-स्थापना-
जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहिं, टिक सकता है पृथिवी पर।
नहीं नींव के बिना बना, सकता कोई मंजिल सुन्दर।।
वैसे ही सम्यग्दर्शन बिन, रत्नत्रय नहिं बन सकता।
यदि मिल जावे सम्यग्दर्शन, तब ही मुक्तीपथ बनता।।१।।
-दोहा-
सम्यग्दर्शन रत्न का, स्थापन आह्वान।
पूजन से पहले करूँ, सन्निधिकरण महान।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (दोहा)-
गंगा नदि का नीर ले, कर लूँ प्रभुपद धार।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल चंदन प्रभु चरण, चर्चूं मन हरषाय।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
पुंज धरूँ जिनपद कमल, अक्षय पद हो प्राप्त।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प चढ़ाऊँ प्रभु निकट, कामबाण हो नाश।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभुपद में अर्पण करूँ, मैं नैवेद्य का थाल।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहतिमिर नाशक प्रभू, की आरति सुखकार।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।६।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टकर्म क्षय हेतु मैं, धूप जलाऊँ आज।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।७।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष महाफल हेतु प्रभु-पद अर्पूं फल थाल।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य ‘‘चन्दनामति’’ प्रभू-चरण चढ़ाऊँ आज।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्मल जल का कलश ले, कर लूँ शांतीधार।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पों से पुष्पांजली, करूँ हरष उर धार।
सम्यग्दर्शन रत्न को, नमन करूँ शत बार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
उपशम क्षयोपशम तथा क्षयरूप कहा है।
सम्यक्त्व निसर्गज व अधिगमज भी कहा है।।
तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यक्त्व मानिये।
पुष्पांजली करके उसे निज मन में धारिये।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि प्रथमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चौबोल छंद-
औपशमिक सम्यग्दर्शन, कर्मों के उपशम से होता।
वह अन्तर्मुहूर्त तक आत्मा, के सब कर्ममैल धोता।।
इस उपशम सम्यग्दर्शन को, अर्घ्य चढ़ाऊँ रुचि से।
रत्नत्रय को धारण करके, छुट जाऊँ भव दु:ख से।।१।।
ॐ ह्रीं उपशमसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो दर्शनमोह की सात प्रकृतियों, के क्षयोपशम से होता।
छ्यासठ सागर उत्कृष्टरूप में, आतम के मल को धोता।।
इस वेदक सम्यग्दर्शन गुण को, रुचि से अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण करके, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।२।।
ॐ ह्रीं वेदकसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सात प्रकृतियों के क्षय से, प्रगटे वह क्षायिक कहलाता।
यह सम्यग्दर्शन आत्मा में, होता फिर कभी न छुट पाता।।
इस क्षायिक सम्यग्दर्शन गुण को, रुचि से अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण करके, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।३।।
ॐ ह्रीं क्षायिकसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय सम्यग्दर्शन सिद्धों में, सदा काल स्थिर रहता।
वायू विरहित जल के समान, कल्लोलरहित निर्मल रहता।।
इस निश्चय सम्यग्दर्शन गुण को, रुचि से अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण करके, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।४।।
ॐ ह्रीं सिद्धगुणनिश्चयसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-कुसुमलता छंद-
शंका नामक दोष एक, सम्यग्दर्शन को मलिन करे।
दृढ़ सम्यक्त्वी हो निशंक, अपने आतम को शुद्ध करे।।
नि:शंकित गुणयुत सम्यग्दर्शन को अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।५।।
ॐ ह्रीं नि:शंकितअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप संयम दानादिक में, कांक्षा इक दोष कहा जाता।
कांक्षा नहिं करने से वह, सम्यग्दर्शन दृढ़ बन जाता।।
नि:कांक्षित गुणयुत सम्यग्दर्शन को अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।६।।
ॐ ह्रीं नि:कांक्षितअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनितन मलिन न देख घिनावे, निर्विचिकित्सा गुणधारी।
अपना सम्यग्दर्शन दृढ़कर, वे बनते गुणभंडारी।।
निर्विचिकित्सा युत सम्यग्दर्शन को अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।७।।
ॐ ह्रीं निर्विचिकित्साअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव-गुरू अरु लोकमूढ़ता, रहित शुद्ध सम्यक्त्व कहा।
सम्यग्दर्शन का चतुर्थ यह, अंग मुक्ति का पंथ कहा।।
इस अमूढ़दृष्टिगुण युत, सम्यक्त्व को अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।८।।
ॐ ह्रीं अमूढ़दृष्टिअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म-गुरू के दोषों को, आच्छादित कर गुण प्रगटाना।
सम्यग्दृष्टी का गुण है, उपगूहन अंग इसे माना।।
उपगूहन गुण युत सम्यग्दर्शन को अर्घ्य चढ़ाना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।९।।
ॐ ह्रीं उपगूहनअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म से विचलित धर्मात्मा को, धर्म में स्थिर कर देता।
छठा अंग सम्यग्दर्शन का, मोक्षमार्ग में धर देता।।
स्थितिकरण अंग युत सम्यग्दर्शन को ही ध्याना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।१०।।
ॐ ह्रीं स्थितिकरणअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म और धर्मात्मा के प्रति, वत्सलता का भाव भरे।
सम्यग्दर्शन का यह सप्तम, अंग इसे वात्सल्य कहें।।
इस वात्सल्य अंगयुत सम्यग्दर्शन को ही ध्याना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।११।।
ॐ ह्रीं वात्सल्यअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दान-तपो-जिनपूजा से, जिनधर्म प्रभावना होती है।
रत्नत्रय धारण से आत्मा, की प्रभावना होती है।।
इस प्रभावना गुणयुत सम्यग्दर्शन को ही ध्याना है।
रत्नत्रय को धारण कर, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।१२।।
ॐ ह्रीं प्रभावनाअंगसम्यक्त्वसमन्वितरत्नत्रयाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
अष्टांगयुक्त सम्यग्दर्शन, शिवपथ का है सोपान प्रथम।
यह भव्य तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, को होता है शास्त्र कथन।।
इसको व्यवहार बताया है, निश्चय आत्मा में करे रमण।
इस सम्यग्दर्शन की पूजा में, मैं पूर्णार्घ्य करूँ अर्पण।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र–ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय नम:।
-दोहा-
अठ विध सम्यग्दर्श के, पूजन की जयमाल।
पढ़ पाऊँ सम्यक्त्व मैं, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।
-चौपाई-
जै जै सम्यग्दर्शन जग में, शिवपथ का सोपान है सच में।
रत्नत्रय में प्रथम रत्न है, मिल सकता वह चारों गति में।।१।।
संज्ञी पञ्चेन्द्रिय हो प्राणी, भव्य जीव बन सकते ज्ञानी।
महिमा कहती है जिनवाणी, सम्यग्दर्शन है कल्याणी।।२।।
पच्चिस मल दोषों से विरहित, सम्यग्दर्शन करता है हित।
पलता है जब आठ अंग युत, कहलाता सम्यक्त्व शुद्ध तब।।३।।
जिनवच में शंका नहिं धारे, तब नि:शंकित अंग को पाले।
भोगों की कांक्षा जो न करते, वे नि:कांक्षित अंग को धरते।।४।।
मुनि तन मलिन न देख घिनावे, निर्विचिकित्सा अंग वो पावे।
जो न मूढ़ता को अपनावे, वह अमूढ़दृष्टी कहलावे।।५।।
स्थितिकरण अंग के पालक, सम्यग्दर्शन के आराधक।
वे वात्सल्य अंग को पाते, धर्म के प्रति कर्तव्य निभाते।।६।।
हो प्रभावना जैन धरम की, जै जै हो प्रभावना अंग की।
ये ही आठों अंग कहाते, सम्यग्दर्शन शुद्ध बनाते।।७।।
ऐसा सम्यग्दर्शन पालो, जिनभक्ती गंगा में नहा लो।
सच्चे देव शास्त्र गुरुवर की, श्रद्धा करते सम्यग्दृष्टी।।८।।
इस सम्यग्दर्शन की पूजा, कर लो इस सम कोई न दूजा।
जयमाला का अर्घ्य चढ़ाओ, तभी ‘‘चंदनामति’’ सुख पाओ।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘‘चंदनामती’’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।