(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
श्रवणबेलगोल यात्रा के लिए विहार- यहाँ मेरे साथ में तीन आर्यिकायें, दो क्षुल्लिकायें और एक ब्रह्मचारिणी थीं। ब्रह्मचारिणी का नाम भंवरीबाई था, यह वृद्धा थी अतः यात्रा कराने के लिए सारी जिम्मेदारी श्रावकों ने ली थी। इसमें मांगीलाल जी पहाड़िया प्रमुख थे बल्कि यों कहा जाये कि यात्रा कराने में बहुत बड़ा सहयोग उनका ही था। वहीं से मंगलसेन जैन श्रावक साथ में रहने के लिए तैयार हुये। सात-आठ महिलायें भी हो गई जिनमें राजूबाई भी आ गई।
मगसिर में नवम्बर १९६४ में मैंने भगवान के दर्शन किये और विहार कर दिया। मार्ग में आर्यिका आदिमती जी का स्वास्थ्य बिगड़ जाने से कहीं-कहीं रुकना भी पड़ा पुनः उन्हें डोली में बिठाकर आगे विहार किया, चूँकि इस रास्ते में भी जैन के घर जल्दी नहीं मिलते थे। सन् १९५७-५८ में जब आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज ने अपने विशाल संघ सहित गिरनार की यात्रा की थी, तब उसमें मैं भी थी।
संघ में मैंने देखा था कि श्री सुमतिजी आर्यिका जो कि वयोवृद्धा थीं, उनके लिए डोली की व्यवस्था की गई थी तथा जब कोई साधु-साध्वी अस्वस्थ हो जाते थे, तब भी उन्हें डोली पर बिठाकर विहार कराया जाता था अतः मैंने वही व्यवस्था अपनायी और आदिमती को डोली से विहार कराया। मार्ग में इन्द्रपुर, अनन्तपुर आदि होते हुए हम लोग अरसीकेरे तक पहुँच गये। रास्ते में कभी-कभी मुझे अन्तराय के निमित्त से , कभी ठहरने की सुविधा न मिलने से, कभी अधिक चलाई हो जाने से शारीरिक कष्ट भी उठाना पड़ता था।
एक बार अगले गाँव को जितने मील मानकर चले थे, उससे अधिक हो गया। मतलब जहाँ भी मैं विश्राम करती थी, वहीं के प्रमुख लोगों को बुलाकर उनसे पूछकर २-३ दिन के लिए गाँवों के नाम और मील का हिसाब लिखकर आगे कहाँ सोना है? और कहाँ आहार लेना है? यह व्यवस्था बना लेती थी। उसी के अनुसार किसी ने ७-८ मील बताया था, किन्तु वह गाँव १०-१२ मील होने से वहाँ नहीं पहुँच सके। तब दिन डूबने के समय हम लोग सड़क से हटकर बाजू में एक खेत में जाकर बैठ गयीं।
वहाँ पर चावल की घास के भी ऊँचे-उँचे ढेर लगे हुए थे। इधर सामायिक के समय श्रावकों की मेटाडोर उधर सड़क से हार्न देते हुए आगे बढ़ गई। उन्हें खेत में बैठे हम लोग भला अंधेरे में कैसे दिख सकते थे? मेरे साथ एक १५-१६ वर्षीय बालक था, जो कि कमंडलु लेकर चलता था। वह बेचारा मेटाडोर का हार्न सुनकर मेरे पास खेत से बाहर सड़क पर दौड़ता, तब तक गाड़ी आगे निकल जाती, वह बेचारा पुनः वापस आ जाता। ऐसे रात्रि में ९-१० बजे तक मेटाडोर इधर से उधर चक्कर काटती रही और ये लोग मुझे न ढूंढ पाकर चिंता करने लगे।
वास्तव में मैं इधर खेत में काफी दूर पर आकर बैठ गई थी, लगभग आधे फर्लांग से अधिक था। अब हम लोग माघ की ठंड में रात्रि में वहीं खेत में सोये। कमजोर आर्यिकाओं के लिए चावल की घास वहीं से लेकर डाल दी और सुला दिया। रात्रि में महामंत्र का स्मरण करते हुए मैंने रात्रि व्यतीत कर दी। उन दिनों ऐसे प्रसंगों में जंगल में न तो मुझे डर ही लगता था और न ही दुख मानती थी, प्रत्युत् आनन्द आता था और मेरा चिंतवन बढ़ता था कि- ‘‘हे भगवन् ! मुझे गिरि, कंदर, गुफाओं में, जंगलों में, एकाकी विचरण करते हुए आत्म-ध्यान करने का अवसर कब मिलेगा?’’
प्रातः सामायिक से निवृत हो, आगे सड़क पर आकर आगे बढ़ी, तब पुनः ये बेचारे श्रावक मंगलसेन आदि हमें ढूंढते हुए आ रहे थे। सामने देखकर नमस्कार कर घबराये हुए पूछने लगे- ‘‘माताजी! आप लोग रात्रि में कहाँ रहे? बिना घास के, बिना कमरे के कहाँ सोये?…..।’’ मैंने हंसते हुए सारी बातें सुना दी। बेचारे उन लोगों ने समझा कि माताजी खूब गुस्सा होंगी, फटकारेंगी किन्तु यहाँ तो उल्टा ही मुझे प्रसन्न पाया, तब बेचारों के जी में जी आया और आगे बढ़कर चौका की व्यवस्था बनाई।
इस तरह कई बार रात्रि में यत्र-तत्र, अव्यवस्थित सोने के प्रसंग आ जाते थे किन्तु भगवान् की कृपा से कुछ हानि नहीं हुई। एक और घटना रोमांचकारी हो गई।
एक बार इन संघस्थ श्रावकों ने जिस गांव में सोने का प्रोग्राम बनाया था, उसके किनारे सड़क पर ही रात्रि के लिए घास आदि उतार दी और आगे चले गये। हम लोगों ने यहाँ आकर देखा तो गांव की बस्ती बहुत अन्दर जाकर थी, बाहर रोड से किंचित् दूरी पर एक मंदिर था वह ‘नरसिंह’ का कहलाता था। हम लोगों ने सोचा- ‘‘रात्रि में यहीं रुक जावें, आगे गांव के भीतर एक मील जाना-आना भारी है, अब रात्रि भी होने वाली है।’’ उस दिन डोली उठाने वाले मराठे व्यक्ति चार थे अतः हम लोग वहीं मंदिर में ठहर गये। उधर से मराठा आदमी गांव में चले गये। इधर हम छहों साध्वियाँ ही यहाँ रह गयी थीं।
अद्र्धरात्रि में मैं दरवाजा खुला डालकर ही दरवाजे के पास सोयी थी। अकस्मात् फट-फट जूतों की आवाज करते हुए एक आदमी सीढ़ी चढ़ा और घुस आया। मैं जल्दी से एक बाजू सरक गई। वह आदमी अंदर आकर सीधे मंदिर में वेदी के भीतर घुस गया और कुछ बड़-बड़ करने लगा। हम लोगों के होश-हवास गुम हो गये। घबराहट में मैंने सबको जगा दिया और कहा- ‘‘सभी लोग बैठकर णमोकार मंत्र का जाप्य करो।’’
सभी ने उपसर्ग समझकर मन-मन में मंत्र जपना शुरू कर दिया। मैं भी महामंत्र जपती रही। उधर वह आदमी वेदी के अंदर पर्दे में बैठा हुआ कुछ करता रहा। एक-दो बार बाहर भी निकला किन्तु हम लोगों से न कुछ पूछा ही और न कुछ बोला ही। मानों वहां कोई ठहरे हैं, उसे पता ही नहीं था। बाद में लगभग चार बजे वह निकल कर चला गया।
उसके बार वे चारों मराठा डोली वाले भी आ गये। मैंने दिन में जब यह समाचार सुनाया, तब गांव के कुछ लोग दर्शन करने भी आये थे, वे भी आश्चर्य करने लगे। ऐसा अनुमान हुआ कि हो सकता है कोई शराबी हो। जो भी हो, अपने लोगों से कुछ भी नहीं कहा, चुपचाप ही चला गया। यह देखकर हम लोगों ने यही समझा कि- ‘‘पता नहीं, आज हमारे कुछ पुण्य का ही उदय था जो कि उस शराबी ने कोई कष्ट नहीं पहुँचाया। तथा हम सबके द्वारा जपे गये महामंत्र का ही प्रभाव समझना चाहिए।’’
श्रवणबेलगोल पहुँचने से पहले ही बहुत दूर से भगवान बाहुबली के मस्तक के दर्शन होने लगे थे। हृदय में अपार हर्ष की लहरें उठ रही थीं पुनः जिस मंगल घड़ी के लिए सम्मेदशिखर जी से विहार कर हैदराबाद में बीमारी झेली थी और मार्ग में गर्मी-सर्दी के कष्ट झेले थे, आज उन भगवान के दर्शन प्रत्यक्ष में हो गये। हम लोगों ने श्रवणबेलगोल में मंगल प्रवेश किया।
यहाँ के वयोवृद्ध भट्टारक श्री चारूकीर्ति जी अनेक भक्तों के साथ कुछ दूर आगे आये। उनके साथ उनके मठ के पंडित के हाथ में एक थाल था। उसमें अघ्र्य, पुष्प, श्रीफल आदि के साथ ही एक दर्पण उसमें रखा हुआ था और मंगल कलश भी था। भट्टारक जी ने श्रीफल लेकर मेरे सम्मुख चढ़ाया, विधिवत् ‘वंदामि’ कहकर वंदना की और रत्नत्रय कुशलक्षेम पूछा- मैंने भी उन्हें ‘समाधिरस्तु’ आशीर्वाद देकर बहुत ही वात्सल्य के साथ रत्नत्रय कुशल पूछा।
इसके बाद हम लोग बार-बार रुक-रुककर सिर ऊँचा कर-करके भगवान बाहुबलि को निहारते हुए गांव में आ गये। सर्वप्रथम भंडारवस्ती नाम से चौबीस तीर्थंकर के मंदिर के दर्शन किये पुनः भट्टारक जी में मठ के मंदिर के दर्शन किये और इसके बाद भट्टारक जी के साथ ही मठ के निकट बनी हुई धर्मशाला में आ गये, वहीं हमारे ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। यहाँ के वयोवृद्ध भट्टारक जी का विनय और वात्सल्य विशेष देखकर मन में बड़ा संतोष हुआ। यह मंगल दिवस फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी का था। मुझे आज भी यह स्मरण में है।
रात्रि विश्राम कर हम लोग प्रातः बड़े पहाड़ पर चढ़े, वहाँ भगवान् श्री बाहुबली के दर्शन करते ही सारी थकान दूर हो गई। उस समय भगवान के मुख कमल को देखते हुए हम लोगों को जो आनंद आया, उसका वर्णन शब्दों में किया ही नहीं जा सकता है। आँखों से आनंद अश्रु झरने लगे।
उन प्रतिमा के दर्शन करके आज भी सामान्य लोगों को जो आनन्द आता है, उसका अनुभव उन्हें ही होता है, फिर जो हम जैसे अस्वस्थ, कमजोर साधु-साध्वियाँ पद-विहार करते हुए, वर्षों कष्ट झेलकर, भगवान् का दर्शन करें, उनके हर्ष का क्या कहना? मध्यान्ह में छोटे पहाड़ के ऊपर चढ़कर वहाँ के मंदिरों के दर्शन किये। यहाँ कन्नड़ में बड़े पहाड़ को ‘दोड्डवेट्ट’ और छोटे पहाड़ को ‘चिक्कवेट्ट’ कहते हैं।
श्रवणबेलगोल आने के कुछ दिन पूर्व टुमवूâर गांव में मध्यान्ह में मैंने एक कन्नड़ की पहली पुस्तक मंगा ली थी, जिसमें कन्नड़ के अ आ आदि स्वर-व्यंजन और मात्राएं थीं। उस पुस्तक के आधार से मैंने जिनमती आदि को कन्नड़ भाषा पढ़ाना शुरू कर दिया। मेरे पास ‘त्रिभाषा शिक्षक’ नाम से एक पुस्तक थी, उसके माध्यम से कुछ वाक्य रचना भी शुरू कर दी थी।
मुझे लोगों के बोलने-चालने से कन्नड़ भाषा का ज्ञान नहीं हो पाया था। पढ़ने-पढ़ाने से ही भाषा सीख पाई थी। कुछ दिनों तक यहाँ रहकर नीचे के मंदिरों के दर्शन किये। जहाँ बैठकर श्रीनेमिचंद सिद्धांत चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकांड आदि ग्रंथों की रचना की थी, उस गुफा के भी दर्शन किये तथा जिननाथपुर आदि जाकर भी मंदिरों के दर्शन किये। यहाँ मंदिरों मेंं नंदीश्वरद्वीप के बावन प्रतिमाओं के भी दर्शन किये। इधर प्रांत में एक धातु के स्तूप में चारों तरफ तेरह-तेरह जिन प्रतिमाएं रहती हैं, उसे ही नंदीश्वर दर्शन कहते हैं। यहाँ धर्मशाला में रत्नराज नाम के मैनेजर थे जो कि यहीं के थे।
ये कन्नड़ भाषी होकर हिन्दी भी जानते थे। इनके माध्यम से मैं वहाँ के लोगों की और भट्टारक जी आदि की बात समझती थी और उन्हीं के माध्यम से अपनी हिन्दी भाषा की बातें उन लोगों को समझाती थी। भट्टारक जी महाराज बहुत ही सरल स्वभावी थे अतः वे मेरे यहाँ प्रतिदिन आकर व्यवस्था और सुख-दुःख की बात पूछते थे, मैं भी उन्हें अच्छा सम्मान देती थी।
कुछ ही दिनों बाद यहाँ आर्यिका आदिमती और क्षुल्लिका अभयमती अस्वस्थ हो गई। आदिमती की प्रकृति को संभालना कठिन हो गया। यहीं के आस-पास के वैद्यों का उपचार चलता रहा। हैदराबाद की बाईयाँ तो चली गई थीं। यहां पर महिला कनकम्मा और दूसरी ललितम्मा शुद्ध जल का नियम लेकर चौका लगाकर आहार देने लगी थीं। फिर भी दो साध्वियों की अस्वस्थता के निमित्त से मैंने हैदराबाद से सौ. जीऊबाई को बुलाया।
उन्होंने यहाँ आकर चौका करके आहार दिया, औषधि, उपचार किया। यहाँ की महिलाओं को अस्वस्थ साध्वी के लिए आहार देने योग्य वस्तुएं बनाना भी सिखाया। यहाँ महिलाएँ चावल की रोटी, दाल बनाना जानती थीं प्रायः गेहूं की रोटी बनाना नहीं जानती थीं और बीमारी में साध्वी को तो गेहूं की रोटी और दलिया ही दी जाती थी। वास्तव में यहाँ इन दोनों की बीमारी वायु के प्रकोप से ही थी। खासकर आदिमती जी ज्यादा अस्वस्थ थीं.।
कुछ दिन बाद जीऊबाई भी घर चली गई थीं। आखिर गृहस्थ महिलाएँ भला कितने दिन रह सकती हैं?
मैंने रात-दिन एक कर वैयावृत्ति करना शुरू कर दी थी। मेरे साथ ही आर्यिका श्री पद्मावती और आर्यिका श्री जिनमती ने खूब वैयावृत्ति की। उनकी शारीरिक सेवा-टहल आर्यिका जिनमती जी सबसे अधिक करती थीं और मैं संबोधन करना, पाठ सुनाना आदि अधिक करती थी। यहाँ चारों तरफ के यात्रियों की बसें आती रहती थीं। जब उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान के यात्री आते और देखते कि- ‘‘माताजी रातों-रात जगकर उनके पास बैठकर, एकीभाव स्तोत्र, समाधिशतक आदि सुना-सुनाकर उनका अर्थ समझा-समझाकर उन्हें ज्ञानामृत पिला रही हैं।’’ तब वे लोग बहुत आश्चर्य करते और कहते कि- ‘‘ऐसी सेवा और वैयावृत्ति मैंने आज तक कहीं नहीं देखी है।
रात-रात जगकर एक मिनट न सोकर भी आप माताजी इन्हें कैसे पाठ सुनाती हो? आप स्वयं बीमार पड़ जावोगी।’’ यहाँ के भट्टारक जी भी बहुत ही आश्चर्य करते और कहते- ‘‘वास्तव में मेरे जीवन में मैंने किसी भी साधु-साध्वी को ऐसा उपचार करते नहीं देखा है ।’
दिन में भी प्रायः किसी दिन ही मैं मंदिर के दर्शन करने जा पाती, फिर भी उनकी सेवा-शुश्रूषा करके संतोष था। बस संघ के चैत्यालय में विराजमान जिनप्रतिमा का दर्शन कर लेती थी। इसका कारण यह था कि मैंने अनगारधर्मामृत में पढ़ा था- ‘‘त्याग और तप, शक्ति के अनुसार करना किन्तु वैयावृत्ति सर्वशक्ति लगाकर करना।’’
इसलिए मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर वैयावृत्ति में लगी रहती थी, ऐसा देखकर मेरी शिष्यायें-आर्यिकायें भी दिन-रात वैयावृत्ति में लगी रहती थीं, अस्वस्थ की उपेक्षा किचिंत् मात्र भी नहीं करती थीं।
जब इनकी प्रकृति कोई खास सुधार पर नहीं आई, तब मैंने पुरुषार्थ करके कलकत्ते टेलीफोन कराकर वैद्यराज केशवदेव को बुलाया। वे आये और यहाँ सात दिन करीब रुके, चिकित्सा चालू कर दी। उनकी चिकित्सा से कुछ-कुछ मंद गति से सुधार चालू हुआ पुनः वैद्यराज तो कलकत्ते चले गये, उन्हीं की औषधि का उपचार चलता रहा।
कभी-कभी ये आदिमती जी बहुत ही शिथिल हो जाती थीं। इन्हें पाटे पर बिठाकर, चौके में ले जाकर आहार कराना होता था। ‘‘असल में असाता का उदय अधिक होने से दवाईयाँ भी काम नहीं कर पाती हैं’’ इधर यहाँ की ही महिलाएँ आकर कुछ न कुछ पाठ कन्नड़ में सुनातीं तो मुझे बहुत ही कर्णप्रिय लगता। अभिप्राय और प्रसंग से कुछ-कुछ अर्थ समझ लेती थी।
यदि वे लोग भक्तामर, कल्याणमंदिर आदि स्तोत्र बोलतीं तो भी उनके उच्चारण शुद्ध और मधुर थे। वे प्रायः बाहुबली स्वामी के भजन, स्तोत्र आदि बोलती थीं, तो बहुत ही अच्छा लगता था। धीरे-धीरे आहारदान, परिचर्या आदि में भी भाग लेने लगी थीं। इधर मैं प्रायः इन दोनों बीमार साध्वियों को आहार कराकर, ११ बजे करीब आहार के लिए उठती थी। आर्यिका जिनमती आदि भी सभी मेरे अनुकूल थी अतः किसी को भी वैयावृत्ति आदि में प्रमाद नहीं था, प्रत्युत् आगे से आगे करती थीं।
एक दिन आपस में परामर्श करके मैंने किसी श्रावक से आदिमती के घर में सूचना भेज दी कि-‘‘यहाँ ये काफी अस्वस्थ हैं, आप आ जावें।’’ मैंने सोचा कि एक महिला परिचित की आ जाती है तो वैयावृत्ति में कुछ सुविधा हो जावेगी और इनकी मां आदि आयेंगी तो और आत्मीयता से वैयावृत्ति करेंगी। दूसरी बात यह थी कि-इनकी प्रकृति कभी-कभी ऐसी हो जाती थी, लगता था कि ये बचेंगी या नहीं? ऐसा संदेह होने लगता।
मैंने सोचा कि यदि इनके घर वालों को सूचना नहीं जायेगी तो पश्चात् वे उलाहना देंगे अतः सूचना भेजना आवश्यक समझा था किन्तु एक सप्ताह बाद उनके घर से पत्र आया कि- ‘‘आप ही उनकी अच्छी समाधि करा दीजिये, हम लोग नहीं आयेंगे।’’ ऐसा पत्र यद्यपि मैंने आदिमती को नहीं बताया परन्तु लोगों को पढ़कर बहुत ही आश्चर्य हुआ ।
आगे उनके स्वस्थ हो जाने पर एक वर्ष बाद उनकी माँ आई थीं, खैर? इधर इस बड़ी धर्मशाला में यात्रियों का आना बहुत रहता था अतः भट्टारकजी व अनेक श्रावकों के आग्रह से हम लोग छोटी धर्मशाला में आ गये। उस समय यहाँ केवल दो ही धर्मशालाएँ थीं। इन लोगों का स्वास्थ्य कुछ सुधरने पर लोगों की यह प्रेरणा रही कि- ‘‘एक बार इनकी जलवायु अवश्य बदलाओ ।’’
अतः पास के गांव बेलूर के लिए विहार कर दिया। इन दोनों को डोली से ले लिया।
वहाँ अच्छी प्रभावना रही। प्रतिदिन मेरा उपदेश होता था। एक अध्यापिका आकर उस हिन्दी के उपदेश को कन्नड़ में परिवर्तित कर समझा देती थी, बड़ा आनंद आता था। वहाँ जाने पर भी दोनों माताजी के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। एक माह वहाँ रहने के बाद तीर्थ भक्ति, बाहुबली के दर्शन, वंदन आदि की अभिलाषा से और लोगों के विशेष आग्रह से मैं वापस श्रवणबेलगोल आ गई। सभी लोगों ने श्रीफल चढ़ाकर, चातुर्मास के लिए प्रार्थना की और मैंने भी स्वीकृति प्रदान कर दी। उस समय यहाँ लोगों में हर्ष की एक अद्भुत लहर दौड़ गई।
इससे पूर्व एक बार यहाँ श्री भागचंद जी सोनी (अजमेर), उनकी धर्म पत्नी रत्नप्रभा जी, इंदौर के श्री राजकुमार सिंह कासलीवाल आये। कुछ क्षेत्र कमेटी की मीटिंग आदि का निमित्त था अतः यहीं मेरे निकट के कमरे में तीन दिवस ठहरे थे। उन्होंने आते ही पहले मेरे संघ की कुशलता और व्यवस्था संबंधी जानकारी ली थी। सन् १९५६ का चातुर्मास मेरा आचार्य शिवसागर जी के संघ मेंं वहाँ अजमेर में हुआ था,
तभी से सेठ साहब का मेरा अच्छा परिचय था अतः उनकी भक्ति और व्यवस्था की पूछताछ से वहाँ के मैनेजर रमेशचंद जी घबराये और सोचने लगे- ‘‘हो सकता है कि माताजी हम लोगों की कुछ कमियाँ कह दें, तो ये लोग क्या कहेंगे?’’ खैर! रमेशचंद मेरे पास आकर बाद में ऐसा कहने लगे। तब मैंने कहा- ‘‘हम साधु-साध्वियाँ इस तरह लोगों की शिकायतेंं या निंदा किसी से नहीं करते हैं।’’ तब रमेशचंद मैनेजर बोले- ‘‘मुझे आपके प्रति उस दिन से विशेष भक्ति हो गई, जिस दिन से देखा कि भारत के जैन समाज के इतने बड़े-बड़े सेठ श्रीमान भी आपको पूजते हैं, आपकी प्रशंसा करते हैं।
पहले तो मैंने आपको एक साधारण साध्वी समझा था और अब पता चला कि आप बहुत विशेष हैं ।’’ मैं सोचने लगी- ‘‘देखो! बड़े लोग नमस्कार करें, भक्ति करें, प्रशंसा करें, तो साधु भी बड़े दिखने लगें, यह कितने आश्चर्य की बात है! वास्तव में, साधु तो अपनी निर्दोष चर्या से बड़े होते हैं और सदोष चर्या से छोटे होते हैं।
फिर भी दुनिया की रीति है कि जिन्हें श्रीमान और धीमान लोग आदर देते हैं, उनमें कुछ विशेषताएं तो आंकी ही जाती हैं। यद्यपि सर्वथा ऐसा एकांत नहीं है फिर भी प्रायः ऐसा ही होता है।अहो और क्या? भगवान् की महानता भी इन्द्रों के द्वारा की गई भक्ति से ही प्रगट होती है।’’.
यद्यपि ऐसी बात है फिर भी मैं तो एक तुच्छ बुद्धि, किंचित् संयम को धारण करने वाली एक सामान्य साध्वी हूँ। श्रीमंतों के नमस्कार मात्र से भला मैं क्या विशेष बन जाऊँगी?’’ सेठानी जी ने जब मेरे पास बैठकर इनकी बीमारी का विवरण सुना और स्थिति देखी तो बार-बार उनके मुख से निकला कि- ‘‘इन्हें यहाँ की जलवायु अनुकूल नहीं हुई है, इनको जलवायु परिवर्तन से ही स्वस्थता आयेगी।’’ उस समय उनकी इन बातोें पर मेरा विशेष लक्ष्य नहीं गया और न विश्वास ही हुआ।
यद्यपि उन्होंने एक-दो अपने अनुभव के उदाहरण सुनाये भी थे, फिर भी मैंने सोचा- ‘‘कर्म का उदय जीव के साथ चलता है, चाहे दक्षिण हो चाहे उत्तर। भला जलवायु इतना क्या असर डालेगी?’’ खैर! आगे जब मैं वहाँ से विहार कर सोलापुर आई, तो ये दोनों कुछ स्वस्थ दिखने लगीं किन्तु जब वहाँ से भी विहार कर मध्यप्रदेश सनावद में आ गई, तब ये दोनों बिना दवाई के भी स्वस्थ हो गई।
तब मैंने दो वर्ष बाद इन दोनों की बीमारी में जलवायु का निमित्त स्वीकार किया और सिद्धान्ततः विचार किया कि- ‘‘जैसे रति का नोकर्म पुत्र है, हास्य का नोकर्म विदूषक है और नींद का नोकर्म भैंस का दही है, ऐसा गोम्मटसार कर्मकांड में लिखा है, वैसे ही इन दोनों की बीमारी का नोकर्म दक्षिण प्रदेश की जलवायु ही थी, इसमें कोई संदेह नहीं है। हां! मुझे उस प्रदेश में कुछ स्वस्थता रही थी अतः उधर की जलवायु मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल ही थी, प्रतिकूल नहीं थी।’’
उस समय श्रवणबेलगोल में धीरे-धीरे इन दोनों का स्वास्थ्य भी सुधर रहा था और यहाँ की महिलाएं भी आहार तथा वैयावृत्ति की व्यवस्था संभाल रही थीं अतः मैंने एक दिन कुछ विशेष विचार किया और उसे क्रिया-रूप से परिणत भी कर दिया। वह यह कि मैंने जिनमती जी से परामर्श करके उन्हें समझाकर सब आर्यिकाओें से कहा कि- ‘‘मैं पंद्रह दिन भगवान् बाहुबली के चरण सानिध्य में पर्वत पर रहूँगी और तुम सब यहाँ शांति से रहना।
आर्यिका जिनमती सब व्यवस्था संभाल लेंगी।’’ एक महिला के ऊपर प्रमुख रूप से आर्यिका आदिमती की व्यवस्था डाल दी और एक महिला को क्षुल्लिका अभयमती को संभालने के लिए कह दिया पुनः भट्टारक चारूकीर्ति जी से बातचीत करके ऊपर में रहने की व्यवस्था बनवा ली।
मैं ऊपर चढ़ गई। मेरे साथ आर्यिका पद्मावती माताजी भी थीं, चूँकि मैं अकेली कभी नहीं रही हूँ। मैं दिन भर भगवान् के समक्ष बैठकर ध्यान करती, पाठ करती और चिंतन करती रहती थी, मौन ग्रहण कर लिया था। बस, स्तोत्र पाठ को ही बोलती थी। मात्र १० बजे आहार के लिए नीचे आती थी और शुद्धि करके आहार ग्रहण करके पुनः तत्क्षण ही ऊपर चली जाती थी।
किन्हीं भी शिष्याओं का कुछ भी सुख-दुख न सुनती थी और न किसी से बोलती ही थी। मन में संघ के प्रति कोई चिंता न रखने से निराकुलता भी थी। इधर भट्टारक जी ने एक बालक को वहाँ रात्रि में सोने के लिए निश्चित कर दिया था। वह कमंडलु के पानी की व्यवस्था भी बना देता था। उन दिनों मैं रात्रि में बहुत कम सोती थी। दो-तीन बजे से ही उठकर, भगवान की मूर्ति को चंद्रमा की चांदनी में निहारती रहती थी पुनः आँख बंद करके भी ध्यान किया करती थी।
‘‘एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में लगभग ३-४ बजे ध्यान में सहसा मुझे कुछ अलौकिक क्षेत्रों के दर्शन होने लगे। सुमेरु पर्वत से लेकर जंबूद्वीप के हिमवान् आदि पर्वत, उनके चैत्यालयों के दर्शन हुए और धातकीखंड, पुष्करार्ध द्वीप, नंदीश्वर द्वीप, कुण्डलपुर पर्वत और रुचक पर्वत के जिन मंदिरों के दर्शन हुए। मानों कभी पूर्व जन्म में मैंने इन अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किये ही हों। घंटों मेरा उपयोग उन्हीं मंदिरों की जिन- मूर्तियों की वंदना में लगा रहा पुनः एक दिव्य प्रकाश दिखने लगा।
आज भी जब मैं उन दिनों को, उस ध्यान को याद करती हूँ, तो वह प्रकाश स्मृतिपथ में आ जाता है।’’ ध्यान के बाद आँखें खोलकर श्री बाहुबलि को एकटक देखा और बार-बार उनके श्रीचरणों में वंदना की। उस समय मुझे जो आनंद आया था, जो हर्षातिरेक हुआ था, वह मैं शब्दों से तो कह ही नहीं सकती हॅूं। मैं बार-बार उन्हीं चैत्यालयों का स्मरण कर रही थी। लगभग साढ़े नौ बजे मैं पर्वत से नीचे धर्मशाला में अपने कमरे में आई।
अन्दर जाकर अपने बस्ते से त्रिलोकसार ग्रंथ निकाला। उसमें मध्यलोक के अकृत्रिम चैत्यालयों की गणना देखी, जैसा कि मैंने ध्यान में देखा था, वैसे ही चार सौ अट्ठावन चैत्यालयों की संख्या देखी, तब मेरे हर्ष का पार नहीं रहा। मैंने सोचा- ‘‘ध्यान में जो रचना और जो संख्या मुझे उपलब्ध हुई है, वही इस ग्रंथ में है अतः कुछ कपोलकल्पना नहीं है, प्रत्युत् सही रचना दिखी है…..अहो! मैंने पूर्व जन्म में इन चैत्यालयों के दर्शन अवश्य किये होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।’’
इधर जब आर्यिका जिनमती ने देखा कि- अम्मा ने अंदर से त्रिलोकसार निकाला है और ये बहुत ही खुश हैं, तो पूछने लगीं- ‘‘अम्मा! क्या देख रही हो?’’ मैं कुछ भी न बोली और मुस्कराते हुए ग्रंथ लेकर ऊपर चली गई। वहाँ रहने तक बराबर यही ध्यान करती रही और ग्रंथ को पढ़कर उसका विस्तार समझती रही।
पर्वत पर रहते हुए वहाँ उन्हीं दिनों मैंने संस्कृत में वसंततिलकाछंद में एक बाहुबलि स्तोत्र बनाना प्रारंभ किया। वह इतना सुन्दर, सरस एवं मधुर बना है कि पढ़ने, सुनने वाले विद्वान् आनन्दमग्न हो जाते हैं।
मैं समझती हूँ कि यह भगवान बाहुबलि की भक्ति का ही अतिशय था। इस स्तोत्र को कापी में लिखकर, मैं वहीं भगवान के सामने पढ़ने लगी। अंतरंग के भावों से निकले हुए शब्दों से, ‘वर्णों से’ गूँथी हुई वह स्तुति पढ़ते समय मुझे रोमांच हो आता था। स्तोत्र के प्रथम श्लोक ये हैं-
सिद्धिप्रदं मुनिगणेंद्रशतेंद्रवंद्यं, कल्पद्रुमं शुभकरं धृतिकीर्तिसद्म।
पापापहं भवभृतां भववार्धिपोत-मानम्य पादयुगलं पुरुदेवसूनोः।।१।।
सप्तद्र्धिशालिगणिनां स्तुतिगोचरस्य, युद्धत्रये विजितविक्रमचक्रपस्य।
ध्यानैकलीनतनुनिश्चलवत्सरस्य, तस्य प्रभो रहमपि स्तवनं विधास्ये।।२।। युग्मं।।
यह स्तोत्र मैंने इक्यावन श्लोकों में बनाया था। इसके बाद मौन व्रत के १५ दिवस पूर्ण कर मैं नीचे आ गई। मौन छोड़कर शिष्याओं से वार्तालाप किया तो सबसे पहले उन्हें ध्यान में उपलब्ध उन चार सौ अट्ठावन (४५८) चैत्यालयों के दर्शन कराये, उनका विस्तार सुनाया पुनः यह स्तोत्र सुनाया। उन सबको भी महान आनन्द हुआ और उन सभी की आंखों में भी आनन्द के आँसू आ गये।
यह वीरनिर्वाण सम्वत् २४९१, आश्विनमास, ईस्वी सन् १९६५, सितम्बर-अक्टूबर की बात है। श्रवणबेलगोल का यह चातुर्मास इस जम्बूद्वीप रचना के साथ-साथ एवं मेरी साहित्य रचनाओं के साथ-साथ सदा काल अमर रहेगा। आज यहाँ हस्तिनापुर में बनी हुई जम्बूद्वीप रचना और मेरे द्वारा लिखे गये लगभग १५० ग्रन्थ (जिनमें मुद्रित हुये सौ करीब ग्रंथ-पुस्तके) उन सबका सूत्रपात वहीं श्रवणबेलगोल में ही हुआ था।
मैंने अपने कन्नड़ के टूटे-फूटे शब्दों के उपदेश में, वहाँ के श्रावक-श्राविकाओं को भी इन चैत्यालयों का एक दो बार संक्षेप में दर्शन कराया था।
इसके बाद मैंने नीचे वसतिका में रहते हुए, उसी आश्विन मास में एक बाहुबलि चरित बनाया, जिसमें चौबोल छंद है जो कि १०८ पद्यों में है पुनः अंत में दोहा में तीन पद्य बनाकर, १११ मणियों की एक माला ही बनाकर, मानों भगवान के श्रीचरणों में चढ़ाई थी अथवा उस माला से भव्यजन भगवान को जप लेते हैं। मुझे उस समय क्या पता था कि यह रचना आगे भगवान बाहुबलि के सहस्राब्दी महोत्सव में रेकार्डिंग होकर जन-जन के मन को आल्हादित करने वाली होगी!
इस स्तुति के कुछ पद्यों का प्रसारण सात सप्ताह तक आकाशवाणी दिल्ली से हुआ था। इस चरित का मोतीचन्द ने बहुत ही श्रम करके सन् १९८० में ९० मिनट का संगीत ध्वनि में टेपरेकार्ड कैसेट बनवाया था, जिसका कैसेट आज भी जब यहाँ बजता है, तब मुझे सन् १९६५ की पुरानी स्मृतियाँ याद आ जाती हैं। वहाँ श्रवणबेलगोल में रहते हुए मैंने आचार्यश्री वीरसागर जी की संस्कृत में एक लघु स्तुति बनाई।
आचार्य शिवसागरजी की स्तुति बनायी, उसे लिखकर संघ में र्आियका विशुद्धमती को भेजा कि इसे पढ़कर आचार्यश्री के सामने मेरी तरफ से वन्दना कर देना। मथुरा से यात्रा के लिए निकलते समय जो भावना आयी थी, वह सफल हुई थी, निर्विघ्न सम्मेदशिखर पर्वत की वंदना हो गई थी, तभी से मुझे श्री जम्बूस्वामी केवली भगवान के प्रति बहुत ही भक्ति थी अतः एक उनकी ८ श्लोकों में स्तुति बनायी।
वहाँ पर प्रसिद्ध सांगत्यराग, जिसमें भरतेशवैभव और निरंजनस्तुति प्रसिद्ध हैं , उसी सांगत्यराग में, संस्कृत में भगवान महावीरस्वामी की एक लघु स्तुति बनायी, जो यह है-
मनसिजमर्दक! मुनिमनोहर्षक! वीर! महावीर! धीर! मृत्युंजय! हंसनाथ! नमोऽस्तु ते, कर्म विध्वंसकशूर!।।१।। मुझे प्रारंभ से ही यह श्रद्धा रही है कि जिनेन्द्र देव की भक्ति से मन में शांति होती है, सर्व अमंगल नष्ट हो जाते हैं और आत्मा को पवित्र करके भक्त एक न एक दिन अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेता है।
अतएव जिनभक्ति में सदा प्रवृत्ति रखनी चाहिए क्योंकि आज घोरातिघोर तपश्चरण तो संभव नहीं है, इसलिए भक्तिमार्ग से ही जितनी हो सके, उतनी आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिए।
इसके बाद मैंने जो पुस्तकों से कन्नड़ भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था, उसी के अनुसार आदिपुराण, उत्तरपुराण आदि कन्नड़ में अनुवादित ग्रन्थों का स्वाध्याय करती रहती थी। पता नहीं क्यों? मुझे कन्नड़ भाषा से विशेष प्रेम था अतः मैंने कन्नड़ भाषा में भगवान बाहुबलि की एक स्तुति बनाई, जो छप चुकी है पुनः श्रीभद्रबाहुस्वामी की एक स्तुति बनाई। इसके बाद बारह भावना (द्वादशानुप्रेक्षा) नाम से बनाई।
‘‘अरसरवैभव सुररविमानवु धनयौवन संपदवेल्ल।’’
यह बारह भावना छप चुकी है और दक्षिण में घर-घर में पढ़ी जाती है। इधर जब भी कर्नाटक से बसें आती हैं तब प्रायः महिलायें सामूहिक रूप में यह बारह भावना अवश्य बोलती हैं तब हम लोगों को बहुत आनन्द आता है। पहले तो मैं भी पढ़ा करती थी, तब ये सब स्तुतियाँ और भावनाएँ याद थीं, अब प्रतिदिन न पढ़ने से कण्ठाग्र नहीं हैं। आचार्य विद्यानन्द महाराज को भी मेरे द्वारा रचित यह कन्नड़ की द्वादशानुपे्रेक्षा बहुत प्रिय है।
वे उधर दक्षिण में भी बुलवाते रहते हैं अतः दक्षिण में उसका प्रचार खूब हुआ है। इसके बाद मैंने आचार्यश्री विमलसागर जी के श्रवणबेलगोल आने के समय कन्नड़ में उनकी एक स्तुति बनाई थी जो कि उसी समय छपवाकर लोगों ने वितरित की थी। वहाँ पहाड़ पर मैं जब-तब जाकर, ध्यान अथवा स्तोत्र पाठ किया करती थी।
वहाँ बाहर के यात्रियों के समूह बहुत आते रहते थे, तब वहाँ के व्यवस्थापकों की प्रार्थना से मैं उन्हें उपदेश भी सुनाया करती थी और जो लोग अन्य भाषा वाले होते थे, वहाँ के पण्डित लोग उन्हें कन्नड़ आदि में समझा देते थे। कभी-कभी विदेशी लोगों को वहाँ का महत्त्व, नग्नमूर्ति का महत्त्व, भगवान बाहुबली का जीवन चरित आदि सुनाती थी, तब वहाँ के इंग्लिशवेत्ता लोग उन्हें मेरा उपदेश इंग्लिश भाषा में समझा देते थे, जिससे वे लोग भगवान की मूर्ति के प्रति नतमस्तक हो जाते थे।
वहाँ एक वर्ष रहकर मैंने यह अनुभव किया था कि- ‘‘विदेशी लोग नग्नमूर्ति को देखकर हंसते नहीं थे, चाहे पुरुष हों या महिलायें किन्तु कौतुक से देखते ही रहते थे और विस्मय की मुद्रा बनाते थे परन्तु इधर अपने भारत के कुछ जैनेतर लोग यदि वहाँ दर्शनार्थ आते, तो उनकी महिलायें मुख कपड़े से ढक लेतीं और बेभान हंसती, कभी-कभी वे हंसते-हंसते बाहर चली जातीं। मैं वहाँ बैठकर कई बार ये दृश्य देखती रहती थी।
तब सोचने लगती कि- ‘‘वास्तव में विदेशों में सभ्यता है अतः वे हंसने के बजाए कौतुक से देखते हैं और समझना चाहते हैं कि ये भगवान नग्न क्यों हैं? उनके हृदय में भारतीय संस्कृति को समझने की जिज्ञासा रहती है। इसके विपरीत भारत की कतिपय जातियाँ ऐसी मूर्तियों को देखकर, शर्म का अनुभव करते हुए हंसती हैं।
इन्हें भी समझने के लिए उत्कंठा होनी चाहिए कि आखिर ये नग्न क्यों हैं? इनमें कुछ गुण हैं या नहीं?’’ जब मैं उन्हें अपने उपदेश में बताती कि- ‘‘इन्होंने पूर्णरूप से परिग्रह छोड़ दिया है और ब्रह्मचर्य की पूर्णशुद्धि पाल रहे हैं। ये बालक के समान निर्विकार हैं अतएव जन्म के समय के सदृश यथाजात-प्राकृतिक रूप को धारण कर लिया है। इस रूप से इन्हें पूर्ण निराकुलता है, ये पूर्ण रूप से आत्मा के आनन्द में निमग्न हैं ।’
इत्यादि रूप से उपदेश सुनकर ये लज्जा से मुँह ढककर हँसने वाली महिलाएँ भी प्रभावित होकर पुनः भगवान को नमस्कार करने लगती थीं। सन् १९६५ में श्री बाहुबलीजी की प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक होने वाला था किन्तु वर्षा के कम होने से वह आगे बढ़ा दिया गया। पुनरपि सन् १९६६ की फरवरी में अभिषेक की संभावना थी किन्तु जल की कमी से इस वर्ष भी स्थगित कर दिया गया, तब मैंने समझ लिया कि- ‘‘मेरे भाग्य में महामस्तकाभिषेक देखना नहीं है।’’
अतः मैंने भगवान की मूर्ति का मेघ से होने वाली जल-वर्षा के समय अभिषेक देखकर ही हर्ष माना और वहाँ से विहार के लिए सोचने लगी। इधर मेरे संघ में आर्यिका जिनमती को भी यहाँ से विहार के लिए आकुलता लगी हुई थी। उधर संघ से आचार्य श्री शिवसागर जी, मुनि श्री श्रुतसागर जी और मुनि श्री अजित सागर जी की प्रेरणा से आर्यिका विशुद्धमतीजी के पत्र बराबर आ रहे थे कि- ‘‘माताजी! अब आप जैसे भी हो, वैसे जल्दी ही संघ में वापस आ जाइये।’’
अतः मैंने संघ से ब्रह्मचारी सुगनचन्द को बुला लिया था। वे दो ब्रह्मचारिणियों को लेकर मेरे संघ का विहार कराने के लिए यहाँ आ गये थे।
इधर मैंने सुना, आचार्यश्री विमलसागर जी मूडविद्री से होते हुए मैसूर आ रहे हैं। मुझे बहुत खुशी हुई। इधर मैसूर से कई बार प्रमुख-प्रमुख श्रावक ‘श्रीपालय्या’ आदि आकर मैसूर की ओर विहार के लिए प्रार्थना कर चुके थे और मैंने विहार के लिए एक-दो बार विचार भी किया था लेकिन इन अस्वस्थ साध्वियों को लेकर कैसे जाना और छोड़कर भी कैसे जाना?
अतः जाना रह गया था। अब पुनः इन लोगों की प्रार्थना स्वीकार कर मैंने विहार करने का विचार बना लिया। अस्वस्थ साध्वियों को यहीं छोड़कर, साथ में दो साध्वियों को लेकर, विहार कर दिया। यहाँ से ४-५ दिन में मैसूर पहुँची। वहाँ आचार्य संघ आ चुका था। मैंने भी सन् १९६३ में आरा में दर्शन किये थे पुनः सन् १९६६ की फरवरी में यहाँ दक्षिण में दर्शन किये। आचार्यश्री का वात्सल्य बहुत अच्छा था।
यहाँ भी संघ में कोई साधु कन्नड़ भाषा नहीं जानते थे अतएव आचार्यश्री हिन्दी में ही उपदेश करते थे, इससे पूर्व मेरा प्रवचन होता था। मैं कुछ-कुछ कन्नड़ में उपदेश दे देती थी। मेरी टूटी-फूटी कन्नड़ से भी लोगों को विषय समझ में आ जाने से बड़ा आनन्द आ जाता था। यहाँ के अनेक लोगों ने श्रवणबेलगोल में आकर दर्शन किए थे और कई एक लोग उपदेश भी सुन चुके थे अतः ये लोग बार-बार कहने लगे- ‘‘अहो! ऐसी निधि हमारे प्रांत में एक वर्ष रह गई और हम लोग उनसे लाभ लेने में वंचित रह गये। यह हम लोगों का दुर्भाग्य ही था।’’ मैंने कहा-‘‘न मैं कोई निधि हूँ न कोई विशेष ही, हाँ!
यहाँ तो महानिधि भगवान बाहुबलि विराजमान हैं, ये तो सारे विश्व की ही निधि हैं और इनके दर्शन के निमित्त से तो यहाँ पर सभी साधु-साध्वियाँ प्रायः आते ही रहते हैं।’’ इसके बाद वहांँ के लोगों ने बहुत प्रार्थना की कि- ‘‘माताजी! कम से कम एक माह आप यहाँ मैसूर विराजो, हम लोग आप से धर्मलाभ लेना चाहते हैं।’
’ किन्तु अब हमारा मन विहार के लिए उत्सुक हो चुका था अतः किसी की भी प्रार्थना पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। मात्र हँसकर ही उनको सान्त्वना दी और ४-५ दिन बाद ही वहाँ से आचार्य संघ के साथ विहार कर दिया। मैं कुछ कन्नड़ में वार्तालाप करके आचार्यश्री के शब्दों को भी समझा देती थी। उपदेश में भी कुछ-कुछ कन्नड़ बोल देती थी अतः लोगों को अच्छी तरह से समझ में आ जाता था।
मैसूर से विहार कर अद्र्ध मार्ग में एक जगह किसी एक जैनेतर मंदिर के निकट खुले बगीचे में साधु संघ ठहरा था। वहीं पास में चौके लगे हुए थे। आहार के बाद सामायिक करके मैं बहिर्भूमि-शौच के लिए कुछ दूर जंगल की ओर गई थी। उधर से वापस आ रही थी, मेरे साथ एक आर्यिका थीं। उधर देखा- कुछ ही दूर एक पागल आदमी बिल्कुल नंगा घूम रहा है और कुछ ग्रामीण लोग आपस में हंसते हुए कुछ अपनी कन्नड़ भाषा में कह रहे हैं। चूँकि मैं कुछ कन्नड़ समझ लेती थी अतः मैंने सब समझ लिया।
ये लोग कह रहे थे- ‘‘चलो, चलो, पास ही नंगे लोगों का संघ ठहरा हुआ है, उसी में इस ‘हुच्च’ अर्थात् पागल को छोड़कर उन्हीं में शामिल करके आ जाएँ।’’ उनके इन शब्दों से मुझे नग्न दिगम्बर साधुओं की हंसी और अवहेलना सहन नहीं हुई। मैं अपने स्थान पर आकर बैठ गई और एक प्रबुद्ध व्यक्ति को बुलाकर सारी बातें उनसे पूछी पुनः उन्हीं से मैंने कहा- ‘‘आप इन ग्रामनिवासी लोगों को बुलाओ, मैं उपदेश सुनाउँगी।’’
उपदेश सुनने की लालसा से व्यक्ति निकट से गाँव के बहुत सारे लोगों को इकट्ठे कर लाया। मैंने वहीं बाहर चबूतरे पर बैठकर कन्नड़ में उपदेश दिया और दिगम्बर मुनियों की चर्या बतलाई। यथा- ‘‘दिगम्बर जैन साधु सर्वथा सब परिग्रह छोड़कर साधु बनते हैं अतः लंगोटी भी नहीं रखते हैं क्योंकि उसे धोना, सुखाना, फट जाने पर माँगना आदि उन साधु के लिए दैन्य प्रवृत्ति है तथा ये पूर्णब्रह्मचर्य पालते हैं।
जैसे बालक माँ की गोद में और अड़ोस-पड़ोस में नग्न खेलता है किन्तु उस बालक को देखकर न किसी को विकार आता है और न उस बालक में ही विकार है, वह निर्विकार है, वैसे ही ये साधु भी-‘‘निर्विकार बालकवत् निर्भय तिनके पायन धोक हमारी’’-निर्विकार हैंं, ये दिशारूपी वस्त्र को धारण करने से दिगम्बर हैं, शील के भूषण से भूषित हैं, तीन लोक में पूज्य हैं। साथ ही मैंने कथा भी सुनाई कि- किसी समय ऐसे ही दिगंबर मुनियों का संघ सम्मेदशिखर यात्रा के लिए जा रहा था।
ऐसे ही उन्हें नग्न देखकर एक गांव के सारे के सारे लोग हंसने लगे, एक कुंभकार ने मना किया कि ये वन देवता हैं, चक्रवर्ती से भी पूज्य हैं, इन्हें हंसो मत। इसके कुछ ही दिनों बाद गांव में किसी एक के द्वारा अपराध करने पर राजा ने कुपित हो सारे गांव में आग लगवा दी। सब जलकर मर गए और ‘गिजाई’ नाम के छोटे-छोटे कीड़े हो गये। जिस कुंभकार ने मना किया था, वह उसी दिन कहीं बाहर चला गया था, सो बच गया अतः कालांतर में वह अपनी आयु से मरकर एक वणिक हुआ।
ये सब के सब गिजाई के जीव मरकर कौड़ी हो गये, जिन्हें वणिक ने खरीद लिया। ये सब कौड़ी के जीव साठ हजार थे। इस कथा के बाद मैंने समझाया कि- ये नग्न मुनि जगत् पूज्य हैं, पागल नहीं हैं अतः तुम लोग पागल को इनमें शामिल करने की बात क्यों कह रहे थे? अब ऐसी गलती नहीं करना। लोगों ने मेरा उपदेश सुना, तब पश्चात्ताप से क्षमायाचना करने लगे पुनः भक्ति से जाकर सबने इन गुरुओं के दर्शन किये और अपने जन्म को सफल माना।
इस प्रकार विहार करते हुए संघ श्रवणबेलगोल आ गया। श्री भट्टारक जी ने सम्मुख आकर आचार्यश्री का स्वागत किया, श्रीफल चढ़ाकर नमस्कार किया और आचार्यश्री का क्षेत्र पर मंगल प्रवेश हुआ। मेरे संघ की आर्यिका आदिमती जी व क्षुल्लिका अभयमती ने भी दर्शन किये। महान् प्रसन्नता और धर्मप्रभावना का वातावरण बन गया।
अब यहां से मुझे विहार करना था। मैंने आचार्यश्री से कहा कि- ‘‘मेरी इच्छा है कि लिफ्ट द्वारा किसी को भेजकर भगवान का दो-चार घड़ों के जल से अभिषेक करा दिया जावे।’’ आचार्यश्री को भी यह बात जंच गई। मैंने भट्टारक जी से कहा किंतु ‘मैसूर सरकार से स्वीकृति मिलना कठिन है और बिना स्वीकृति के अभिषेक करना कठिन है’ अतः भट्टारक जी ऊहापोह में पड़ गये। इधर मेरी भावना और आचार्यश्री की प्रेरणा से कई एक मैसूर के लोगों से परामर्श करके, प्रचार न करके, अत्यंत लघु रूप में प्रोग्राम बनाया गया। यहाँ आसपास के कुछ गाँवों के लोग उपस्थित हो गये।
आचार्यश्री का संघ और मेरा संघ ऊपर चढ़ गया। यथास्थान सब बैठ गये और एक-दो पण्डितों ने कुछ घड़े जल लिफ्ट से चढ़ाकर ऊपर जाकर अभिषेक कर दिया। उस समय जो आनन्द आया, उसे शब्दोेंं में नहीं कहा जा सकता है। इधर इस अभिषेक व्यवस्था में कठिनाईयों की चर्चा चलते समय मेरे कमरे में आर्यिका जिनमती, आदिमती भी मिलकर आपस में चर्चा कर रही थीं कि- ‘‘अम्मा को चैन नहीं पड़ती, कुछ न कुछ करती-कराती रहती हैं।
व्यर्थ ही अभिषेक देखने के लिए बात उठा दी है। इन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।’’ इसके बाद ये दोनों आकर मुझसे भी कहने लगीं- ‘‘अम्मा! अब सकुशल यहाँ से विहार कर दीजिये। अब अभिषेक देखने आदि की बात न उठाइये ।’’ फिर भी मेरे मन में जो विषय आ गया था और सफल होने की संभावना थी अतः मैंने इन दोनों की बातें सुनी-अनसुनी कर दी थीं, बल्कि मेरे मन में यह आया था कि- ‘‘ऐसे प्रसंगों में तो इन्हें मेरा सहयोग देना चाहिए था अथवा बैठकर महामंत्र का जाप करते हुए शांति की कामना करनी चाहिए न कि विरोध ।’’
खैर! उस अभिषेक के समय ये दोनों ही आर्यिकायें भगवान बाहुबलि के चरण सानिध्य में जाकर खड़ी हो गर्इं और अभिषेक का ऐसा आनन्द लिया, ऐसी गद्गद हुर्इं कि देखते ही बनता था। मैंने तो आनन्द लिया ही, सभी साधुओं ने और उपस्थित समुदाय ने भी आनन्द लिया। बाद में भगवान बाहुबलि के चरणों का विस्तार से पंचामृत अभिषेक हुआ, शान्तिधारा हुई और सबने गंधोदक मस्तक पर चढ़ाकर, नेत्रों में लगाकर अपने जीवन को पवित्र किया।
उसके बाद ही मैसूर से व आस-पास हासन आदि गाँवों से कुछ लोग आ गये थे अतः वहीं पर मेरा और आचार्यश्री का उपदेश हुआ। मैंने कुछ कन्नड़ में भी उपदेश दिया। इसके बाद हम सब लोग पर्वत से नीचे आ गये। मैंने उस दिन विचार किया- ‘‘देखो! छोटे कार्य हों चाहे बड़े, जिसमें सब लोग प्रतिकूल हो जाते हैं उस में यदि पास रहने वाले शिष्य वर्ग भी प्रतिकूल हो जावें या सहयोग न देवें, तो कैसा एकाकीपन अनुभव में आता है?
फिर भी एक दृढ़ता संकल्प ही ऐसी शक्ति है जो कि कार्य को सफल कर देती है और कार्य की सफलता में तो सभी आगे आकर भागीदार बन जाते हैं।’’ ऐसे-ऐसे प्रसंग में मेरे जीवन में अनेक कार्यों में तो क्या, मैं समझती हूँ कि प्रायः सभी कार्यों में आये हैं और मेरे ‘दृढ़संकल्प’ के आगे सभी कार्यों में सफलता भी मिली है। यही हेतु है कि मैं हमेशा अपने शिष्यों को ही क्या, प्रत्येक कार्यकर्ता श्रावक-श्राविकाओं को यही शिक्षा दिया करती हूूँ कि-
‘‘यदि आप कोई भी कार्य हाथ में लेते हैं, तो पहले यह सोच लीजिये कि यह आगम विरुद्ध तो नहीं है? यदि आपका सोचा हुआ कार्य आगम के अनुकूल है तो आप दृढ़संकल्प लेकर उसे कीजिये। अन्य लोगों के विरोध की परवाह मत कीजिये क्योंकि विरोध में अनेक कारण होते हैं। कुछ लोग तो ईष्र्या, असहिष्णुता से विरोध करते हैं, कुछ लोग विरोध के भय से भी विरोध करके कार्य में रुकावट डालने की कोशिश करते हैं इत्यादि।’’
अतः- ‘‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि।’ इस नीति वाक्य का स्मरण करते हुए छोटे-छोटे विरोधों को तो न कुछ गिनकर धर्म कार्यों में पीछे नहीं हटना चाहिए। यहाँ से एक वर्ष के बाद मेरा विहार हो रहा था अतः ललितम्मा, कनकम्मा आदि भक्तिमान महिलाओं ने, जिन्होंने लगभग १ वर्ष तक तन-मन-धन से सेवा की थी, उनका हृदय टूट रहा था। वे खूब रो रही थीं लेकिन मुझे विहार तो करना ही था। यहाँ से हमारी मूडविद्री, हुम्मच आदि तीर्थों की वन्दना करने की इच्छा थी।
इधर मार्ग में ऊँची-चढ़ाई बहुत थी अतः आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज से परामर्श कर मैंने आर्यिका आदिमती जी और क्षुल्लिका अभयमती जी को आचार्य श्री के साथ हुबली तक भेजने का निश्चय किया चूँकि इन दोनों ने दीक्षा से पहले इन तीर्थों की वंदना की हुई थी और अभी अस्वस्थ भी थीं, पूर्ण स्वस्थ नही हो पाई थीं अतः इन्हें सीधे यहाँ से हुबली भेजने का निर्णय कर दिया। आचार्यश्री ने भी इन्हें साथ ले जाने की स्वीकृति दे दी। तब मैंने एक साथ ही यहाँ से विहार कर दिया।
यह दिन भी फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी था जो कि मुझे बाद में स्मरण में आया, तब मैंने सोचा- ‘‘देखो! यह योग कैसा बना! भगवान बाहुबलि ने स्वयं एक वर्ष का योग लेकर निश्चल खड़े होकर ध्यान किया था, तो मुझे भी यहाँ एक वर्ष तक रहकर भगवान बाहुबलि की दिव्य मूर्ति के दर्शन करने का सौभाग्य मिला है।’’ अभी सन् १९८१ की फरवरी, में जब भगवान बाहुबलि का सहस्राब्दी महोत्सव मनाया जा रहा था, तब फाल्गुन कृष्ण चतुदर्शी को ही भगवान का महामस्तकाभिषेक हुआ था अतः मुझे यह तिथि बहुत ही अच्छी प्रतीत हुई।