अथ स्थापना-गीताछंद
जो पंच कल्याणकपती, शत इन्द्र गण से वंद्य हैं।
जिनदेव जिनेंद्र जिनेश जिनवर, नाम से अभिनंद्य हैं।।
वे दिव्य देशना दे करके सब भाषा के अधिपती बने।
उनका आह्वानन कर पूजें, हम स्वपर ज्ञान के धनी बने।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्र समूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्र समूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक-अडिल्लछंद
पद्माकर को नीर कमल वासित सुरभि।
जिनपद धारा देय लहूँ आतम सुरभि।।
श्रीतीर्थंकर नाम जजूँ मन लायके।
समकित निधि ले हर्षूं निज गुण पायके।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टगंध ले जिन पद चर्चं भाव से।
रोग शोक भय ताप हरूँ शुभ भाव से।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
वासमती तंदुल सौगंधित ले लिये।
पुँज धरा तुम आगे नित ध्याऊँ हिये।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु के सुरभित सुमनों को लायके।
कामजयी जिनपद को पूजूँ आयके।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पायस फेनी बरफी मोदक ले लिया।
परमामृत से तृप्त जिनेश्वर अर्चिया।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतदीपक की ज्योति सर्वदिश तम हरे।
जिनपद पूजत भेदज्ञान ज्योती भरे।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू वरधूप अग्नि में खेवते।
कर्मजलें सब अशुभ नाथपद सेवते।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता द्राक्ष बदाम चिरौंजी लायके।
मोक्ष महाफल हेतु जजूँ गुण गायके।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध आदिक ले अर्घ्य बनायके।
पूजूँ भक्ति समेत हर्ष उर लायके।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
जिनवर चरणसरोज को, जल धारा से नित्य।
पूजत ही शांती मिले, चउसंघ में भी इत्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल बेला कुसुम, सुरभित हरिंसगार।
पुष्पांजलि से पूजते मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
गुणीजनों में गुण रहें, बिन आश्रय न बसंत।
गुणयुत नामों को यजत, गुणी स्वयं पूजंत।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
चाल-हे दीनबंधु
हे नाथ ‘दिव्यभाषापति’ आप कहाये।
अठरा महाभाषा व लघू सात सौ गाये।।
तुम नाम मंत्र पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।१०१।।
ॐ ह्रीं दिव्यभाषापतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘दिव्य’ तुम हो, अतिशय सुरूप से।
नर सुर से अधिक सुंदर तन आपका दिपे।।तुम.।।१०२।।
ॐ ह्रीं दिव्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘पूतवाक्’ आपकी वाणी पवित्र है।
सब दोष से विवर्जित अतिशय विशुद्ध है।।तुम.।।१०३।।
ॐ ह्रीं पूतवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘पूतशासन’ तुम मत पवित्र है।
वह पूर्व अपर के विरोध दोष रहित है।।तुम.।।१०४।।
ॐ ह्रीं पूतशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूतात्मा’ प्रभु आपकी आत्मा पवित्र है।
अरु आप भव्यजीव को करते पवित्र हैं।।तुम.।।१०५।।
ॐ ह्रीं पूतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘परमज्योति’ आप ज्योतिपुंज हैं।
उत्कृष्ट ज्ञानज्योति रूप तेजपुंज हैं।।तुम.।।१०६।।
ॐ ह्रीं परमज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘धर्माध्यक्ष’ चरित के अधीश हो।
दशधर्म के अध्यक्ष ज्ञान के अधीश हो।।तुम.।।१०७।।
ॐ ह्रीं धर्माध्यक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंन्द्रियजयी दमी मुनि के ईश आप हैं।
हे नाथ ‘दमीश्वर’ प्रसिद्ध मुक्तिनाथ हैं।।तुम.।।१०८।।
ॐ ह्रीं दमीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसार मोह संपदा लक्ष्मी के पती हो।
हे नाथ आप श्रीपति मुक्ती के पती हो।।तुम.।।१०९।।
ॐ ह्रीं श्रीपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भगवान्’ आप ज्ञान व ऐश्वर्य पूर्ण हो।
सुरपूज्य आठ प्रातिहार्य विभव पूर्ण हो।।तुम.।।११०।।
ॐ ह्रीं भगवते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अर्हंत’ इन्द्र आदि से पूजा को प्राप्त हो।
अरि रज१ रहस्य चार कर्म रहित आप हो।।तुम.।।१११।।
ॐ ह्रीं अर्हंते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘अरज’ आप कर्मधूलि हीन हो।
ज्ञानावरण व दर्शनावरण विहीन हो।।तुम.।।११२।।
ॐ ह्रीं अरजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘विरज’ आप कर्मरज विहीन हो।
भव्यों की कर्मधूलि नाश में प्रवीण हो।।तुम.।।११३।।
ॐ ह्रीं विरजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘शुचि’ ब्रह्मचर्य से पवित्र हो।
निज शुद्ध आत्म तीर्थ स्नान से पवित्र हो।।तुम.।।११४।।
ॐ ह्रीं शुचये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘तीर्थकृत्’ भवोदधि से भव्य तारते।
श्रुत द्वादशांग तीर्थ के कर्ता बखानते।।तुम.।।११५।।
ॐ ह्रीं तीर्थकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण मोह आवरण व विघ्न१ नाशिया।
वैवल्य पाय ‘केवली’ हो मुनि भाषिया।।
तुम नाम मंत्र पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।११६।।
ॐ ह्रीं केवलिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ईशान’ आप अनंत शक्ति से समर्थ हो।
अहिंमद्र आदि के भि ईश जग प्रसिद्ध हो।।तुम.।।११७।।
ॐ ह्रीं ईशानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूजार्ह’ पाँचविधा अर्चना के योग्य हो।
मह कल्पतरु ऐन्द्रध्वज आदि पूज्य हो।।तुम.।।११८।।
ॐ ह्रीं पूजार्हाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म मल कलंक धोय शुद्ध आत्मा।
हे नाथ ‘स्नातक’ सुज्ञान चंद्रपूर्णिमा।।तुम.।।११९।।
ॐ ह्रीं स्नातकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘अमल’ देह मलादि विहीन हो।
नैर्मल्य आप राग आदि दोष क्षीण हो।।तुम.।।१२०।।
ॐ ह्रीं अमलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनंतदीप्ति’ नाथ ज्ञानदीप्ति धारते।
निजदेह दीप्ति से समस्त ध्वांत वारते।।तुम.।।१२१।।
ॐ ह्रीं अनंतदीप्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पाँच विधे ज्ञान से ‘ज्ञानात्मा’ कहे।
वैवल्यज्ञानदेहमयी आत्मा कहे।।तुम.।।१२२।।
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘स्वयंबुद्ध’ स्वयं ही प्रबुद्ध हो।
गुरू की सहाय बिन समस्त ज्ञान युक्त हो।।तुम.।।१२३।।
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रजापति’ त्रिलोक जीव रक्षते पती।
संपूर्ण प्रजा को सदा पालें प्रजापती।।तुम.।।१२४।।
ॐ ह्रीं प्रजापतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘मुक्त’ कर्म बंधनादि मुक्त हो।
संपूर्ण दोष से विमुक्त भ्रमण मुक्त हो।।तुम.।।१२५।।
ॐ ह्रीं मुक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चाल-नंदीश्वर पूजा
प्रभु ‘शक्त’ नाम है आप, परिषह सहन किया।
तुम भक्ति करे निष्पाप, इससे शरण लिया।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१२६।।
ॐ ह्रीं शक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निराबाध’ उपसर्ग, बाधा विरहित हो।
निज भक्तों को सुख स्वर्ग, देते शिवप्रद हो।।तुम.।।१२७।।
ॐ ह्रीं निराबाधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निष्कल’ देह विमुक्त, काल कला हीना।
विज्ञान कलागुण युक्त, कवलाहार बिना।।तुम.।।१२८।।
ॐ ह्रीं निष्कलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भुवनेश्वर’ त्रिभुवन ईश, भविजन के त्राता।
मैं जजूँ नमाकर शीश, पाऊँ सुख साता।।तुम.।।१२९।।
ॐ ह्रीं भुवनेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरंजन’ आप, कर्मांजन शून्या।
सब द्रव्यभाव नोकर्म, विरहित सुख पूर्णा।।तुम.।।१३०।।
ॐ ह्रीं निरंजनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘जगज्ज्योति’ जिनराज, केवलज्ञान लहा।
सब लोक अलोक प्रकाश, अनुपम ज्योतिमहा।।तुम.।।१३१।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरुक्तोक्ती’ य, सार्थक वचन धरो।
सब पूर्वापर अविरोधि, हित उपदेश करो।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१३२।।
ॐ ह्रीं निरुक्तोक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरामय’ आप, व्याधि विवर्जित हो।
पूजत ही स्वास्थ्य सुलाभ, भविजन हर्षित हो।।तुम.।।१३३।।
ॐ ह्रीं निरामयाम नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचलस्थिति’ हे जिननाथ, तुम थल अचल कहा।
हो अचल आत्म थल वास, पूजूँ हरस महा।।तुम.।।१३४।।
ॐ ह्रीं अचलस्थितये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षोभ्य’ नाथ नहिं क्षोभ, तुममें कभी हुआ।
सब मिटे चित्त का क्षोभ, ये ही विनय किया।।तुम.।।१३५।।
ॐ ह्रीं अक्षोभ्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कूटस्थ’ कूट-लोकाग्र, ऊपर तिष्ठे हो।
करिये मुझ मन एकाग्र, ईप्सित देते हो।।तुम.।।१३६।।
ॐ ह्रीं क्रूटस्थाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ आप ‘स्थाणु’, गमनागमन नहीं।
हे लोकशिखर विश्राम, काल अनंत सही।।तुम.।।१३७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अक्षय’ क्षय नहिं होय, काल अनंते भी।
याइंद्रिय सुख नहिं कोय, आप अतीन्द्रिय भी।।तुम.।।१३८।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘अग्रणी’ आप, जग में मुख्य सही।
ले जाते तुम लोकाग्र, भवि को सौख्य मही।।तुम.।।१३९।।
ॐ ह्रीं अग्रण्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘ग्रामणी’ आप, जग में भव्यों को।
करवाते मुक्ती प्राप्त, निज सुख दो मुझको।।तुम.।।१४०।।
ॐ ह्रीं ग्रामण्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भविजन को हितपथ माहिं, ले जाते ‘नेता’।
मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाय, शिवपथ के नेता।।तुम.।।१४१।।
ॐ ह्रीं नेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु द्वादशांगमय शास्त्र रचना करते हो।
इसलिये ‘प्रणेता’ आप, हित उपदिशते हो।।तुम.।।१४२।।
ॐ ह्रीं प्रणेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु न्यायशास्त्र उपदेश, करते आप सदा।
तुम ‘न्यायशास्त्रवित्’ नाम, कहते इंद्र मुदा।।तुम.।।१४३।।
ॐ ह्रीं न्यायशास्त्रविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित धर्मामृत उपदेश, देते गुरू ‘शास्ता’।
हित अनुशास्ता परमेश, देवो मुझ साता।।तुम.।।१४४।।
ॐ ह्रीं शास्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धर्मपती’ तुम नाम, धर्माधीश्वर हो।
दश धर्मों के तुम धाम, शिवप्रद ईश्वर हो।।तुम.।।१४५।।
ॐ ह्रीं धर्मपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु चउविध धर्मसमेत, धर्म्य कहाते हो।
रत्नत्रय जीवदयादि, वस्तुस्वभाव कहो।।तुम.।।१४६।।
ॐ ह्रीं धर्म्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम आत्मा धर्मस्वरूप, शिवफल प्राप्त किया।
‘धर्मात्मा’ नाम अनूप, सुरपति आन दिया।।तुम.।।१४७।।
ॐ ह्रीं धर्मात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धर्मतीर्थकृत’ आप, धर्म सुतीर्थ किया।
सम्यक् चारितमय तीर्थ, का उपदेश दिया।।तुम.।।१४८।।
ॐ ह्रीं धर्मतीर्थकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वृषध्वज’ आप प्रसिद्ध, धर्मध्वजा धारो।
तुम वृषभ चिन्ह से सिद्ध, पाप सु परिहारो।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१४९।।
ॐ ह्रीं वृषध्वजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृष-धर्म अहिंसारूप, उसके स्वामी हो।
हो ‘वृषाधीश’ निज रूप, अंतर्यामी हो।।तुम.।।१५०।।
ॐ ह्रीं वृषाधीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चामर छंद-
नाथ ‘वृषकेतु’ आप धर्म की ध्वजा करो।
जन धर्म की ध्वजा त्रिलोक में भि फरहरो।।
आप नाममंत्र की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रचना।।१५१।।
ॐ ह्रीं वृषकेतवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म शत्रु नाश हेतु धर्मशस्त्र धारते।
नाथ! ‘वृषायुध’ अनंत जन्म को निवारते।।आप.।।१५२।।
ॐ ह्रीं वृषायुधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘वृष’ नामधारि धर्मरूप विश्व में।
धर्ममय पियूष वृष्टि कारि मेघ भव्य में।।आप.।।१५३।।
ॐ ह्रीं वृषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषपती’ दयामयी सुधर्म के पती।
आप शर्ण पाप भव्य लेय पंचमी गती।।आप.।।१५४।।
ॐ ह्रीं वृषपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘भर्तृ’ आप भव्य जीव पोषते सदा।
दु:ख से निकाल श्रेष्ठ सौख्य में धरें सदा।।आप.।।१५५।।
ॐ ह्रीं भर्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषभांक’ बैल चिन्ह आपका कहा।
श्रेष्ठ धर्म चिन्ह से समस्त को सुखी किया।।आप.।।१५६।।
ॐ ह्रीं वृषभांकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषोद्भव’ सुआप धर्म को जनम दिया।
धर्म से हि तीर्थनाथ होय जन्म धारिया।।आप.।।१५७।।
ॐ ह्रीं वृषोद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘हिरण्यनाभि’ स्वर्ण रूप नाभि धारते।
आप गर्भ पूर्व इन्द्र स्वर्णवृष्टि कारते।।आप.।।१५८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यनाभते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत आतमा’ जिनेश! सत्यरूप आतमा।
आप पाद शीश नाय होउँ अंतरातमा।।आप.।।१५९।।
ॐ ह्रीं भूतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूभृत्’ प्रभो! समस्त भव्यजीव पोषते।
आप शर्ण आय साधु सर्व कर्म धोवते।।आप.।।१६०।।
ॐ ह्रीं भूभृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत भावनो’ सुआप भावना सुउत्तमा।
हाथ जोड़ शीश नाय भव्य जांय मुक्ति मा।।आप.।।१६१।।
ॐ ह्रीं भूतभावनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘प्रभव’ आप मुक्ति प्राप्ति हेतु भव्य को।
आप जन्म है प्रशंस सौख्य हेतु विश्व को।।आप.।।१६२।।
ॐ ह्रीं प्रभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विभव’ भव विमुक्त भव्य भव विनाशते।
भव विशिष्ट पाय धर्मचक्र को चलावते।।आप.।।१६३।।
ॐ ह्रीं विभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भास्वान्’ आप ज्ञानदीप्ति रूप हो।
आत्म को प्रकाश्य भव्य को प्रकाश हेतु हो।।आप.।।१६४।।
ॐ ह्रीं भास्वते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भव’ उत्पत्ति व्यय व ध्रौव्य सत् रूप हो।
भव्य चित्त मांहि होय पापपंक धोत हो।।
आप नाममंत्र की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रचना।।१६५।।
ॐ ह्रीं भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भाव’ आप चित्स्वरूप स्वात्म में हि लीन हो।
साधुवृन्द के हृदय निलीन दु:ख हीन हो।।आप.।।१६६।।
ॐ ह्रीं भावाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘भवांतको’ चतुर्गती भवो कुनाशिया।
भव्य के अनंतभव क्षणेक में विनाशिया।।आप.।।१६७।।
ॐ ह्रीं भवान्तकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो! ‘हिरण्यगर्भ’ गर्भ पूर्व स्वर्ण वर्षते।
आपके पिता कि जीत ना किसी से हो सके।।आप.।।१६८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यगर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीगरभ’ सुआप अन्तरंग नंतसंपदा।
श्री सु आदि देवियों ने मात सेव की मुदा।।आप.।।१६९।।
ॐ ह्रीं श्रीगर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो! ‘प्रभूतविभव’ आपका विभव महान है।
तीन लोक साम्राज्य पाय सुख निधान हैं।।आप.।।१७०।।
ॐ ह्रीं प्रभूतविभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अभव’ आप जन्म ना धरें कभी यहाँ।
आप पाद सेय भव्य जनम नाशते यहाँ।।आप.।।१७१।।
ॐ ह्रीं अभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्वयंप्रभु’ आप ही स्वयं समर्थ हैं।
सर्व कर्म नाश हेतु आप पूर्ण दक्ष हैं।।आप.।।१७२।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रभूतातमा’ सुआप आतमा यहाँ।
ज्ञान से समस्त लोक व्यापता सुखावहा।।आप.।।१७३।।
ॐ ह्रीं प्रभूतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूतनाथ’ सर्वजीव के हि आप नाथ हो।
आप भक्ति से मुनीशवृंद भी सनाथ हों।।आप.।।१७४।।
ॐ ह्रीं भूतनाथाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगतत्प्रभु’ त्रिलोक स्वामि हो समर्थ हो।
सर्व सौख्यदान हेतु आप पूर्ण दक्ष हो।।आप.।।१७५।।
ॐ ह्रीं जगत्प्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सखी-छंद
‘सर्वादि’ सर्व-जग आदी।
तुमसे सृष्टी उत्पादी।।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ।
सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७६।।
ॐ ह्रीं सर्वादये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सर्वदृक्’ तुम हो।
सब वस्तु देखते प्रभु हो।।तुम.।।१७७।।
ॐ ह्रीं सर्वदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सार्व’ सभी को पालें।
सबका हित करने वाले।।तुम.।।१७८।।
ॐ ह्रीं सार्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वज्ञ’ सर्व जग जानो।
त्रैलोक्य त्रिकालिक जानो।।तुम.।।१७९।।
ॐ ह्रीं सर्वज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ हो।
सब कुमतों के मर्दक हो।।तुम.।।१८०।।
ॐ ह्रीं सर्वदर्शनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वात्मा’ तुम अंतर में।
सब वस्तु झलकती क्षण में।।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ।
सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८१।।
ॐ ह्रीं सर्वात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सर्वलोकेशा’।
तिहुँलोक अलोक अधीशा।।तुम.।।१८२।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सर्वविद्’ मानें।
इक क्षण में सबको जानें।।तुम.।।१८३।।
ॐ ह्रीं सर्वविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सर्वलोकजित्’ तुम हो।
पणविध संसार विजित् हो।।तुम.।।१८४।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगति’ मोक्षगति सुन्दर।
कैवल्यज्ञान उत्तम धर।।तुम.।।१८५।।
ॐ ह्रीं सुगतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ अतिशायि प्रसिद्धा।
सब भावश्रुतों के धर्ता।।तुम.।।१८६।।
ॐ ह्रीं सुश्रुताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ सब अरज सुना है।
भव्यों हित मार्ग भणा है।।तुम.।।१८७।।
ॐ ह्रीं सुश्रुते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप वचन उत्तम हैं।
अतएव ‘सुवाक्’ प्रथम हैं।।तुम.।।१८८।।
ॐ ह्रीं सुवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सूरि’ सभी के गुरू हो।
सब विद्याओं के धुरि हो।।तुम.।।१८९।।
ॐ ह्रीं सूरये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बहुश्रुत’ सब श्रुत के ज्ञानी।
तुमसे प्रकटी जिनवाणी।।तुम.।।१९०।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्रुत’ त्रिभुवन विख्याता।
श्रुत बिना चराचर ज्ञाता।।तुम.।।१९१।।
ॐ ह्रीं विश्रुताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वत:पाद’ तम घाती।
तुम ज्ञान किरण जग व्यापी।।तुम.।।१९२।।
ॐ ह्रीं विश्वत:पादाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वशीर्ष’ सिरताजो।
तुम लोक शिखर पर राजो।।तुम.।।१९३।।
ॐ ह्रीं विश्वशीर्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शुचिश्रवा’ तुम कर्णा।
भवि वचन सुनें दें शर्णा।।तुम.।।१९४।।
ॐ ह्रीं शुचिश्रवणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘सहस्रशीर्षा’ हो।
आनन्त्य सुखी कीर्ता हो।।तुम.।।१९५।।
ॐ ह्रीं सहस्रशीर्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षेत्रज्ञ’ क्षेत्र-आत्मा को।
जाना सब कर आत्मा को।।तुम.।।१९६।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहस्राक्ष’ जग मानें।
आनन्त्य पदार्थ सुजानें।।तुम.।।१९७।।
ॐ ह्रीं सहस्राक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहस्रपात्’ जगव्यापा।
तुम बल अनंत जगख्याता।।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ।
सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९८।।
ॐ ह्रीं सहस्रपदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत भव्यभवद्भर्ता’ हो।
त्रैकालिक सुख कर्ता हो।।तुम.।।१९९।।
ॐ ह्रीं भूतभव्यभवद्भर्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वविद्यामहेश्वर’ तुम ही।
सब विद्या के ईश्वर ही।।तुम.।।२००।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्यामहेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
दिव्यभाषापति से ले करके, सुविश्वविद्यामाहेश्वर तक।
सौ नाम मंत्र तुम जपने से, शतखंड खंड हो जावें अघ।।
मैं अतिशय भक्ती श्रद्धा से, तुम नाम मंत्र को नित पूजूँ।
निज आतम अमृतरस पीकर, सब जन्म मरण दु:ख से छूटूँ।।२।।
ॐ ही दिव्यभाषापत्यादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारक चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-दोहा-
पूरब भव में आपने, सोलह कारण भाय।
तीर्थंकर पद पायके, तीर्थ चलाया आय।।१।।
-रोला छंद-
दर्शविशुद्धि प्रधान, नित्य प्रती प्रभु पाके।
अष्ट अंग से शुद्ध, दोष पचीस हटाके।।
मन वचकाय समेत, विनय भावना भायी।
मुक्ति महल का द्वार, खोल दिया सुखदायी।।२।।
व्रत शीलों में आप, निंह अतिचार लगाया।
संतत ज्ञानाभ्यास, करके निजसुख पाया।।
भव तन भोग विरक्त, मन संवेग बढ़ाया।
शक्ती के अनुसार, चउविध दान रचाया।।३।।
बारह विध तप धार, आतम शक्ति बढ़ाई।
धर्म शुक्ल से सिद्ध, साधु समाधि कराई।।
दशविध मुनि की नित्य, वैयावृत्य किया था।
सर्व शक्ति से पूर्ण, बहु उपकार किया था।।४।।
श्री अर्हंत जिनेश, भक्ति हृदय में धरके।
सूरि परम परमेश, गुणस्तवन उचरते।।
उपाध्याय गुरूदेव, शिवपथ के उपदेष्टा।
प्रवचन भक्ति समेत, गुणगण भजा हमेशा।।५।।
षट् आवश्यक नित्य, करके दोष नशाया।
हानि रहित परिपूर्ण, निज कर्त्तव्य निभाया।।
मार्ग प्रभावन पाय, धर्म महत्त्व बढ़ाया।
प्रवचन में वात्सल्य, कर निज गुण प्रगटाया।।६।।
सोलह कारण साध, पंच कल्याणक पाया।
दिव्य ध्वनी से नित्य, धर्म सुतीर्थ चलाया।।
भव्य अनंतानंत, भव से पार किया है।
मुक्तिरमा को पाय, शिवपुर धाम लिया है।।७।।
मैं पूजूँ नित आप, प्रणमूं भक्ति बढ़ाऊँ।
जिस विध हो उस रीति, जिनगुण संपति पाऊँ।।
चिच्चैतन्य स्वरूप, चिन्मय ज्योति जलाऊँ।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ रूप, परम ज्योति प्रगटाऊँ।।८।।
-दोहा-
तुम प्रसाद से नाथ! अब, पूरी हो मम आश।
इसलिये तुम पद कमल, नमूँ नमूँ धर आश।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां दिव्यभाषापत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-