
जिस वाराणसि नगरी का हमने, नाम सुना है ग्रंथों में। 
हे नाथ! विषयसुख की इच्छा में, मैंने निज को भरमाया। 
क्रोधाग्नी में जलकर अब तक, अपना सर्वस्व लुटाया है। 
अक्षयनिधि की पहचान बिना, जड़ को आत्मा मैंने माना। 
मैं कामभोग की मदिरा से, अब तक मतवाला बना रहा। 
इस क्षुधा रोग की ज्वाला से, भव भव में जलता आया हूँ।
मोहान्धकार में पड़ा-पड़ा, संसार में ही परिभ्रमण किया। 
कर्मों का इस आत्मा के संग, बंधन अनादि से चला किया। 
इतने फल भव-भव में खाये, उसका फल क्या पाया मैंने। 



