३.१ अन्धेरे में जीवों की अधिक उत्पत्ति होने के कारण रात्रि में भोजन करना या कराना घोर िंहसा है। यह कहना कि बिजली की तेज रोशनी से दिन के समान प्रकाश कर लेने पर रात्रि भोजन में क्या हर्ज है, उचित नहीं। विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि (धर््ेब्ुाह) तन्दुरुस्ती को लाभ और कार्बन—डाइ—ऑक्साइड चूसते हैं (ण्arंदर्ह्ग्देग्) हानि पहुँचाने वाली है। वृक्ष दिन में ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिसके कारण दिन में वायु—मण्डल शुद्ध रहता है और शुद्ध वायु—मण्डल में किया हुआ भोजन तन्दुरुस्ती बढ़ता है। रात्रि के समय वृक्ष भी कार्बन—डाइ—ऑक्साइड छोड़ते हैं जिसके कारण वायु—मण्डल दूषित होता है।
ऐसे वातावरण में भोजन करना शरीर के लिए हानिकारक है। सूरज की रोशनी का स्वभाव सूक्ष्म जन्तुओं को नष्ट करने और नजर न आने वाले जीवों की उत्पत्ति को रोकने का है। दीपक, हण्डे तथा बिजली की तेज रोशनी में भी यह शक्ति नहीं, बल्कि इसके विरुद्ध बिजली का स्वभाव मच्छर आदि जन्तुओं को अपनी तरफ खींचने का है। इसलिए तेज से तेज बनावटी रोशनी में भोजन करना वैज्ञानिक दृष्टि से अनेक रोगों की उत्पत्ति का कारण है।
सूर्य की रोशनी में किया हुआ भोजन जल्दी पच जाता है, आयुर्वेद के अनुसार भी भोजन का समय रात्रि नहीं, बल्कि सुबह और शाम है। रात्रि को तो कबूतर और चिड़िया आदि तिर्यंच भी भोजन नहीं करते। महात्मा बुद्ध ने रात्रि भोजन की मनाही की है।
श्रीकृष्णजी ने युधिष्ठिरजी को नरक जाने के जो चार कारण बताये हैं, रात्रि भोजन उन सबमें प्रथम कारण है। उन्होंने यह भी बताया है कि रात्रि भोजन का त्याग करने से १ महीने में १५ दिन के उपवास का फल प्राप्त होता है।
भवन का आधार नींव है, वृक्ष का आधार मूल है, संसारी जीव की स्थिति का आधार भोजन हैं। जैसे नींव एवं मूल के बिना भवन एवं वृक्ष की स्थिति असम्भव है, वैसे ही शुद्ध भोजन के बिना संसारी जीव का अस्तित्व होना असंभव है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक समस्त संसारी जीव देह स्थिति के लिए भोजन करते हैं।
चाहे वे पशु हों, पक्षी हों, कीट हों या मनुष्य, प्रकृति में प्रत्येक जीव आहार पर आधारित हैं। भोजन पर मनुष्य का जीवन निर्भर है। इसलिए प्रत्येक प्राणी को भक्ष्याभक्ष्य का ध्यान रखते हुए भोजन करना चाहिए। यदि किसी में कुछ विकृतियाँ दृष्टिगोचर हो रही हों तो जान लेना चाहिए कि उस जीव के भोजन में कहीं न कहीं कमी है। विकृति से आकृति का परिचय होता है एवं आकृति से चरित्र का परिचय होता है। उत्तम भोजन श्रेष्ठ चारित्र का भी साधन है। हम प्रतिदिन जिस प्रकार का भोजन करते हैं, उसी प्रकार के हमारे आचार—विचार होते हैं। कहा है—
Aे ब्दलर्् ीू, एद ब्दल् ूप्ग्हव्
Aे ब्दल् ूप्ग्हव्, एद ब्दल् ांम्दस.
जैसा भोजन करते हो, वैसे विचार आते हैं, जैसे विचार आते हैं, वैसे चरित्र का निर्माण हो जाता है अर्थात् चरित्र विचार के अनुरूप बन जाता है। इसलिए अपने परिणामों को ठीक रखने के लिए भक्ष्याभक्ष्य का ध्यान रखना नितान्त आवश्यक माना गया है। भोजन शुद्धि से स्मृति में ध्रुवता आती है।
वर्तमान काल में मनुष्य अन्न का कीड़ा बना हुआ है। वह प्रात: उठते ही खाना प्रारम्भ कर देता है और सायंकाल पर्यंत पशु के समान चरता रहता है। घर में खाता है, होटल में खाता है, मित्र के यहाँ खाता है, शय्या पर दूध पीते—पीते सो जाता है और उठते समय बैड टी (ाँ्-र्ऊी) का कप मुँह में लगाकर ही उठता है। खाना मात्र ही जीवन नहीं है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम हर समय खाते ही रहें। कुछ लोग खाने के लिए ही जीते हैं। ऐसे लोगों का जीवन निरर्थक है। जो जीने के लिए खाता है, धर्माराधना के लिए खाता है। उसी का जीवन सार्थक है, वही जीवन में कुछ कर सकता है।
जैनधर्म एवं महाभारत आदि ग्रंथों में रात्रि—भोजन निषेध पर विशेषरूप से बल दिया है। रात्रि में भोजन नहीं करना जैनत्त्व का परिचायक है। जो रात में भोजन करता है उसे निशाचर (उल्लू) कहा है क्योंकि निशाचर को छोड़कर प्राय: कोई भी पक्षी रात में भोजन नहीं करता है। यदि कोई जैन जाति में उत्पन्न होकर रात्रि में भोजन करता है तो आप ही निर्णय कीजिए कि ऐसा व्यक्ति मानव है या मानवरूप में निशाचर (उल्लू) है। रात्रि में भोजन करने वालों को साक्षात् माँस—भक्षी कहा जाता है, क्योंकि रात्रि में अत्यन्त सूक्ष्म सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती है, वे सूक्ष्मत्व के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते। अत:—
जिनेन्द्र देव के अनुयायी भक्तों को कदापि रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए। यदि कोई जिनेन्द्र भगवान् की वाणी का उल्लंघन करके रात्रि भोजन करता है, वह इहलोक में नाना प्रकार के रोगों से उत्पन्न दु:खों को भोगता है एवं परभव में जाकर विविध यातनाओं को सहता है। अधिक कहने से क्या लाभ, वह जीव दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करता है।
प्राचीन ऋषि—महर्षियों के ग्रंथों का अध्ययन कर रात्रि भोजन निषिद्ध बताया है तथा वर्तमान में भी वैज्ञानिक एवं वैद्यजन सूर्यास्त होने से पूर्व भोजन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि सूर्यास्त के बाद किया हुआ भोजन ठीक प्रकार से पच नहीं पाता है पर्याप्त पाचन के अभाव में पेट में दर्द उठता है, आलस्य आता है, बुद्धि मन्द होती है एवं मानसिक रोग बढ़ते हैं। अत: सूर्यास्त के पूर्व भोजन करके निवृत्त हो जाना चाहिए।
(१) दिन में भोजन करने से पाचन क्रिया ठीक रहती है।
(२) जो रात को पूर्ण रूप से आहार—त्याग करता है, वह अनेक उपवास का फल पाता है। कहा भी है—
ये रात्रौ सर्वथाहारं, वर्जयन्ति सुमेधस:।
तेषां पक्षोपवासस्य, फलं मासेन जायते।।
जो रात को सर्वथा—आहार— त्याग करता है, वह बुद्धिमान व्यक्ति एक मास में पन्द्रह दिनों के उपवासों का फल पाता है।
(३) सूर्य—किरणों में विटामिन ‘डी’ होता है। जो दिन में भोजन करता है, वह विटामिन ‘डी’ को प्राप्त कर लेता है।
(४) दिवा भोजन से अिंहसा का पालन होता हैं
(५) दिन में वातावरण शुद्ध रहता है। शुद्ध वातावरण में भोजन करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है।
(१) रात्रि में भोजन करने से अनेक जीवों की िंहसा का दोष लगता है।
(२) रात्रि में पर्याप्त मात्रा में प्रकाश न होने के कारण त्रस एवं स्थावर जीवों का घात हो जाता है। इससे निम्न प्रकार के अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
(क) भोजन में जूँ आने से जलोदर रोग होता है।
(ख) भोजन में मकड़ी आने से कुष्ठ रोग होता है।
(ग) भोजन में मक्खी आने से हैजा होता है।
(घ) भोजन में चींटी आने से पित्त निकलता है।
(ङ) भोजन में छिपकली आने से मृत्यु हो जाती हैं
(च) भोजन में केश आने से स्वर—भंग होता है।
कुछ लोग यह कुतर्क देते हैं कि यदि भोजन प्रकाश में ही करना हो तो ट्यूब लाईट (ऊल्ां थ्ग्ुप्ू) का प्रकाश या मर्करी लाईट (श्ीम्ल्rब् थ्ग्ुप्ू) में भोजन कर सकते हैं। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या वे सहस्रों ट्यूब लाईट लगाकर सूर्य जैसा स्वाभाविक प्रकाश पर्याप्त मात्रा में प्राप्त कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते हैं। दिन में भोजन करने से जिस िंहसा से बचा जा सकता है उसी िंहसा से बचने के लिए रात में करोड़ों दीपक जलाकर भोजन करने से नहीं बचा जा सकता है। हम जानते हैं कि रात्रि में जलते हुए दीपक के चारों ओर असंख्यात जीव संचार करते रहते हैं। जो िंहसा से बचना चाहते हैं, उन्हें रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
(१) अन्न (दाल, रोटी)
(२) पान (पीने योग्य दूध आदि)
(३) खाद्य (पेड़ा, बर्फी आदि)
(४) स्वाद्य (चाटने योग्य—चटनी, रबड़ी आदि)
जो अपने को जैन बताता है उसे रात्रि को इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना आवश्यक है। रात्रि भोजन न करने से जैनत्त्व की पहचान होती है इसलिए दिन में भोजन करके प्रत्येक जैनी को अपने जैनत्त्व की रक्षा करनी चाहिए। कहा है—
दिवसस्य मुखे चान्ने, मुक्त्वा द्वे द्वे सुधार्मिवैâ:।
घटिके भोजनं कार्यं श्रावकाचार चंचुभि:।।
सुधी धार्मिक को सूर्योदय के पश्चात् एवं सूर्यास्त के पूर्व दो दो घड़ी (एक घड़ी · २४ मिनट) को छोड़कर भोजन करना चाहिए।
जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने स्पष्टत: घोषणा की है कि यदि माँसाहार तथा उससे उत्पन्न भयंकरतम बीमारियों से बचना चाहते हो तो दिवा भोजन आवश्यक है। निशि भोजन त्याज्य है।
आयुर्वेद विशेषज्ञों का कथन है कि हमारे द्वारा उपयोग किये गये भोजन को पूर्णरूप से पचने के लिए पर्याप्त समय प्राप्त होना चाहिए अन्यथा वह उपयोगी की अपेक्षा अनुपयोगी सिद्ध होगा। अतएव भोजन को सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व करने की सलाह दी गई है। वर्तमान में उदर सम्बन्धी रोगों का अधिक प्रकोप है।
सर्वेक्षण द्वारा ज्ञात हुआ है कि ये सब बीमारियाँ अशुद्ध एवं निशि भोजन की देन हैं। जहाँ एक ओर गैस या उदरशूल से पीड़ित लोग बढ़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर दिन—रात समाचार पत्र उन समाचारों को प्रकाशित कर रहे हैं जिनमें ऐसे लोगों के कथानक दिये रहते हैं जिन्होंने रात्रि भोजन तैयार करते हुए विषैले जन्तुओं को भी आहार बनाकर स्वयं को काल के गाल में समर्पित करने का जोखिम उठाया है।
मनुष्य के उदर की बनावट पूर्णत: शाकाहारी है उसमें माँसाहार को पचाने की शक्ति नहीं है। मानव उदर की बनावट को आयुर्वेद शास्त्र में ‘‘कमल कोश’’ की संज्ञा दी है। कमल का मुख सूर्य प्रकाश में ही मुखर रहता है। प्रत्येक शाकाहार पदार्थ पर सूर्य की किरणें उसमें पोषक तत्वों का संचार किया करती हैं।
रात्रि में स्वभावत: ठण्डक होती है जिसका निमित्त पाकर अनेक सूक्ष्म जन्तुओं की उत्पत्ति स्वयमेव ही होती रहती है। उसे नष्ट करने की शक्ति सूर्य द्वारा प्रदत्त प्रकाश में निहित है। आज के हजारों वॉट वाले विद्युत बल्ब या ट्यूब लाईट में वह शक्ति नहीं है। एक तथ्य और भी है सूर्य के प्रकाश में वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ते हैं और रात्रि में कॉर्बन—डाइ—ऑक्साइड।
अतएव दिन में वायुमण्डल में पर्याप्त ऑक्सीजन रहती है जो मनुष्य को श्वांस लेने में और स्वास्थ्यप्रद भोजन में सहायक होती है जबकि कॉर्बन—डाइ—ऑक्साइड के कारण रात को दूषित वातावरण स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं, इसलिए सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन करना चाहिए। अल्ट्रा वायलट किरणें भी सूक्ष्म जीवों, कीटाणु आदि को प्रकट नहीं होने देती। अतएव जो छोटे—छोटे अरबों कीटाणु सूर्य के प्रकाश में स्वत: नष्ट हो जाते हैं, रात्रि में भोजन करने वालों के लिए हमेशा हानिकारक सिद्ध होते हैं।
संध्यायं यक्ष रक्षोभि: सदा भुक्तं कुलो इह।
सर्ववेलातिक्रम्य च रात्रौ भुक्तमभोजनम्।।
अर्थात्—दिन में किसी भी समय भोजन कर लिया जाये, किन्तु रात्रि का समय भोजन का समय नहीं है, वह तो अभोजन का समय है क्योंकि रात में दैत्य (दानव) ही भोजन करते हैं, देव और मानव नहीं। इसी ग्रंथ में लिखा है।
पूर्वान्हे भुञ्जते देवैर्मध्यान्हे ऋषिभिस्तथा।
अपरान्हे च पितृभि: सांयान्हे दैत्य दानवै:।।
अर्थात्—स्वर्गस्थ देवों का भोजन का समय प्रात:काल है। ऋषिजन मध्यान्ह काल में भोजन करते हैं, पितृजन अपरान्ह काल में। राक्षस और दैत्यजन रात के समय भोजन किया करते हैं। मनुस्मृति में लिखा है—रात्रि के समय तो श्राद्ध भी न करें, क्योंकि रात राक्षसी होती है।
यदि निष्पक्षता एवं विज्ञान के आलोक में भी विचार करें तो यह सत्य प्रतीत होता है कि प्रकाश हमें सूर्य से, चन्द्र से, तारा आदि से, बिजली के बल्ब से, गैस जलाने से, मोमबत्ती से एवं और भी कई साधनों से प्राप्त होता है। ये सभी प्रकाश वास्तव में इकाई या तत्त्व (Eतसहू) नहीं है। वरन् स्कन्ध या मिश्रण (श्गर््ेूल्rा) हैं। एक तिकोने काँच या प्रिज्म की सहायता से हम प्रत्येक प्रकाश के अंशों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जब हम सूर्य के प्रकाश की एक किरण को प्रिज्म से गुजारते हैं तो वह नौ अंशों में विभाजित हो जाती है।
इन नौ के नौ अंशों को वर्णक्रम (एजम्ूrाल्स्) कहते हैं। इन नौ अंशों में बीच के सात अंशों को हम लाल—पीले—नीले—बैंगनी आदि रंग की किरणों के रूप में देख सकते हैं। पर किनारे के दो अंश नहीं देखे जा सकते। इन दोनों के सद्भाव का निर्णय इनकी गर्मी को महसूस करके किया जाता है। लाल रंग की किरणों के बाहर का अंश इंप्रâारेड (घ्हfrarा्) और बैंगनी किरण के बाहर का अंश पराबैंगनी (ळत्ूra न्न्ग्दतू) कहा जाता है। बीच के सात रंगीन किरणों के रंग ठीक वही हैं, जो आकाश में बने इन्द्रधनुष में होते हैं। सब की सब किरणें गरम नहीं हैं।
मनुष्य एवं पशु—पक्षी व पेड़—पौधे जो भोजन करते हैं, उसका पचना पूर्व—कथित दोनों गर्म स्वभाव वाली किरणों पर निर्भर है। सूर्य के प्रकाश को छोड़कर जब अन्य स्रोतों से प्राप्त प्रकाशों का स्पेक्ट्रम बनाते हैं तो हम पाते हैं कि चाँद व तारों के प्रकाश में और ट्यूब लाईट आदि के प्रकाश में पूर्वकथित दोनों गर्म किरणें हैं ही नहीं। कॉर्बन (ण्arंदह) या आर्कलैम्प के प्रकाश में, एक वैल्डिंग के प्रकाश में वे किरणें बहुत कम शक्ति की रहती हैं। कम शक्ति की इम्प्रâारेड और अल्ट्रा वायलेट भोजन पचाने में सहायक नहीं हो सकती।
प्रकाश के परावर्तन (Rतिम्ूग्दह दf थ्ग्ुप्ू) के कारण यह पाया गया है कि सूर्य अपने उदयकाल से एक मुहूर्त (४८ मिनट) पहले दिखने लग जाता है और वास्तविक अस्तकाल के एक मुहूर्त पश्चात् भी दिखता रहता है। अत: यह सिद्ध है कि उपर्युक्त दोनों गर्म किरणें सूर्य उदय के ४८ मिनट पश्चात् पृथ्वी पर आती हैं और सूर्यास्त के ४८ मिनट पहले ही पृथ्वी पर आना बन्द हो जाती हैं। इन कारणों से प्रत्येक जीव को दिन में ही खाना खा लेना चाहिए।
सूर्योदय के ४८ मिनट पश्चात् और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व ही खाना खा लेना चाहिए। ऐसा करने से भोजन का पूर्णरूप से पाचन (Dग्ुोूग्दह) होगा और शरीर पुष्ट होगा।
वैष्णव विद्वान सूर्यग्रहण के काल में भोजन का निषेध करते हैं। इसका वैज्ञानिक पहलू यही है कि सूर्यग्रहण के समय किसी भी गरम किरणों की प्राप्ति नहीं होती। अत: हमारा हित इसी में है कि हम केवल सूर्य के सद्भाव में ही भोजन करें। कोई भी कहे कि बल्ब आदि के अत्यधिक प्रकाश में जीव का घात नहीं होता, सो रात को तेज रोशनी में भोजन कर लेना चाहिए। परीक्षण से पाया गया है कि कितने ही कीट—पतंगे ऐसे हैं, जो सूर्य के प्रकाश में सक्रिय नहीं होते। सूर्यास्त होने पर यह सक्रिय हो जाते हैं। रात में भोजन करने पर ये कीट—पतंग भोजन में गिरकर स्वयं मरते हैं और हमारे स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं।
सूर्य प्रकाश में अल्ट्रावायलेट किरणें एवं इन्प्रâारेड अदृश्य किरणें होती हैं जो वातावरण को सूक्ष्म जीवाणु रहित बनाती हैं।
दिन में ऑक्सीजन की उपलब्धता (अवशोषण) अधिक होती है।
सूर्य प्रकाश में विटामिन डी का निर्माण होता है।
सूर्य प्रकाश में भोजन के चयापचय प्रक्रिया में वृद्धि होती है।
दिवा भोजन से खनिज पदार्थों के संश्लेषण में वृद्धि होती है।
सूर्य प्रकाश में रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।
सूर्य और विद्युत प्रकाश में अंतर-कई लोगों के मन में प्रश्न होता है कि बिजली या दीपक के प्रकाश में भोजन बनाया और खाया जाए तो क्या अंतर पड़ता है ? इसका समाधान यह है कि बिजली या दीपक का प्रकाश कितना भी तेज क्यों न हो उसमें भोज्य पदार्थ अच्छी तरह से देखने में नहीं आते और इस कृत्रिम प्रकाश में सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति उसी रंग की होती है जिस रंग के खाद्य पदार्थ होते हैं। उस प्रकाश में ऐसी शक्ति नहीं होती जिससे वे उन जीवों की उत्पत्ति को रोक सकें परन्तु सूर्य प्रकाश में ऐसी शक्ति होती है जिससे उन जीवों की उत्पत्ति नहीं हो पाती है।
रात्रि में दीपक या बिजली का प्रकाश होते ही चारों ओर कीड़े—मकोड़े मंडराने लगते हैं, जो गाड़ी चलाते हैं उन्होंने देखा होगा कि सूर्य अस्त होते ही शरीर पर अनेक कीड़े चिपक जाते हैं और गाड़ी के सामने आ जाते हैं जबकि सूर्य प्रकाश में कीड़े नहीं आते। ये बड़े—बड़े जीव—जन्तु हमें दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु सूक्ष्म जीवाणु दृष्टिगोचर नहीं होते। रात्रि के समय कृत्रिम प्रकाश में अपनी सावधानी से वे कीड़े—मकोड़े भोजन में भले ही न गिरें या गिरने के बाद दिखाई न दें परन्तु सूक्ष्म जीवोत्पित्त और उनकी िंहसा से कोई बच नहीं सकता इसलिए जैनाचार्यों ने अिंहसा धर्म की रक्षा के लिए रात्रि भोजन त्याज्य बताया है।
सूर्य प्रकाश और विद्युत आदि प्रकाश में जो विशेष अंतर है वह यह है कि दिन में सूर्य का प्रकाश एक लाख लक्स के बराबर होता है और बादल छाये रहने पर भी दस हजार लक्स तो होता ही है। जबकि घरों में रात्रि के समय कृत्रिम प्रकाश सामान्यत: २०० से ५०० लक्स तक होता है।
वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि प्रकाश से हमारी ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं। जैसे अंधेरे में पिनियल ग्रंथि में से सूर्यास्त होने पर अंधेरा होते ही मैलाटोनिन नामक द्रव्य निकलकर रक्त प्रवाह में मिलता है जिससे शरीर सोने के लिए तैयार होता है। रक्तचाप एवं शरीर का ताप कम होता है, पित्त शांत एवं वायु में वृद्धि होती है।
उन्हीं रासायनिक परिवर्तनों के कारण रात्रि में अचेत और दिन में सचेत रहते हैं क्योंकि दिन निकलते ही मैलाटोनिन द्रव्य का श्राव बन्द हो जाता है शयन से उसकी मात्रा कम हो जाती है। यदि कोई कृत्रिम प्रकाश द्वारा इस द्रव को धोखा देना चाहे तो असंभव है क्योंकि इसको प्रभावित करने के लिए कम से कम एक हजार लक्स प्रकाश की आवश्यकता होती है। जबकि कृत्रिम प्रकाश दो सौ से पांच सौ लक्स तक ही उपलब्ध होता है।
यदि आप रात में भोजन करते हैं और शयन नहीं करते तो इसके दूरगामी परिणाम विपरीत पड़ते हैं। जैसे पाचन एवं रोग प्रतिरोध क्षमता में कमी, दिन में आलस्य, आँखों में जलन, वैंâसर, हृदय रोग, मानसिक असंतुलन और अकाल में वृद्धावस्था जैसे अनेक रोगों में वृद्धि होती है। पुराने समय में लोग दिन में काम और रात में आराम करते थे। इसलिए मनुष्य एवं प्रकृति में अच्छा तालमेल था परन्तु आधुनिक युग में प्रकृति के साथ तालमेल बिगड़ गया है।
परिणाम स्वरूप जिन्दगी रोगमय, तनाव युक्त और बोझिल बन गई है। इनसे मुक्त होने का सीधा सरल उपाय है रात्रि भोजन, डिब्बा बंद भोजन, गुटखा, पान—सुपाड़ी, चाकलेट, शराब, तम्बाखू, स्मेक आदि का त्याग, संयम और प्रकृति के नियमानुसार आध्यात्मिक जीवन जीना।
१. रात्रि भोजन के दुष्प्रभावों का सही सही ज्ञान प्राप्त करना और उसके, कुप्रभावों को जानकर प्रचार प्रसार करना।
२. रात्रि में सामूहिक भोजन का प्रचलन बन्द करना।
३. पाठशालाओं, कार्यालयों, कारखानों और दुकानों आदि को सायं ५.०० से ७.०० बजे के बीच भोजनावकाश के लिए बन्द रखना।
४. स्कूलों में बच्चों के पाठ्यक्रमों में रात्रि भोजन के दुष्प्रभावों की जानकारी हेतु इन्द्रिय व मन पर नियन्त्रण करना।
५. आवश्यकताओं को कम करते हुए इन्द्रिय व मन पर नियन्त्रण करना।
६. बढ़ते हुए नाश्ते का प्रचलन बन्द कर प्रात: ९—१० के बीच भोजन करना। जिससे शाम ५—६ बजे स्वत: भूख लगेगी।
७. धर्म, धर्मात्मा और धर्मशास्त्रों पर सच्ची श्रद्धा रखते हुए परमार्थ की ओर अग्रसर होना।
८. रात्रि भोजन न करने का दृढ़ संकल्प लेना।
दुनिया के प्रत्येक देश में, प्रत्येक गाँव में और प्रत्येक घर में बीमार लोग मिलेंगे। बीमारी के अनेक कारण हैं उनमें कुछ प्रमुख कारण जैसे भोजन का ठीक ढंग से पाचन नहीं होना, पेट में मल का रुकना अर्थात् कब्जियत बनी रहना, भूख से अधिक भोजन करना, मल—मूत्र के वेग को रोकना, आवश्यकतानुसार शुद्ध हवा, पानी, धूप नहीं मिलना, प्रदूषित वातावरण में रहना, वंशानुक्रम से जीवाणुओं का आना, प्रकृति विरूद्ध भोजन करना इत्यादि। ये सभी कारण रात्रि भोजन करने से घटित होते हैं अत: स्वास्थ्य की दृष्टि से भी रात्रि भोजन त्याग आवश्यक है।
दुनिया के सभी दर्शनों में रात्रि भोजन को हानिकारक बताकर त्यागने योग्य स्वीकार किया है अत: दार्शनिक दृष्टि से भी रात्रि भोजन करना अनुचित है।
रात—दिन जब जैसा वैसा भोजन करते रहने से शरीर में धातु, उपधातु और अनावश्यक कोशिकाओं की वृद्धि होती है और इन्द्रियाँ विषय वासना की ओर जाती हैं, शरीर रोगी बन जाता है और व्यक्ति धार्मिक आस्था और अध्यात्म से पलायन करने लगता है अत: आध्यात्मिक दृष्टि से भी रात्रि भोजन अहितकर है।
रात्रि भोजन बनाने, बनवाने, करने व कराने से जीवों का प्रत्यक्ष घात होता है साथ ही साथ भोजन के प्रति तीव्र राग होने से रात—दिन आहार की भावना होती है, तीव्र राग निश्चय ही िंहसा है और िंहसा अधर्म है अत: धार्मिक दृष्टि से भी रात्रि भोजन अहितकर है।
रात्रि में ही अधिकांश अन्याय—अत्याचार होते हैं। भूत—पिशाच और क्रूर िंहसक प्राणी विचरण करते हैं, जो सामाजिक भय, अशांति और विसंगतियाँ उत्पन्न करते हैं। अत: सामाजिक दृष्टि से भी रात्रि भोजन की प्रवृत्ति अनुचित है।
जिन परिवारों में रात्रि भोजन होता है उनमें महिला वर्ग भोजन बनाने, खिलाने, पिलाने और बर्तन सफाई आदि की क्रियाओं में व्यस्त रहती हैं, जिससे उन्हें परिवार—वालों के साथ आमोद—प्रमोद और बच्चों को संस्कारित करने का समय नहीं मिल पाता। अत: पारिवारिक दृष्टि से भी रात्रि भोजन ठीक नहीं है।
रात—दिन भोजन करने से एंजाइम प्रणाली निष्क्रिय हो जाती है, जिससे शरीर की त्वचा, हड्डी, हृदय, स्नायु, किडनी, खून, मस्तिष्क और ग्रंथियों सहित शरीर के समस्त अंङ्गोपाङ्ग पर घातक प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने भी यही सिद्ध किया है अत: शारीरिक और वैज्ञानिक दृष्टि से रात्रि भोजन हानिकारक है।
रात्रि भोजन का त्याग और पानी छानकर पीने का अन्योन्य सम्बन्ध है। जल गालन विधि (पानी छानने की विधि) का भी वर्णन किया जा रहा है।
जल गालन/पानी छानने (इग्त्ूीaूग्दह दf ेंaूी) को लेकर जैन आचार संहिता में जिस विधि (पद्धति) का विकास हुआ है, वह इसलिए तर्कसंगत है कि वह मात्र एक स्थूल आचार नहीं है, वरन् जैन चिन्तवन का एक दृढ़ आधार है। वस्तुत: जिन सिद्धान्तों को हम मानते हैं यदि उन्हें जीवन की साधारणताओं में वितरित करके देखते हैं किन्तु जानते नहीं हैं तो उन्हें निरर्थक समझना चाहिए।
पानी वैâसे छाना जाए ? छन्ना कितना बड़ा हो ? जल में कितने किस प्रकार के जीव हो सकते हैं ? प्रासुक जल और छने हुए जल की मर्यादा क्या है ? इत्यादि कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिन पर विस्तार से चिन्तवन किया जाना चाहिए।
जैनधर्म अनादिकाल से कहता चला आया है कि वनस्पति, जल, अग्नि, वायु व पृथ्वी एक—इन्द्रिय स्थावर जीव हैं परन्तु संसार न मानता था। डॉ. जगदीश चन्द्र बोस ने वनस्पति को वैज्ञानिक रूप से जीव सिद्ध कर दिया तो संसार को जैनधर्म की सच्चाई का पता चला। इसी प्रकार जल को जीव मानने से इन्कार किया जाता रहा तो वैâप्टिन स्ववोर्सवी ने वैज्ञानिक खोज से पता लगाया कि पानी की एक छोटी सी बूँद में ३६४५० सूक्ष्म जन्तु होते हैं। यदि छानकर पानी न पिया जावे तो यह सब जन्तु शरीर में पहुँच जायेंगे।
३६ अँगुल चौड़े, ४८ अँगुल लम्बे, मजबूत, मलरहित, गाढ़े, दुहरे, शुद्ध खद्दर के वस्त्र से जो कहीं से फटा न हो, पानी छानना उचित है। यदि बर्तन का मुख अधिक चौड़ा है तो उस बर्तन के मुँह से तीन गुणा दुहरे वस्त्र का प्रयोग करना चाहिए और छने हुए पानी से उस छलने को धोकर उस धोवन को उसी बावड़ी या कुएँ में गिरा देना चाहिए, जहाँ से पानी लिया गया हो। यह कहना कि नल का पानी जाली से छन कर आता है, उचित नहीं। क्योंकि जाली के छेद सीधे होने के कारण छोटे सूक्ष्म जीव उन छेदों में से आसानी से पार हो जाते हैं। यह समझना भी ठीक नहीं है—
‘‘म्युनिसिपैलिटी फिल्टर से शुद्ध पानी भरती है। इसलिए टंकी के पानी को छानने से क्या लाभ ?’’ एक बार छने हुए पानी में ४८ मिनट के बाद फिर जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए जीव िंहसा से बचने तथा अपने स्वास्थ्य के लिए छने हुए पानी को भी यदि वह ४८ मिनट से अधिक काल का है, ऊपर लिखी हुई विधि के साथ दोबारा छानना उचित है।
इसके अतिरिक्त ज्ञान का हमें ठीक—ठीक विवेकयुक्त होकर उपयोग करना चाहिए। कुतर्क कोई भी कर सकता है, किन्तु एक तर्क संगत तथ्य को जीवन में प्रकट करना कठिन होता है। रात्रि भोजन न करना, पानी छानकर पीना हमारी करुणा की आकृतियाँ हैं। जैनों की करुणा कभी शाब्दिक नहीं रही, अपितु वह जीवन में जहाँ—तहाँ प्रकट हुई है, उसके रेशे—रेशे और रग—रग में समा गई है।
प्रासुक जल से आशय जीव रहित जल से है। वर्षा का जल प्रासुक माना गया है। छने जल की मर्यादा ४८ मिनट की होती है। लौंग आदि से सुरक्षित करने पर मर्यादा छ: घण्टे तथा गरम जल की मर्यादा २४ घण्टे मानी गयी है। वैज्ञानिक भी उबले हुए जल को ठण्डा करके पीना ही स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर कहते हैं। निश्चित अवधि के बाद जल भी विकृत हो जाता है, जल का रंग श्वेत माना गया है। रंग से भी जल के पेय—अपेय होने का निर्णय लिया जाता है। पानी को उसकी संपूर्ण स्वाभाविकता में ही ग्रहण किया जाना चाहिए।
जैन जलगालन विधि एवं रात्रि भोजन निषेध में स्वास्थ्य रक्षा स्वच्छता तो है ही, इसके साथ एक जीवन शैली भी है। अिंहसक जीवन शैली जब हम चलें, उठें, बैठें, खायें, पियें, सोयें, जागें तब भी हमारे इन कार्यों में प्रकट होनी चाहिए।
जब हम जल गालन करते हैं तो उसमें हमारा ध्यान स्वयं को बचाने की ओर नहीं है, बल्कि जीव रक्षा की ओर है, वह उतना अंश भी समग्र जैन दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। जब किसी जल प्रदाय से छना हुआ जल दिया जाता है, तब वहाँ दृष्टि इस बात पर नहीं कि मनुष्य के अतिरिक्त कोई और जीवन बच रहा है या नहीं, वहाँ ध्यान केवल नागरिकों पर है, किन्तु जब कोई जैन पानी छान कर पी रहा है,
भले ही उसका यह प्रयत्न एक सूती छलने के द्वारा किया जा रहा है, तब भी उसकी दृष्टि जहाँ तक संभव हो, संसार के जीव मात्र की रक्षा की है। वह नहीं चाहता कि—उसके चलने, उठने, किसी वस्तु को उठाने, रखने इत्यादि में प्रमाद के कारण किसी प्राणी को कष्ट पहुँचे या वह मारा जाये, इसलिए जो भी सावधानी वह प्रयुक्त कर सकता है, करता है।
एक आदमी जो जूता पहनकर चल रहा है और दूसरा व्यक्ति जो नंगे पाँव अपनी सुकुमार पगतली को सावधानी से रखकर चल रहा है, दोनों में फर्क है। पहला आदमी चल रहा है, किन्तु उसका ध्यान दूसरे जीवों के प्रति नहीं है, यदि कोई चींटी, कीड़ा, केचुँआ आदि उसके जूते के नीचे आता है तो उसकी चिन्ता उसे नहीं है। किन्तु वह व्यक्ति जो कंकरीली धरती पर नंगे पाँव चल रहा है प्राणीमात्र की रक्षा करना चाहता है।
न किसी के प्राण लेना चाहता है और न ही किसी को कष्ट पहुँचाना चाहता है। सच तो यह है, महत्व इस बात का है कि आप क्या कर रहे हैं ? उसका नहीं—कि आप वैसा क्यों कर रहे हैं ? अभिप्राय यह है कि पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन्ा न करना स्वास्थ्य के लिए हितकर है, ठीक है, किन्तु जिस जीवन शैली के दर्शन को स्वीकार किया गया है, उससे इसका कितना तालमेल है, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है।
जैनाचरण केवल वैज्ञानिक, स्वास्थ्य विज्ञान और स्वच्छता शास्त्र के ही अनुरूप नहीं है अपितु जीवनाचार से समन्वित एक अपरिहार्य एवं जीवन अंश है। वास्तव में आज एक ‘केन्द्रीय जैन खाद्य प्रयोगशाला’ की आवश्यकता है जो समय—समय पर आहार सम्बन्धी जानकारी देती रहे तथा आगमोक्त निष्कर्षों को पुष्ट करने की जिम्मेदारी भी उठाये। यदि ऐसा हो जाता है तो न केवल जैनों के आहार विज्ञान की एक स्पष्ट छाया (घ्स्aुा) निर्मित होगी, अपितु सामाजिक स्वास्थ्य क्षेत्र में भी एक उल्लेखनीय कदम होगा।