह सौ पच्चास वहाँ दीखें।
सर्व मूलगुण उत्तर गुण के मूर्तिरूप दीखें।।मुनि.।।१२८।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य एकसहस्रसप्तशतपंचाशत्विपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि मुनि बाइस सौ हैं, मोह शत्रु जीतें।
पूजत वंदत पाप नशावो गुण कीर्तन कीजे।।मुनि.।।१२९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य द्विसहस्रद्विशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के समवसरण में, मुनिगण बहु दीखें।
पूर्वधारि पण सौ पचास हैं, कर्म अरी जीतें।।मुनि.।।१३०।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य पंचशतपंचाशत्पूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रियधारी मुनि उनतिस सौ समरस में भीजे।
पंच महाव्रत समिति गुप्ति के स्वामी सुख कीजे।।मुनि.।।१३१।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य एकोनत्रिंशत्शतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनि उनतिस हजार हैं, निज सुखरस पीते।
जो भविजन उनको नित पूजें, उनके दुख छीजें।।मुनि.।।१३२।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य एकोनत्रिंशत्सहस्रशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
वादी मुनि चौदह सौ उनका नित वंदन कीजे।
नवनिधि सुख संपति संतति की नित वृद्धी कीजे।।मुनि.।।१३३।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य चतुर्दशशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
मल्लिनाथ जिनराज के, ऋषि चालीस हजार।
पूजूूँ मनवचकाय से, शीघ्र लहूँ भवपार।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य चत्वारिंशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(20)
हों मुझको सुखकारी, श्री नग्न दिगम्बर साधु जी।हों.।।टेक.।।
केवलज्ञानी प्रभु अठरह सौ, घाति करम हारी।
त्रिभुवन जन से पूजित भगवन्, भवदुख परिहारी।।हो.।।१३४।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य अष्टादशशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विपुलमती मुनि पंद्रह सौ हैं, त्रिभुवन मनहारी।
रोग शोक दुख संकट नाशें, पूजत सुखकारी।।हों.।।१३५।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य एकसहस्रपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञानि गुरु अठरह सौ हैं, निज गुण भंडारी।
क्षायिक समकित रत्न धरें वो, पूजें रुचिधारी।।हों.।।१३६।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य अष्टादशशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मुनिसुव्रत के समवसरण में मुनिपद के धारी।
पूर्वधारि गुरु पाँच शतक हैं, भव भव भयहारी।।हों.।।१३७।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य पंचशतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रियधारी मुनि बाइस सौ, सब जग हितकारी।
जो पूजें सो पाप नशावें, पावें शिवनारी।।हों.।।१३८।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य द्वाविंशतिशतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
हैं इक्किस हजार मुनि शिक्षक, सब जन मनहारी।
चंद्र किरणवत् वचन शांतिप्रद, शिक्षा सुखकारी।।हों.।।१३९।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य एकविंशतिसहस्रशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनि बारह सौ मानें, तीन रत्नधारी।
पूजत ही सब व्याधि दूर हों, त्रिभुवन हितकारी।।हों.।।१४०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य द्वादशशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
मुनिसुव्रत जिननाथ के, ऋषिगण तीस हजार।
मुनिव्रत मेरे पूर्ण हों, नमूँ नमूँ शत बार।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य त्रशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(21)
—चाल-हे दीनबंधु……..
ऋषि केवली सोलह शतक विराजते वहाँ।
संपूर्ण लोक ज्ञान में प्रतिबिम्बते वहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्य राशि आप को नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१४१।।
ॐ ह्रींश्रीनेमिनाथस्य षोडशशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मुनिवर विपुलमती सु बारह सौ पचास हैं।
भव्यों के हृदय पंकज करते विकास हैं।।मैं.।।१४२।।
ॐ ह्रींश्रीनेमिनाथस्य द्वादशशतपंचाशत्विपुलमतिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिराज अवधिज्ञानी सोलह शतक वहाँ।
निज ज्ञान से संपूर्ण लोक लोकते तहाँ।।मैं.।।१४३।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य षोडशशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नमिनाथ के समवसरण में पूर्वधर मुनी।
मैं पूजहूं वे चार सौ पचास सुखमणी।।मैं.।।१४४।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्यचतु:शतपंचाशत्पूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विक्रिय धरें पंद्रह शतक मुनीश पूज्य हैं।
व्रतशील संयमादि से अतिशायि धन्य हैं।।मैं.।।१४५।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य पंचशशतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
बारह हजार छह सौ शिक्षक मुनी वहाँ।
उत्तम क्षमादि धर्म को फैलावते यहाँ।।मैं.।।१४६।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य द्वादशसहस्रषट्शतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनी हजार हैं सिद्धांत के ज्ञानी।
इन पूजहूँ बनूं सदा मैं भेद विज्ञानी।।
मैं पुण्य हेतु पुण्य राशि आप को नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१४७।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य एकसहस्रवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
नमिनाथ की सभा में, ऋषिगण बीस हजार।
जिनगुण संपद हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य विंशतिसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(22)
मुनि केवली पंद्रह शतक विराजते वहाँ।
निज पर प्रकाश होएगा उन पूजते यहाँ।।मैं.।।१४८।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य एकसहस्रपंचशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिवर विपुलमती वहां नव सौ प्रमाण हैं।
उन चार ज्ञानधारि को मेरा प्रणाम है।।मैं.।।१४९।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य नवशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिराज अवधिज्ञानि एक सहस पाँच सौ।
जन पूजते संस्तव करे हैं भांति भांति सो।।मैं.।।१५०।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य एकसहस्रपंचशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ का समोसरण महान है।
मुनि पूर्वधर वहाँ पे चार सौ प्रमाण हैं।।मैं.।।१५१।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य चतु:शतपूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मुनि विक्रिया सहित वहाँ ग्यारह शतक कहें।
उन पूजते संसार के दुख क्लेश ना रहे।।
मैं पुण्य हेतु पुण्य राशि आप को नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१५२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य एकादशशतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनी ग्यारह हजार आठ सौ कहे।
जो वंदना करें उन्हों के पाप ना रहें।।मैं.।।१५३।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य एकादशसहस्रअष्टशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनीश आठ सौ स्वतत्त्व के वेत्ता।
उनको जजें सुरेश वृन्द भक्ति समेता।।मैं.।।१५४।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य अष्टशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
नेमिनाथ के पास में, अठरह सहस मुनीश।
जो नमते पद पद्म को, बनें भुवन के ईश।।२२।।
ॐ ह्रींश्रीनेमिनाथस्य अष्टादशसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(23)
मुनि केवली हजार वहाँ शोभ रहे हैं।
उन दर्श मात्र से असंख्य पाप बहे हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१५५।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य एकसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मुनिराज विपुलमती ज्ञानि सात सौ पचास।
जो पूजते वे शीघ्र लहें ज्ञान का विकास।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१५६।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य सप्तशतपंचाशत्विपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह शतक मुनीश अवधिज्ञान को धरें।
उन पूजते भवीक भेदज्ञान को धरें।।मैं.।।१५७।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य चतुर्दशशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ का समोसरण विशेष है।
मुनि तीन सौ पचास पूर्वधारि वेष हैं।।मैं.।।१५८।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य त्रयशतपंचाशत्पूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रिय धरें मुनीश एक ही हजार हैं।
वे सर्व रिद्धि सिद्धि भरें बार-बार हैं।।मैं.।।१५९।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य एकसहस्रविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षक मुनीश दश हजार नौ शतक कहे।
उन पूजते भवीक जगत अंत को लहें।।मैं.।।१६०।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य दशसहस्रनवशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
छह सौ कहे वादी मुनीश वाद में कुशल।
उन पूजते संपूर्ण पाप का उदय विफल।।मैं.।।१६१।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य षट्शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
पार्श्वनाथ के पास में, सोलह सहस मुनींद्र।
मैं पूजूँ नित भाव से, मिले शीघ्र पद इंद्र।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य षोडशसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(24)
कैवल्यज्ञान के धनी हैं सात सौ वहाँ।
घाती करम को घात अव्याबाध सुख लहा।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूूं।।१६२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: सप्तशतकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिराज विपुलमती ज्ञान धारते वहाँ।
वे पाँच सौ प्रमाण उन्हें पूजहूँ यहाँ।।सर्वार्थ.।।१६३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: पंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो ज्ञान अवधि धारते तेरह शतक मुनी।
उन पूजते हि पापकर्म निर्जरा घनी।।सर्वार्थ.।।१६४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: त्रयोदशशतअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वर्द्धमान का समोशरण अपूर्व है।
मुनिराज तीन सौ वहां पे ज्ञानी पूर्व हैं।।सर्वार्थ.।।१६५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: त्रयशतपूर्वऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रिय धरें नव सौ मुनी तप तेज से वहाँ।
जो पूजते संपूर्ण ज्ञान पावते यहाँ।।सर्वार्थ.।।१६६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: नवशतविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शिक्षक मुनी निन्यानवे शतक वहाँ रहें।
जिनके वचन पियूष से ही तृप्ति को लहें।।सर्वार्थ.।।१६७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: नवसहस्रनवशतशिक्षकऋषिभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वादी मुनीश चार सौ जिनधर्म प्रकाशें।
जो उनके पाद को नमें वे स्वात्म प्रकाशें।।सर्वार्थ.।।१६८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: चतु:शतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
महावीर प्रभु के ऋषी, चौदह सहस प्रमाण।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, मिले सौख्य निर्वाण।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: चतुर्दशसहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य-शंभु छंद—
चौबिस जिनवर के समवसरण में ऋषिगण जो भी माने हैं।
वे सब अट्ठाइस लाख अष्ट चालीस हजार बखाने हैं।।
वे सब अर्हन्मुद्राधारी, कामारि शत्रु के जेता हैं।।
मैं इनको प्रणमूँ बार बार, ये परमानंद के भोक्ता हैं।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितअष्टाविंशतिलक्षअष्ट-
चत्वारिंशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्यमंत्र—१. ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुभ्यो नम:।
२. ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकरसमवसरणस्थितसर्वसाधुभ्यो नम:।
(दोनों में से कोई एक मंत्र की १०८ बार लवंग या सुगंधित पुष्पों से जाप्य करना)।
त्रिभंगी छंद
जय जय सब ऋषिगण, भूषित गुणमणि, मूलोत्तर गुण पूर्ण भरें।
जय नग्न दिगम्बर, मुक्ति वधूवर, सुरपति नरपति चरण परें।।
मैं पूजूँ तुमको, नित सुमती दो, पाप पुंज अंधेर टले।
होवे सब साता, मिटे असाता, पुण्य राशि हो ढेर भले।।१।।
—नाराच छंद—
नमूँ नमूँ मुनीश! आप पाद पद्म भक्ति से।
भवीक वृंद आप ध्याय कर्म पंक धोवते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।२।।
अठाइसों हि मूलगुण धरें दया निधान हैं।
अठारहों सहस्र शील धारते महान हैं।।अनाथ.।।३।।
चुरासि लाख उत्तरी गुणों कि आप खान हैंं।
समस्त योग साधते अनेक रिद्धिमान हैं।।अनाथ.।।४।।
समस्त अंगपूर्व ज्ञान सिंधु में नहावते।
निजात्म सौख्य अमृतैक पूर स्वाद पावते।।अनाथ.।।५।।
अनेक विध तपश्चरण करो न खेद है तुम्हें।
अनंत ज्ञानदर्श वीर्य प्राप्ति कामना तुम्हें।।अनाथ.।।६।।
सु तीन रत्न से महान आप रत्न खान हैं।
अनेक रिद्धि सिद्धि से सनाथ पुण्यवान हैं।।अनाथ.।।७।।
परीषहादि आप से डरें न पास आवते।
तुम्हीं समर्थ काम मोह मृत्यु मल्ल मारते।।अनाथ.।।८।।
बिहार हो जहाँ जहाँ सु आप तिष्ठते जहाँ।
सुभिक्ष क्षेम हो सदैव ईति भीति ना वहाँ।। अनाथ.।।९।।
सुधन्य धन्य पुण्यभूमि आपसे हि तीर्थ हो।
सुरेंद्र चक्रवर्ति वंद्य भूमि भी पवित्र हो।।अनाथ.।।१०।।
जयो जयो मुनीश! आप भक्ति मोह को हरे।
जयो मुनीश! आप भक्त आत्मशक्ति को धरें।।अनाथ.।।११।।
अपूर्व मोक्षमार्ग युक्ति पाय मुक्ति को वरें।
पुनर्भवों से छूट के सु पंचमी गती धरें।।अनाथ.।।१२।।
मुनीश! आप पास आय स्वात्म तत्त्व पा लिया।
समस्त कर्म शून्य ज्ञान पुंज आत्म जानिया।।अनाथ.।।१३।।
—दोहा—
छट्ठे गुणस्थान से, चौदहवें तक मान्य।
नमूँ महर्षि सर्व को, मिले ‘ज्ञानमति’ साम्य।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितप्रमत्तादिअयोगिगुणस्थान-
पर्यंतसर्वमहर्षिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
तीर्थंकर प्रभु के समवसरण के, महर्षिगण को वंदन है।
उनकी भक्ती मंगलकारी, वे जिनवर के लघुनंदन हैं।।
जो श्रीमहर्षिविधान को, गुरुवर भक्ती से करते हैं।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ रत्नत्रय निधि, ले शीघ्र भवोदधि तिरते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।