अर्हंतो मंगलं कुर्यु: सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि साधवो मम मंगलम्।।१।।
झं वं ह्व: प: ह: लिखे, गुरुमुद्रा के अग्र।
झरते अमृत से करे, मंत्रस्नान पवित्र।।२।।
(पंचगुरुमुद्रा बनाकर उनके अग्रभागों पर झं वं ह्व: प: ह: ये पाँच मंत्र क्रम से लिखें। उस मुद्रा को मस्तक पर रखकर यह चिंतवन करें कि इन अक्षरों से अमृत झर रहा है। पुन: नीचे लिखे मंत्र को पढ़ते हुये अमृत स्नान करें।)
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय सं हं झं क्ष्वीं हं स: स्वाहा। (यह अमृतप्रोक्षण विधि हुई)
है अग्निमंडल त्रिकोण सरेफ दीखे।
ओंकार मध्य त्रय कोणहि साथिया हैं।।
रेफाग्र से निकल अग्नि जला रही है।
ये सात धातुमय देह जले हमारा।।३।।
नाभि कमल पर स्वर लिखे, अर्हं मध्य लसंत।
इससे अग्नि निकल कर, त्रयविध देह दहंत।।
ॐ ह्रीं नमोऽर्हते भगवते जिनभास्करस्य बोधसहस्रकिरणै: मम कर्मेंधनद्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा। (द्रव्यशोषणं-कर्मद्रव्य सूख रहे हैं, ऐसा सोचें।) ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं हर्म्ल्व्य्रूं जं जं सं सं दह दह विकर्ममलं दह दह दु:खं दह दह हूँ फट् घे घे स्वाहा। (यह मंत्र बोलकर कपूर जलाकर सामने रकेबी में रखकर ऐसा चिंतन करें कि कर्म र्इंधन जल रहे हैं।)
वायुमंडल से पवन, चले स्वाय से व्याप्त।
सर्वकर्मरज उड़ चली, आत्म शुद्धि हो प्राप्त।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जिनप्रभंजनाय कर्मभस्मविधूननं कुरु कुरु स्वाहा। (यह मंत्र पढ़कर ऐसा सोचें कि कर्म जलने से जो भस्म हुई थी वह उड़ गई।)
अमृतवर्षापूर से, धुले कर्मरज सर्व।
आत्मा शुद्ध स्फटिक सम, मिलें स्वगुण सर्वस्य।।५।।
(मेघ से अमृत की वर्षा होने से आत्मा के कर्मरज धुल गये हैं और वह स्फटिक सम स्वच्छ मूर्ति हो गई है, ऐसा सोचें।) (पुन: पाँचों अंगुलियों में मूल से लेकर तीनों रेखा व अग्रभाग पर क्रम से निम्नलिखित मंत्र लिखें।) ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं। ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं। ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं। ॐ ह्र: णमो लोए सव्व साहूणं। पुन: निम्न मंत्र बोलते हुए दोनों हाथों को जोड़कर मिला लेवें— ॐ ह्रीं अर्हं वं मं हं सं तं पं अ सि आ उ सा हस्तसंघटनं करोमि स्वाहा। पुन: जुड़े हुए हाथों से ही नीचे लिखे मंत्र बोलते हुए उन अंगों का स्पर्श करें—
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं स्वाहा। (हृदय का स्पर्श करें।) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। (ललाट का स्पर्श करें।)
ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं स्वाहा। (सिर के दक्षिण भाग का स्पर्श करें।)
ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा। (सिर के पश्चिम भाग का स्पर्श करें।)
ॐ ह्र: णमो लोएसव्वसाहूणं स्वाहा। (सिर के पश्चिम भाग का स्पर्श करें।)
पुन: इन्हीं उपर्युक्त मंत्रों को बोलते हुए क्रम से सिर के मध्य भाग, सिर के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भागों का स्पर्श करें। इसे अंग न्यास कहते हैं। पुन: बायें हाथ की तर्जनी अंगुली पर ‘‘अ सि आ उ सा’’ इन पाँच मंत्रों को लिखकर सब अंगुलियों को बंद कर इस तर्जनी को ही लम्बी कर निम्नलिखित मंत्र बोलते हुये दशों दिशाओं में दिखाते जावें—
ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं। (पूर्व दिशा में) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं।
(आग्नेय दिशा में) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं। (दक्षिण दिशा में) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं।
(नैऋत दिशा में) ॐ ह्र: णमो लोए सव्व साहूणं।
(पश्चिम दिशा में) ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं।
(वायव्य दिशा में) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं।
(उत्तर दिशा में) ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं।
(ईशान दिशा में) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं।
(अधो दिशा में) ॐ ह्र: णमो लोए सव्व साहूणं। (ऊध्र्व दिशा में)
यह दिग्बंधन हुआ।
इस विध सकलीकरण से, रक्षित होते भव्य।
इष्ट क्रिया करते हुए, न हों किसी से बध्य।।६।।
पुन: नीचे लिखे मंत्र से पुष्प, अक्षत को सात बार मंत्रित कर परिचारक-पूजकों के मस्तक पर डालें— मंत्र—ॐ नमोऽर्हते सर्वं रक्ष रक्ष हॅूँ फट् स्वाहा। यह पूजकों की रक्षा हुई। पुन: सरसों हाथ में लेकर नीचे लिखे मंत्र से मंत्रित कर दशों दिशा में क्षेपण करें— मंत्र—ॐ हूँ फट् किरटिं घातय घातय पर विघ्नान् स्फोटय स्फोटय सहस्रखंडान् कुरु-कुरु आत्मविद्यां रक्ष-रक्ष परविद्यां छिंद छिंद परमंत्रान् भिंद भिंद क्ष: फट् स्वाहा। इस प्रकार सर्वविघ्न उपशमन विधि हुई। यह सकलीकरण पूर्ण हुआ।