कलकत्ता चातुर्मास- आषाढ़ शुक्ला चौथ से आषाढ़ शुक्ला चौदश तक, ग्यारह दिन मेरे हाथ में थे। मैंने आषाढ़ सुदी चौथ को दोपहर में विहार कर १० मील लगभग चलाई की थी अतः ऐसा क्रम बनाया था कि मध्य के नव दिनों में बीस-बीस मील चलना और प्रथम व अंतिम दिवस दस-दस मील मिलकर, दो सौ मील पूरे हो जावेंगे।
उसी हिसाब से चल रही थी। आहार और सामायिक से अतिरिक्त चलना ही चलना रहता था। इस मार्ग में शक्ति से अधिक बहुत ही थकान आती थी, तब बीच में सड़क के किनारे बैठकर ५-१० मिनट विश्राम करके फिर चल देती थी। पैरों के तलवे घिसकर खूब वेदना उत्पन्न करते थे, उनसे खून बहने लगता था, कहीं गीली मिट्टी को कुछ क्षण पैर में लगा लेने से कुछ नाममात्र की शान्ति मिल जाती थी। इधर २-४ दिन बाद ही एक दिन आहार में मेरे एक-दो ग्रास लेने के बाद ही अंतराय आ गया।
इस उपवास जैसी स्थिति में भी उतना ही मैं चली। इधर संग्रहणी के प्रकोप से तीन-चार बार शौच तो जाना ही होता था, फिर भी शरीर से निर्मम होकर चलाई हो रही थी। यद्यपि स्वस्थ साधु-साध्वियाँ आज भी इतनी लम्बी क्या, इससे अधिक चल लेते हैं।
जबकि जहाँ लाडनूं में मेरी संग्रहणी की बीमारी के निमित्त से मुझे छह माह में सम्मेद शिखर पहुँचने की बात असंभव सी दिख रही थी, वहाँ मैंने मनोबल से यह दो सौ मील की चलाई भी ग्यारह दिन में तय कर ली और आषाढ़ शुक्ला चौदस को कलकत्ते पहुँच गई।
वर्षा की बूँदें
कलकत्ता शहर से कुछ दूर पहले ही स्वागत के लिए बहुत से स्त्री-पुरुष चले आ रहे थे, उन्होंने बताया कि शहर में वर्षा हो रही थी मात्र यहाँ आपके निकट एक-दो फर्लांग तक ही वर्षा नहीं है। इन लोगों ने शहर के निकट से बैंड बाजे के साथ जुलूस बना लिया और मुझे मंदिरों के दर्शन कराकर जुलूस के साथ ही बेलगछिया तक पहुँचने तक लगभग ग्यारह बज रहा था।
वहाँ पहुंचकर जुलूस सभा में परिणत हो गया और मेरा मंगल आशीर्वादात्मक प्रवचन हुआ। वहाँ उस समय लोगों की खुशी, उत्साह और भक्ति देखते ही बनती थी। इस दिन हम सभी साध्वियों का उपवास था।
वर्षा योग स्थापना
मध्यान्ह सामायिक के बाद मैंने एक श्रावक से कहा- ‘‘आप जयपुर में श्री रामचन्द्र कोठारी को टेलीफोन से सूचित कर दो कि माताजी कलकत्ता बेलगछिया में आ चुकी हैं। अब आचार्यश्री शिवसागर जी का आशीर्वाद और चातुर्मास स्थापना के लिए स्वीकृति भेज देवें।’’ तदनुसार यहाँ से जयपुर टेलीफोन किया गया।
वहाँ जब सेठ रामचन्द्र जी ने आचार्यश्री से समाचार कहे, तब सभी साधुओं के आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा। आचार्यश्री ने कहा- ‘‘यह समाचार झूठ भी हो सकता है, चूँकि ज्ञानमती माताजी के बीस-बीस मील चलने की शक्ति नहीं है। फिर भी सेठ रामचन्द्र जी ने कहा-
‘‘महाराज जी! विश्वस्त सेठ अमरचन्द पहा़डिया आदि ने फोन किया है, आप आशीर्वाद दीजिये।’’ पुनः कोठारी जी के टेलीफोन से जब यहाँ मुझे आशीर्वाद और चातुर्मास स्थापना के लिए स्वीकृति का समाचार मिला तो बहुत खुशी हुई। रात्रि में सामायिक के बाद कलकत्ता शहर के सभी प्रतिष्ठित लोग प्रायः आ चुके थे।
नथमलजी सेठी, मदनलाल पांड्या, अमरचन्द पहाड़िया, सीताराम पाटनी, चांदमल बड़जात्या, सुगनचंद लुहाड़िया, किशनलाल काला, पारसमल बलूँदा वाले, हरखचन्द पांड्या, नागरमल अग्रवाल जैन आदि अनेक महानुभावों ने श्रीफल चढ़ाकर चातुर्मास स्थापना के लिए प्रार्थना की। मैंने भी रात्रि में मौन छोड़कर वर्षायोग के बारे में कुछ उपदेश देकर स्वीकृति प्रदान की, पुनः श्रावकों ने हर्ष से विभोर हो जय-जय ध्वनि की।
हम सभी आर्यिकाओं ने विधिवत् भक्ति पाठ करके वर्षायोग स्थापना की, लगभग ग्यारह बजे सभा विसर्जित हुई। तब हम लोगों ने विश्राम किया। प्रातः काल से ही यहाँ बेलगछिया में मेला सा लगा रहता था। प्रातः आठ बजे मेरा प्रवचन हुआ। इसके बाद दस बजे आहार के लिए निकली, तब आठ-दस चौकों में पड़गाहन करने वाले लगभग सौ लोग खड़े थे।
पड़गाहन के बाद हम सबके निरंतराय आहार हुए, सबको खुशी हुई। इसी दिन सायंकाल में सुगनचन्द लुहाड़िया आदि श्रावक-श्राविकाओं ने हारमोनियम, तबले आदि बजाकर भक्ति में विभोर हो, मेरी आरती की।
एक चर्चा रात्रि में वर्षायोग स्थापना की
वर्षायोग स्थापना के बाद कतिपय तेरहपंथी और सुधारक लोगों ने एक चर्चा चालू कर दी कि ‘‘रात्रि में वर्षायोग स्थापना उचित है क्या?’’ मेरे पास शंका-समाधान आने के पहले ही वहाँ बेलगछिया में रहने वाले ब्रह्मचारी प्यारे लाल जी (भगतजी) ने उन सबको समाधान देकर शांत कर दिया। उन्होंने कहा-
‘‘रात्रि में वर्षायोग प्रतिष्ठापन की विधि मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए शास्त्र में है।’’१ लोग शांत हो गये। मुनिभक्त लोगों को बहुत ही आश्चर्य हुआ कि-‘‘ये भगत जी स्वयं तेरहपंथी हैं, सुधारक हैं, फिर भी ऐसा समाधान देकर शांति कर रहे हैं, यह बड़े ही आश्चर्य की बात है। बाद में समझ में आता गया कि-
भगत जी ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी चमेलाबाई ये दोनों ही आगम के श्रद्धालु हैं और मेरे प्रति भी श्रद्धालु ही हैं, अतः श्रद्धा और भक्ति से ही वे ऐसा समाधान देते रहे हैं।’’
उपदेश में स्पष्टीकरण
रविवार के दिन मध्यान्ह में विशेष भीड़ हो जाने से विशेष उपदेश होता था। प्रारंभ में मैंने पं. बाबूलाल जी वक्ता को मंगलाचरण के लिए खड़ा कर दिया। इन्होंने अच्छा भाषण किया, मेरी प्रशंसा भी की पुनः अपने भाषण में ही बोले- ‘‘मैं पूज्य माताजी से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे अपने उपदेश में तत्त्वों का ही विषय लेवें, क्रिया कांड आदि का विषय न लेवें, चूँकि यहाँ अनेक विचारधारा के लोग हैं। मैंने इसके बाद अपने प्रवचन के अंत में कहा-
‘‘जैसा कि पं. बाबूलाल जी ने निवेदन किया है वह नहीं जंचा क्योंकि मैं शास्त्र के आधार से क्रिया और तत्त्व दोनों का ही प्रतिपादन करूँगी। मैं चर्या के विषय छोड़कर मात्र तत्त्वों का प्रतिपादन करूँ, यह एकांत मेरे द्वारा संभव नहीं है। हाँ! जिन्हें जिस विषय में शंका होवे, वे मेरे पास आकर उस-उस विषयक आगम प्रमाण देख सकेंगे।
चूंकि पंडित जी ने सभा में ही स्पष्टीकरण कर दिया है। मैं अपने गुरुओं और आगम ग्रंथों के सिवाय किसी के बंधन में नहीं बंंध सकती हूँ…..।’’ इस मेरे वक्तव्य का सभा के सभी लोगों ने करतल ध्वनि से अच्छा स्वागत किया। यद्यपि मैंने आज तक अपने ३५ वर्ष के दीक्षित जीवन में सभा में कभी भी बीसपंथ का प्रतिपादन नहीं किया है और न तेरापंथ का खंडन ही किया है,
फिर भी उनका यह बंधन मुझे नहीं जँचा था। मेरे पास अलग से यदि कोई तेरह-बीस की चर्चा लाये हैं तो मैंने शास्त्रों के एक ही नहीं अनेक प्रमाण दिखा दिये हैं। अस्तु। इसके बाद उन विद्वान् ने कई बार भाषण भी दिया है, मुझे पड़गाहन कर आहार भी दिया है, प्रायः आते थे, भक्ति व नमस्कार आदि करते थे परन्तु फिर कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कही।
शासन देव-देवियों के प्रमाण
उसी बेलगछिया में एक नन्दलाल जी जैन प्रसिद्ध श्रावक थे। उनके घर मेंं प्रायः चौका लगता रहता था और वे आहार भी देते थे, अच्छे भक्तिमान थे। शायद उन्हीं के भाई छोटेलाल जी एक अच्छे प्रसिद्ध और सुधारक श्रीमान वहीं रहते थे। वे भी प्रायः प्रतिदिन मेरे पास आकर नमस्कार करते और कुछ न कुछ चर्चा किया करते थे।
वे एक बार बहुत से फोटो लाये और दिखाने लगे। ये फोटुए खंडगिरि-उदयगिरि की गुफाओं की थीं, वे श्रीमान इन फोटुओं को दिखा दिखाकर बार-बार यह कह रहे थे- ‘‘माताजी! देखो, ये शासन देव और देवियाँ चौबीस सौ वर्ष पुरानी हैं जो कि वहाँ गुफाओं के शिलालेख से स्पष्ट है अतः इन शासन देव और देवियों की मूर्तियाँ चतुर्थकालीन हैं, ये जैन धर्म में मान्य हैं।
आपको भी यहाँ से खंडगिरि-उदयगिरि के दर्शन अवश्य करना चाहिए।’’ ये श्रीमान छोटेलाल जी कट्टर तेरहपंथी थे फिर भी शासन देव-देवियों का समर्थन कर रहे थे। यह देखकर उस समय वहाँ पास में बैठे हुए बीसपंथी श्रावक हंस रहे थे। इनके चले जाने के बाद कुछ लोग खूब हंसते और कहते-
‘‘माताजी! देखो तो सही, ये लोग ‘गुड़ खाते हैं और गुलगुले का परहेज करते हैं।’’ वास्तव में तेरापंथी लोग शासन देव-देवियों का बहुत ही विरोध करते हैं पर ये महानुभाव तो प्रायः आये दिन आपके पास शासन देवों के फोटो-चित्र दिखाने के लिए लाते हैं और समर्थन भी करते रहते हैं।’’ इसी प्रकार से जो कोई भी श्रावक तेरह बीस के बारे में चर्चा लाते थे, मैं उन्हें श्री पूज्यपाद स्वामी विरचित पंचामृत अभिषेक आदि के प्रमाण दिखा देती थी।
संघस्थ चैत्यालय
आचार्यश्री वीरसागरजी ने मुझे १९५६ में ही जयपुर के पास के एक गांव बगरू के लिए विहार करते समय यह समझाया था कि-‘‘देखो, ज्ञानमती जी! तुम विहार के समय एक जिनप्रतिमाजी संघ में रखना, जिससे संघस्थ ब्रह्मचारिणी उन्हीं प्रतिमा जी का अभिषेक करें और फूल, फल आदि चढ़ाकर पूजा करें चूंकि आजकल समाज में तेरह और बीस नाम से दो पंथ चल रहे हैं अतः संघस्थ चैत्यालय में बाइयां अभिषेक करती रहें, जिससे मंदिरों की परम्परा में बाधा न आवे और जैन समाज में अशांति न होवे।’’
गुरुदेव के इसी आदेशानुसार सम्मेद शिखर जी के विहार में भी आचार्यश्री शिवसागर जी की आज्ञा से संघ में ब्रह्मचारी जी ने एक छोटी सी महावीर स्वामी जी की प्रतिमा रखी थी। दूसरी बात यह भी है कि यदि कहीं विहार में २५-५० मील तक जैन मंदिर नहीं हैं तो भी बिना दर्शन के हम लोग आहार कैसे करेंगे? जिनका यह कहना है कि ‘‘मुनि, आर्यिका आदि साधुओं को जिन दर्शन की आवश्यकता नहीं है वे बिना दर्शन किये ही आहार कर सकते हैं।’’ यह मान्यता हमारी गुरु परम्परा के विरुद्ध है।
आचार्यश्री शांतिसागर जी, आचार्य श्रीवीरसागर जी, आचार्य श्री शिवसागर जी, आचार्य श्री धर्मसागर जी, आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी, आचार्य श्री देशभूषण जी, आचार्य श्री विमलसागर जी आदि महासाधु पुंगव जिनप्रतिमा के दर्शन करके ही आहार को उठते थे और आज भी दर्शन करके ही उठते हैं।
वास्तव में ये साधु इतने ऊँचे उपशम-क्षपक श्रेणी में चढ़ने वाले नहीं हैं और न आज जिनकल्पी मुनि ही हैं, आज के साधु स्थविर कल्पी हैं। इनकी चर्या संघ में ही मानी गई है और संघ में ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी श्रावक-श्राविका रहेंगे ही । ये लोग जिनप्रतिमा रखेंगे ही क्योंकि ये भी बिना जिनदेव के दर्शन के भोजन नहीं करते हैं। प्रतिमाधारी श्रावक तो जिनपूजा अवश्य ही करते हैं। इसके सिवाय आचारसार, अनगारधर्मामृत आदि यतिग्रंथों में मुनियों के लिए देव- दर्शन का विधान भी पाया जाता है यथा-
श्रुतज्ञानरूपी चक्षु से अपनी आत्मा में चिच्चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा को देखते हुए जिनालय में जाकर द्रव्यादि की शुद्धि से शुद्ध हुए ‘निसही, निसही, निसही’ इस प्रकार उच्चारण करते हुए मंदिर के भीतर प्रवेश करके जिनप्रतिमा के मुखचंद्र का अवलोकन कर अत्यन्त प्रसन्न होते हुए भगवान् को तीन बार नमस्कार करते हैं पुनः चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देते हैं….।
ऐसे ही चारित्रसार में लिखा है- ‘‘आत्माधीनः सन् चैत्यादीन प्रतिवंदनार्थं गत्वा धौतपादास्त्रिप्रदक्षिणीकृत्य ईर्यापथ-कायोत्सर्गं कृत्वा…..।’’ आत्माधीन होकर जिनप्रतिमा आदि की वंदना करने के लिए जाकर, पैर धोकर, तीन प्रदक्षिणा देकर, ईर्यापथ शुद्धि का कायोत्सर्ग करके आदि। यह प्रकार देववंदना अर्थात् त्रिकाल सामायिक का है।
जब मुनियों के लिए सामायिक क्रिया को मंंदिर में भगवान के पास करने का विधान पाया जाता है तब यदि सामायिक मंदिर में न करें तो भी देवदर्शन त्रिकाल या नित्य एक बार अनिवार्य हो ही जाता है। दूसरी बात यह है कि कहीं शास्त्रों में ऐसा कथन नहीं आया है कि ‘मुनि या आर्यिका होने के बाद वे देवदर्शन न करें या इन्हें देवदर्शन की आवश्यकता नहीं रह गई अतः आज जो साधु-साध्वी अकेले या दो चार रहते हैं पुनः बिना देवदर्शन किये आहार ले लेते हैं, वह गलत है।
कोई साधु-साध्वी अस्वस्थ होने पर मंदिर न जा पाने से भी बिना देवदर्शन के आहार ले लेते हैं, यह भी हमारी गुरु परम्परा से गलत है क्योंकि आहार कराने वाले श्रावक-श्राविकाएँ ही होते हैं। जैसे वे आहार की व्यवस्था बनाते हैं, वैसे ही उन्हें देव-दर्शन की व्यवस्था भी करानी चाहिए। मैंने आज तक संघ में यही देखा है और ऐसा ही किया है। अपनी संघस्थ साध्वियों को अस्वस्थ अवस्था में भी देवदर्शन कराकर ही आहार कराया है।
मैंने भी दीक्षा लेने के बाद आज तक बिना देवदर्शन किये आहार नहीं किया है। यहाँ कलकत्ते में मेरे संघ में ब्रह्मचारिणी भंवरीबाई और कु. मनोवती थीं। ये अपने अभिषेक-पूजन के लिए भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा का चैत्यालय रखे थीं। यहाँ बेलगछिया में हाल की एक वेदी में उन्हें विराजमान कर दिया था। यहाँ पर ये ब्रह्मचारिणियाँ अभिषेक-पूजन करती थीं।
यहाँ प्रवास में आकर रहने वाले अनेक श्रावक, जो कि नागौर, डेह, सुजानगढ़, लाडनूं आदि के थे, उनमें बहुत से बीसपंथ विचारधारा वाले थे जो कि आचार्य श्री वीरसागर जी और आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी के शिष्य थे। इन लोगों को मानों स्वर्ण अवसर ही मिला था। ये यहाँ कलकत्ता के मंदिरों में पूरी विधि से पूजन नहीं कर पाते थे अतः कई एक महानुभाव सपत्नीक आकर यहाँ चैत्यालय में अभिषेक-पूजन करने लगे थे।
दूध से शांतिधारा
एक बड़ी शांतिधारा नागौर के भंडार से आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी ने निकाली थी, वह छपायी गई थी। वही शांतिधारा दक्षिण से छपी हुई मेरे पास थी। श्रावकों ने भक्ति में वह बड़ी शांतिधारा दूध से करना शुरू कर दिया। श्याम बाजार के एक भक्तिमान श्रावक, जो रोज चौके के लिए शुद्ध दूध लाते थे, वे ही लगभग पांच किलो दूध शांतिधारा के लिए लाते थे।
यह बड़ी शांतिधारा दूध से यहाँ पूरे पाँच महीने चलाई गई है। जब मैं एक माह शहर में जाकर रही थी, तब भी यहीं चैत्यालय में एक-दो महानुभाव दूध से शांतिधारा करते ही रहे थे।
नैवेद्य चढ़ाना
एक बार कु.मनोवती ने नियम ले लिया कि मैं भगवान को नैवेद्य चढ़ा कर ही भोजन करूँगी अतः वह रोटी, दाल, चावल आदि एक छोटी सी थाली में लाकर अपने चैत्यालय में भगवान को चढ़ाती थी। यद्यपि मेरी आज्ञा से शीघ्र ही वह चढ़ाया गया नैवेद्य माली को उठाकर दे देती थी, फिर भी ऐसी चर्चायें छिपाये भी नहीं छिप सकती हैं और छिपाने की कोई ऐसी बात भी नहीं थी।
आठ-दस दिन हुए थे कि सेठ अमरचन्द पहाड़िया आदि चार महानुभाव मेरे पास मध्यान्ह में आये और बोले-‘‘माताजी! कुछ समस्या लेकर आया हूँ।’’ मैंने कहा-‘‘कहिये।’’ वे बोले-‘‘शहर में यह चर्चा हो रही है कि माताजी के चैत्यालय में भगवान् को भोग लगता है। यह चर्चा साहू शांतिप्रसाद जी तक भी पहुँची है।
उन्होंने अभी मुझे फोन से पूछा था-मैंने कहा ऐसा संभव नहीं है फिर भी मैं जानकारी लेकर आता हूँ।’’ मैं कुछ हँसी पुनः बोली- ‘‘भाई! आप लोग आठ द्रव्य से पूजन करते हो, उसमें नैवेद्य को क्या मानते हो?’’ तब वे एक-दूसरे के मुँह को देखने लगे पुनः बोले- ‘‘सूखे पकवान, लाडू आदि नैवेद्य हैं न कि रोटी, भात, दाल आदि।’’ मैंने कहा-‘‘शास्त्रों में तो सभी भोज्य-खाद्य पदार्थ नैवेद्य में लिये हैं। साथ ही वसुनंदिश्रावकाचार दिखा दिया-
दहिदुद्धसप्पिमिस्सेहिं कलमभत्तेहिं बहुप्पयारेहिं।
तेवट्ठिविंजिणेहिं य बहुबिह पक्कण्ण भेएिंहं।।४३४।।
रूप्पयसुवण्णकंसाइ थालिणिहिएहिंविविहभक्खेहिं।
पुज्ज वित्थारिज्जो भत्तीए जिणिंदपयपुरओ।।४३५।।
चाँदी, सोना, कांसे आदि की थालियों में रखे हुए दही, दूध और घी से मिले हुए नाना प्रकार के चावलों के भात से, तिरेसठ प्रकार के व्यंजनों से, नाना प्रकार की जाति वाले पकवानों से और विविध भक्ष्य पदार्थों से, भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र चरणों के सामने पूजा को विस्तारें अर्थात् नैवेद्य से पूजा करें। इसके बाद मैंने सिद्ध पूजा की पंक्ति का अर्थ पूछा- ‘क्षीरान्नसाज्यवटवै रसपूर्णगर्भैः’ इसका अर्थ है खीर, घी में भीगी हुई बाटी आदि, जिसमें रस-घी आदि भरा हुआ है।
दूसरी बात आप लोगों में जो तेरापंथी हैं वे सदासुखजी की टीका रत्नकरण्ड श्रावकाचार लाकर देखें, उसमें तेरह और बीस दोनों पंथ को आगम सम्मत कहा है। यथा- ‘‘केई रोटी चढ़ावै हैं, केई राबड़ी चढ़ावे हैं, केई अपनी बावड़ी तै पुष्प ल्याय चढ़ावै हैं, केई नाना प्रकार के हरित फल चढ़ावै हैं, कोई जल चढ़ावै हैं, केई, दाल, भात अनेक व्यंजन चढ़ावै हैं, केई नाना मेवा चढ़ावै हैंं। ….अब यहाँ दिन पूजन सचित द्रव्यनि तैं हू अचित्त द्रव्यानि तैं हू आगम में कह्या है.।
ऐसा कहा है, सो आपको यह सदासुख जी की टीका वाला रत्नकरंड श्रावकाचार मान्य ही है। अतः इस नैवेद्य चढ़ाने की पद्धति को भोग लगाना कथमपि नहीं कहा जा सकता है तथा एक बात यह भी समझने की है कि आचार्य कल्प चन्द्रसागरजी ने भी नैवेद्य चढ़ाने पर जोर दिया था। ब्यावर के सन् १९५८ के चातुर्मास में पं. पन्नालाल जी सोनी ने भी संघ के चैत्यालय में सरस्वती भवन में महिनों तक नैवेद्य चढ़ाया है।
आज भी दक्षिण में भगवान के सामने चावल-भात आदि नैवेद्य चढ़ाते हैंं, इसे भोग लगाना नहीं कहते हैं। वैदिक संप्रदाय में भगवान के सामने भोग लगाते समय अन्दर थाल रखकर बाहर से पर्दा डाल लेते हैं, मानों भगवान खा रहे हैं किन्तु यहाँ दिगम्बर जैन आम्नाय में नैवेद्य का मंत्र है- ‘‘ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।’’ इसमें अपनी क्षुधा रोग को दूर करने के लिए नैवेद्य चढ़ाया जाता है न कि भगवान को खिलाने के लिए ।
इत्यादि समाधान को सुनकर ये श्रावक हाथ में रत्नकरंड श्रावकाचार की सदासुख जी की टीका को लेकर शायद साहू जी के पास गये और पंक्तियाँ दिखाकर आये।
कानजी पंथ चर्चाएँ
एक मदनलाल जी सीकर वाले थे और उनके साथ दो-तीन महानुभाव मिलकर, जब तक निश्चय एकांत की चर्चा लेकर आ जाते थे। उनका एक ही प्रश्न विशेष था कि ‘कर्मों का उदय जीव का कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता है।’
सो सव्वणाणदरिसी कम्मरयेण णियेणवच्छण्णो।
संसारसमावण्णो णवि जाणदि सव्वदो सव्वं।।
यह आत्मा सर्वज्ञानी-सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है फिर भी अपने द्वारा संचित किये गये कर्मरूपी रज से आछन्न है-ढका हुआ है अतः यह संसारी हो रहा है, यही कारण है कि यह सर्व प्रकार सर्वलोक-अलोक को नहीं जान रहा है। ऐसी-ऐसी समयसार की पंक्तियाँ दिखाने के बावजूद भी वे इसी-इसी बात को घोटा करते थे। तब मैंने पूछा-
‘‘भाई! आप कर्मों के उदय से मनुष्य हैं…..यदि कर्मोदय कुछ नहीं कर सकता तो मैदान में आओ, मुनि बनकर घोर तपश्चर्या करके मोक्ष प्राप्त करो।’’ जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा लो। यह संसार भ्रमण क्यों कर रहे हो…..?’’ उनकी इन चर्चाओं से भगतजी ब्रह्मचारी कभी-कभी उन्हें बाहर ही रोक लेते और कहते-
भइया! ये चर्चायें मेरे से ही निपट लो, व्यर्थ ही माताजी के स्वाध्याय में विघ्न क्यों डालते हो?….’’
ब्र. चमेलाबाई की भक्ति और स्वाध्याय
यहाँ ब्र. चमेलाबाई प्रायः चौका लगाती रहती थीं। मैं अनेक चौका होने से प्रायः वृत्तपरिसंख्यान लेकर आहार के लिए निकलती थी। वे पड़गाहन में बहुत ही आकुलता करती थीं। कदाचित् मेरा उनके यहाँ पड़गाहन हो जाता तो उनकी आँखों से हर्ष की अश्रु- धारा बहने लगती। बहुत ही भावविभोर होकर वे नवधाभक्ति करके आहार देती थीं।
उनकी भक्ति देखते ही बनती थी। मध्यान्ह में ये मेरे पास स्वाध्याय में आ जाती थीं। इन्होंने मेरे पास समाधिशतक पढ़ना शुरू किया। मैं टीका के आधार से समझा देती थी तो वे बहुत गद्गद हो जाती थीं पुनः पंचसंग्रह ग्रंथ का स्वाध्याय रखा था। सभी आर्यिकायें तो बैठती ही थीं अतः अच्छी चर्चा चलती रहती थी, कर्म प्रकृतियों की चर्चा में उन्हें भी बड़ा आनन्द आता था। एक दिन मैंने कहा-‘‘ब्रह्मचारिणी जी! आप सम्यग्दृष्टि हो पुनः जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक क्यों नहीं करती हो?’’
वे बोलीं-‘‘माताजी! मैंने एक-दो बार किया किन्तु……लोगों की चर्चा के भय से नहीं करती हूँ। चूँकि एक सम्प्रदाय भेद……या पंथ का पक्ष ही उसमें कारण है फिर भी मैं एक-दो बार आपके संघ के चैत्यालय में अभिषेक अवश्य करूँगी।’’ इसी कथन के अनुसार उन्होंने एक दिन प्रातः अभिषेक के समय आकर अभिषेक किया।
उस समय मिश्रीलाल पाटनी, उनकी पत्नी सूंठीबाई आदि श्रावक-श्राविकायें थीं। एक महानुभाव ने कहा-‘‘माताजी! आपने पहले मुझे क्यों नहीं बताया? नहीं तो मैं इनका अभिषेक करते हुए फोटो ले लेता।’’ मैंने कहा-‘‘यह विषय अधिक प्रचार का नहीं था अतः फोटो लेने की क्या जरूरत?’’ इसके बाद भी उन्होंने कई बार अभिषेक किया और बोलीं-‘‘माताजी! मुझे शास्त्र पर पूरी श्रद्धा है। मात्र पंथ भेद से ही डर जाती हूँ।’’
इन्होंने बराबर ४ महीने तक स्वाध्याय में भाग लिया है। खूब आहार दिया है और खूब ही वात्सल्य रखा है। मैं भी कभी-कभी इनसे परामर्श का कोई भी निर्णय लेती थी। इनकी राय मुझे अच्छी लगती थी।
ब्र. प्यारेलाल जी का वात्सल्य
ब्र. प्यारेलाल जी को मैं प्रतिदिन अपने प्रातः काल के उपदेश के बाद पन्द्रह मिनट बोलने के लिए समय देती थी और वे भी अच्छा बोलते थे। प्रारंभ से ही इनकी भक्ति और वात्सल्य मेरे प्रति बहुत अच्छा था। ये प्रतिदिन मेरे अनुशासन की, मेरे संघ की साध्वियों और ब्रह्मचारिणियों की प्रशंसा भी किया करते थे। कहते कि-‘‘आपके संघ में कोई भी साध्वी या ब्रह्मचारिणी किसी से कुछ भी याचना नहीं करती हैं।
प्रातः से रात्रि सोने तक अपने स्वाध्याय, अध्ययन में ही लगी रहती हैं, कोई प्रपंच, कलह या अशांति नहीं है। जब आपका अनुशासन इतना अच्छा है, तब आपके गुरु आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज का अनुशासन भी बढ़िया ही होगा, यह अनुमान लगाया जाता है….इत्यादि।’’
एक दिन मेरी प्रशंसा करते हुए ये उपदेश में ही एक मुनिराज का नाम लेकर उनकी निंदा करने लगे। मैंने बीच में ही रोक दिया और कहा-‘‘ उन मुनिश्री में यह दोष नहीं है, आपका कथन या अनुमान गलत है।’’ पुनः अगले दिन संकोचवश वे मेरे उपदेश में नहीं आये, तब मैंने उन्हें मध्यान्ह में बुलाकर कहा-‘‘ब्रह्मचारी जी! मैं किसी भी मुनि की निंदा नहीं सुनती हूूँ, भले ही सच क्यों न हो?…….देखो, पद्मपुराण में ये पंक्तियाँ हैं-
यदि यथार्थ दोष भी देखा हो, तो भी जिनमत के अवलम्बी को नहीं कहना चाहिए और कोई दूसरा कहता भी हो, तो उसे सब प्रकार से रोक देना चाहिए। फिर लोक में विद्वेष फैलाने वाले, जैन शासन संबंधी दोषों को जो व्यक्ति कहता है, वह दुःख पाकर चिरकाल तक संसार में भटकता रहता है, अन्य के द्वारा किये हुए दोष को भी प्रयत्नपूर्वक छिपाना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न का बड़ा भारी गुण है।
अज्ञान अथवा मत्सर भाव से भी जो किसी के मिथ्या दोष को प्रकाशित करता है, वह मनुष्य जिनमार्ग से बिल्कुल ही बाह्य स्थित है। इतना सुनकर उन्होंने उसी समय क्षमा माँगी और पुनः मेरे सामने किसी की भी निंदा नहीं की तथा मेरी चर्या आदि के विषय में कैसी भी चर्चा हो, उसके लिए कट्टर तेरापंथी लोगों को भी अच्छा समाधान दिया है।
आगे प्रसंगोपात्त उनका उल्लेख करूँगी। इन्होंने एक दिन गद्गद होकर कई एक श्रावकों के सामने ऐसा कह दिया कि ‘‘मैं माताजी को सौ नम्बर देता हूँ और अमुक साधु को दस नम्बर।’’ श्रावक इस शब्द को प्रचार में लाना चाहते थे किन्तु मैंने रोक दिया। ‘‘पहली बात, मुझे किसी मुनि आदि से क्यों तोलना? मुझे ऊँचा कहकर किसी को हीन क्यों कहना? दूसरी बात, मेरी चर्या निर्दोष है, तो मेरा ही हित होगा उसके प्रचार की क्या आवश्यकता?’’
दशलक्षणपर्व
इस दशलक्षण पर्व में मैंने पंडित श्रीवर्धमान शास़्त्री-सोलापुर वालों को बुलाने के लिए कहा था अतः दशलक्षण में पंंडित जी आये। लोगों ने यहाँ बेलगछिया में ‘दशलक्षण विधान’ का आयोजन कर लिया। श्रावक गण इन्द्र-इन्द्राणी बनकर फूलों का मुकुट और हार पहनकर बड़े ठाठ-बाट से यहाँ संघस्थ चैत्यालय में पूजा कर रहे थे।
दूसरे एक विद्वान् और आये थे जो कि शहर में प्रवचन कर रहे थे। उन्होंने शास्त्र की गद्दी पर ही बैठे हुए कह दिया-‘‘देखो! बेलगछिया में भगवान् को फूलों का मुकुट लगाकर और फूलों की माला पहनाकर लोग पूजा कर रहे हैं।’’ उसी समय से अमरचन्द पहाड़िया ने उन्हें रोक दिया और बोले-‘‘आप शास्त्र की गद्दी पर बैठकर भला इतना झूठ क्यों बोलते हो?
वहाँ हम लोग स्वयं फूलों का मुकुट, हार पहनते हैं न कि भगवान् को पहनाते हैं। बिना देखे आपने ऐसी बात कैसे कह दी?’’ विद्वान् की इस बात को सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि देखी और सुनी हुई बातों का कितना अन्तर पड़ जाता है। यहाँ बेलगछिया में बड़ा-सा पांडाल बनाया गया था।
क्षमावणी के कार्यक्रम में साहू शान्तिप्रसाद जी आये और एक श्वेताम्बरों के प्रसिद्ध महानुभाव दूगड़ जी भी आये थे। वैसे साहू जी पहले भी एक-दो बार आ चुके थे। उस दिन साहू जी ने उच्चगोत्र-नीचगोत्र के बारे में चर्चा छेड़ दी। बात यह है कि ये लोग जन्म से उँâच-नीच न मानकर कर्म से मानते हैं। इस पर सभा के अतिरिक्त मेरे स्थान पर काफी चर्चाएँ चलीं।
मैंने यही कहा कि-‘‘पिण्ड अर्थात् शरीर का संबंध माता-पिता के रजोवीर्य से है अतः यह जैसा बन गया, उॅँच या नीच गोत्र का संबंध भी उसी से है। पिण्ड को पुनः कैसे सुधारा जा सकता है? ‘‘संस्कार शतेनापि नाजातिद्र्विजतां व्रजेत् ।’’ सैकड़ों संस्कार करने पर भी अजाति-विजाति ब्राह्मणपने को नहीं प्राप्त हो सकता है। यह उपासकाध्ययन की पंक्ति है। यहाँ पंडाल में विशाल स्तर पर क्षमावणी पर्व मनाया गया था।
अल्प प्रभावना में संतोष
एक बार एक प्रबुद्ध श्रावक ने कहा- ‘‘माताजी! यदि आप सभा में यह कहना शुरू कर दें कि जाति-पाति कुछ नहीं है, वर्ण व्यवस्था कुछ नहीं है, सब लोग सभी के साथ रोटी-बेटी संबंध कर सकते हैं, जैन धर्म की यही उदारता है, तो देखो! आपकी सभा में अगले सप्ताह पच्चीस हजार लोग आ जायेंगे। अलग से पांडाल बनाना पड़ेगा।’’
मैंने कहा-‘‘भाई! मैंने दीक्षा आत्मकल्याण के लिए ली है। आगम विरुद्ध बोलकर जनसमूह इकट्ठा करके प्रभावना करना मेरा लक्ष्य नहीं है। मेरी आगम अनुकूल प्रवृत्ति और वचनवृत्ति से जितना लोग लाभ ले लें, हमें उतने में ही संतोष है। लोक प्रभावना के लिए मैंने दीक्षा नहीं ली है। आगम को सुरक्षित रखते हुए, प्राचीन संस्कृति की रक्षा करते हुए, जितनी धर्म प्रभावना हो जाये, उसी में मुझे हर्ष है।
धर्म की मर्यादा से हटकर प्रभावना करना वह जिनधर्म की प्रभावना नहीं है, प्रत्युत् निज की प्रभावना है उसका मुझे लोभ नहीं है।’’ मैं देखती हूँ कि आज कुछ साधु-साध्वियाँ, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियाँ प्राचीन धर्म की मर्यादा से हटकर जाति-पाति लोप आदि का उपदेश देकर निज की प्रभावना में संलग्न हैं। वास्तव में यह प्रभावना तो स्वयं को मोक्षमार्ग से दूर कर देती है।
धर्म में शांति है न कि शांति में धर्म- जरा-जरा सी बात में आजकल लोग कहने लगते हैं कि भाई! शांति में धर्म है। तब मुझे आश्चर्य होता है और बोले बगैर रहा नहीं जाता है। वहाँ कलकत्ते में भी कई एक महानुभावों ने एक बार कहा- ‘‘माताजी! शांति में ही धर्म है।’’
तब मैंने पूछा- ‘‘यह बताओ, ‘‘पात्राधारे घृतं घृताधारे पात्रं वा, पात्र के आधार में घी है या घी के आधार में पात्र?’’ लोग बोले-‘‘पात्र के आधार में घी है।’’ तब मैंने कहा-‘‘देखो भाई! इसी प्रकार ‘धर्मे शांतिः न च शांतौ धर्मः’ धर्म में शांति है न कि शांति में धर्म। अभी किसी के मकान पर कोई कब्जा कर ले तब वह कहेगा क्या कि शांति में धर्म है? नहीं, प्रत्युत् वह उस समय न्यायालय की शरण लेकर धर्म में शांति समझेगा।
वैसे ही भाई! यदि मंदिर की जगह कोई हड़प ले, तब तो लोग ऐसा सोच भी लेते हैं कि शांति में धर्म है किन्तु खुद के मकान की जगह में एक फुट जगह के लिए भाई-भाई लड़ते-झगड़ते हैं, और तो क्या कोर्ट तक पहुँचते हुए देखे जाते हैं।’’ देखो! शास्त्रों में भी अनेक उदाहरण हैं- जिस समय रावण ने कैलाश पर्वत उठाकर समुद्र में फैकना चाहा था, उस समय बालि मुनि ने पर्वत कंपायमान होते ही अवधिज्ञान से जान लिया था वे महामुनि भावलिंगी महासाधु थे।
फिर भी उन्होंने शांति में धर्म न समझकर धर्म में शांति समझी अतः ‘इस पर्वत पर श्री भरत चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए रत्नों के जिनालय नष्ट हो जावेंगे और असंख्य प्राणियों का संहार हो जावेगा’ ऐसा सोचकर उन्होंने अपने पाँव के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया जिससे वह कैलाशपर्वत दब गया, उसके नीचे रावण भी दब गया और रोने लगा।
इसके पूर्व उसका नाम दशानन था तभी से ‘रौति इति रावणः’ रोने से उसका रावण ऐसा नाम पड़ गया। उस समय उसकी रानी ने क्षमा याचना की। रावण का गर्व खर्व हो गया और उसने आकर मुनिराज की तथा जिनप्रतिमाओं की खूब भक्ति करके ही धरणेंद्र के द्वारा ‘अमोघ शक्ति’ नाम की विद्या पाई थी। यह कथा पद्मपुराण में विस्तार से देख लेनी चाहिए।
ऐसे ही समंतभद्रस्वामी को जब शिवकोटि राजा ने महादेव की पिण्डी को नमस्कार करने के लिए बाध्य किया था, तब उन्होंने भी शांति में धर्म न मानकर, धर्म में शांति मानी थी और स्वयंभूस्तोत्र रचना द्वारा जिनेन्द्रभक्ति करके भगवान चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रगट कर दी थी। श्री अकलंकदेव ने भी धर्म में शांति समझकर ही बौद्धों से छह महीने तक शास्त्रार्थ किया था। यदि श्रीरामचन्द्र जी ऐसा समझ लेते कि शांति में धर्म है, तो भला वे रावण से युद्ध क्यों करते? किन्तु नहीं, उन्होंने धर्म में ही शांति मानी और महायुद्ध करके सीता को उससे लाकर ही शांति प्राप्त की।
रानी चेलना ने भी श्रेणिक राजा को सच्चे धर्म में लाने के लिए अनेक उपाय किये और धर्म में ही शांति मानी, उसी का फल है कि आगे आने वाले उत्सर्पिणी काल में राजा श्रेणिक महापद्म नाम के प्रथम तीर्थंकर होवेंगे। रानी उर्विला यदि शांति में धर्म मान लेती, तो बौद्ध सम्प्रदाय की बुद्धदासी का रथ पहले निकल जाता पुनः वह सत्याग्रह करके ‘जैन रथ पहले चले’ ऐसा क्यों ठानती? और अकलंकदेव से शास्त्रार्थ करने की बात ही क्यों आती? अतः ऐसा एकांत कभी मत पकड़ो कि ‘शांति में धर्म है।’
हाँ! जहाँ तक शांति में धर्म कह कर धर्म की हानि, अपने धन, जन की हानि न होती हो, वहाँ तक तो शांति में धर्म मानो और जब धर्म, धर्मायतन आदि की हानि हो रही हो, तब जैसे बने वैसे उनकी रक्षा के उपाय करो। श्री विष्णुकुमार महामुनि ने भी सात सौ मुनियों की रक्षा के लिए अपने मुनिवेष को छोड़कर, वामन का वेष बनाकर, बलि को जीता था और धर्मात्माओं की रक्षा का श्रेय लिया था जिनका उदाहरण वात्सल्य अंग में बड़े आदर से आचार्यों ने भी दिया है।
इन शिक्षास्पद नीतियों के बाद लोगों ने ये वाक्य ग्रहण किये और कई लोगों ने तो अनेक बार इस सूक्ति को दोहराया भी कि ‘धर्म में शांति है न कि शांति में धर्म।’’ माँ मोहिनी की श्रद्धा- इस कलकत्ता चातुर्मास में अपने पिता श्री छोटेलालजी से आज्ञा लेकर कैलाशचंद अकेले ही दशलक्षण पर्व में मेरे सान्निध्य में आ गये।
११-१२ दिन रहे, मेरे उपदेश का लाभ लिया पुनः जब घर जाने लगे, तब उदास मन से मेरे पास बैठ गये और बोले- ‘‘माताजी! इस समय हमारे घर की व्यापारिक स्थिति कमजोर चल रही है, पिताजी का स्वास्थ्य अब दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा है अतः वे दुकान पर काम बहुत कम देख पाते हैं परिवार बड़ा है…।’’ मैंने ऐसा सुनकर शिक्षास्पद बातें कहीं और बोली- ‘‘कैलाश! सबसे पहले तुम पंच अणुव्रत ले लो। पंच अणुव्रत में जो परिग्रहपरिमाणव्रत आता है, इसको लेने वाला व्यक्ति नियम से धन में बढ़ता ही चला जाता है। साथ ही नित्य देव पूजा का नियम कर लो…..।’
’ कैलाश ने मेरी आज्ञा शिरोधार्य करके विधिवत् पंच अणुव्रत ग्रहण कर लिये तथा देवपूजा का नियम भी ले लिया पुनः मुझसे कोई यंत्र के लिए प्रार्थना की, उस समय मेरे संघ के चैत्यालय में एक यंत्र विराजमान था, मैंने उसे ही कैलाशचन्द को दे दिया और कहा- ‘‘देखो! इस यंत्र को ले जाकर तुम अपने घर में तीसरी मंजिल पर बनी हुई जो एक छोटी सी कोठरी है, उसी में विराजमान कर देना।
प्रतिदिन इसका अभिषेक होना चाहिए, अर्घ्य चढ़ाना चाहिए और शाम को आरती करनी चाहिए।’’ कैलाशचन्द ने वह यंत्र बड़े आदर से लिया, मस्तक पर चढ़ाया पुनः वहाँ से चलकर घर आ गये। घर आकर माता-पिता, पत्नी और भाई-बहनों को कलकत्ते के समाचार सुनाये। मेरे उपदेश में जो कुछ विशेष बातें सुनते रहे थे, वह सब सुनाया तथा कलकत्ते के श्रावकों की गुरुभक्ति और अपने प्रति किये गये वात्सल्य भाव को भी बताया तथा अनेक बातें बताई।
वे बोले-‘‘वहाँ दशलक्षण पर्व में पं. वर्धमान शास्त्री के द्वारा दशलक्षण विधान कराया गया। बेलगछिया में बहुत बड़ा पंडाल बनाया गया। उसमें क्षमावणी का प्रोग्राम बड़े रूप में रखा गया। श्वेताम्बर समाज में प्रसिद्ध ‘‘दूगड़ जी’’ और दिगम्बर जैन समाज के प्रमुख श्रीमान् साहू शांति प्रसाद जी भी आये थे’’ पुनः पिता से बोले- ‘‘आप यहाँ मोह में पागल रहते हो, सदा चिंता और दुःख माना करते हो, जरा वहाँ जाकर तो देखो!…
आप अपनी पुत्री की विशेषताओं को देखकर रोना भूल जावोगे।’’ माताजी के उपदेश के लिए वहाँ का समाज लालायित रहता है, जो कि देखते ही बनता है। वहाँ के भक्त माताजी को एक विद्वत्ता की खान और अद्भुत निधि के रूप में देखते हैं। भक्तगणों में प्रसिद्ध चाँदमल जी बड़जात्या, अमरचन्द जी पहाड़िया, किशनलाल जी काला, सीताराम पाटनी आदि तन-मन-धन से सपत्नीक, सपरिवार माताजी की भक्ति कर रहे हैं।
वहाँ बेलगछिया में प्रतिदिन अनेक चौके लगते हैं। बेलगछिया में रहने वाले ब्र. प्यारेलाल जी भगत और ब्रह्मचारिणी चमेलाबाई प्रमुख हैं। उनकी भक्ति भी अटूट है इत्यादि।’’ यहाँ कैलाश ने शुद्ध जल का नियम लेकर आहार देना शुरू कर दिया था, सो भी बताया। अनन्तर अपने अणुव्रत और देवपूजा के नियम को बताकर मेरे द्वारा दिया गया यंत्र माँ को दे दिया तथा मेरे द्वारा कथित उपासना विधि भी बता दी।
उस समय माँ को यंत्र पाकर ऐसा लगा कि मानो अपने को कोई निधि ही मिल गई है अथवा यह यंत्र पारसमणि ही है। उन्होंने बड़ी भक्ति से मेरे कहे अनुसार यंत्र को तिमंजिले कमरे में एक सिंहासन पर विराजमान कर दिया और स्वयं देवपूजा करके आकर विधिवत् उसका न्हवन करने लगीं, अर्घ्य चढ़ानें लगी और शाम को ऊपर सामूहिक (सब मिलकर) आरती करने लगीं।
उस घर में वह यंत्र ऐसा फलीभूत हुआ है कि दिन पर दिन माँ मोहिनी जी के पुत्रों ने अपने व्यापार बढ़ाये हैं और धन कमाते हुए धर्म भी कमाया है। आज भी उनके तीनों पुत्र, जो कि गृहस्थाश्रम में हैं, प्रतिदिन देवपूजा करते हैं, शक्ति के अनुसार दान भी देते हैं, स्वाध्याय भी करते हैं, हर एक साधुसंघों की सेवा में तत्पर रहते हैं। यह सब उस यंत्र का और माँ मोहिनी के द्वारा की गई विधिवत् उपासना का ही फल है।
मैं देखती हूँ कि आज भी यंत्र लेकर जो श्रावक अणुव्रत और देवपूजा का नियम ले लेते हैं, तो वे निश्चित ही धन की वृद्धि-समृद्धि को प्राप्त कर परिवार, पुत्र, मित्र, यश आदि को प्राप्त कर लेते हैं।