स्थापना—शंभुछंद
तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठप्रभु समवसरण की रचना है।
इसमें हैं आठ भूमि सुंदर यह धनकुबेर की रचना है।।
अंतर का वैभव है अनंत, तीर्थंकर त्रिभुवन के स्वामी।
मैं वंदूं चौबीसों जिनवर, हो जाऊं निजसंपति स्वामी।।१।।
—दोहा—
आह्वानन कर मैं जजूं, तीर्थंकर परमेश।
आवो आवो नाथ अब, तिष्ठो हृदय हमेश।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—तोटक छंद
जलभृंग भरूं शुचि शीतल मैं।
भव भव की प्यास बुझे क्षण में।।
जिन समवसरण जजहूं नित मैं।
निज आत्म विशुद्धि करूँ नित मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घिस चंदन पात्र भरा रुचि से।
मन शीतल शुद्ध करूँ जजते।।जिन.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि रश्मि सदृश अक्षत भर के।
प्रभु सन्मुख पुंज चढ़ा हरसें।।
जिन समवसरण जजहूं नित मैं।
निज आत्म विशुद्धि करूँ नित मैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
अरविन्द गुलाब लिये सुमना।
जिन पाद सरोज धरूं सुमना।।जिन.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी गुझियाँ पकवान चढ़ा।
निज भूख व्यथा हर सौख्य बढ़ा।।जिन.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीप जले जग ध्वांत टले।
जिन आरति से मन ज्योति जले।।जिन.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध जला अगनी संग में।
सब कर्म जलें सुख हो मन में।।जिन.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अखरोट बदाम चढ़ा करके।
फल मोक्ष मिले गुण गाकर के।।जिन.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरु।
वर दीप व धूप फलादि भरूँ।।जिन.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुं जग में मुझमें सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
(१०८ बार या ९ बार जाप्य करें)
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्म चक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुखवीर्य चतुष्टय भर्त्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इन्द्र नीलमणि रचित गोल आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थव् नाम धरें दर्शन से मानो मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट अरु पांच वेदिकाएं ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है भूमि चैत्यप्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मंदिर अंतर से पाँच पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ दो दोय नाट्यशालाएं हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं सुर भवनवासि कन्याएं हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से भरी दूसरी भूमी है।
फूले कुवलय कमलों से युत हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तवर्ण चंपक अरु आम्र तरू के हैं।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक तरु चैत्यवृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिन प्रतिमा प्रातिहार्ययुत चार-चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवन भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज नवविधि मंगल द्रव्य धरे।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें वे जिनगुण संपति प्राप्त करें।।१३।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो! चिंतित फल दातार।
ज्ञानमती सुख संपदा, दीजे निजगुण सार।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
जो भव्य प्रभु समवसरण की अर्चना करें।
संपूर्ण अमंगल व रोग, शोक, दुख हरें।।
निज आत्म के गुणों को संचित किया करें।
‘सज्ज्ञानमती’ से ही, जीवन सफल करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।