-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद-
अर्धचन्द्र सम सिद्ध शिला पर, श्रीचन्द्रप्रभ राजें।
चन्द्रकिरण सम देह कांति को, देख चन्द्र भी लाजे।।
सद्गार्हस्थ्य परमपद पाऊँ, नाथ! आप गुण गाके।
आह्वानन स्थापन करके, यजन करूँ हर्षाके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्य-परमस्थानप्रदायक! श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्य-परमस्थानप्रदायक! श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्य-परमस्थानप्रदायक! श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टकं-नरेन्द्रछंद-
गंगा सरिता का निर्मल जल, रजत कलश भर लाऊँ।
श्री चन्द्रप्रभ चरण कमल में, धारा तीन कराऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय जन्मजरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, गंध सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरण कमल में चर्चूं, निजानंद सुख पाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रकिरणसम उज्ज्वल तंदुल, लेकर पुंज रचाऊँ।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निजआतम पद पाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्ली बेला कमल केवड़ा, पुष्प सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरण कमल में अर्पूं, निजगुण यश विकसाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतपिंड सदृश चरु ताजे, घेवर मोदक लाऊँ।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब दुःख व्याधि नशाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक में ज्योति जलाकर, करूँ आरती भगवन्।
निज घट का अज्ञान दूर हो, ज्ञानज्योति उद्योतन।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाऊँ।
अशुभ कर्म के दग्ध हेतु मैं, अग्नी संग जलाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर सरस फल, लाके थाल भराऊँ।
जिनवर सन्निध अर्पण करते, परमानंद सुख पाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अर्घ बनाऊँ।
उसमें रत्न मिलाकर अर्पूं, तीनरत्न निज पाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
सद्गृहस्थस्थान प्राप्तकर, भव भव दु:ख से छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्मसरोवर नीर से, चन्द्रप्रभ चरणाब्ज।
त्रयधारा विधि से करूँ, मिले शांति साम्राज्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जुही गुलाब सुगंधियुत, वर्ण वर्ण के फूल।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य अनुकूल।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीताछंद-
जिनचंद्र विजयंते अनुत्तर, से चये आये यहाँ।
महासेन पितु माँ लक्ष्मणा के, गर्भ में तिष्ठे यहाँ।।
शुभ चंद्रपुरि में चैत्रवदि, पंचमि तिथी थी शर्मदा।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, मैं पूजहूँ गुणमालिका।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रकृष्णापंचम्यां चन्द्रप्रभतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्र जिनवर पौष कृष्णा, ग्यारसी शुभयोग में।
जन्में उसी क्षण सर्व बाजे, बज उठे सुरलोक में।।
तिहुँलोक में भी हर्ष छाया, तीर्थकर महिमा महा।
सुरशैल पर जन्माभिषव को, देखते ऋषि भी वहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पौषकृष्णाएकादश्यां चन्द्रप्रभतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आदर्श में मुख देखकर, वैराग्य उपजा नाथ को।
वदि पौष एकादशि दिवस, इंद्रादि सुर आये प्रभो।।
पालकी विमला में बिठा, सर्वर्तुवन में ले गये।
स्वयमेव दीक्षा ली किया, बेला जगत वंदित हुए।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पौषकृष्णाएकादश्यां चन्द्रप्रभतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी सप्तमि तिथी, सर्वर्तुवन में आ गये।
तरु नाग नीचे ज्ञान केवल, हुआ सुरगण आ गये।।
धनपति समवसृति को रचा, श्रीचंद्रप्रभ राजें वहाँ।
द्वादशगणों के भव्य जिनध्वनि, सुनें अति प्रमुदित वहाँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं फाल्गुन्ाकृष्णासप्तम्यां चन्द्रप्रभतीर्थंकरज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चंद्रजिन फाल्गुन सुदी, सप्तमि निरोधा योग को।
सम्मेदगिरि से मुक्ति पायी, जजें सुरपति भक्ति सों।।
हम भक्ति से श्रीचंद्रप्रभ, सम्मेदगिरि को भी जजें।
निज आत्म संपति दीजिए, इस हेतु ही प्रभु को भजें।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां चन्द्रप्रभतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
ज्ञान नेत्र से लोकते, लोक अलोक समस्त।
चंद्रप्रभ जिनराज मम, शिवपथ करो प्रशस्त।।१।।
अथ मंडलस्योपरि द्वितीयकोष्ठके पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं जिनानां स्वामिस्वरूपजिनेन्द्रगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१।
ॐ ह्रीं जिनधौरेयगुणसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।
ॐ ह्रीं जिनस्वामिगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३।
ॐ ह्रीं जिनाग्रणीगुणसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।
ॐ ह्रीं जिनेशगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
ॐ ह्रीं जिनशार्दूलगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।६।
ॐ ह्रीं जिनाधीशगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।७।
ॐ ह्रीं जिनोत्तमगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८।
ॐ ह्रीं जिनराजगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।
ॐ ह्रीं जिनज्येष्ठगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०।
ॐ ह्रीं जिनेशिगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।११।
ॐ ह्रीं जिनपालकगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१२।
ॐ ह्रीं जिननाथगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१३।
ॐ ह्रीं जिनश्रेष्ठगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१४।
ॐ ह्रीं जिनमल्लगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१५।
ॐ ह्रीं जिनोन्नतगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१६।
ॐ ह्रीं जिननेतृगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१७।
ॐ ह्रीं जिनस्रष्ट्रगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१८।
ॐ ह्रीं जिनड्गुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१९।
ॐ ह्रीं जिनपतिगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२०।
ॐ ह्रीं कर्मशत्रुविजयिजिननामप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२१।
ॐ ह्रीं जिनदेवगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२२।
ॐ ह्रीं जिनादित्यगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२३।
ॐ ह्रीं जिनेशितृगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२४।
ॐ ह्रीं जिनेश्वरगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२५।
ॐ ह्रीं जिनवर्यगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२६।
ॐ ह्रीं जिनाराध्यगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२७।
ॐ ह्रीं जिनार्च्यगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२८।
ॐ ह्रीं जिनपुंगवगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२९।
ॐ ह्रीं जिनाधिपगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३०।
ॐ ह्रीं जिनध्येयगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३१।
ॐ ह्रीं जिनमुखगुणसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३२।
ॐ ह्रीं जिनेडितगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३३।
ॐ ह्रीं जिनसिंहगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३४।
ॐ ह्रीं जिनप्रेक्षगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३५।
ॐ ह्रीं जिनवृद्धगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३६।
ॐ ह्रीं जिनोत्तरगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३७।
ॐ ह्रीं जिनमान्यगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३८।
ॐ ह्रीं जिनस्तुत्यगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३९।
ॐ ह्रीं जिनप्रभुगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४०।
ॐ ह्रीं जिनोद्वहगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४१।
ॐ ह्रीं जिनपूज्यगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४२।
ॐ ह्रीं जिनाकांक्षिगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४३।
ॐ ह्रीं जिनेन्दुगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४४।
ॐ ह्रीं जिनसत्तमगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४५।
ॐ ह्रीं जिनाकारगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४६।
ॐ ह्रीं जिनोत्तुंगगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४७।
ॐ ह्रीं जिनपगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४८।
ॐ ह्रीं जिनकुंजरगुणप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४९।
ॐ ह्रीं जिनभर्तृगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५०।
ॐ ह्रीं जिनाग्रस्थगुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५१।
ॐ ह्रीं जितभृत्गुणविशिष्टाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५२।
ॐ ह्रीं जिनचक्रभाग्गुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५३।
ॐ ह्रीं जिनचक्रिगुणधारकाय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५४।
-पूर्णार्घ्य-
सर्वजनों से मान्य जगत में, सद्गृहस्थ पद माना।
धर्म-अर्थ अरु काम-मोक्ष का, आकर श्रेष्ठ बखाना।।
सद्गार्हस्थ परम पद दाता, प्रभु को नित्य भजूँ मैं।
चंदाप्रभ को अष्टद्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्य-परमस्थानप्राप्तये श्रीचंद्रप्रभतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्य-परमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय नम:।
-दोहा-
परम हंस परमात्मा, परमानंद स्वरूप।
गाऊँ तुम गुण मालिका, अजर अमर पद रूप।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय श्री चन्द्रप्रभो जिनवर, जय जय तीर्थंकर शिव भर्ता।
जय जय अष्टम तीर्थेश्वर तुम, जय जय क्षेमंकर सुख कर्ता।।
काशी में चन्द्रपुरी सुंदर, रत्नों की वृष्टी खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, त्रिभुवन में हर्ष की वृद्धि हुई।।२।।
प्रभु जन्म लिया जब धरती पर, इन्द्रों के आसन कंप हुए।
प्रभु के पुण्योदय का प्रभाव, तत्क्षण सुर के शिर नमित हुए।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कुसुम खिले लहिये।।३।।
सब जात विरोधी गरुड़, सर्प, मृग, सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिनपद चूम रहे।।
दश लाख वर्ष पूर्वायू थी, छह सौ कर तुंग देह माना।
चिंतित फल दाता चिंतामणि, अरु कल्पतरू भी सुखदाना।।४।।
श्रीदत्त आदि त्रयानवे गणधर, मनपर्यय ज्ञानी माने थे।
मुनि ढाई लाख आत्मज्ञानी, परिग्रह विरहित शिवगामी थे।।
वरुणा गणिनी सह आर्यिकाएँ, त्रय लाख सहस अस्सी मानीं।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख भक्तिरस शुभध्यानी।।५।।
भव वन में घूम रहा अब तक, कचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब जग के त्राता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
गणपति सुरपति नरपति नमते, तुम गुणमणि की बहु भक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।६।।
-दोहा-
हे चन्द्रप्रभ! आपके, हुए पंच कल्याण।
मैं भी माँगूं आपसे, बस एकहि कल्याण।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सद्गार्हस्थ्य-परमस्थानप्राप्तये श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो सप्तपरमस्थान तीर्थंकर विधान सदा करें।
वे भव्य क्रम से सप्तपरमस्थान की प्राप्ती करें।।
संसार के सुख प्राप्त कर फिर सिद्धिकन्या वश करें।
सज्ज्ञानमति रविकिरण से भविमन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।