पढमं गुड्डाविवरं जलंतं अह कक्करंतं कुणहं।
कुम्मनिवेसं अट्ठं सुरस्सिला तयणु सुत्तविही।।२।।
प्रसाद करने की भूमि में इतना गहरा खात खोदना कि जल आजाय अथवा कंकरवाली कठिन भूमि आ जाय। पीछे उस गहरे खोदे हुए खात में प्रथम मध्य में कूर्मशिला स्थापित करना, पीछे आठों दिशा में आठ खुरशिला स्थापित करना। इसमे बाद सूत्रविधि करना चाहिये।।२।। वूर्मशिला का प्रमाण प्रासादमण्डन अध्ययन १ में कहा है कि—
‘‘अद्र्धांगुलो भवेत् कूर्म एहहस्ते सुरालये।
अद्र्धांगुलात् ततो वृद्धि: काय्र्या तिथिकरावधि:।।
एकत्रिंशत्करान्तं च तदद्र्धा वृद्धिरिष्यते।
ततोऽद्र्धापि शताद्र्धान्तं कुर्यादंगुलमानत:।।
चतुर्थांशाधिका ज्येष्ठा कनिष्ठा हीनयोगत:।
सौवर्णरौप्यजा वापि स्थाप्या पञ्चामृतेन सा।।’’
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में आधा अंगुल की र्मशिला स्थापित करना। क्रमश: पंद्रह हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद में प्रत्येक हाथ आधे आधे अंगुल की वृद्धि करना। अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में डेढ अंगुल, इसी प्रकार प्रत्येक हाथ आधा आधा अंगुल बढाते हुए पंद्रह हाथ के प्रासाद में साढे सात अंगुल की र्मशिला स्थापित करें। आगे सोलह हाथ से इकतीस हाथ तक पाव पाव अंगुल बढाना, अर्थात् सोलह हाथ के प्रासाद में पैणे आठ अंगुल, सत्रह हाथ के प्रासाद में आठ अंगुल, अठारह हाथ के प्रासाद में सवा आठ अंगुल, इसी प्रकार प्रत्येक हाथ पाव पाव अंगुल बढ़ावें तो इकतीस हाथ के प्रासाद में साढे ग्यारह अंगुल की र्मशिला स्थापित करें। आगे बत्तीस हाथ के पचास हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ आध आध पाव अंगुल अर्थात् एक एक जव की र्मशिला बढाना। अर्थात् बत्तीस हाथ के प्रासाद में साढे ग्यारह अंगुल और एक जव, तेतीस हाथ के प्रासाद में पौणे बारह अंगुल, इसी प्रकार पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में पौणे चौदह अंगुल और एक जब की बड़ी र्मशिला स्थापित करें। जिन मान की कूर्मशिला आवे उसमें अपना एक जव की बड़ी र्मशिला स्थापित करें। जिस मान की कूर्मशिला आवे उसमें अपना चौथा भाग जितना अधिक बढावे तो ज्येष्ठमान की और अपना चौथा भाग जितना घटादे तो कर्निष्ठ मान की कूर्मशिला होती है। यह कूर्मशिला सुवर्णा अथवा चांदी की बनाकर पंचामृत से स्नात्र करवाकर स्थापित करना चाहिए। उस कूर्मशिला का स्वरूप विश्व कर्मा कृत क्षीरार्णव ग्रंथ में बतलाया है कि कूर्मशिला के नव भाग करके प्रत्येक भाग के ऊपर पूर्वादि दिशा के सृष्ठिक्रम से लहर, मच्छ, मेंडक, मगर, ग्रास, पूर्णवुंभ, सर्प और शंख के आठ दिशाओं के भागों में और मध्य भाग में कछुवा बनाना चाहिए। कूर्मशिला को स्थापित करके पीछे उसके ऊपर एक नाली देव के सिंहासन तक रखी जाती है, उसको प्रासाद की नाभि कहते हैं। प्रथम कूर्मशिला को मध्य में स्थापित करके पीछे ओसार में नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, अजिता, अपराजिता, शुक्ला, सौभागिनी और धरणी ये नव खुरशिला कूर्मशिला को प्रदक्षिणा करती हुई पूर्वादि सृष्टिक्रम से स्थापित करना चाहिए। नववीं धरणी१ शिला को मध्य में कूर्मशिला के नीचे स्थापित करना चाहिए। इन नंदा आदि शिलाओं के ऊपर अनुक्रम से वङ्का, शक्ति, दंड, तलवार, नागपास, ध्वजा, गदा और त्रिशुल इस प्रकार दिग्पालों का शस्त्र बनाना चाहिए और धरणी शिला के ऊपर विष्णु का चक्र बनाना चाहिये।
‘‘ईशानादग्निकोणाद्या शिला स्थाप्या प्रदक्षिणा।
मध्ये कूर्मशिला पश्चाद् गीतवादित्रमंगलै:।।’’
प्रथम मध्य में सोना या चांदी की कूर्मशिला स्थापित करके पीछे जो आठ खुर शिला है, ये ईशान पूर्व अग्नि आदि प्रदक्षिणा क्रम से गीत बाजींत्र की मांगलिक ध्वनि पूर्वक स्थापित करें।
पासायाओ अद्धं तिहाय पायं च पीढ-उदओ अ।
तस्सद्धि निग्गमो होइ उववीढु जहिच्छमाणं तु।।३।।
प्रासाद से आधा, तीसरा अथवा चौथा भाग पीठ का उदय होता है। उदय से आधा पीठ का निर्मम होता है। उपपीठ का प्रमाण अपनी इच्छानुसार करना चाहिये।।३।।
अड्डथरं पुल्लिअओ जाडमुहो कणउ तह य कायवाली।
गय-अस्स-सीह-नर-हंस-पंचथरइंभवेपीठं।।४।।इति पीठ:।।
अड्डथर, पुष्पकंठ, जाड्यमंख (जाड्यंबो) कणी और केवाल ये पाँच थर सामान्य पीठ में अवश्य होते हैं। इनके ऊपर गजथर, अश्वथर, सिंह, नरथर और हंसथर इन पाँच थरों में से सब या न्यूनाधि यथाशक्ति बनाना चाहिये।।४।।
सिरीविजयो महापउमो नंदावत्तो अ लच्छितिलओ अ।
नरवेअ कमलहंसो कुंजरपासाय सत्त जिणे।।५।।
श्रीविजय, महापद्म, नंद्यावर्त, लक्ष्मीतिलक, नरदेव, कमलहंस और कुंजर ये सात प्रासाद जिन भगवान के लिये उत्तम हैं।।५।।
बहुभेया पासाया अस्संखा विस्सकम्मणा भणिया।
तत्तो अ केसराई पणवीस भणामिमुल्लिल्ला।।६।।
विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के प्रासाद के असंख्य भेद बतलाये हैं, किन्तु इनमें अति उत्तम केशरी आदि पच्चीस प्रकार के प्रासादों को मैं (पेरु) कहता हूँ।।६।।
केसरि अ सव्वभद्दो सुनंदणो नंदिसालु नंदीसो।
तह मंदिरु सिरिवच्छो अमिअब्भवु हेमवंतो अ।।७।।
हिमकुडू कईलासो पहविजओ इंदनीलु महनीलो।
भूधरू अ रयणकूडो वइडुज्जो पउमरागो अ।।८।।
वज्जंगो मुउडुज्जलु अइरावउ रायहंसु गरुडो अ।
वसहो अ तह य मेरु एए पणवीस पासाया।।९।।
केशरी, सर्वतोभद्र, सुनंदन, नंदिशाल, नंदीश, मंदिर, श्रीवत्स, अमृतोद्भाव, हेमवंत, हिमकूट, वैलाश, पृथ्वीराज, इंद्रनील, महानील, भूधर, तरत्नकूट, वैडूर्य, पद्मराग, वङ्कााक, मुकुटोज्वल, ऐरावत, राजहंस, गरुड, वृषभ ओर मेरु ये पच्चीस प्रासाद के क्रमश: नाम हैं।।७-८-९।।
पण अंडयाइ-सिहरे कमेण चउ वुडिढ जा हवइ मेरु।
मेरुपासायअंडय-संखा इगहियसयं जाण।।१०।।
पहला केशरी प्रासाद के शिखर ऊपर पांच अंडक (शिखर के आसपास जो छोटे छोटे शिखर के आकार के रखे जाते है उनको अंडक कहते हैं, ऐेसे प्रथम केशरी प्रासाद में एक शिखर और चार कोणों पर चार अंडक हैं।) पीछे क्रमश: चार चार अंडक मेरुप्रासाद तक बढ़ाते जावें तो पच्चीसवां मेरु प्रासाद के शिखर उपर कुल एक सौ एक अंडक होते हैं।।१०।। जैसे केशरी प्रासाद में शिखर समेत पाँच अंडक, सर्वतोभद्र में नव, सुनंदन प्रासाद मे तेरह, नंदिशाल में सत्रह, नंदीश में इक्कीस, मंदिरप्रासाद में पच्चीस, श्रीवत्स में उनतीस, अमृतोद्भव में तैतीस, हेमंत में सैंतीस, हेमकूट में इकतालीस, वैलाश में पैंतालीस, पृथ्वीजय में उन-पचास, इंद्रनील में त्रेपन, महानील में सत्तावन, भूधर में इकसठ, रत्नकूट में पैंसठ, वैडूर्य में उनसत्तर (६९), पद्मराग में तिहत्तर, वङ्कााक में सतहत्तर, मुकुटोज्वल में इक्यासी, ऐरावत में पचासी, राजहंस में नैयासी, गरुड में तिराणवे, वृषभ में सत्तानवे और मेरुप्रसाद के ऊपर एक सौ एक शिखर होते हैं। दीपार्णावादि शिल्प ग्रंथों में चतुर्विंशति जिन आदि के प्रासाद का स्वरूप तल आदि के भेदों से जो बतलाया है, उसका सारांश इस प्रकार है—
१. कमलभूषणप्रासाद (ऋषभजिनप्रासाद)—तल भाग ३२। कोण भाग ३, कोणी भाग १, प्रतिकर्ण भाग३, कोणी १, उपरथ भाग ३, नंदी भाग १, भद्राद्र्ध भाग ४, १६±१६·३२।
२. कामदायक (अजितवल्क्षभ) प्रासाद—तलभाग १२ कोण २, प्रतिकर्ण, २ भद्राद्र्ध २ ६±६ ·१२।
३. शम्भववल्लभप्रासाद—तल भाग ९। कोण १-१/२, कोणी१/४, प्रतिकर्ण १, नंदी १/४, भद्राद्र्ध १-१/२ ४-१/२ ४-१/२·९।
४. अमृतोद्भव (अभिनंदन) प्रासाद—तल भाग ९। कोण आदि का विभाग ऊपर मुजब।
५. क्षितिभूषण (सुमतिवल्लभ) प्रासाद—तल भाग १६। कोण २, प्रतिकर्ण २, उपरथ २, भद्राद्र्ध २·८±८·१६।
६. पद्मराज (पद्मप्रभ) प्रासाद—तल भाग १६। कोण आदि का विभाग ऊपर मुजब।
७. सुपाश्र्ववल्लभप्रासाद—तल भाग १०। कोण २, प्रतिकर्ण १-१/२, भद्राद्र्ध १-१/२ ५±५·१०।
८. चंद्रप्रभप्रासाद—तल भाग ३२। कोण ५, कोणी १, प्रतिकर्ण ५, नंदी १, भद्राद्र्ध ४ १६±१६·३२
९. पुष्पदंत प्रासाद—तल भाग १६। कोण २, प्रतिकर्ण २, उपरथ २, भद्राद्र्ध २· ८ ± ८ ·१६
१०. शीतलजिन प्रासाद—तल भाग २४। कोण ४, प्रतिकर्ण ३, भद्राद्र्ध ५ · १२±१२·२४ ११. श्रेयांसजिन प्रासाद—तल भाग २४। कोण आदि का विभाग ऊपर मुजब। १२. वासुपूज्य प्रासाद—तल भाग २२। कोण ४, कोणी १, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्राद्र्ध २ · ११±
११·२२ १३. विमलवल्लभ (विष्णुवल्लभ) प्रासाद – तल भाग २४। कोण ३, कोणी १, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्राद्र्ध ४ · १२±१२·२४ १४. अनंतजिन प्रासाद—तल भाग २०। कोण ३, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्राद्र्ध ३ १०±१०·२०। १५. धर्मविवद्र्धन प्रासाद—तल भाग २४ । कोण ४, कोणी १, प्रतिकर्ण ४, नंदी १, भद्राद्र्ध ४। १४±१४·२८ १६. शांतिजिन प्रासाद—तल भाग १२। कोण २, कोणी १/२, प्रतिकर्ण १-१/२, नंदी १/२, भद्राद्र्ध १ · १/२ ६±६·१२ १७. कुंथुवल्लभ प्रासाद—तल भाग ८। कोण १, प्रतिकर्ण १, नंदि १/२, भद्राद्र्ध १ · १/२ ४±४·८ १८. अरिनाशक प्रासाद—तल भाग ८। कोण २, भद्राद्र्ध २ ४±४·८ १९. मल्लीवल्लभ प्रासाद—तल भाग १२। कोण २, कोणी १/२, प्रतिकर्ण १-१/२, नंदी १/२, भद्राद्र्ध १-१/२, ६±६·१२। २०. मनसंतुष्ट (मुनिसुव्रत) प्रासाद—तल भाग १४। कोण २, प्रतिकर्ण २, भद्राद्र्ध भाग ३ · ७±७·१४ २१. नमिवल्लभ प्रासाद—तल भाग १६। कोण ३, प्रतिकर्ण २, भद्राद्र्ध भाग ३, ८±८·१६ २२. नेमिवल्लभ प्रासाद—तल भाग २२। कोण २, कोणी १, प्रतिकर्ण २, कोणी १, उपरथ २, नंदिका १, भद्राद्र्ध २ · ११±११·२२ २३. पाश्र्ववल्लभ प्रासाद—तल भाग २८। कोण ४, कोणी २, प्रतिकर्ण ३, नंदिका १, भद्राद्र्ध ४ · १४±१४·२८ २४. वीर विक्रम (वीरजिनवल्लभ) प्रासाद—तल भाग २४। कोण ३, कोणी १, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्राद्र्ध ४ · १२±१२·२४
एएहि उवज्जंती पासाया विविहसिहरमाणाओ।
नव सहस्स छ सय सत्तर वित्थारगंथाउ ते नेया।।११।।
अनेक प्रकार के शिखरों के मान से नव हजार छ: सौ सत्तर (९६७०) प्रासाद उत्पन्न होते है। उनका सविस्तर वर्णन अन्य ग्रंथों से जानना।।११।।
चउरंसंमि उ खित्ते अट्ठाइ दु वुड्ढि जाव बावीसा।
भायविराड एवं सव्वेसु वि देवभवणेसु।।१२।।
समस्त देवमंदिर में समचौरस प्रासाद के तलमाग का आठ, दस, बारह, चौदह, सोलह, अठारह, बीस अथवा बाईस भाग करना चाहिए।।१२।।
चउकूणा चउभद्दा सव्वे पासाय हुंति नियमेण।
कूणस्सुभयदिसेहिं दलाइं पडिहोंति भद्दाइं।।१३।।
पडिरह वोलिंजरया नंदी सुकमेण ति पण सत्तदला।
पल्लवियं करणिक्वं अवस्स भद्दस्स दुण्हदिसे।।१४।।
चार कोना और चार भद्र ये समस्त प्रासादों में नियम से होते हैं।
कोने के दोनों तरफ प्रतिभद्र होते हैं।।१३।।
प्रतिरथ, बोलिंजर और नंदि इनका मान क्रम से तीन,
पाँच और साढ़े तीन भाग समझना।
भद्र की दोनों तरफ पल्लविका और कर्णिका अवश्य करके होते हैं।।१४।।
यह प्रासाद का नक्शा प्रासाद मंडन और अपराजित आदि ग्रंथों के आधार से संपूर्ण अवयवों के साथ दिया गया है, उसमें से इच्छानुसार बना सकते हैं।
दो भाय हवइ कूणो कमेण पाउण जा भवे णंदी।
पायं एग दुसड्ढं पल्लवियं करणिवं भद्दं।।१५।।
दो भाग का कोना, पीछे क्रम से पाव पाव भाग न्यून नंदी तक करना। पाव भाग, एक भाग और अढ़ाई भाग ये क्रम से पल्लव, कर्णिका और भद्र का मन समझना।।१५।।
भद्दद्धं दसभायं तस्साओ मूलनासियं एगे।
पउणाति तिय सवातिय कमेण एयंपि पडिरहाईसु।।१६।।
भद्राद्र्ध का दश भाग करना, उनमें से एक भाग प्रमाण की शुकनासिका करना। पौंने तीन तीन और सवा तीन ये क्रम से प्रतिरथ आदि का मान समझना।।१६।।
कूणं पडिरह य रहं भद्दं मुहभद्द मूलअंगाइं।
नंदी करणिक पल्लव तिलय तवंगाइ भूसणयं।।१७।।
इति विस्तर:।।
कोना, प्रतिरथ, रथ, भद्र और मुखभद्र ये प्रासाद के अंग हैं, तथा नंदी, कर्णिका, पल्लव, तिलक और तवंग आदि प्रासाद के भूषण हैं।।१७।।
खुर कुंभ कलस कइवलि मच्ची जंघा य छज्जि उरजंघा।
भरणि सिरवट्टि छज्ज य वइराडु पहारु तेर थरा।।१८।।
इग तिय दिवड्ढ तिसु कमि पणसड्ढाइयदुदिवड्ढ दिवड्ढो अ।
दो दिवड्ढु दिवड्ढु भाया पणवीसं तेर थरमाणं।।१९।।
खुर, कुंभ, कलश, केवाल, मंची, जंघा, छज्जि, उरजंघा, भरणी, शिरावटी, छज्जा, वेराडु और पहारू ये मण्डोवर के उदय के तेरह थर हैं।।१८।। उपरोक्त तेरह थरों का प्रमाण क्रमश: एक, तीन, डेढ़, डेढ़, डेढ़, साढ़े पाँच, एक, दो, डेढ़, डेढ़, दो, डेढ़ और डेढ़ हैं। अर्थात् पीठ के ऊपर खुरा से लेकर छाद्य के अंत तक मंडोवर के उदय का पच्चीस भाग करना, उनमें नीचे से प्रथम एक भाग, का खुरा, तीन भाग का कुंभ, डेढ़ भाग का कलश, डेढ़ भाग का केवाल, डेढ़ भाग का मंची, साढ़े पाँच भाग की जंघा, एक भाग की छाजली, दो भाग की उरजंघा, डेढ़ भाग की भरणी, डेढ़ भाग की शिरावटी, दो भाग का छज्जा, डेढ़ भाग वेराडु और डेढ़ भाग का पहारु इस प्रकार थर का मान है।।१९।। प्रासादमण्डन में नागरादि चार प्रकार ये मंडोवर का स्वरूप इस प्रकार कहाँ हैं |
‘‘वेदवेदेन्दुभत्ते तु छाद्यान्तं पीठमस्तकात्।
खुरक: पञ्चभाग: स्याद् विंशति: कुम्भकस्तथा।।१।।
कलशोऽष्टौ द्विसाद्र्धं तु कत्र्तव्यमन्तरालकम्।
कपोतिकाष्टौ मञ्ची च कत्र्तव्या नवभागिका।।२।।
त्रिंशत्पञ्चयुता जंघा तिथ्यंशा उद्गमो भवेत्।
वसुभिर्भरणी कार्या दिग्भागैश्च शिरावटी।।३।।
अष्टांशोध्र्वा कपोताली द्विसाद्र्धमन्तरालकम्।
छाद्यं त्रयोदशांशैश्च दशभागैर्विनिर्गमम:।।४।।
प्रासाद की पीठ के ऊपर से छज्जा के अत्यंत भाग तक मंडोवर के उदय का १४४ भाग करना। उनमें प्रथम नीचे से सुख पाँच भाग का, कुंभ बीस भाग का, कलश आठ भाग का, अंतराल (अंतरपत्र या पुष्पकंठ) ढाई भाग का, कपोतिका (केवाल) आठ भाग की, मञ्ची नव भाग की, जंघा पैंतीस भाग की, उद्गम (उरुजंघा) पंद्रह भाग का, भरणी आठ भाग की, शिरावटी दश भाग की, कपोतालि (केवाल) आठ भाग की, अंतराल (पुष्पकंठ) ढाई भाग का और छज्जा तेरह भाग का उदय में करना। छज्जा का निर्गम (निकासू) दश भाग का करना।
‘‘मेरुमण्डोवरे मञ्ची भरण्यूध्र्वेऽष्टभागिका।
पञ्चविंशतिका जंघा उद्गमश्च त्रयोदश:।।
अष्ठांशा भरणी शेषं पूर्ववत् कल्पयेत् सुधी:।
सप्तभागा भवेन्मञ्ची कूटछाद्यस्य मस्तके।
षोडशांशा पुनर्जङ्घा भरणी सप्तभागकिा।
शिरावटी चतुर्भागा: पट्ट: स्यात् पंचभागिक:।।
सूर्याशै: कूटछाद्यं च सर्वकामफलप्रदम्।
कुम्भकस्य युगांशेन स्थावराणां प्रवेशक:।।
जो मंडोवर दो तीन जंघावाला होवे, यह मेरुमंडोवर कहा जाता है। उसमें प्रथम जंघा १४४ भाग के मंडोवर के समान भरणी थर तक करने के बाद उसके ऊपर फिर से खूरा, कुंभा, कलश, अंतराल और केवाल ये पाँच थर नहीं बनाया जाता, परन्तु दूसरो मांची आदि के सब थर बनाये जाते हैं, उसका प्रमाण— प्रथम जंघा की भरणी के ऊपर आठ भाग की मांची, पचीस भाग की जंघा, तेरह भाग का उद्गम और आठ भाग की भरणी का उदय करना। इसके ऊपर शिरावटी, केवाल, अंतराल और छज्जा बनाना। उसका नाप १४४ भाग के मंडोवर के नाप के अनुसार बनाना। इस छज्जा के ऊपर फिर में सात भाग की मंची, सोलह भाग की जंघा, सात भाग की भरणी, चार भाग की शिरावटी, पाँच भाग का केवाल और बारह भाग का छज्जा बनाना। यह मेरुमंडोवर सब इच्छित फल को देने वाला है। इसमें सब थरों का निर्गम वुंâभा के थर के चौथे भाग रखना।
‘‘पीठतश्छाद्यपर्यन्तं सप्तविंशतिभाजितम्।
द्वादशानां खुरादीनां भागसंख्या क्रमेण च।।
स्यादेकवेदसाद्र्धाद्र्ध-साद्र्धसाद्धष्टिभिस्त्रिभि:।
साद्र्धसाद्र्धाद्र्धभागैश्च द्विसाद्र्धमंशनिर्गम:।।
पीठ के ऊपर से छज्जा के अन्त्य भाग तक मंडोरवर के उदय का सत्ताईस भाग करना। उनमें खुर आदि बारह थरों की भाग संख्या क्रमश: इस प्रकार है—खुर एक भाग, वुंâभ चार भाग, कलश डेढ़ भाग, पुष्पकंठ आधा भाग, केवाल डेढ़ भाग, मंची डेढ़ भाग, जंघा आठ भाग, ऊरुजंघा तीन भाग, भरणी डेढ़ भाग, केवाल डेढ़ भाग, पुष्पकंठ आधा भाग और छज्जा ढाई भाग, इस प्रकार कुल २७ भाग के मंडोवर का स्वरूप है। छज्जा का निर्मम एक भाग करना।
पासायस्स पमाणं गणिज्ज सहभित्तिवुं भगथराओ।
तस्स य दस भागाओ दो दो भित्ती हि रसगब्भे।।२०।।
दीवार के बाहर के भाग से कुंभा के थर तक प्रासाद का प्रमाण माना जाता है। जो मान आवे इसका दश भाग करना, इनमं से दो दो भाग की दीवार और छ: भाग का गर्भगृह (गंभारा) बनाना चाहिए।।२०।।
इग दु त्ति चउपण हत्थे पासाइ खुराउ जा पहारुथरो।
नव सत्त पण ति एगं अंगुलजुत्तं कमेणु दयं।।२१।।
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊँचाई एक हाथ और नव अंगुल, दो हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊँचाई दो हाथ और सात अंगुल, तीन हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊँचाई तीन हाथ और पाँच अंगुल, चार हाथ के विस्तार वो प्रासाद की ऊँचाई पाँच हाथ और तीन अंगुल, पाँच हाथ के विस्तार वाले प्रासाद की ऊँचाई पाँच हाथ और एक अंगुल है। यह खुरा से लेकर पहारू थर तक के मंडोवर का उदयमान समझना।।२१।। प्रासादमण्डन में भी कहा है कि—
‘‘हस्तादिपञ्चपर्यन्तं विस्तारेणोदय: सम:।
स क्रमाद् नवसप्तेषु-रामचन्द्रांगुलाधिकम्।।
एक से पाँच हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद की ऊँचाई विस्तार के बराबर करना अर्थात् क्रमश: एक, दो, तीन, चार और पाँच हाथ करना, परन्तु इनमें क्रम से नव, सात, पाँच, तीन और एक अंगुल जितना अधिक रखना।
इच्चाइ खबाणंते पडिहत्थे चउदसंगुलविहीणा।
इअ उदयमाण भणियं अओ य उड्ढं भवे सिहरं।।२२।।
पाँच हाथ से अधिक पचास हाँथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना होवे तो प्रत्येक हाथ चौदह चौदह अंगुल हीन करना चाहिए अर्थात् पाँच हाथ से अधिक विस्तारवाले प्रासाद की ऊँचाई करना होवे तो प्रत्येक हाथ दश दश अंगुल की वृद्धि करना चाहिए। जैसे-छ: हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊँचाई ५ हाथ और ११ अंगुल, सात हाथ के प्रासाद की ऊॅचाई ५ हाथ और २१ अंगुल, आठ हाथ के प्रासाद की ऊँचाई ६ हाथ और ७ अंगुल, इत्यादि क्रम से पचास हाथ के विस्तार वाले प्रासाद की ऊँचाई २३ हाथ और १९ अंगुल होती है। यह प्रासाद का अर्थात् मंडोवर का उदयमान कहा। इसके ऊपर शिखर होता है।।२२।।
‘‘पञ्चादिदशपर्यन्तं त्रिंशद्यावच्छताद्र्धकम्।
हस्ते हस्ते क्रमाद् वृद्धि-र्मनुसूर्या नवांगुला।।’’
पाँच से दश हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना होवे तो प्रासाद हाथ चौदह चौदह अंगुल की, ग्यारह से तीस हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद का उदय करना होवे तो प्रत्येक हाथ बारह बारह अंगुल की और इकतीस से पचास हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना होवे तो प्रत्येक हाथ नव नव अंगुल की वृद्धि करना चाहिये।
दूणु पाऊणु भूमजु नागरु सतिहाउ दिवड्ढु सप्पाउ।
दाविडसिहरो दिवड्ढो सिरिवच्छो पऊण दूणोअ।।२३।।
प्रासाद के मान से भ्रुमज जाति के शिखर का उदय पौने दुगुणा (१-३/४), नागार जाति के शिखर का उदय तीसरा भाग युक्त (१-१/३), डेढा (१-१/२), अथवा सवाया (१-१/४),। द्राविड़ जाति के शिखर का उदय डेढा (१-१/२) और श्रीवत्स शिखर का उदय पौने दुगुना (१-३/४) है।।२३।।
छज्जउड उवरि तिहु दिसि रहियाजुअबिंब-उवरि-उरसिहरा।
कूणेहिं चारि कूडा दाहिणा वामग्गि दो तिलया।।२४।।
छज्जा के ऊपर तीनो दिशा में रथिका युक्त बिम्ब रखना और इसके ऊपर उरु शिखर (उरुशृंग) रखना। चारों कोने के ऊपर चार कूट (खिखरा-अंडक) और इसके दाहिनी तथा बार्इं तरफ दो तिलक बनाना चाहिये।।२४।।
उरसिहरकूडमज्झे सुमूलरेहा य उवरि चारिलया।
अंतरकूणेहिं रिसी आवलसारो अ तस्सुवरे।।२५।।
उरुशिखर और कूट के मध्य में प्रसाद की मूलरेखा के ऊपर चार लताएँ करता। लता के ऊपर चारों कोनों में चार ऋषि रखना औन इन ऋषियों के ऊपर आलमसार कलश रखना।।२५।।
पडिरह-बिकन्नमज्जे आमलसारस्स वित्थरद्धुदये।
गीवंडयचंडिकामलसारिय पाऊण सवाउ इक्किक्के।।२६।।
दोनों फर्ण के मध्य भाग में प्रतिरथ के विस्तार जितना आमलसार कलश का विस्तार करना और विस्तार से आधा उदय करना। जितना उदय हौ उसका चार भाग करना, उनमें पौने भाग का गला, सवा भाग का अंडक (आमलसार का गोला), एक भाग की चंद्रिका और एक भाग की आमलसारिका करना।।२६।।
‘‘रथयोरुभयोर्मध्ये वृत्तमामलसारकम्।
उच्छ यो विस्तराद्र्धेन चतुर्भागैर्विभाजित:।।
ग्रीवा चामलसारस्तु पादोना च सपादक:।
चन्द्रिका भागमानेन भागेनामलसारिका।।’’
दोनों रथिका के मध्य भाग जितनी आमलासार कलश की गोलाई करना, आमलासार के विस्तार से आधी ऊँचाई करना, ऊँचाई का चार भाग करके पौने भाग का गला, सवा भाग का आमलासार, एक भाग की चंद्रिका और एक भाग की आमलासारिका करना।
आमलसारयमज्जे चंदणखट्टासु सेयपट्टचुआ।
तस्सुवरि करणयपुरिसं घयपूरतओ य वरकलसो।।२७।।
आमलसार कलश के मध्य भाग में सपेद रेशम के वस्त्र से ढका हुआ चंदन का पलंग रखना। इस पलंग के ऊपर कनकपुरुष (सोने का प्रासाद पुरुष) रखना और इसके पास घी से भरा हुआ तांबे का कलश रखना, यह क्रिया शुभ दिन में करना चाहिए।।२७।।
पाहण कट्ठिट्टमओ जारिसु पासाउ तारिसो कलसो।
जहसत्ति पइट्ठपच्छा कणयमओ रयणजडिओ अ।।२८।।
पत्थर, लकड़ी अथवा र्ट उनमें से जिसका प्रासाद बना हो, उसी का ही कलश भी बनाना चाहिये। अर्थात् पत्थर का प्रासाद बना होवे तो कलश भी पत्थर का, लकड़ी का प्रासाद होवे तो कलश भी लकड़ी का और र्इंट का प्रासाद बना होवे तो कलश भी र्इंट का करना चाहिये। परन्तु प्रतिष्ठा होने के बाद अपनी शक्ति के अनुसार सोने का अथवा रत्न जड़ित का भी करवा सकते हैं।।२८।।
छज्जाउ जाव कंधं इगवीस विभाग करिवि तत्तो अ।
नवआइ जावतेरस दीहुदये हवइ सउणासो।।२९।।
छज्जा के स्वंध तक के ऊँचाई का इक्कीस भाग करना, उनमें से नव, दश, ग्यारह, बारह अथवा तेरह भाग बराबर लंबाई के उदय में शुकनास करना।।२९।।
उदयद्धि विहिअ पिंडो पासायनिलाडतिवं च तिलउच्च।
तस्सुवरि हवइ सीहो मंडपकलसोदयस्स समा।।३०।।
उदय से आधा शुकनास का पिंड (मोटाई) करना। यह प्रासाद के ललाटत्रिकका तिलक माना जाता है। उसके ऊपर सिंह मंडप के कलश का उदय बराबर रखना। अर्थात् मंडप के कलश की ऊँचाई शुकनास के सिंह से अधिक नहीं होना चाहिये।।३०।।
‘‘शुकनासोच्छि तेरूध्र्व न कार्या मण्डपोचिछ्रति:।’’ शुकनास की ऊँचाई से मंडप के गुंबज की ऊँचाई अधिक नहीं रखना चाहिये, किन्तु बराबर अथवा नीची रखना चाहिये।
‘‘शुकनाससमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठा च चाधिका।’’ शुकनास के बराबर मंडप के कलश की ऊँचाई रखना, अथवा नीचा रखना अच्छा है, परन्तु ऊँचा रखना अच्छा नहीं।
सुहयं इग दारुमयं पासायं कलस-दंड-मक्कडिअं।
सुहकट्ठ सुदिद्ढ कीरं सीसिमखयरंजणं महुवं।।३१।।
प्रासाद (मंदिर), कलश, ध्वजादंड और ध्वजादंड की पाटली ये सब एक ही जात की लकड़ी के बनाये जाय तो सुखकारक होते हैं। साग, केगर, शीसम, खेर, अंजन और महुआ इन वृक्षों की लकड़ी प्रासादिक बनाने के लिये शुभ माना है।।
नीरतलदलविभत्ती भद्दविणा चउरसं च पासायं।
पंसायारं सिहरं करंति जे ते न नंदंति।।३२।।
पानी के तल तक जिस प्रासाद का खात नींव खोदा होवे ऐसा समचौरस प्रासाद आदि भद्र रहित होवे तथा फांसी के आकार के शिखरवाला होवे ऐसा मंदिर जो मनुष्य बनावे तो वह मनुष्य सुखपूर्वक आनंद में नहीं रहता।।३२।।
अद्धंगुलाइ कमसो पायंगुलवुड्ढिकणयपुरिसो अ।
कीरइ धुव पासाए इगहत्थाई खबाणंते।।३३।।
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में कनकपुरुष आधा अंगुल का बनाना चाहिये। पीछे प्रत्येक हाथ पांव पावं अंगुल बढ़ा करके बनाना चाहिए। अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में पौना अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, चार हाथ के प्रासाद में सवा अंगुल इत्यादिक क्रम से पचास हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में पौने तेरह अंगुल का कनकपुरुष बनाना चाहिये।।३३।।
इग हत्ये पासाए दंडं पउणंगुलं भवे पिंडं।
अद्धंहगुलवुड्ढिकमे जाकरपन्नास-कन्नुदए।।३४।।
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में ध्वजादंड पौने अंगुल का मोटा बनाना चाहियं पीछे प्रत्येक हाथ आधे आधे अंगुल क्रम से बढ़ाना चाहिये। अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में सवा अंगुल का, तीन हाथ के प्रासाद में पौने दो अंगुल का, चार हाथ के प्रासाद में सवा दो अंगुल का, पाँच हाथ के प्रासाद में पौने तीन अंगुल का, इसी क्रम में पचास हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में सवा पच्चीस अंगुल का मोटा ध्वजादंड करना चाहिए। तथा प्रासाद के विस्तार जितना लंबा ध्वजादंड बनाना चाहिए।
‘‘एकहस्ते तु प्रासादे दण्ड: पादोनमंगलम्।
कुर्यादद्र्धागुला वृद्धिर्यावत् पञ्चाशद्धस्तम्’’
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में पौने अंगुल का मोटा ध्वजादंड बनाना, पीछे पचास हाथ तक प्रत्येक हाथ आधे आधे अंंगुल मोटाई में बढ़ाना चाहिये।
‘‘दण्ड: कार्यस्तृतीयांश: शिलात: क लशावधिम्।
मध्योऽष्टांशेन हीनांशो ज्येष्ठात् पादोन: कन्यस:।।’’
खुरशिला के कलश तक ऊँचाई के तीन भाग करना, उनमें से एक तीसरा भाग जितना लंबा ध्वजादंड बनाना, यह ज्येष्ठ मान का ध्वजादंड होता है। यदि ज्येष्ठ मान का आठवां भाग ज्येष्ठ मान में से कम करें तो मध्यम मान का और चौथा भाग कम करें तो कनिष्ठ मान ध्वजादंड होता है।
प्रकारान्तर से ध्वजादंड का मान—
पूर्वोभर्विषमै: कार्य: समग्रन्थी सुरगवह:।’’
दंड में पर्व (खंड) विषम रखें और गांठ (चूड़ी) सम रखें तो यह कार है।
‘‘प्रासादव्यासमानेन दण्डो ज्येष्ठ: प्रकीत्र्तित:।
मध्यो हीनो दशांशेन पञ्चमांशेन कन्यस:।।
प्रासाद के विस्तार जितना लंबा ध्वजादंड बनावे तो यह ज्येष्ठमान का होता है। यही ज्येष्ठमान के दंड का दशवां भाग ज्येष्ठमान में से घटा दें तो मध्यम मान का और पाँचवां भाग घटा दें तो कनिष्ठमान का ध्वजादंड होता है।।
‘‘दण्डढैघ्र्यषडांशेन मर्वट्यद्र्धेन विस्तृता।
अद्र्धचन्द्राकृति: पाश्र्वे घण्टोऽध्र्वे कलशस्तथा।।’’
दंड की लंबाई का छट्टा भाग जितनी लंबी मर्वटी (पाटली) करना और लंबाई से आधा विस्तार करना। पाटली के मुख भाग में दो अर्ध चंद्र का आकार करना। दो तरफ घंटी लगाना और ऊपर में कलश रखना। अर्ध चंद्र के आकारवाला भाग पाटली का मुख माना है। यह पाटली का मुख और प्रासाद का मुख एक दिशा में रखना और मुख के पिछाड़ी में ध्वजा लगानी चाहिए।
णिप्पन्ने वरसिहरे धयहीणसुरालयम्मि असुरठिई।
तेण धयं धुव कीरइ दंडसमा मुक्खसुक्खकरा।।३५।।
सम्पूर्ण बने हुए देवमंदिर के अच्छे शिखर पर ध्वजा न होवे तो उस देव मंदिर में असुरों का निवास होता है। इसलिये मोक्ष के सुख को देनेवाली, दंड के बराबर लम्बी ध्वजा देवमंदिर के ऊपर अवश्य रखना चाहिये।।३५।।
‘‘ध्वजा दण्डप्रमाणेन दैघ्र्याऽष्टांशेन विस्तरा।
नानावर्णा विचित्राद्या त्रिपञ्चाग्रा शिखोत्तमा।।’’
ध्वजा का वस्त्र, दंड की लंबाई जिनता लम्बा और दंड का आठवां भाग जितना चौड़ा, अनेक प्रकार के वस्त्रों में वर्णो से सुशोभित बनाना, तथा ध्वजा के अंतिम भाग में तीन अथवा पाँच शिखा रखना, यह उत्तम ध्वजा मानी गई है।
पासायस्स दुवारं हत्थंपइ सोलसंगुलें उदय।
जा हत्य चउक्का हुंति तिग दुग वुड्ढि कमाडपन्नासं।।३६।।
प्रासाद के द्वार का उदय प्रत्येक हाथ सोलह अंगुल का करना, यह वृद्धि चार हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद तक समझना अर्थात् चार हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के द्वार का उदय चौसठ अंगुल समझना। पीछे क्रमश: तीन तीन और दो दो अंगुल की वृद्धि पचास हाथ तक करना चाहिये।।३६।|
‘‘एकहस्ते तु प्रासादे द्वारं स्यात् षोडाशांगुलम्।
षोडशांगुलिका वृद्धि-र्यावद्धस्तचतुष्टयम्।।
अष्टहस्तान्तवं यावद् दीर्घे वृद्धिर्गुणांगुला।
द्वय्यंगुला प्रतिहस्तं च यावद्धस्तशताद्र्धकम्।।
यानवाहनपर्यज्र्ं द्वारं प्रासादसद्मनाम्।
दैध्र्याद्र्धेन पृथुत्वे स्याच्छोभनं तत्कलाधिकम्।।’’
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में सोलह अंगुल द्वार का उदय करना। पीछे चार हाथ तक सोलह सोलह अंगुल की वृद्धि, पाँच से आठ हाथ तक तीन तीन अंगुल की वृद्धि और आठ से पचास हाथ तक दो दो अंगुल की वृद्धि द्वार के उदय में करना चाहिये। पालकी, रथ, गाड़ी, पलंग (मांचा), मंदिर का द्वार और घर का द्वार ये सब लंबाई से आधा चौड़ा रखना, यदि चौड़ाई में बढ़ाना होवे तो लंबाई का सोलहवां भाग बढाना।
उदयद्धिवित्थरे बारे आयदोसविसुद्धए।
अंगुलं सड्ढमद्धं वा हाणि वुड्ढी न दूसए।।३७।।
उदय से आधा द्वार का विस्तार करना। द्वार में ध्वजादिक आय की शुाqद्ध के लिये द्वार के उदय में आधा अथवा डेढ अंगुल न्यूनाधिक किया जाय तो दोष नहीं है।।३७।।
निल्लाडि बारउत्ते बिंबं साहेहि हिट्ठि पडिहारा।
कूणोहिं अट्ठदिसिवइ जंघापडिरहइ पिक्खणयं।।३८।।
दरवाजे के ललाट भाग की ऊँचाई में बिंब (मूर्ति) को, द्वारशाख में नीचे प्रतिहारी, कोने में आठ दिग्पाल और मंडोवर के जंघा के थर में तथा प्रतिरथ में नाटक करती हुई पुतलिएं रखना चाहिये।।३८।।
पासायतुरियभागप्पमाणबिंबं स उत्तमं भणियं।
रावट्टरयणविद्दुम-धाउमय जहिच्छमाणवरं।।३९।।
प्रासाद के विस्तार का चौथा भाग प्रमाण जो प्रतिमा होवे वह उत्तम प्रतिमा कहा है। किन्तु राजपट्ट (स्फटिक), रत्न, प्रवाल या सवुर्णादिक धातु की प्रतिमा का मान अपनी इच्छानुसार रखा सकते हैं।।३९।।
‘‘पासादात्तुर्यभागस्य समाना प्रतिमा मता।
उत्तमायकृते सा तुकार्यैकोनाधिकांगुला।।
अथवा स्वदशांशेन हीनस्याप्यधिकस्य वा।
कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभि: प्रतिमा समा।।’’
प्रासाद के चौथे भाग के प्रमाण की प्रतिमा बनाना यह उत्तम लाभ की प्राप्ति के लिये है, परन्तु चौथे भाग में एक अंगुल न्यून या अधिक रखना चाहिये। अथवा प्रासाद के चौथे भाग का दश भाग करना, उनमें से एक भाग चौथे भाग में हीन करके अथवा बढ़ाकर उतने प्रमाण की प्रतिमा शिल्पकारों को बनीनी चाहिये।
‘‘द्वारस्याष्टांशहीन: स्यात् सपीठ: प्रतिमोच्छ् य:।
तत् त्रिभागो भवेत् पीठं द्वौ भांगौ प्रतिमोच्छ् य:।।’’
द्वार का आठ भाग करना, उनमें से ऊपर के आठवें भाग को छोड़कर बाकी सात भाग प्रमाण पीठिका सहित प्रतिमा की ऊँचाई होनी चाहिये। सात भाग का तीन भाग करना, उनमें से एक भाग की पीठिका (पवासन) और दो भाग की प्रतिमा की ‘ऊँचाई करना चाहिये।
‘‘तृतीयांशेन गर्भस्य प्रासादे प्रतिमोत्तमा।
मध्यमा स्वदशांशोना पञ्चांशोना कनीयसी।।’’
प्रासाद के गर्भगृह का तीसरा भाग प्रमाण प्रतिमा बनाना उत्तम है। प्रतिमा का दशवां भाग प्रतिमा में घटा करके उतने प्रमाण की प्रतिमा बनावे तो मध्यममान की, और पांचवां भाग घटा करके प्रतिमा बनावे तो कनिष्ठमान की प्रतिमा समझना।
दसभायकयदुवारं उदुबंर—उत्तरंग—मज्झेण।
पढमंसि सिवदिट्ठी बीए सिवसत्ति जाणेह।।४०।।
मन्दिर के मुख्य द्वार के देहली और उत्तरंग के मध्य भाग का दश भाग करना। उनमें नीचे के प्रथम भाग में महादेव की दृष्टि, दूसरे भाग में शिवशक्ति (पार्वती) की दृष्टि रखना चाहिये।।४०।।
सयणासणसुर—तईए लच्छीनारायणं चउत्थे अ।
बाराहं पंचमए छट्ठंसे लेवचित्तस्स।।४१।।
तृतीय भाग में मेवशायी (विष्णु) की दृष्टि, चौथे भाव में लक्ष्मीनारायण की दृष्टि, पंचम भाग में बाराहावतार की दृष्टि, छट्ठे भाग में लेप और चित्रमय प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये।।४१।।
सासाणसुरसत्तमए सत्तमसत्तंसि वीयरागस्स।
चंडिय—भइरव—अडंसे नविंमदा छत्तचमरधरा।।४२।।
सातवें भाग में शासनदेव (जिन भगवान के यक्ष और यक्षिणी) की दृष्टि, यहीं सातवें भाग के दश भाग करके उनका जो सातवां भाग वहीं पर वीतरागदेव की दृष्टि, आठवें भाग में चंडीदेवी और भैरव की दृष्टि और नव भाग में छत्र चामर करने वाले इंद्र की दृष्टि रखना चाहिये।।४२।।
दसमे भाए सुन्नं जक्खागधव्वरक्खसा जेण।
हिट्ठाउ कमि ठविज्जइ सयल सुराणं च दिट्ठी अ।।४३।।
ऊपर के दशवें भाग में किसी की दृष्टि नहीं रखना चाहिये, क्योंकि वहा यक्ष, गांधर्व और राक्षसों का निवास माना है। समस्त देवों की दृष्टि द्वार के नीचे के क्रम से रखना चाहिये।।४३।।
भागट्ठ भणंतेगे सत्तमसत्तंसि दिट्ठि अरिहंता।
गिहदेवालु पुणेवं कीरइ जह होइ वुड्ढिकरं।।४४।।
कितने आचार्यो का मत है कि मंदिर के मुख्य द्वार के देहली और उत्तरंग के मध्य भाग का आठ भाग करना। उनमें भी ऊपर का जो सातवां भाग, उसका फिर आठ भाग करके, इसी के सातवें भाग (गजांश) पर अरिहंत की दृष्टि रखना चाहिये। अर्थात् द्वार के ६४ भाग करके, ५५ वे भाग पर वीतरागदेव की दृष्टि रखना चाहिये। इसी प्रकार गृहमंदिर में भी रखना चाहिये कि जिससे लक्ष्मी आदि को वृद्धि होवे।।४।।
‘‘आयभागे भजेद् द्वार—अष्टममूध्यंतस्सयजेत्।
सप्तमसप्तमे दृष्टि—र्वृषे िसहे ध्वजे शुभा।।
द्वार की ऊँचाई का आठ भाग करके ऊपर का आठवां भाग छोड़ देना, पीछे सातवें भाग का फिर आठ भाग करके, इसी का जो सातवां भाग गजआय, उसमें दृष्टि रखना चाहिये। अथवा सातवें भाग के जो आठ भाग किये हैं, उनमें से वृष, िसह अथवा ध्वज आय में अर्थात् पांचवां तीसरा अथवा पहला भाग में भी दृष्टि रख सकते हैं। ==
‘‘विभज्य नवधा द्वार तत् षड्भागानधस्त्यजेत्।
ऊध्र्वद्वौ सप्तमं तद्वद् विभज्य स्थापयेद् दृशाम्।।’’
द्वार का नव भाग करके नीचे के छ: भाग और ऊपर के दो भाग को छोड़ दो, बाकी जो सातवां भाग रहा, उसका भी नव भाग करके इसी के सातवें भाग पर प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये। ==
गब्भगिहड्ढ—पणंसा जक्खा पढमंसि देवया बीए।
जिणकिण्हरवी तइए बंभु चउत्थे सिव पणगे।।४५।।
प्रासाद के गर्भगृह के आधे का पांच भाग करना, उनमें प्रथम भाग में यक्ष, दूसरे भाग में देवी, तीसरे भाग में जिन, कृष्ण और सूर्य, चौथे भाग में ब्रह्मा और पांचवे भाग में शिव की र्मूित स्थापित करना चाहिये।।४५।।
नहु गब्भे ठाविज्जइ लिगं गब्भे चइज्ज नो कहवि।
तिलअद्ध तिलमित्तं ईसाणे िकपि आसरिओ।।४६।।
महादेव का िलग प्रासाद के गर्भ (मध्य) में स्थापित नहीं करना चाहिये। यदि गर्भ भाग को छोड़ना न चाहें तो गर्भ से तिल आधा तिलमात्र भी ईशानकोण में हटाकर रखना चाहिये।।४६।।
भित्तिसंलग्गिंबब उत्तमपुरसिं च सव्वहा असुहं।
चित्तमयं नागायं हवंति एए सहावेण।।४७।।
दीवार के साथ लगा हुआ ऐसा देविंबब और उत्तम पुरुष की र्मूित सर्वथा मानी है। किन्तु चित्रमय नाग आदि देव तो दीवार से स्वाभाविक लगे हुए हैं, उसका दोष नहीं है।
जगई पासायंतरि रसगुणा पच्छा नवगुण पुरओ।
दाहिण—वामे तिउणा इअ भणियं खित्तमज्झायं।।४८।।
जगती (मंदिर की मर्यादित भूमि) और मध्य प्रासाद का अंतर पिछले भाग में प्रासाद के विस्तार से छ: गुणा, आगे नव गुणा, दाहिनी और बायीं ओर तीन तीन गुणा होना चाहिये। यह क्षेत्र की मर्यादा है।।४८।।
‘‘प्रासादानामधिष्ठानं जगती सा निगद्यते।
यथा िंसहासनं राज्ञा प्रासादानां तथैव च।।१।।
प्रासाद जिस भूमि में किया जाय उस समस्त भूमि को जगती कहते हैं। अर्थात् मंदिर के निमित्त जो भूमि है उस समस्त भूमि भाग को जगती कहते हैं। जैसे राजा का िंसहासन रखने के लिये अमुक भूमि भाग अलग रखा जाता है, वैसे प्रासाद की भूमि समझना।।१।।
‘‘चतुरस्रायतेऽष्टास्रा वृत्ता वृत्तायता तथा।
जगती पञ्चधा प्रोक्ता प्रासादस्यानुरूपत:।।२।।’’
समचौरस, तदचौरस, आठ कोनेवाली गोल और लंबगोल, ये पांच प्रकार की जगती प्रासाद के रूप सदृश होती है। जैसे—समचौरस प्रासाद को समसौरस जगती, समचौरस प्रासाद का लबचौरस जगती इसी प्रकार समझना।।२।।
प्रसादपुथुमानाच्च त्रिगुणा च चतुर्गुणा।
कमात् पञ्चगुणा भोक्ता ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठका।।३।।
प्रासाद के विस्तार से जगती तीन गुणी, चार गुणी अथवा पांच गुणी करना। त्रिगुणी कनिष्ठमान चतुर्गुणी मध्यमान और पांच गुणी जेष्ठमान की जगती है।।३।।
‘‘कनिष्ठे कनिष्ठा ज्येष्ठे ज्येष्ठा मध्यमं मध्यमा।
प्रासादे जगती कार्या स्वरूपा लक्षणान्विता।।४।।’’
कनिष्ठमान के प्रासाद में कनिष्ठमान जगती, ज्येष्ठमान के प्रासाद में ज्येष्ठमान जगती और मध्यममान प्रासाद में मध्यममान जगती। प्रासाद के स्वरूप जैसी जगती करना चाहिए।।४।।
‘‘रइसप्तगुणाख्याता जिने पर्यायसंस्थिते।
द्वारिकाया च कत्र्तव्या तथैव पुरुषत्रये।।५।।’’
च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल और मोक्ष के स्वरूपवाले देवकुलिका युक्त जिनप्रासाद में छ: अथवा सात गुणी जगती करना चाहिये। उसी प्रकार द्वारिका प्रासाद और त्रिपुरुष प्रासाद में भी जानना।।५।।
‘‘मण्डपानुक्रमेणैव सपादांशेन साद्र्धत:।
द्विगुणा वायता कार्या स्वहस्तायतनविधि:।।६।।
मण्डप के क्रम से सवाई डेढी अथवा दुगुनी विस्तारवाली जगती करना चाहिये।
‘‘त्रिद्वयेकभ्रमसंयुक्ता ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठका।
उच्छयस्य त्रिभागेन भ्रमणीनां समुच्छ्य:।।७।।
तीन भ्रमणीवाली ज्येष्ठा, दो भ्रमणीवाली मध्यमा और एक भ्रमणीवाली कनिष्ठा जगती जानना। जगती की ऊँचाई का तीन भाग करके प्रत्येक भाग भ्रमणी की ऊँचाई जानना।।७।।
‘‘चतुष्कोणैस्तथा सूर्य—कोणैिवशतिकोणवै:।
अष्ठािंवशति—षट्त्रिंशत—कोना कोणै: स्वस्य प्रमाणत:।।८।।’’
जगती चार कोना वाली, बारह कोनावाली, बीस कोनावाली, अट्ठाइस कोनावली और छत्तीस कोनावाली करना अच्छा है।।८।।
‘‘प्रासादाद्धार्वâहस्तान्ते त्र्यंशा द्वािंवशतिकरे।
द्वाित्रशे चतुर्थांशे भूतांशोच्चा शताद्र्धके।।९।।’’
एक से बारह हाथ के विस्तारवाले प्रासाद के जगती की ऊँचाई प्रासाद से आधे भाग की, तेरह से बाईस हाथ के प्रासाद की जगती तीसरे भाग, तेईस से बत्तीस हाथ के प्रासाद की जगती चौथे भाग, और तेत्तीस से पचास हाथ के प्रासाद की जगती पांचवे भाग ऊँचाई में बनाना।।९।।
‘‘एकहस्ते करेणोच्चा साद्र्धद्वयंशाश्चतुष्करे।
सूर्यजैनशताद्र्धान्तं क्रमाद् द्वित्रियुगांशवै:।।१०।।’’
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को एक हाथ ऊँची जगती, दो हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद को डेढ़ हाथ, तीन हाथ के विस्तार वाले प्रासाद की जगती दो हाथ और चार हाथ के प्रासाद के जगती की ऊँचाई ढाई हाथ, पांच से बारह हाथ तक के प्रासाद को दूसरे भाग, तेरह से चौबीस हाथ के प्रासाद को तीसरे भाग और पचीस से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को चौथे भाग जगती ऊँची करना चाहिये।।१०।।
‘‘तदुच्छयं भजेत् प्राज्ञ: त्वष्टािंवशतिभि: पदै:।
त्रिपदो जाडयकुंभस्य द्विपदं र्किणकं तथा।।११।।
पद्मपत्रसमायुक्ता त्रिपदा शिर:पत्रिका।
द्विपदं खुरकं कुर्यात् सप्तभागं च कुंकम्।।१२।।
‘‘कलशिस्त्रिपदो प्रोक्तो भागेनान्तरपत्रकम्।
कपोजताली त्रिभागा च पुष्पकण्ठो युगांशकम्।।१३।।’’
जगती की ऊँचाई का अट्ठाईस भाग करना। उनमें तीन भाग का जाडयकुंभ, दो भाग की कणी, पद्मपत्र सहित तीन भाग की ग्रास पट्टी, दो भाग का खुरा, सात भाग का कुंभा, तीन भाग का कलश, एक भाग का अंतरपत्र, तीन भाग केवाल और चार भाग का पुष्पकंठ करना।।११—१२—१३।।
‘‘पुष्पकाज्जाड्यकुंभस्य निर्गमस्याष्टभि: पदै:।
कर्णेषु च दिशिपाला: प्राच्यादिषु प्रदक्षिणे।।१४।।
पुष्पकंठ से जाड्यकुंभ का निर्गम आठ भाग रखना। पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिण क्रम से दिक्पालों को कर्ण (कोने) में स्थापित करना।।१४।।
‘‘प्राकारैर्मण्डिता कार्या चर्तुिभद्र्वारमण्डपै:।
मकरैर्जलनिष्कासै: सोपान—तोरणादिभि:।।१५।।
जगती किला (गढ़) से सुशोभित करना, चारों दिशा में एक एक द्वार बलाणक (मंडप) समेत करना, जल निकलने के लिये मगर के मुखवाले परनाले करना, द्वार आगे तोरण और सीढिएं करना।।१५।।
पासायकमलअग्गे गूढक्खयमंडवं तओ छक्कं।
पुण रंगमंडवं तह तोरणसबलाणमंडवयं।।४९।।
प्रासादकमल (गंभारा) के आगे गूढमंडप, गूढमंडप के आगे छ: चौकी, छ: चौकी के आगे रंगमंडप, रंगमंडप के आगे तोरण युक्त बलाणक (दरवाजे के ऊपर का मंडप) इस प्रकार मंडप का क्रम है।।४९।।
‘‘गूढ़ास्त्रिकस्तथा नृत्यं क्रमेण मंडपास्त्रयम्।
जिनस्याग्रे प्रकत्र्तव्या: सर्वेषां तु बलानकम्।।
जिन भगवान के प्रासाद के आगे गूढमंडप, उसके आगे त्रिक तीन (नव चौकी) और उसके आगे नृत्यमंडप (रंगमंडप), ये तीन मंडप करना चाहिये, तथा सब देवों के आगे बलानक सब मंदिरों में करना चाहिये।
दाहिणवामदिसेिह सोहामंडपगउक्खजुअसाला।
गीयं नट्टविणोयं गंधव्वा जत्थ पकुणंति।।५०।।
प्रासाद के दाहिनी और बांयी तरफ शोभामंडप और गवाक्ष (झरोखा) युक्तशाला बनाना चाहिये कि जिसमें गांधर्वदेव गीत, नृत्य व विनोद करते हुए हों।।५०।।
पासायसमं बिउणं दिउड्ढयं पऊणदूण वित्थारो।
सोवाण ति पण उदए चउदए चउकीओ मंडवाहुंति।।५१।।
गर्भगृह के आगे प्रासाद के बराबर, दुगुणा, डेढा अथवा पौने दुगुना विस्तार वाला मंडप करना चाहिये। मंडप में सीढी तीन अथवा पांच रखना और मंडप में चारों दिशा में चौकीएं बनाना।।५१।।
कुंभी—थंभ–भरण—सिर—पट्टं इग—पंच—पऊण—सप्पायं।
इग इअ नव भाय कमे मंडववट्टाउ अद्धुदए।।५२।।
स्तंभ के उदय का नव भाग करना, उनमें से एक भाग की कुंभी, पांच भाग का स्तंभ, पौने भाग का भरणा, सवा भाग का शिरावटी (शरु) और एक भाग का पाट करना चाहिये। मंडप ऊपर के गूंबज का जो विस्तार होवे, उसके आधे भाग की गूबंज की ऊँचाई रखना।।५२।।
पासाय—अट्ठमंसे पिंडं मक्कडिअ—कलस—थंभस्स।
दसमंसि बारसाहा सपडिग्घउ कलसु पउणदूणुदये।।५३।।
प्रासाद के आठवें भाग के प्रमाण वाले मर्वटी (ध्वजादंड की पाटली), कलश और स्तंभ का विस्तार करना। प्रासाद के दशवें भाग की द्वारशाखा करनी। कलश के विस्तार से कलश की ऊँचाई पौन दुगुनी रखना।।५३।।
‘‘ग्रीवापीठं भवेद् भागं त्रिभागेनाण्डकं तथा।
र्किणका भागतुल्येन त्रिभागं बीजपूरकम्।।’’
कलश का गला और पीठ का उदय एक एक भाग, अडक अर्थात् कलश के मध्य भाग का उदय तीन भाग, र्किणका का उदय एक भाग और बीजोरा का उदय तीन भाग। एवं कुल नव भाग कलश के उदय के हैं।
जलनालियाउ फरिसं करंतरे चउ जवा कमेणुच्चं।
जगई अ भित्तिउदए छज्जइ समचउदिसेिंह पि।।५४।।
एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के जल निकलने की नाली का उदय चार जव करना। पीछे प्रत्येक हाथ चार चार जव उदय में बढ़ाना। जगती के उदय में और दीवार (मंडोवर) के छज्जे के ऊपर चारों दिशा में जलनालिका करना चाहिये।।५४।।
‘‘मंडपे ये स्थिता देवा—स्तेषां वामे च दक्षिणे।
प्रणालं कारयेद् धीमान् जगत्यां चतुरो दिश:।।’’
मंडप में जो देव प्रतिष्ठित होवे उनके प्रक्षालन का पानी जाने की नाली बांयी और दक्षिण ये दो दिशा में बनावें, तथा जगती की चारों दिशा में नाली लगावें।
आइपट्टस्स हिट्ठं छज्जइ हिट्ठं च सव्वसुतेगं।
उदुंबर समकुंभि अथंभ समा थंभ जाणेह।।५५।।
पाट के नीचे और छज्जा के नीचे सब थरों का निर्गम समसूत्र में रखना चाहिये। देहली के बराबर सब वुंâभी और स्तंभ के बराबर सब स्तंभ रखना चाहिये।।५५।। ==
‘‘त्रिपञ्चसप्तनन्दाङ्गे शाखा: स्युरङ्गतुल्यका।
हीनशाखं न कत्र्तव्य—अधिकाढयं सुखावहम्।।’’
तीन पांच सात अथवा नव अंगों में से जितने अंगवाला प्रासाद होवे, उतनी शाखा वाला द्वार बनाना। प्रासाद के अंगों से कम शाखा नहीं बनाना चाहिये। परन्तु अधिक बनाना अच्छा है।
‘‘अंगुलं साद्र्धमद्र्धं वा कुर्याद्धीनं तथाधिकम्।
आयदोषविशुद्ध्यर्थं ह्रस्ववृद्धी न दूषिते।।’’
द्वार शाखा के नाप में आय आदि की शुद्धि लाने के लिये शाखा के नाप में एक आधा अथवा डेढ अंगुल न्यूनाधिक किया जाय तो दोष नहीं है।
चतुर्भागान्वितं कुर्याच्छाखाविस्तारमानकम्।
मध्ये द्विभागिकं कुर्यात् स्तम्भं पुरुषसंज्ञकम्।।
स्त्रीसंज्ञका भवेच्छाखा पाश्र्वतो भागभागिका।
निर्गमे चैकभागेन रूपस्तंभ: प्रशस्यते।।’’
द्वारशाखा के विस्तार का जो मान आया होवे, उसका चार भाग करना, उनमें से एक एक भाग की दो शाखा और इन दोनों शाखा के बीच में दो भाग का स्तंभ बनाना, यह स्तंभ पुरुष संज्ञक है और शाखा स्त्रीसंज्ञक है। रूपस्तंभ का निर्गम एक भाग का रखना अच्छा है।
‘‘पेटके विस्तरं कुर्यात् प्रवेशस्य युगांशकम्।
कोणिकां स्तम्भमध्ये तु भूषणार्थं हि पाश्र्वयो:।।’’
शाखा के पेटा भाग के विस्तार से शाखा का प्रवेश (निर्गम) चौथे भाग का रखना, स्तंभ के विस्तार में दोनों तरफ शोभा के लिये र्किणका (कोणी) बनाना।
‘‘द्वारदैघ्र्ये चतुर्थांशे द्वारपालो विधीयते।
स्तंभशाखादिकं शेषे त्रिभागे च विभाजयेत्।।
दरवाजे की ऊँचाई का चार भाग करना, उनमें नीचे के एक भाग उदय में द्वारपाल बनाना और बाकी के तीन भाग का स्तंभ शाखा बनाना। ==
‘पत्रशाखा च गांधर्वा रूपस्तंभस्तृतीयक:।
चतुर्थी खल्वशाखा च िंसहशाखा च पञ्चमी।।’’
शाखा के विस्तार का छ: भाग करना, उनमें एक एक भाग की स्तंभ के दोनों तरफ दो दो शाखा बनाना और स्तंभ दो भाग का रखना। प्रथम पत्रशाखा, दूसरी गांधर्व शाखा, तीसरी रूपस्तंभ, चौथी खल्वशाखा और पांचवीं सिह शाखा है।
‘‘प्रथमा पत्रशाखा च गांधर्वा रूपशाखिका।
चतुर्थी स्तंभशाखा च रूपशाखा च पंचमी।।
षष्ठी तु खल्वशाखा च िसहशाखा च सप्तमी।
स्तंभशाखा भवेन्मध्ये रूपशाखाग्रसूत:।।’’
शाखा के विस्तार का आठ भाग बनाना। उनमें से दो भाग का मध्यमें स्तंभ रखना, बाकी एक एक भाग की छ: शाखाओं रखना। शाखा का नाम प्रथमा पत्रशाखा, दूसरी गांधर्व शाखा, तीसरी रूपशाखा, चौथी स्तंभशाखा, पांचवीं रूप शाखा, छट्ठी खल्व शाखा और सातवीं िसह शाखा है।
‘‘पत्रगांधर्वंसंज्ञा च रूपस्तंभस्तृतीयक:।
चतुर्थी खल्वशाखा च गान्धर्वा त्वथ पञ्चमी।।
रूपस्तंभस्तथा षष्ठो रूपशाखा तत: परम्।
खल्वशाखा च िंसहाख्यो मूलकर्णेन समन्वित:।।
प्रथमा पत्रशाखा, दूसरी गांधर्वशाखा, तीसरी स्तंभशाखा, चौथी खल्वशाखा, पांचवी गांधर्वशाखा छट्ठी स्तंभशाखा, सातवीं रूपशाखा, आठवीं शल्वशाखा और नववीं िसहशाखा है। इन नव शाखाओं में दो स्तंभ है, ये दोनों स्तंभ दो दो भाग के और सात शाखायें एक एक भाग की बनाने से नवशाखा का विस्तार ग्यारह भाग का है। ये प्रसाद के कोन तक विस्तार में बनाना।
‘‘मूलकर्णस्य सूत्रेण कुंभेनोन्दुम्वर: सम:।
तदध: पञ्चरत्नानि स्थाययेच्छिल्पिपूजया।।’’
प्रासाद के दोनों कोनो के समसूत्र में मंडोवर के कुंभा के थर के उदयमान का उदुम्बर (देहली) बनाना। इसको स्थापन करते समय नीचे पंचरत्न रखना और शिल्पि का सन्मान करना।
‘‘द्वारव्यासत्रिभागेन मध्ये मन्दारको भवेत्।
वृत्तं मंदारकं कुर्याद् मृणालपत्रसंयुतम्।।’’
द्वार के विस्तार का तीन भाग करना, उनमें मध्य में एक भाग का मंदारक बनाना। यह गोल और पद्मपत्रवाला बनाना।
‘‘जाड्यकुंभकर्णाली च र्कीित्तत्वक्त्रद्वयं तथा।
उटुम्बरस्य पाश्र्वे च शाखायास्तलरूपकम्।।
मंदारक के उदय में जाड्यकंभ, कणी, और केवाल का कणपीठ बनाना। इस मंदारक के दोनों तरफ एक एक भाग का र्कीित मुख (ग्रासमुख) बनाना, देहली की ऊँचाई के बराबर शाखा का तल रखना।
‘‘कुंभस्याद्र्धे त्रिभागे वा पादे हीन उदुम्बर:।
तदर्धे कर्णकं मध्ये पीठान्ते बाह्यभूमिका।।’’
देहली की ऊँचाई अधिक मालूम होवे, जिसे कदाचित देहली नीची करना पड़े तो वुंâभ थर से आधे तीसरे अथवा चौथे भाग नीची कर सकते हैं। देहली की ऊँचाई के आधे भाग में कणपीठ बनाना, इसके बराबर मंदिर के गर्भगृह का तल रखना। गर्भगृह के बाहर मंडप आदि का तल प्रासाद पीठ बराबर रखना।
‘‘खुरकेन समा कुर्यात् तदर्धचन्द्रस्योच्छ्रतिम्।
द्वारव्याससमं दैघ्र्यं निर्गमं च तदर्धत:।।’’
मंडोवर के खुरा थर के उदय बराबर शंखावटी का उदय रखना और लंबाई द्वार के विस्तार बराबर रखना तथा लंबाई से आधा चौड़ा रखना।
‘‘द्विभागमद्र्धचन्द्रं च भागेन द्वौ गगारकौ।
शंखपत्रसमा युक्ता पद्माकारैरलंकृता।।’’
शंखावटी के लंबाई का तीन भाग करना, इन दो भाग का अद्र्धचंद्र और आधे आधे भाग का अद्र्धचंद्र के दोनों तरफ एक एक गगारक बनाना। गगारक और अद्र्धचंद्र की बीच में शंख और लता आदि की आकृति वाला कमल पुष्प बनाना।
अग्गे दाहिण—वामे अट्ठट्ठ जििंणदगेह चउवीसं।
मूलसिलागाउ इमं पकीरए जगइ मज्झम्मि।।५६।।
चौबीस जिनालयवाला मन्दिर होवे तो बीच के मुख्य मन्दिर के सामने, दाहिनी और बांयी तरफ इन तीनों दिशाओं में आठ आठ देवकुलिका (देहरी) जगती के भीतर करना चाहिये।।५६।। ==
रिसहाई—जिणपंती सीहदुवारस्स दाहिणदिसाओ।
ठाविज्ज सिट्ठिमग्गे सव्वेिह जिणालए एवं।।५७।।
देवकुलिका में िसहद्वार के दक्षिण दिशा से (अपनी बांयीं ओर से) क्रमश: ऋषभदेव आदि जिनेश्वर की पंक्ति सृष्टिमार्ग से (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इस क्रम से) स्थापन करना।
इस प्रकार समस्त जिनालय में समझना।।५७।।
चउवीसतित्थमज्झे जं एगं मूलनायगं हवइ।
पंतीइ तस्स ठाणे सरस्सई ठवसु निब्भंतं।।५८।।
चौबीस तीर्थंकरों में से जो कोई एक मूलनायक होवे, उस तीर्थंकर की पंक्ति के स्थान में सरस्वती देवी को स्थापित करना चाहिये।।५८।।
चउतीस वाम—दाहिण नव पुट्ठि अट्ठ पुरओ अ देहरयं।
मूलपासाय एगं बावण्ण जिनालये एवं।।५९।।
चौतीस देहरी बीच प्रासाद के बांयीं और दक्षिण तरफ अर्थात् दोनों बगल में सत्रह सत्रह देहरी, नव देहरी पिछले भाग में, आठ देहरी आगे तथा एक मध्य का मुख्य प्रासाद, इस प्रकार कुल बावन जिनालय समझना चाहिये।।५९।।
पणवीसं पणवीसं दाहिण—वामेसु पिट्ठि इक्कारं।
दह अग्गे नायव्वं इअ बाहत्तरि जििणदालं।।६०।।
मध्य मुख्य प्रासाद के दाहिनी और बांयीं तरफ पच्चीस, पच्चीस, पिछाडी ग्यारह, आगे दस और एक बीच में मुख्य प्रासाद, एवं कुल बहत्तर जिनालय जनना।।६०।।
अंग विभूसण सहिअं पासायं सिहरबद्ध कट्ठमयं।
नहु गेहे पूइज्जइ न धरिज्जइ किंतु जत्तु वरं।।६१।।
कोना, प्रतिरथ और भद्र आदि अंगवाला तथा तिलक तवंगादि विभूषण वाला शिखरबद्ध लकड़ी का प्रासाद घर में नहीं पूजना चाहिये और रखना भी नहीं चाहिये। किन्तु तीर्थ यात्रा में साथ हो तो दोष नहीं।।६१।।
जत्तु कए पुण पच्छा ठविज्ज रहसाल अहव सुरभवणे।
जेण पुणो तस्सरिसो करेइ जिणजत्तवरसंघो।।६२।।
तीर्थ यात्रा से वापिस आकर शिखरबद्ध लकड़ी के प्रासाद को रथशाला में अथवा देवमंदिर में रख देना चाहिये कि फिर कभी उसके जैसा जिन यात्रा संघ निकालने के समय काम आवे।।६२।।
गिहदेवालयं कीरइ दारुमयविमाणपुप्फयं नाम।
उववीढ पीठ फरिसं जहुत्त चउरंस तस्सुविंर।।६३।।
पुष्पक विमान के आकर सुदृश लकड़ी का घर मंदिर बनाना चाहिये। उपपीठ, पीठ और उसके ऊपर समचौरस फरस आदि जैसा पहले कहा है वैसा करना।।६३।।
चउ थंभ चउ दुवारं चउ तोरण चउ दिसेिह छज्जउड़ं।
पंच कणवीरसिहरं एग दु ति बारेगसिहरं वा।।६४।।
चारों कोने पर चार स्तंभ, चारों दिशा में चार द्वार और चार तोरण, चारों ओर छज्जा और कनीर के पुष्प जैसा पांच शिखर (एक मध्य में गुम्बज उसके चार कोणो पर एक एक गुमटी) करना चाहिये। एक द्वार अथवा दो द्वार अथवा तीन द्वार वाला और एक शिखर (गुम्बज) वाला भी बना सकते हैं।।६४।।
अह भित्ति छज्ज उवमा सुरालयं आउ सुद्ध कायव्वं।
समचउरंसं गब्भे तत्तो अ सवायउ उदएसु।।६५।।
दीवार और छज्जा युक्त गृहमंदिर बराबर शुभ आय मिला कर करना चाहिये। गर्भ भाग समचौरस और गर्भ भाग से सवाया उदय में करना चाहिये।।६५।।
गब्भाओ हवइ छज्जु सवाउ सतिहाउ दिवड्ढु वित्थारे।
वित्थाराओ सवाओ उदयेण य निग्गमे अद्धो।।६६।।
गर्भ भाग से छज्जा का विस्तार सवाया, अपना तीसरा भाग करके सहित १—१/३ अथवा डेढा होना चाहिये। गर्भ के विस्तार से उदय में सवाया और निर्गम आधा होना चाहिये।।६६।।
छज्जउड थंभ तोरण जुअ उवरे मंडओवमं सिहरं।
आलयमज्झे पडिमा छज्जय मज्झम्मि जलवट्टं।।६७।।
छज्जा, स्तंभ और तोरण युक्त घर मंदिर के ऊपर मण्डप के शिखर के सदृश शिखर अर्थात् गुम्बज बनावें। गृहमंदिर के मध्य भाग में प्रतिमा रखें और छज्जा जलवट (बहार नीकलता) बनावें।।६७।।
गिहदेवालयसिहरे धयदंडं नो करिज्जइ कयावि।
आमलसारं कलसं कीरइ इअ भणिय सत्थेिंह।।६८।।
घरमंदिर के शिखर पर ध्वजादंड कभी भी नहीं रखना चाहिये। किन्तु आमलसार कलश ही रखना चाहिये, ऐसा शास्त्रों में कहा है।।६८।।
सिरि—धंधकलस—कुल—संभवेण चंदासुएण पेरेण।
कन्नाणपुर—ठिएण य निरिक्खिउं पुव्वसत्थाइं।।६९।।
सपरोवगारहेऊ नयणमुणि राम चंद वरिसम्मि।
विजयदशमीइ रइअं गिहपडिमालक्खणाईणं।।७०।।
इति परम जैन श्री चन्द्राङ्ग णठक्कुर ‘पेरू’ विरचिते वास्तुसारे प्रासादविधिप्रकरणं तृतीयम्। श्री धंधकलश नामके उत्तम कुल में उत्तम हुए सेंठ चंद्र का सुपुत्र ‘पेâरु’ ने कल्याणपुर (करनाल) में रहकर और प्राचीन शास्त्रों को देखकर स्वपर के उपकार के लिये विक्रम संवत् १३७२ वर्ष में विजयदशमी के दिन यह घर, प्रतिमा और प्रासाद के लक्षण युक्त वास्तुसार नाम का शिल्पग्रंथ रचा।।६९।७०।।
नन्दाष्टनिधिचन्द्रे च वर्षे विक्रमराजत:।
ग्रन्थोऽयं वास्तुसारस्य हिन्दीभाषानुवादित:।।
इति सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत—पादलिप्तपुरनिवासिना
पण्डितभगवानदासाख्या जैनेनानुवादितं
गृह—बिम्ब—प्रासादप्रकरणत्रययुक्तं
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