तर्ज—करो कल्याण आतम का, भरोसा है नहीं पल का …..
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियों को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
पराक्रम घोर है जिनका, त्रिजग संहार में क्षम हैं।
जलाfध शोषण धरा निगलन, प्रभृति सब कार्य कर पाते।।
।।नमन.।।१।।
विरोधी के वचन कीलित, स्वयं होते यही फल है।
गुरू की भक्ति से निश्चित, सभी जन इष्ट पाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्गतवाणं उग्रतप:ऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियोें को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
बहुत उपवास करके भी, जिन्हों की दीप्ति बढ़ जावे।
बिना आहार के भी वे, अतुल शक्ती बढ़ाते हैं।।
।।नमन.।।१।।
महामुनि दीप्ततपधारी, मुक्तिकन्या वरण करते।
भक्ति से सैन्य स्तंभन, भक्त कर यश कमाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्ततवाणं दीप्ततप:ऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियों को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
अधिक उपवास करने से, मूत्रमल आदि नश जावें।
करें आहार नहिं नीहार, ऐसी ऋद्धि पाते हैं।।
।।नमन.।।१।।
महामुनि तप्ततपधारी, अतीन्द्रिय सुख के अधिकारी।
इन्हों से अग्नि स्तंभन, शक्ति पा यश कमाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्ततवाणं तप्ततप:ऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियों को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
अनेकों ऋद्धि से संयुत, महातप जो सदा तपते।
देह की कांति से शोभें, सभी के दुख नशाते हैं।।
।।नमन.।।१।।
भक्ति से नीर स्तंभन, शक्ति को भक्त पा जाते।
।।नमन.।।१।।
करें सर्पादि विष को दूर, रोगादी विनाशें भी।
त्रिविध योगी महामुनि ये, स्वयं शिवधाम पाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोरतवाणं घोरतप:ऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियों को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
मुनी के घोर गुणऋद्धी, डरे सब भूत प्रेतादी।
लाख चौरासि उत्तरगुण, धरें निजधाम पाते हैं।।
।।नमन.।।१।।
काच कामल प्रभृति रोगादी गुरुभक्ती से नश जाते।
इन्हों की भक्ति पूजा से, भक्त निज सिद्धि पाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोरगुणाणं घोरगुणऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियों को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
पराक्रम घोर है जिनका, त्रिजग संहार में क्षम हैं।
जलधि शोषण धरा निगलन, प्रभृति सब कार्य कर पाते।।
।।नमन.।।१।।
महामुनि वीतरागी हैं, अशुभ किंचित् नहीं करते।
भक्तगण सिंह के भय को, दूर कर सौख्य पाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोरगुणपरक्कमाणं घोरगुणपराक्रमऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
नमन है सर्व गणधर को, जिन्होेंने कर्म अरि नाशे।
नमन उन ऋद्धियों को भी, जिन्हों से आत्मगुण भासे।।टेक।।
घोरगुण ब्रह्मचारी मुनि, अखंडित ब्रह्मचारी हैं।
परम शांती धरें निज में, अखंडित सौख्य पाते हैं।।
।।नमन.।।१।।
उपद्रव रोग कलहादी, वैर दुर्भिक्ष वध बंधन।
भूतप्रेतादि भय नाशें, जो गुरु पूजा रचाते हैं।।
।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोरगुणबंभचारीणं घोरगुणब्रह्मचारित्वऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
तर्ज—तज दिया छोड़ घर बार, कुटुंब परिवार धार मुनि बाना…..
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
जिनका संस्पर्श परम औषधि, सब रोग शोक दुख हरे तुरत।
उनकी पूजा भक्ती कर पाप नशाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
ये मुनि आमौषधि ऋद्धि धरें, निज आत्मा को भी स्वस्थ करें।
इनके चरणों का आश्रय ले सुख पाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
जो जन्मजात ही वैर धरें, वे गुरु भक्ती से प्रेम करें।
इनकी भक्ती से निज में प्रीति बढ़ाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमोसहिपत्ताणं आमौषधिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
जिनके तन का मल किंचित् भी, सब रोग शोक हर देता भी।
उन खेलौषधि मुनि के चरणों शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
रोगी मुनि की सेवा करते, जो मन में ग्लानी नहिं धरते।
उनको हो ऐसी ऋद्धि प्रगट गुण गाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
जो ऐसे गुरु की भक्ति करें, अपमृत्यु नाश दीर्घायु धरें।
इनको पूजत ही निज आतम निधि पाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लोसहिपत्ताणं क्ष्वेलौषधिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
तन का बाहिर मल जल्ल कहा, ये भी औषधि सम प्रगट रहा।
इन जल्लौषधि मुनि नमते रोग नशाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
तप तपते तन पावन होता, सब जन के दुख दारिद धोता।
ऐसे गुरुओं के गुण गाकर हर्षाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
जो मन के भ्रम को दूर करें, व्याघ्रादि जंतु भी भीति हरें।
ऐसे गुरु को पूजत निर्भय बन जाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लौसहिपत्ताणं जल्लौषधिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
जिनकी पसेव कण आदि सभी, तन मल बन जाते औषधि भी।
इन ऋषियों की ऋद्धी को शीश नमाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
जो गुरु की सेवा करते हैं, आहारदान बहु देते हैं।
वे पुण्य सातिशय भरें जजत सुख पाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
इनकी भक्ती से इस जग में, गजमारि उपद्रव आदि भगें।
ऐसे गुरु की पूजा से शांति बढ़ाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पोसहिपत्ताणं विप्रुुषौषधिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
जिनके तन से स्पर्श वायु, करती रोगी को दीर्घ आयु।
उनके चरणों की धूली शीश चढ़ाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
जो मुनि सर्वौषधि ऋद्धि धरें, सब व्याधि विषादिक कष्ट हरें।
उनकी पूजा कर पूर्ण स्वस्थता पाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
जो सर्प बिच्छुमारी संकट, नरमारि उपद्रव आदि विविध।
इन गुरुपूजा से दूर भगें सुख पाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोसहिपत्ताणं सर्वौषधिऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
जो इक मुहूर्त में द्वादशांग, चिंतन करते नहिं होय श्रांत।
उन मनोबली मुनियों को नितप्रति ध्याऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
इन गुरुओं के गुण को गावें, मेरा मन सुस्थिर हो जावे।
इन भगवंतों को हृदय कमल में लाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
जो अश्वमारि आदिक संकट, भग जाते पशुओं के बहुविध।
इन गुरु प्रसाद से मानस शक्ति बढ़ाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो मणबलीणं मनोबलऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
जो द्वादशांग का पाठ करें, बस इक मुहूर्त में पूर्ण करें।
फिर भी नहिं थकता कंठ उन्हें शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
इन मुनि को वचन सिद्धि वरती, केवलि में दिव्यध्वनि खिरती।
इन मुक्तिरमा पति के गुण को नित ध्याऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
अज मेषमारि संकट बहुविध, गुरु पूजा से नशते सब दुख।
बहुभोग अभ्युदय सुखप्रद गुरुगुण गाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो वचिबलीणं वचोबलऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
श्री गणधर गुरु भगवंत, महागुणवंत, नमूँ शिर नाऊँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
संवत्सर भी उपवास करें, बाहूबलि सम वो शक्ति धरें।
इन कायबली के चरण हृदय में लाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।१।।
ये त्रिभुवन को भी अंगुलि पर, बस उठा सकें यह शक्ति प्रवर।
शिवधाम बसें ऐसे गुरु के गुण गाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२।।
गो महिष मारि संकट नाना, गुरुभक्ति हरे यह सरधाना।
तनु शक्ति बढ़े निज आतम गुण विकसाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो कायबलीणं कायबलऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
तर्ज— मेरे मन मंदिर में आन…..
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
नीरस या विषमय भोजन हो, पाणि पात्र में आते पय हो।।
क्षीरस्रवी ये ऋद्धि महान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
मुक्तिरमा इनको ही चाहे, भक्त भक्तिनद में अवगाहें।
मैं भी नमूँ सदा गुणखान, करो मेरे कर्मोंें की हान।।२।।
गण्डकमाला कुष्ठ क्षयादी, गुरुभक्ती से नशतीं व्याधी।
मिले आत्म आरोग्य महान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीरसवीणं क्षीरस्राविऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
करपुट में आहार दिया जो, रूखा भी घृतमय होता वो।
घृतस्रावी ये ऋद्धि महान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
ये मुनि शिवपद पा जाते हैं, हम इनके आश्रय आते हैं।
इनके भक्त बने धनवान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
एक दोय त्रय दिन अंतर में, इकांतरा आदिक ज्वर तन में।
सब विध ज्वर नशते दुखदान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो सप्पिसवीणं सर्पि:स्राविऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
करपुट में कटु भी भोजन हो, मधुवत् मधुर स्वाद परिणत हो।।
भक्त स्वस्थता लहें महान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
इनके वचन मधुर प्रिय हितकर, पुण्य उदय से भक्त शिवंकर।
नमूँ नमूँ ये सौख्य निधान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
पित्त कुपित से बहुविध व्याधी, अल्सर आदि देह में व्यापीं।
गुरुभक्ती से स्वास्थ्य महान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुरसवीणं मधुस्राविऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
पाणिपात्र में आया भोजन, अमृत सम बन जाता तत्क्षण।
अमृतस्रावी मुनि सुखदान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
इनके वच अमृतसम पोषें, भक्ती कर जन मन संतोषें।
नमूूँ नमूँ ये समसुख खान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
स्मृति शक्ती बढ़ती प्रतिक्षण, सब उपसर्ग दूर हों तत्क्षण।
इन गुरु की करुणा सुखदान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमियसवीणं अमृतस्राविऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
जिस घर में आहार करें मुनि, भोजन क्षीण न होता उस दिन।।
संख्यातों करते क्षुध हान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
मुनि के चहुंदिश चार हाथ में, जीव असंख्ये एक साथ में।
ये अक्षीण ऋद्धि अमलान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
सब जन वश हों गुरुभक्ती से, इन अक्षीण ऋद्धि मुनि जजते।
मनवश कर तिष्ठूूँ निज थान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीणमहाणसाणं अक्षीणमहानसऋद्धिसंपन्नेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
वृद्धिंगत महिमा के धारी, प्रभु तुम गुण अनंत भंडारी।
जिनका केवलज्ञान महान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
नमूूँ नमूँ मैं भक्ति भाव से, मेरा ज्ञान पूर्ण हो प्रगटे।
सर्व सुखों के आप निदान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
सुगती के साधन बढ़ते हैं, राजतंत्र के भय नशते हैं।
वृद्धि आत्मगुण की अमलान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढमाणाणं वर्द्धमानेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
कृत्रिम अकृत्रिम जिनमंदिर, सिद्धायतन कहाते सुंदर।
सिद्धक्षेत्र भी पूज्य महान, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
ज्ञानकिरण से सर्वलोक को, व्याप्त किया सारे अलोक को।
जगत व्याप्त विष्णू भगवान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
निशदिन यही मंत्र जपने से, राजा आदिक वश में होते।
सर्व ऋद्धियाँ हों वश आन, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो सिद्धायदणाणं सर्वसिद्धायतनेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
वंदूँ श्रीगणधर गुणखान, करो मेरे कर्मों की हान।
बुद्ध ऋषी केवलज्ञानी हैं, पंचकल्याणक के स्वामी हैं।।
नमूँ चरण कमलों में आन, करो मेरे कर्मों की हान।।१।।
सभी ऋद्धियों को प्रगटित कर, शिवलक्ष्मी के हुए श्रेष्ठ वर।
नमते नवनिधि ऋद्धि प्रधान, करो मेरे कर्मों की हान।।२।।
इसे जपें जो भक्ती भाव से, सभी सिद्धियाँ प्रगटे उनके।
महति महावीर भगवान, करो मेरे कर्मों की हान।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो भयवदो महदिमहावीरवड्ढमाणबुद्धिरिसीणं भगवते महतिमहावीर वर्द्धमानबुद्धर्षिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
—पूर्णार्घ्य-नरेन्द्र छंद—
उग्र तपादिक से भगवन्, महती महावीर प्रभू तक।
चौबिस ऋद्धि सहित मुनियों के, नाममंत्र हैं सुखप्रद।।
शिवसुखदाता महर्षियों को, अर्घ चढ़ाऊँ रुचि से।
सर्व उपद्रव कष्ट दूर कर, सुख पाऊँ श्रुतवच से।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं उग्रतप: प्रभृति महतिमहावीरवर्द्धमानपर्यंतऋद्धिप्राप्तेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
अड़तालिस ऋद्धी के धारी, संपूर्ण महर्षी को वंदूँ।
संपूर्ण रोग सब शोक हरें, ऐसे गणधरगुरु अभिनंदूँ।।
वरबुद्धि समृद्धी के दाता, रत्नत्रय वृद्धि करें ऋषिवर।
सब सिद्धि हेतु पूर्णार्घ्य करूँ, ये गणधर गुरु हैं भव भयहर।।२।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झ्रौं झ्रौं नम: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
।।जाप्य मंत्र।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा।
धुन— नागिन-मेरा मन डोले…..
जय जय गणधर, गुण ऋद्धीश्वर, हम गायें तुम जयमाल को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।
नग्न दिगम्बर वेष धार के, पिछी कमंडलु धारा।
मूलोत्तर गुण अगणित उत्तम, धार के स्वात्म संवारा।।प्रभू जी.।।
पर्वत पर चढ़, निज में अति दृढ़, नित ध्याते आतमराम को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।१।।
ग्रीष्म ऋतू में पर्वत ऊपर, वर्षा में तरु नीचे।
शीतकाल में नदी किनारे, आत्मध्यान में तिष्ठे।।प्रभू जी.।।
पद्मासन से, खड्गासन से, ध्यावें पहने गुणमाल को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।२।।
तीर्थंकर की दिव्यध्वनी सुन, द्वादशांग में गूंथें।
भव्य असंख्यों को संबोधें, चतुर्गती से छूटें।।प्रभू जी.।।
निज रागद्वेष, हरकर अशेष, नित चखते साम्यरसाल को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।३।।
सूरी के छत्तीस मूलगुण, उपाध्याय के पच्चिस।
साधू के अट्ठाइस मानें, तीनों में ये निश्चित।।प्रभू जी.।।
गुरु गणधर के, सब गुण चमकें, इनसे हैं मालामाल वो,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।४।।
दर्शमोह का मूल नाशकर, क्षायिक सम्यग्दृष्टी।
छठे सातवें गुणस्थान में, करें धर्म की वृष्टी।।प्रभू जी.।।
श्रेणी पे चढ़े, चउ घाति हने, फिर पाते केवलज्ञान को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।५।।
मोक्ष मार्ग में विघ्न असंख्ये, किस विध मार्ग सरल हो।
गणधर गुरु की पूजा करते, सर्व विघ्न निष्फल हों।।प्रभू जी.।।
गुरु भक्ती से, सब पाप नशें, सब कार्य सिद्धि तत्काल हो,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।६।।
बहुविध रोग शोक दुख दारिद, मानस ताप असंख्ये।
इष्टवियोग अनिष्ट योग के, आर्तध्यान दुखकंदे।।प्रभू जी.।।
गुरुवंदन से, अभिनंदन से, नश जाते दुख दुर्वार जो,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।७।।
गणधर गुरु के सर्व ऋद्धियाँ, प्रगट हुईं श्रुत गायें।,
अन्य तपस्वी ऋषियों के भी, कतिपय ऋद्धि कहायें।।प्रभू जी.।।
रस त्याग करें, रस ऋद्धि वरें, ये करें स्वपर कल्याण को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।८।।
उग्र उग्र तप करके साधू, दीप्ततपो ऋद्धीयुत।
नहिं आहार करें फिर भी ये, काय दीप्ति वृद्धीयुत।। प्रभू जी.।।
इन चरण नमें, भव में न भ्रमें, पा लेते निज गुणमाल को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।९।।
वीरप्रभू के समवसरण में, गौतम ब्राह्मण आये।
तत्क्षण मुनिदीक्षा ले करके, गणधर प्रथम कहाये।। प्रभू जी.।।
जिन भक्ती से, वर मंत्र रचे, अड़तालिस ऋद्धीमान को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।१०।।
हे भगवन् हम शरण में आये, एक याचना पूरो।
केवल ‘ज्ञानमती’ बस एकहि, ऋद्धी दे यम चूरो।।प्रभू जी.।।
कर जोड़ खड़े, तुम चरण पड़े, दे दो रत्नत्रय माल को,
वसु द्रव्य सजाकर लाये हैं।।११।।
अड़तालिस गणधरवलय, मंत्र नमूँ तिहुंकाल।
श्री गणेशगुरुदेव को, नमूँ नमूँ नतभाल।।१२।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झ्रौं झ्रौं नम: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्यजन गुरुभक्ति से, ‘‘गणधरवलय’’ पूजा करें।
सब रोग शोक दरिद्र संकट, मानसिक पीड़ा हरें।।
दीर्घायु स्वास्थ्य सुकीर्ति वैभव, सौख्य संपति विस्तरें।
रवि ‘‘ज्ञानमति’’ के उदय से जन, मन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।