अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद
चौबिस जिनके समवसरण में, आठ भूमियां शोभें।
फूले कमल कुमुद पुष्पों से, वन उपवन मन लोभें।।
साधु आर्यिका श्रावक सुरगण, भक्ति भाव से वंदे।
पूजूँ जिनवर समवसरण को, अतिशय मन आनंदे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुावशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—सोरठा
नीर सुरभि युत शुद्ध, त्रयधारा जिनपद करूँ।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन सुरभि युक्त, जिनपद पंकज चर्च के।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत उज्जवल धौत, पुंज धरूँ जिन अग्र मैं।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित बहुविध पुष्प, जिनपद पंकज अर्पते।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर मोदक शुद्ध, जिनवर अग्र चढ़ाय के।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगमग ज्योती युक्त, दीपक से जिन पूजके।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशवस्तु विमिश्रित धूप, जिनवर सन्मुख खेवते।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध फल रसयुक्त, जिनवर अग्र चढ़ाय के।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन मिश्रित अर्घ, भर भर थाल चढ़ाय के।
चौबीसों तीर्थेश, समवसरण पूजूँ सदा।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुावशतितीर्थंकरसमवसरणाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
सीतानदि को नीर, सुवरण झारी में भरुँ।
मिले भवोदधितीर, जिनपद त्रयधारा करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला वकुल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
पुष्पांजलि को आप, चरण चढ़ाते यश बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्म चक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुखवीर्य चतुष्टय भर्त्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इन्द्र नीलमणि रचित गोल आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब्ा बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से मानो मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट अरु पांच वेदिकाएं ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है भूमि चैत्यप्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मंदिर अंतर से पाँच पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ दो दोय नाट्यशालाएं हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं सुर भवनवासि कन्याएं हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से भरी दूसरी भूमी है।
फूले कुवलय कमलों से युत हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तवर्ण चंपक अरु आम्र तरु के हैं।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक तरु चैत्य वृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिन प्रतिमा प्रातिहार्ययुत चार-चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवन भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज नवविधि मंगल द्रव्य धरे।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें वे जिनगुण संपति प्राप्त करें।।१३।।
—दोहा—
सब जन को देता शरण, समवसरण जिन आप।
‘ज्ञानमती’ सुख संपदा, भरो पूर्ण निष्पाप।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
जो भव्य प्रभु समवसरण की अर्चना करें।
संपूर्ण अमंगल व रोग, शोक, दुख हरें।।
निज आत्म के गुणों को संचित किया करें।
‘सज्ज्ञानमती’ से ही, जीवन सफल करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।