तर्ज—गोमटेश जय गोमटेश…..
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सारे जग में शुभ मंगल हो।।
।।हम.।।१।।
श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र के, बाहर का भी जो सुन लें।
संख्यातों योजन तक मानव, पशु के सब शब्द समझ भी लें।।
संभिन्न श्रोतृबुद्धी मुनि को, वंदन करते मन उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।२।।
जो परम तपस्या करते हैं, वे ही ऐसी ऋद्धी पाते।
इनसे जन-जन का हित करके, वे मुक्ति वल्लभा पा जाते।।
इन मुनियों की पूजा करते-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।३।।
मानव के खांसी श्वांस आदि, नाना रोगों की शांती हो।
सब पीड़ायें भी तत्क्षण ही, नश जावें यदि जिन भक्ती हो।।
ऐसे गणधर गुरु को वंदत, सब विघ्न नशें सुख अविचल हो।।
।।हम.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो संभिण्णसोदाराणं संभिन्नश्रोतृत्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।टेक.।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभमंगल हो।।
।।हम.।।१।।
जो जन गुरु के उपदेश बिना, स्वयमेव बोध को पाते हैं।
वे स्वयंबुद्ध ऋद्धी धरते, भक्तों की बुद्धि बढ़ाते हैं।।
इन मुनियों को वंदन करते-२, मेरा मन अतिशय उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।२।।
यह तन नाना रोगों का घर, नश्वर है घृणित अपावन है।
इस तन से संयम धारण कर, मुनि बनते तरण व तारण हैं।।
ऐसे मुनियों की पूजा कर-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।३।।
जो कविता अरु वादित्व शक्ति, अतिशायी पाकर भी निस्पृह।
जिनधर्म प्रभावन करें सतत, निजमुक्तिरमा में भी सस्पृह।।
ऐसे गणधरगुरु को वंदत, मेरा मन निज में निश्चल हो।।
।।हम.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयंबुद्धाणं स्वयंबुद्धत्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
जो उल्का पतन आदि लखकर, वैराग्य लिये संयम धारें।।
ऐसे मुनि ही प्रत्येक बुद्ध, होकर अगणित जन को तारें।
इन मुनियों की पूजा करते-२, भक्ती ध्वनि का कोलाहल हो।।
।।हम.।।१।।
जो मुनी बहुत विध तप तपते, वे मुक्ति राज्य को पा लेते।
ऐसे मुनि के चरणोदक से, जन मस्तक पावन कर लेते।।
इन गुरु की पूजा करने से-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।२।।
परवादी मिथ्या विद्या के, मद से जिनधर्म विरोधी हों।
शास्त्रार्थ कुशल परमत भेदी, जिनधर्म प्रभावक बुद्धी हो।।
ऐसे गणधर गुरु स्वयंबुद्ध, इन वंदन से सुख अविचल हो।।
।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेयबुद्धाणं प्रत्येकबुद्धऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
जो गुरुओं का उपदेश सुनें, बोधित हों रत्नत्रय धारें।
अट्ठाइस मूलगुणों से युत, वे साधू भव्यों को तारें।।
इन गुरुओं की पूजा करते-२, मिल जावे पूजा का फल हो।।
।।हम.।।१।।
जिनकी भक्ती से चोर लुटेरों, के भय स्वयं विनश जाते।
जो हित मित भाषा समिति धरें, सब जन को तर्पित कर पाते।।
ऐसे गणधर गुरु को वंदत, मेरा मन अतिशय निश्छल हो।।
।।हम.।।२।।
यह मोहनीय है महाशत्रु, सब कर्मों का यह राजा है।
इसका दर्शन मोहनीय भेद, नशते सम्यक्त्व प्रकाशा है।।
क्षायिक सम्यक्त्व मिले मुझको-२, मेरा जीवन अति उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहियबुद्धाणं बोधितबुद्धऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
मन वच तन से अति सरल मनोगत, सभी वस्तु को जो जानें।
वे ऋजुमति मन पर्ययज्ञानी, मूर्तिक पदार्थ को ही जानें।
उन मुनियों की पूजा करते-२, सब जन मन में भी हलचल हो।।
।।हम.।।१।।
सब जन को शांति करें गणधर, इस ऋजुऋद्धी को पा करके।
सब वैर विरोध तजे तत्क्षण, इन गुरु की चरण शरण आके।।
सब ज्ञान स्वयं ही प्रगटित हों, निज आत्मा में मन निश्चल हो।।
।।हम.।।२।।
प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग पढ़ते-पढ़ते।
द्रव्यानुयोग के पात्र बने, जिनवाणी को पढ़ते-पढ़ते।।
इन ऋषियों को वंदन करते-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो उजुमदीणं ऋजुमतिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
जो जन के सरल कुटिल मनगत, संपूर्ण मूर्त वस्तू जानें।
वे विपुलमती मनपर्यय मुनि, इस भव से सकल कर्म हानें।।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर-२, भक्तों का मन अति निर्मल हो।
।।हम.।।१।।
जिनकी भक्ती से बहुश्रुत ज्ञान, प्रगट हो परमानंद मिले।
जिनके वन्दन से ज्ञान सूर्य, प्रगटे निज हृदय सरोज खिले।।
ऐसे गणधर गुरु को वंदत, मेरा मन अतिशय निर्मल हो।।
।।हम.।।२।।
जो पाँच महाव्रत पाँच समिति, तीनों गुप्ती को धरते हैं।
वे नरतन को पावन करके, निज आत्मनिधी को वरते हैं।।
इन मुनियों को शत-शत वंदन, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउलमदीणं विपुलमतिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
ग्यारह अंगों दशपूर्वों को, पढ़कर दशपूर्वी मुनि इनसे।
जब दशवां पूर्व पढ़े तब ही, विद्यादेवी के आने से।।
जो चारित से विचलित नहिं हों-२, इन नमते आतम निर्मल हो।।
।।हम.।।१।।
इन गुरुओं की भक्ती करते, संपूर्ण शास्त्र का ज्ञान मिले।
व्रत शील पूर्ण हो जाते हैं, इन जजते ज्ञान प्रभात खिले।।
ऐसे गणधर की पूजा कर, मेरा मन निज में निश्चल हो।।
।।हम.।।२।।
इन मुनियों का व्रत ब्रह्मचर्य, त्रैलोक्यपूज्य कहलाता है।
इन शरणागत में आने से, चारित्र विमल हो जाता है।
इन मुनि की पूजा करने से-२, लौकांतिक सुरपद का फल हो।।
।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वीणंं दशपूर्वित्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।।
जो चौदह पूर्वों के ज्ञाता, श्रुतकेवलज्ञानी पद लभते।
उनके चरणों का आश्रय ले, क्षायिक समकित भी पा सकते।।
ये परोक्ष से त्रिभुवन जानें-२, इन भक्ती से श्रुतनिधि फल हो।।
।।हम.।।१।।
इन गुरु की भक्ती से तत्क्षण, निज-पर का शास्त्र ज्ञान होवे।
स्वपर समयविद् गणधर गुरु, अज्ञान पापमल भी धोवें।।
इन गणधर का वंदन करते, मेरा मन निज में निश्चल हो।।
।।हम.।।२।।
जो आर्तरौद्र दुर्ध्यान रहित, शुभ धर्म-शुक्ल के ध्यानी हैं।
इन गुरु की महिमा अद्भुत है, ये पाते शिव रजधानी हैं।।
इन गणधर की पूजा करते-२, मेरा जीवन अति उज्ज्वल हो।।
।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो चउदसपुव्वीणंं चतुर्दशपूर्वित्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
तर्ज—यह नंदनवन, यह सुमनसवन….
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
स्वर व्यंजन लक्षण चिन्ह स्वप्न, नभ भौम अंग ये आठ निमित।
इनसे शुभ-अशुभ बताते जो, उनके ऋद्धी अष्टांग निमित।।
इन मुनियोें का वंदन करके, पूजन कर पुण्य कमा जाना।।
।।यह.।।१।।
ये जीवन-मरण आदि ज्ञाता, फिर भी समरस का पान करें।
निजशुक्लध्यान के द्वारा ही, सब कर्मनाश शिवनारि वरें।।
उन गणधर की पूजा करके, परमानंदामृत पा जाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्ठंगमहाणिमित्तकुसलाणं अष्टांगनिमित्तज्ञातृत्वसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
अणिमा महिमा लघिमा गरिमा, प्राप्ती प्राकाम्य ईशित्व वशी।
अप्रतीघात अंतर्धानी, विक्रिया कामरूपी आदी।
विक्रिया ऋद्धि गुरु को पूजो, तुम इनका वंदन कर जाना।।
।।यह.।।१।।
ये ऋद्धी जो मुनि पाते हैं, वे विष्णुकुमार सदृश होते ।
मुनियों की रक्षा करके वे, सातिशय पुण्य भागी होते ।।
गणधर भक्ती से इच्छित फल, पाकर आतमनिधि पा जाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्वइड्ढिपत्ताणं विक्रियाऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
जातीविद्या कुलविद्या तज, तपविद्या धर जो साधू हैं।
विद्यानुवाद पढ़कर भी मुनि, माने विद्याधर साधू हैं।।
ये विद्याओं से काम न लें, इनकी पूजा कर सुख पाना।।
।।यह.।।१।।
जो महासाधु संयमधारी, तपकर अज्ञान हटाते हैं।
इनकी भक्ती से गगन गमन, शक्ती भाक्तिक जन पाते हैं।।
ये आत्मसुधारस पीते हैं, इनका वंदन कर हर्षाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जाहराणं विद्याधरत्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
जल जंघा तंतू फल व पुष्प, ये बीज गगन अरु श्रेणी हैं।
इन पर चलते नहिं जीव मरें, आठों विध चारण ऋद्धी हैं।।
इन चारण ऋद्धी गुरुवों की, पूजा कर पुण्य कमा जाना।।
।।यह.।।१।।
इनकी भक्ती से नष्ट वस्तु का, ज्ञान मनोगत ज्ञान मिले।
इनके प्रसाद से विक्रिय कर, अतिशय ऋद्धी भी स्वयं मिले।।
इन परमानंद रसास्वादी को, नमते निजसुख पा जाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं चारणऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।२०।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
पूरब भव के संस्कारों से, ज्यों की त्यों ज्ञान प्रगट होता।
गुरुमुख से विनय सहित पढ़कर, वैनयिक ज्ञान विकसित होता।।
या तप बल से प्रज्ञा प्रगटे, इन मुनि का वंदन कर जाना।।
।।यह.।।१।।
गणधर की प्रज्ञा स्वाभाविक, ये प्रज्ञाश्रमण महामुनि हैं।
औत्पत्तिक विनयज कर्मज अरु, परिणामिक प्रज्ञा चउविध हैं।।
आयू अवसान ज्ञानधारी, प्रज्ञाश्रमणों के गुण गाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्णसमणाणं प्रज्ञाश्रमणऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
मनुजोत्तर पर्वत पर्यंते, इच्छानुसार नभ में विहरें।
आकाशगमनचारी वे मुनि, तप बल से ऋद्धी प्राप्त करें।।
इन महासंयमी मुनियों की, अर्चा कर पाप नशा जाना।।
।।यह.।।१।।
प्राणीवध का परिहार करें, रत्नत्रय साधन में रत हैं।
इनके प्रसाद से अंतरिक्ष में, गमन शक्ति मिल जाती है।
इन गणधर की पूजा करके, जिनगुण संपत्ती पा जाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगासगामीणं आकाशगामिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
हालाहल विष का जहर चढ़ा, जिनके वचनों से दूर भगे।
ऐसी आशीविष ऋद्धि धरें, वे जन-जन का उपकार करें।।
इन गणधर गुरु का आश्रय ले, दुख से छुटकारा पा जाना।।
।।यह.।।१।।
नानाविध व्याधी से पीड़ित, या दरिद्रता से दुखी हुये।
इन गुरु का आशिष मिलते ही, सब दुख से जन मन मुक्त हुये।।
इन भक्ती से विद्वेष मिटे, इनसे मन पावन कर जाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसीविसाणं आशीर्विषत्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।
यदि क्रोधित हो मुनि कह देवें, ‘‘मर जा’’ तत्क्षण जन मर जावें।
नहिं किंतु दिगम्बर मुनि ऐसा, दुष्कृत्य कभी भी कर पावें।।
इनके अवलोके विष उतरे, तुम इनकी शरण में आ जाना।।
।।यह.।।१।।
इनके देखे अस्वस्थ जीव, हों पूर्ण स्वस्थ धन-धान्य भरें।
ये दृष्टीविष गणधर कृपालु, सब जन का ही उपकार करें।।
इनकी पूजा कर स्थावर-त्रस, कृत सब विघ्न नशा जाना।।
।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठिविसाणं दृष्टिविषत्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
गणधर ऋषिवर साधुगण, संभिन्न श्रोतृ आदि।
दृष्टिविष तन ऋद्धियुत, जजत मिटे सब व्याधि।।
ॐ ह्रीं अर्हं संभिन्नश्रोतृ प्रभृति दृष्टिविषान्तऋद्धिप्राप्तेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।