रतनपुरी- इसके नौराही और रौनाही दोनों नाम प्रचलित हैं। यह ‘रतनपुरी’ तीर्थक्षेत्र है। यहाँ रौनाही नाम से छोटा सा गांव हैं। कहते हैं जब श्री रामचंद्र वन में जाने के लिए अयोध्या से निकले थे तब यहाँ तक लोग पैदल उनके साथ आये थे और बहुत रोये थे अतः इसका नाम ‘रोनाही’ पड़ गया।
यहाँ सरयू के निकट दो दिगम्बर जैन मंदिर हैं। जैन धर्मशाला भी है। यह पंद्रहवें तीर्थंकर भगवान् धर्मनाथ की जन्मभूमि है। बचपन में यहाँ भगवान् धर्मनाथ की जिनप्रतिमा विराजमान के समारोह में मैंने वेदी का पर्दा खोला था, मेरे पिता ने यह छोटी सी बोली लेकर मेरे हाथ से यह मंगल कार्य करवाया था। यहाँ मैंने भगवान् की जन्मस्थली के दर्शन कर भक्ति पढ़कर ‘जन्मकल्याणक’ की वंदना की पुनः अयोध्या आ गई।
अयोध्या
यह जैन मान्यता के अनुसार शाश्वत नगरी है। यहाँ भगवान् ऋषभदेव के गर्भ, जन्म दो कल्याणक हुए हैंं। श्रीअजितनाथ, श्रीअभिनंदननाथ, श्रीसुमतिनाथ और श्रीअनंतनाथ इन चार तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ऐसे चार-चार कल्याणक हुए हैं। ‘‘ महाराजा नाभिराज की महारानी मरुदेवी के गर्भ से तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जन्म लेंगे’’ इस निमित्त से कर्मभूमि की आदि में अनेक देवों के साथ इंद्र ने स्वयं आकर इस अयोध्या की रचना की थी।
इस समय यहाँ दो जैन मंदिर और पाँच टोंके हैं। उस समय सन् १९६२-६३ में एक ही मंदिर था। वहाँ आचार्यश्री देशभूषणजी की प्रेरणा से कटरा मंदिर में एक तरफ भगवान् आदिनाथ, भरत और बाहुबली की तीन खड्गासन प्रतिमायें विराजमान करायी गई थीं। इस समय रायगंज मुहल्ले में विशाल प्रांगण में भगवान आदिनाथ की २८ फुट ऊँची खड्गासन जिनप्रतिमा औंधी लिटाई हुई थीं, उनकी प्रतिष्ठा सन् १९६५ में हुई है।
इन मंदिरों के दर्शन कर टोंकों के दर्शन किये पुनः इन लेटी हुई जिनप्रतिमा के निकट आकर सोचने लगी- ‘‘ऐसी विशालकाय जिनप्रतिमा के खड़े किये जाने पर, प्रतिष्ठा होने पर, यह अयोध्या पुनः महान तीर्थ बन जायेगी। तीर्थ तो महान ही है परंतु इस समय आचार्यश्री देशभूषण जी ने जो इसके विकास के लिए अथक परिश्रम किया है, उनकी किन शब्दों में स्तुति करना? वे गुरु महान हैं। इत्यादि भावना करते हुए प्रसन्नमना वहाँ से विहार कर गई।
यहाँ अयोध्या में हनुमान गढ़ी बहुत प्रसिद्ध है। श्री रामचंद्रजी के मंदिर बहुत हैं। अयोध्या को मैं अपनी जन्मभूमि समझती हूँ क्योंंकि प्राचीन अयोध्या १२ योजन की थी जो कि ९६ मील प्रमाण थी, उस हिसाब से टिकैतनगर, बाराबंकी इसी में आ जाते थे। आज ये अलग-अलग दिख रहे हैं।
टिकैतनगर आगमन
इससे पूर्व मेरे संघ को टिकैतनगर के श्रावकगण टिकैतनगर चलने के लिए प्रार्थना करने आये थे। इस समय इस सम्मेदशिखर यात्रा की कापियाँ खो गई हैं अतः यात्रा के क्रम, तिथि आदि का मुझे बहुत कम स्मरण रहा है। टिकैतनगर के श्रावकों ने आर्यिका संघ को टिकैतनगर चलने का आग्रह किया। मैंने स्वीकार कर टिकैतनगर पदार्पण किया।
माता मोहिनी और पिता बहुत ही प्रसन्न हुए। आर्यिका अवस्था में आज मैं अपनी जन्मभूमि में दस वर्ष बाद पहुँची। संघ वहाँ ५-६ दिन रहा, अच्छी प्रभावना हुई। जैनेतरों ने भी मेरे दर्शन कर अपने को और अपने गाँव को धन्य माना। यहाँ पर मनोवती और प्रकाश अपने घर ही ठहरे थे, वहीं चौका चल रहा था। अब पिताजी का मोह पुनः जाग्रत हुआ, उन्होंने कु. मनोवती और प्रकाश दोनों को भी आगे नहीं जाने के लिए कहा और रोकना चाहा। मैंने कहा- ‘‘बीच में अधूरी यात्रा में इन्हें क्या पुण्य मिलेगा?
पूरी यात्रा तो करा देने दो।’’ एक दिन पिता ने दोनों को बिठाकर रास्ते के अनुभव पूछना शुरू किया, तब प्रकाश ने बतलाया- ‘‘रास्ते में प्रतिदिन माताजी दोनों समय में १२ से १५ मील तक चलती हैं। मैं भगवान् की पेटी और कमण्डलु लेकर साथ ही पैदल चलता हूँ। बाबाजी (ब्र. सुगनचंदजी) मध्यान्ह ३-४ बजे बैलगाड़ी पर सारा सामान लाद कर चल देते हैं। रात्रि में प्रायः१०-११ बजे वहाँ पर आ पाते हैं कि जहाँ माताजी ठहरती हैं।
वहाँ आकर घास का बोरा खोलकर घास देते हैं। इतना सुनते ही पिताजी बोले- ‘‘इतनी भयंकर पौष, माघ की ठण्डी में सभी आर्यिकायें एक साड़ी में १०-११ बजे तक किसे बैठी रहती हैं?’’ प्रकाश ने कहा-‘‘जहाँ माताजी ठहर जाती हैं, वहीं स्कूल या ग्राम पंचायत का स्थान या डाक बंगला आदि कोई स्थान ढूँढ़कर उन लोगों से बातचीत कर मैं सभी माताजी को वहाँ ठहरा देता हूँ पुनः कुआ देखकर, पानी लाकर गर्म कर कमण्डलु में भरकर, मैं गाँव में चावल की घास ढूँढ़ने के लिए चला जाता हूँ।
कभी तो घास मिल जाती है, तो एक गट्ठा लाकर सबको बैठने के लिए थोड़ी-थोड़ी देता हूँ, कभी नहीं मिले, तो ज्वार की कडव या गन्ने के फूस (बाण) ही ले आता हूँ। उसी पर माताजी बैठकर सामायिक, जाप्य, स्वाध्याय आदि कर लेती हैं। माँ ने पूछा-‘‘गन्ने की फूस तो धार वाली रहती है, इससे तो शरीर में घाव हो जाने का भय रहता होगा।’’ ‘‘हाँ! माताजी उस पर बिना हिले डुले बैठ जाती हैं, कभी-कभी तो बाबा जी की गाड़ी देर से आने पर इसी पर आहिस्ता से लेट भी जाती हैं। हिलने-डुलने या करवट बदलने से तो यह फूस शरीर में घाव बना दे ।’’
माँ ने कहा-‘‘ओह! रास्ते में माताओं को कितने कष्ट हैं!.’’
प्रकाश ने कहा- ‘‘कोई भी माताजी इसको कष्ट नहीं गिनती हैं बल्कि बड़ी माताजी तो कहा करती हैं कि- ‘‘हे भगवन्! ऐसी भयंकर ठण्डी में भी खुले स्थान में बैठकर रात्रि बिताने की क्षमता मुझे कब प्राप्त होगी?.’’ पुनः आगे सुनो, क्या होता है- तब सभी लोग उत्सुकता से सुनने लगते हैं- ‘‘बाबाजी रात्रि में २-३ घण्टे सोकर जल्दी से उठ जाते हैं और तीन बजे ही हल्ला शुरू कर देते हैं पुनः सभी माताजी घास छोड़कर जरा सी चूरा-चारा में बैठकर प्रतिक्रमण पाठ, सामायिक आदि शुरू कर देती हैं।
बाबाजी सारी घास बोरों में भरकर बैलगाड़ी में सब बिस्तर बोरी लादकर, उसी में बैठकर, बैलगाड़ी ४ बजे करीब रवाना कर देते हैं।’
बीच में पिता ने कहा- ‘‘क्यों, इतनी जल्दी क्यों? आजकल तो सात, साढ़े सात बजे दिन उगता है, छह बजे तक घास में माताजी को क्यों नहीं बैठने देते?’’
प्रकाश ने कहा-‘‘यदि बाबाजी इतनी जल्दी न करें तो माताजी का आहार मध्यान्ह एक बजे होवे।’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘क्योंकि माताजी सुबह उठकर दिन उगते ही चल देती हैं। लगभग ९-१० मील तक चलती हैं। बाबाजी की बैलगाड़ी यदि चार बजे रवाना होती है तो ७-८ बजे तक आहार के स्थान पर पहुँच पाती है। ये लोग पहले आहार के योग्य स्थान ढूँढते हैं पुनः वहाँ सामान उतारकर, कपड़े सुखाकर, स्नान आदि से निवृत्त होकर चौका बनाते हैं।
माताजी ९-३०, १० बजे तक वहाँ आ जाती हैं। लगभग ११ बजे तक माताजी का आहार होता है पुनः माताजी सामायिक करके १ बजे रवाना हो जाती हैं।’’ एक दिन माँ आकर सारी बातें मुझे सुनाकर मुझसे पूछने लगीं-‘‘माताजी! क्या प्रकाशचंद सच कह रहा है?’’ मैं हंस दी, पुनः वे पूछने लगीं- ‘‘माताजी आपको संग्रहणी की तकलीफ थी, सो रास्ते में स्वास्थ्य कैसा रहता है?’’ मैंने कहा-‘‘मथुरा आने तक तो रास्ते में बहुत ही अतीसार लगते रहे किन्तु मथुरा आकर मैंने कुछ जाप्य करना प्रारंभ कर दिया। रास्ते भर मंत्र जपती रहती हूँ, उसी मंत्र के प्रभाव से अब प्रायः मुझे रास्ते में कोई खास तकलीफ नहीं होती है।
सभी संघस्थ माताजी भी तो हर समय बहुत ही प्रसन्न दिखती हैं बल्कि रास्ते में हम सब आपस में कर्म प्रकृतियों की चर्चायें करते हैं जिससे कि साथ में चलने वाले गाँव-गाँव के नये-नये श्रावक भी लाभान्वित होते हैं। रास्ते में जो भी जैन के गाँव आते हैं मैं प्रायः एक दिन वहाँ ठहरती हूँ और श्रावकों को उपदेश सुनाती हूँ।
उपदेश सुनकर लोग और दो-चार दिन रुकने का आग्रह करते हैं। कहीं-कहीं के श्रावक-श्राविकायें तो पैर पकड़ कर बैठ जाते हैं लेकिन मैं इस यात्रा के प्रसंग में उन सबकी प्रार्थना को न सुनकर आगे विहार कर देती हूँ।’’ इन सब बातों को सुनकर माँ कहने लगीं- ‘‘अहो! दीक्षा लेकर पैदल चलना, रास्ते के कष्टों को झेलना, बहुत ही कठिन है।’’
मनोवती ने बताया
‘‘प्रातः प्रतिदिन जब हमारी बैलगाड़ी ७-८ बजे गन्तव्य स्थान पर पहुँचती है, तब कपड़े सुखाते हैं, इससे प्रायः हम लोग इतनी भयंकर सर्दी में भी गीले कपड़े पहन कर रसोई बनाते हैं।’’ मनोवती की संघ सेवा, कुशलता और योग्यता को देखकर पिता बहुत ही प्रसन्न थे, उन्होंने पूछा- ‘‘बिटिया! तुम्हें खाना कितने बजे मिलता है?’’
‘‘खाना प्रतिदिन १२-१ बजे खाती हूँ।’’ तभी प्रकाश ने कहा-‘‘चौके की रसोई का खाना यद्यपि ठण्डा और रूखा-सूखा रहता है तो भी भूखे पेट मीठा लगता है। घर में तो मैं ऐसी रोटियाँ हाथ से भी नहीं छुऊँगा किन्तु रास्ते में बड़े प्रेम से खा लेता हूँ।’’ ‘‘और शाम को क्या खाते हो?’’ ‘‘शाम को माताजी के साथ चलता हूँ इसलिए प्यास लगने पर कमण्डलु का पानी पी लेता हूँ।’’
तब पिता ने कहा-‘‘बेटा! तुम घर में ५-७ बार खाते हो और रास्ते में एक बार, अतः अब संघ में नहीं जाना, नहीं तो बहुत कमजोर हो जाओगे।’’ प्रकाश ने हंसकर कहा- ‘‘वाह! मैं तो अभी साथ में ही जाऊँगा और पूरी यात्रा कराऊँगा।’’ उस समय टिकैतनगर में मेरे सामने एक लड़की आती थी जो अपने गोद में छोटी सी बालिका को लिये रहते थी। वह वहाँ खड़ी ही रहती और मुझको एकटक निहारा करती थी। एक बार मैंने पूछ लिया- ‘‘तुम किसकी लड़की हो?’’
वह रोने लगी और बोली-‘‘मैं छोटेलाल जी की लड़की हूूँ।’’ मैं उसे आश्चर्य से देखने लगी पुनः पूछा-‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ ‘‘मेरा नाम कुमुदनी है।’’ तभी मैंने कहा-‘‘तुम रोती क्यों हो? जब मैंने तुम्हें छोड़ा था, तब तुम मात्र ढाई-तीन वर्ष की थी। भला अब मैं तुम्हें कैसे पहचान पाती?’’ इसके बाद मैंने कुमुदनी को कुछ शिक्षाएं दीं और सान्त्वना देकर घर भेज दिया। उसी समयकुमुदनी घर तो आ गई, माँ से बोली- ‘‘मुझे भी माताजी के साथ शिखरजी भेज दो।’’ माँ ने कहा-‘‘इधर तेरे पिता तो मनोवती और प्रकाश को ही रोक रहे हैं, भला तुझे कैसे भेज देंगे?.’’
बेचारी कुमुदनी रोकर रह गई। संघ का विहार टिकैतनगर से हो गया। क्रम-क्रम से फैजाबाद, जौनपुर आदि होते हुए संघ आरा पहुँच गया। इधर कुमुदनी ने मेरे पास आने के लिए बहुत ही पुरुषार्थ किया किन्तु सबने घर में बहुत समझाया, गुस्सा किया। बाद में वह रो-धोकर चुप हो गई, भला वह कर ही क्या सकती थी? आज अनेक वर्ष से उसकी पुत्री कु.बीना मेरे पास रह रही है और धर्माराधना, संघ सेवा कर रही है। एक बार हम लोग विहार करते हुए एक गाँव में आये।
सामने आकर ब्र.सुगनचंद ने स्वागत किया और एक बहुत बड़ा स्थान था, जहाँ चारों तरफ से बाउंड्रीवाल बनी हुई थी, वहाँ अन्दर ले गये। बाहर धूप में एक चबूतरा था, उस पर हम लोग बैठ गये। वहीं बीच में चौकी लगाकर भगवान् का अभिषेक किया। अनंतर ग्यारह बज चुके थे अतः कमंडलु में पानी भर दिया
और हम लोगों ने शुद्धि करके वस्त्र बदल दिया, उसी समय उस चबूतरे के पास कुछ महिलाएँ बच्चों को लिए आकर बैठ गई। मैंने सहसा पूछ लिया- ‘‘तुम लोग कौन हो?’’ उन्होंने कहा-‘‘हम हरिजन हैं, यही पर रहते हैं।’’ ऐसा सामने बने कच्चे कमरों की ओर अंगुली से बता दिया। मैंने पुनः पूछा-‘‘इस परिसर के चारों तरफ और कौन लोग रहते हैं?’’
उन महिलाओं ने कहा-‘‘सभी हरिजन लोग रहते हैं।’’ मैंने १-२ मिनट मन में कुछ सोचा और कमंडलु हाथ में उठाकर सीधे वहाँ से निकलकर, सड़क की ओर चलकर, सड़क पर आगे-आगे विहार कर गई। मेरी सभी शिष्यायेें भी मेरे पीछे चली आर्इं। प्रकाशचंद ने झट से मूर्तिजी को पेटी में विराजमान कराया और पेटी लेकर वे भी सड़क पर दौड़कर, आकर मेरे साथ हो लिये। उन लोगों को पता चल गया कि ‘यह मांसाहारी-हीन लोगों का स्थान है’ ऐसा मालूम हो जाने से माताजी आगे विहार कर कई हैंं। पहले दिन आहार के बाद लगभग १० मील चलायी हो चुकी थी।
आज प्रातः १० बजे तक हम लोगों ने ७-८ मील करीब चलाई की थी और फिर आहार न होने से भी थकी हुई थीं लेकिन हम लोग चुपचाप महामंत्र का स्मरण कर बढ़ते ही जा रहे थे। प्रकाशचन्द बार-बार कुछ पूछना चाहता था किन्तु उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उधर ब्र. सुगनचंद आदि सभी लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो कुछ सोच नहीं पा रहे थे। १२ बजने का समय होने पर हम लोगों ने सड़क के एक बाजू में बैठकर सामायिक कर ली। पौन घण्टे बाद पुनः चलने लगे।
मार्ग में धीरे से प्रकाशचन्द ने पूछ ही लिया- ‘‘माताजी! यदि साधु प्रातः काल आहार को न उठें तो सामायिक के बाद भी तो आहार के लिए निकल सकते हैं।’’ मैंने कहा-‘‘हाँ, उठ सकते हैं।’’ बस इतना सुनते ही प्रकाशचंद बेभान पीछे की ओर भागा, मार्ग में एक रिक्शा आ रहा था, उसे रोककर, पकड़कर कुछ अनुनय विनय करके कहा- ‘‘आज मेरे गुरु बिना आहार के रह जायेंगे, सब बहुत थके हुए हैं अतः तुम मुझे अमुक गाँव तक जल्दी पहुँचा दो।
’’ उसने इसे पहुँचा दिया। यह वहाँ से बहन मनोवती को और सरदारमल को साथ लेकर, कुछ सामान लेकर, दूसरे किसी रिक्शे से या बस से आगे लगभग ८ मील पर आने वाले गाँव में पहुँचे। वहाँ से ब्र. सुगनचंद भी अपना सारा सामान गाड़ी में भरकर चल पड़े। इधर प्रकाश ने वहाँ मंदिर के पास एक स्थान में जल्दी-जल्दी चौका बनवाया।
हम सबकी धोतियाँ सुखायीं और कमंडलु के लिए पानी गरम किया। हम लोगों ने वहाँ पहुँचकर विश्राम करना चाहा चूँकि शरीर बिल्कुल जवाब सा दे रहा था किन्तु प्रकाश ने घड़ी दिखायी, साढ़े तीन बज रहे थे, बोले- ‘‘माताजी! जल्दी शुद्धि कीजिये।’’ हम लोगों ने शुद्धि करके साड़ियाँ बदलीं। भगवान् का दर्शन कर आहार को उठे।
घड़ी सवा तीन बजा रही थी, सर्दी के दिनों में साढ़े पांँच बजे प्रायः सूर्यास्त हो जाता है अतः चौके में जल्दी-जल्दी इन लोगों ने आहार दिया। आहार में मात्र गरम पानी, खिचड़ी और दलिया बनाई थी। खिचड़ी में ही आटे की छोटी-छोटी बाटियाँ डाल दी थीं जो कि दालबाटी जैसी पक गई थीं। सभी ने खिचड़ी और बाटी खाई।
मेरे एक मात्र गेहूँ धान्य का ही नियम होने से, बाकी अन्न त्याग होने से मैंने दलिया खायी और भर पेट पानी पिया। आहार करके आने के बाद जल्दी-जल्दी ब्रह्मचारी लोगों ने भी कुछ खाया पिया पुनः जल्दी ही दिन छुप गया। उस दिन जो कुछ भी आहार हुआ था वह अमृत के समान गुणकारी हुआ, सायंकाल में सभी संघस्थ माताजी खूब हँसी, पैर तो मानों ऐसा कह रहे थे
कि अब खड़े ही मत होवो। ब्रह्मचारीजी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘‘माताजी! कल आहार के बाद मध्यान्ह में ही विहार करना चाहिए।’’ मैंने भी अपनी और सबकी शरीर स्थिति देखकर कह दिया- ‘‘ठीक है!’’ रात्रि में सामायिक करके सब आर्यिकायें सो गर्इं, तब कुछ थकान उतरी और शांति मिली।
तब प्रातः प्रकाशचंद बोला- ‘‘माताजी! मैंने घड़ी आधा घंटे पीछे कर दी थी’’ और हँसने लगा। मैंने समय का हिसाब लगाया, फिर देखा कि सूर्यास्त से तीन घड़ी पहले आहार हो जाना चाहिए अतः ठीक ही रहा हैै, कोई बाधा नहीं आई है। मूलाचार में लिखा है-
उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि।
एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु।।३५।।
सूर्य उदय और सूर्यास्त के काल में से तीन-तीन घड़ी से रहित काल आहार काल है। इसमें एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्तपर्यंत जो आहार ग्रहण है वह ‘एक भक्त’ नाम का मूलगुण है। एक घड़ी २४ मिनट की होती है अतः सूर्यास्त के १ घंटा १२ मिनट पहले आहार हो जाना चाहिए सो ऐसा ही हुआ था।
उस समय विहार से पूर्व मैं आहार और चौके के बारे में कुछ कहना, सुनना, दोष समझती थी, उत्कृष्ट चर्या पालती थी अतः मैंने किसी को कुछ नहीं कहा था, फिर भी यदि ब्र. सुगनचंद को कह देती कि यह मांसाहारी लोगों की बस्ती है, यहाँ आहार न करके आगे करूँगी। तो उस समय शायद ब्रह्मचारी जी वहीं गाँव में कहीं अन्यत्र स्थान ढूँढ कर चौका करके आहार करा सकते थे
फिर भी मैं ऐसी-ऐसी वीरचर्या पालने लगती थी, आज सोचती हूँ तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है। ऐसी ही घटनायें अथवा इससे मिलती-जुलती अकस्मात् विहार कर देने की घटनाएँ मेरे पाँच वर्ष के जीवन में सन् १९६३ से लेकर १९६७ तक में अनेक बार हुई हैं।