अथ स्थापना—गीता छंद
चौबीस तीर्थंकर प्रभू, उन समवसरण मनोज्ञ हैं।
प्रभुदर्श कर सकते वही, जो भव्य मुक्ती योग्य हैं।।
तीर्थंकरों की भक्ति से, हम स्वात्महित अर्चा करें।
उन समवसरणों को जजें, आह्वान स्थापन करें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक-अडिल्ल छंद
काल अनादी से तृष्णा दुख देत है।
तास निवारण हेतु नीर शुचि लेत हैं।।
प्रभु समवसरण जो भव्य पूजते भक्ति से।
कीर्ति ध्वजा फर हरे उन्हों की चहुंदिशे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव भव के त्रयताप निवारण कारणे।
मलयागिरि चंदन घिस लायो पावने।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल उज्जवल धोय, पुंज रचना करें।
निज अखंड पद मिले, पुनर्भव ना धरें।।प्रभु.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
विविध वर्ण के पुष्प सुगंधित लावते।
पूजत ही यश सुरभि बढ़े दशहूँ दिशे।।
प्रभु समवसरण जो भव्य पूजते भक्ति से।
कीर्ति ध्वजा फर हरे उन्हों की चहुंदिशे।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक पेड़ा बरफी भर के थाल में।
पूजत भागे क्षुधा व्याधि तत्काल में।।प्रभु.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक में कर्पूर जला आरति करें।
ज्ञान ज्योति को जला भ्रांति तम परिहरें।।प्रभु.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप धूप घट में जो खेते भक्ति से।
स्वपर भेद विज्ञान उन्हें हो युक्ति से।।प्रभु.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतफल अंगूर आम केला भले।
फल से पूजत सर्व सौख्य मिलते भले।।प्रभु.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदिक अर्घ्य चढ़ाते सुख मिले।
पाप ताप संताप मिटे जन मन खिलें।।प्रभु.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुं जग में मुझमें सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितवृषभादिवर्धमानान्तेभ्यो नम:।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्म चक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुखवीर्य चतुष्टय भर्त्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इन्द्र नीलमणि रचित गोल आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से मानो मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट अरु पांच वेदिकाएं ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है भूमि चैत्यप्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मंदिर अंतर से पाँच पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ दो दोय नाट्यशालाएं हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं सुर भवनवासि कन्याएं हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से भरी दूसरी भूमी है।
फूले कुवलय कमलों से युत हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तवर्ण चंपक अरु आम्र तरू के हैं।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक तरु चैत्य वृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिन प्रतिमा प्रातिहार्ययुत चार-चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवन भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज नवविधि मंगल द्रव्य धरे।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें वे जिनगुण संपति प्राप्त करें।।१३।।
—दोहा—
त्रिभुवन के सब विभवयुत, समवसरण जगश्रेष्ठ।
‘ज्ञानमती’ शिरनत नमूं, बनूं जगत में ज्येष्ठ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीसमवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
जो भव्य प्रभु समवसरण की अर्चना करें।
संपूर्ण अमंगल व रोग, शोक, दुख हरें।।
निज आत्म के गुणों को संचित किया करें।
‘सज्ज्ञानमती’ से ही, जीवन सफल करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।