अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व, क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है। इस वेदक सम्यक्त्व में चल, मलिन और अगाढ़ दोष होते रहते हैं। यह सम्यक्त्व भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अंतर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छ्यासठ सागर पर्यंत कर्मों की निर्जरा का कारण है। शंका आदि पच्चीस मल दोषों को दूर करने वाला सम्यग्दृष्टि जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धान करता है। कदाचित् अज्ञानी आदि गुरु के वचनों को अर्हंत के वचन समझकर श्रद्धान कर लेता है फिर भी सम्यग्दृष्टि है। यदि पुन: किसी गुरु ने उसे सूत्रादि ग्रंथ दिखाकर कहा कि यह गलत है और वह हठ को नहीं छोड़ता है तो उसी समय से वह मिथ्यादृष्टि बन जाता है। यह जीव इंद्रियों के विषयों से, त्रस-स्थावर की िंहसा से विरत नहीं है फिर भी अनर्गल रूप से इंद्रिय विषयों का सेवन या हिंसादि कार्य नहीं कर सकता है अत: जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धान करने से अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है। उपशमसम्यक्त्व का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त है। वेदक का जघन्य अंतर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट छ्यासठ सागर प्रमाण है और क्षायिक का अनंतकाल है। यह सम्यक्त्व केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही होता है और तीन या चार भव में जीवों को मोक्ष पहुँचाकर वहाँ शाश्वत विद्यमान रहता है ।