मूडविद्री यात्रा- मैं भगवान बाहुबलि की मूर्ति को एकटक देखते हुए जब छोड़कर जाने लगी, तब हृदय में जो वेदना हुई, जो दुःख हुआ, वह हृदय को विदीर्ण कर रहा था। नेत्र जैसे प्रभु को देखते ही रहना चाहते थे परन्तु जबरदस्ती नेत्रों को वहाँ से हटाकर हृदय में भगवान की मूर्ति को स्थापित कर, उनकी भक्ति को साथ में लेकर, मैं अपने संघ के साथ वहाँ से चल पड़ी। मार्ग में हासन आई, यहाँ पर मंदिरों के दर्शन किये।
यहाँ की कलाकृतियों का अवलोकन किया पुनः मार्ग में पहाड़ी रास्ते पर चढ़कर महामंत्र का जप करते हुए धीरे-धीरे लगभग १५ दिन में मूडविद्री क्षेत्र पर पहुुँच गई। वहाँ के भट्टारक जी भी आगे आये, वहाँ भी स्वागत थाली में दर्पण रखा हुआ था। यहाँ दक्षिण में सर्वत्र स्वागत की थाली में दर्पण अवश्य लाते हैं क्योंकि यह अष्टमंगल द्रव्य में से एक है, इसलिए इसे मांगलिक मानते हैं, एक-एक प्रान्त की अलग-अलग प्रथायें हैं।
कलकत्ता में स्वागत के समय मंगल कलश और मंगल आरती की प्रथा है। साधुओं के विहार के समय घर-घर के दरवाजे पर लोग आरती उतारते हैं। इंदौर में देखा कि विहार करने पर रास्ते में जो भी श्रावकों के घर आते हैं, वे श्रावक दरवाजे पर थाली रखकर दूध से गुरु के चरण धोते हैं पुनः मंगल आरती करते हैं। दिल्ली में भी द्वार के पास निकलते हुए साधुओं की मंगल आरती करते हैं । यहाँ मूडविद्री में २-३ दिन रहकर सभी मंदिरों के दर्शन किये, पुरानी कलाकृतियों को देखा, मन में बहुत ही प्रसन्नता हुई।
दिव्य प्रतिमाओं के एक साथ दर्शन
श्री चान्दमल जी पांड्या गोहाटी वाले अपने परिवार सहित दक्षिण यात्रा करते हुए यहाँ आ पहुँचे। उनके साथ ब्रह्मचारी सूरजमल जी भी थे। बहुत दिनों बाद इन लोगों को देखकर प्रसन्नता हुई।
उसके बाद मध्याह्न में इन लोगों ने मेरे साथ ही रत्नों की मूर्ति के दर्शन का प्रोग्राम बना लिया था। यहां पर प्राचीन अनेक रत्नों की मूर्तियां हैं, उस समय उन्हें निकाल-निकाल कर दर्शन कराते थे। हम लोग बैठे-बैठे दर्शन कर रहे थे।
उन मूर्तियों के दर्शन करके मन में एक अपूर्व ही भाव जाग्रत हुआ पुनःचांदमल जी ने कहा- ‘‘माताजी! मूर्तियों के दर्शन के बारे में कुछ उपदेश सुनाइये।’’ मैंने कहा-अब आप लोगों ने कृत्रिम जिनप्रतिमाओं के दर्शन कर लिए हैं। इसके बाद मैं आपको अभी यहीं से अकृत्रिम जिनमंदिरों का दर्शन कराऊँगी।
आप लोग सुखासन से बैठ जाइये और आँख बंद कर लीजिये। मैं जैसे-जैसे जहाँ-जहाँ ले चलूँ चलते चलिये और जो-जो दर्शन कराऊँ! दर्शन करते रहिये। देखिये! कितना आनंद आयेगा। सभी लोग मेरे कहे अनुसार स्थिरता से बैठ गये और मैंने दर्शन कराना प्रारंभ किया।
अकृत्रिम चैत्यालयों के अपूर्व दर्शन
मध्यलोक के असंख्यात द्वीप-समुद्रों में सर्वप्रथम जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत गोल थाली के आकार का है। इसके बीचोंबीच में सुदर्शनमेरु पर्वत है। यह नीचे दश हजार योजन विस्तृत गोल है और एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। इसके भूमितल में भद्रसाल वन है। उस वन में चारों तरफ एक-एक जिनमंदिर है। आप पहले पूर्व दिशा के मंदिर में प्रवेश करके वहां विराजमान १०८ जिनप्रतिमाओं को नमस्कार कीजिये।
देखिये अब आपको मंदिर में प्रतिमायें दिख रही हैं। हाथ जोड़कर वंदन कीजिये। अब आप दक्षिण दिशा में चलें। बुद्धि से अर्धनिमिष में पहुंच गये। मंदिर के अंदर प्रवेश करके भगवान् के दर्शन करें।
दर्शन हो रहे हैं ,नमस्कार करके बाहर आकर पश्चिम दिशा के मंदिर में चलें, वहां अंदर प्रवेश कर लिया। अब प्रतिमाजी के दर्शन हो रहे हैं । नमस्कार करें, बाहर आवें, शीघ्र ही उत्तर दिशा के मंदिर में प्रवेश करके भगवान् का दर्शन करें, दर्शन हो रहे हैं। जिनप्रतिमायें दिख रही हैं, नमस्कार करें। अब बाहर आकर बुद्धि से ही अर्ध सेकिंड में पाँच सौ योजन ऊपर पहुँच गये। यह नंदन वन है। यहां भी पूर्व दिशा मंदिर में प्रवेश करें, दर्शन करें, जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करें ।
बाहर आकर दक्षिण दिशा के मंंदिर में प्रवेश करके, प्रतिमाओं की हाथ जोड़ कर वंदना करें । पश्चिम दिशा के मंदिर में प्रवेश करके, भगवान को हाथ जोड़कर नमस्कार करें । उत्तर दिशा में पहुँचकर जिनमंदिर के अंदर प्रवेश करें। अब जिनप्रतिमाओं को एक क्षण देखें दिख रही हैं। नमस्कार करें ।
अब आप बुद्धि से ही एकदम साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर आ जावें । पूर्व दिशा के मंदिर में दर्शन करें , दक्षिण दिशा के मंदिर में प्रवेश करें, दर्शन करें । पश्चिम दिशा के मंदिर में प्रवेश करके भगवान् को हाथ जोड़कर नमस्कार करें । उत्तर दिशा के मंदिर में अंदर आइये भगवान को नमस्कार कीजिये।
यह सौमनस वन कहलाता है। यहां से छत्तीस हजार योजन ऊपर उछल कर आ जाइये, अब हम और आप पांडुुक वन में आ गये हैं। यहाँ पूर्व दिशा के मंदिर में प्रवेश कर दर्शन कर रहे हैं ,प्रतिमाएँ दिख रही हैं। चलिये, दक्षिण दिशा के मंदिर में प्रवेश कीजिये। जिनभगवान के मुखकमल का दर्शन करके वंदन कीजिये, पश्चिम दिशा के मंदिर में आ गये हैं, प्रतिमाजी दिख रही हैं, नमस्कार कीजिये, आइये, उत्तर दिशा के मंदिर में अंदर चलें।
भगवान् के चरणों में नमस्कार करें। इन सुदर्शनमेरु के सोलह चैत्यालयों की वंदना हो गई है। यहां ईशान दिशा में पांडुक शिला है। यह अर्धचन्द्राकार है। इसी पर हमारे भरतक्षेत्र के जन्मजात तीर्थंकर शिशु का अभिषेक होता है। १००८ कलशों द्वारा इंद्रादि देवगण मिलकर अभिषेक करते हैं। चारण ऋद्धिधारी मुनि भी आकाश में स्थित होकर अभिषेक देखते हैं, मैं भी अभिषेक कर रहा हूं, देखिये, बुद्धि से ही भगवान् का अभिषेक कर लीजिये।
अब आग्नेय विदिशा में पांडुकंबला शिला दिख रही है। यहाँ पश्चिमविदेह के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। यह शिला भी देवों द्वारा पूज्य है। मुनिगण भी इसकी वंदना करते हैं। आप भी इस शिला को नमस्कार कीजिये। अब नैऋत्य कोण में आइये, यहाँ ‘‘रक्ता’’ नाम की शिला है। यह अर्धचन्द्राकार है और लाल वर्ण की है यहाँ पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकर बालक का न्हवन होता है, इसे भी हाथ जोड़कर नमस्कार कीजिए आइये, अब वायव्य कोण की ‘रक्तकंबला’ शिला की ओर चलिये,नमस्कार कीजिये।
इस शिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है, इसे भी भक्ति से नमस्कार कीजिये। इस समय आप इस भूमितल से निन्यानवे हजार योजन ऊपर पांडुकवन में खड़े हैं। इस तीन लोक में यह पर्वत सबसे ऊँचा है। इस पर्वत को बार-बार नमस्कार करें । अब धीरे से बुद्धि से एक क्षण में नीचे आ जाइये। सुदर्शनमेरु की ईशानदिशा में ‘माल्यवान’ नाम का गजदंत पर्वत है। इस पर सुमेरु की तरफ एक अकृत्रिम जिनमंदिर है उसमें चलिये। वहां पर भी १०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। इनकी सौम्य छवि अलौकिक है। हाथ जोड़कर नमस्कार कीजिये। आगे पूर्व दिशा में आ जाइये।
आग्नेय विदिशा में महासौमनस गजदंत पर्वत है, इसके मंदिर की वंदना कीजिये, आगे बढ़िये , नैऋत्य विदिशा में विद्युत्प्रभ गजदंत पर्वत है, उसके मंदिर में प्रवेश कीजिये और प्रतिमाओं को नमस्कार कीजिये। आगे और बढ़िये, वायव्य कोण में गंधमादन गजदंत पर्वत के मंदिर में आ जाइये, नमस्कार कीजिये, ये चार गजदंत पर्वत इस जंबूद्वीप में स्थित हैं। अब आप सुदर्शनमेरु के उत्तर में उत्तरकुरु भोगभूमि में थोड़ी देर के लिए आ जाइये।
देखिये, एक बहुत बड़ा जामुन का वृक्ष है, यह पृथ्वीकायिक है, रत्नों से निर्मित है, अनादिनिधन है, इसमें जामुन फल लटक रहे हैं । इसके उत्तर की शाखा पर बहुत बड़ा मंदिर बना हुआ है, उसमें भी १०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। दर्शन कीजिये, वंदन कीजिये । वहां से बाहर आकर सुदर्शनमेरु के दक्षिण में देवकुरु भोगभूमि में आ जाइये, यहां शाल्मलि वृक्ष है, इसे हिन्दी में सेंमल का वृक्ष कहते हैं। इसके पत्ते सात-सात मिले हुए हैं, फूल-फल लगे हुए हैंं। इन फलों से सेंमल की रुई निकलती है। यह भी पृथ्वीकायिक रत्नमयी है। इसकी दक्षिण दिशा की शाखा पर एक मंदिर है।
इसमें प्रवेश करिये, भगवान के दर्शन हो रहे हैं नमस्कार कीजिये। अब मैं विस्तार में आपको न ले जाकर संक्षेप से दर्शन कराऊँगी। इसी तरह इस जंबूद्वीप में सोलह वक्षार पर्वत हैं, चौंतीस विजयार्ध पर्वत हैं, छह कुलाचल हैं, सब मिलाकर अकृत्रिम जिनमंदिर ७८ हैं। इस जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरकर लवण समुद्र है।
इसके बाद धातकीखण्ड द्वीप है। इसमें दक्षिण-उत्तर में एक-एक इष्वाकार पर्वत होने से धातकीखण्ड के पूर्वधातकी और पश्चिमधातकी ये दो भेद हो गये हैं। इनमें से पूर्वधातकी में ठीक बीच में ‘विजय’ नाम से मेरु पर्वत है। वहाँ भी जम्बूद्वीप के समान ७८ जिनमंदिर हैं। ऐसे ही पश्चिम धातकी में ‘अचल’ नाम से मेरुपर्वत है, वहाँ भी ७८ जिनमंदिर हैं, इस प्रकार यहाँ धातकी खण्ड द्वीप में (इष्वाकार २ + ७८ + ७८ = १५८) कुल एक सौ अट्ठावन मंदिर हैं।
इस धातकी खण्ड द्वीप को घेरकर कालोदधि समुद्र है। इसके बाद पुष्कर द्वीप है। इसके ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। इसके आगे मनुष्य नहीं जाते हैं। इस पुष्करार्ध के इधर में भी पूर्व मेें ‘मन्दरमेरु’ और पश्चिम में ‘विद्युन्माली मेरु’ हैं। इस द्वीप में भी दोनों तरफ के जिनमंदिर १५८ ही हैं। पुनः मानुषोत्तर पर आ जाइये, यहाँ पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में एक-एक जिनमंदिर है। अब आप को चाहे आकाशगामी विद्या हो, चाहे चारण ऋद्धि, आगे नहीं जा सवेंकेगे अतः मात्र बुद्धि से ही चलिये।
आठवां नन्दीश्वर द्वीप है, वहाँ पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर में चारों तरफ तेरह-तेरह जिनमंदिर हैं। इन सबको हाथ जोड़कर नमस्कार कीजिये पुनः आगे ग्यारहवें कुण्डलवर द्वीप में चूड़ी के आकार पड़े हुए कुण्डलपर्वत पर चारों दिशा के जिनमंदिरों की वंदना कीजिये। इसके आगे तेरहवें रुचकवर द्वीप में चूड़ी के सदृश रुचकवर पर्वत के ऊपर बने हुए चारों दिशाओं के चार जिनमंदिरों को, उनमें विराजमान प्रतिमाओं को, हाथ जोड़कर नमस्कार कीजिये। इस प्रकार इस मध्यलोक में ७८ + १५८ + १५८ + ४ + ५२ + ४ + ४ = ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। इन सबमें १०८-१०८ जिन प्रतिमाएँ हैं।
उन सबको मेरा मन, वचन और काय से बारम्बार नमस्कार होवे। अब आप लोग आँख खोलें और सामने विराजमान रत्नों की जिनप्रतिमाओं के दर्शन करके, हाथ जोड़कर इन्हें नमस्कार करें। इस प्रकार मध्यलोक के चैत्यालयों की वंदना कराकर, मैंने अपना उपदेश पूर्ण किया। उस समय उन लोगों को इतना आनंद आया कि सब लोग भक्ति में विभोर होते हुए, गद्गद वाणी से जय-जयकारा करने लगे।
‘‘बोलिये, अकृत्रिम जिनमंदिरों की जय, जिनप्रतिमाओं की जय, आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की जय, आर्यिका ज्ञानमती माताजी की जय! इसके बाद श्रीमान सेठ चांदमल जी पाँड्या के मुख से निकला- ‘‘माताजी! यह रचना इस पृथ्वीतल पर अवश्य बननी चाहिए ।’’
वहाँ से सुखद वार्तालाप करते हुए हम सभी लोग धर्मशाला में आ गये पुनः एक-दो दिन बाद मैंने वहाँ से विहार कर दिया और ये श्रावक लोग भी अपनी गाड़ियों से आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान कर गये।
दक्षिण के अन्य तीर्थ
कारकल-वहाँ से आकर कारकल में भगवान बाहुबलि की मूर्ति के दर्शन किये। यहाँ मूर्ति में कुछ काई-सी लग गई थी, देखकर बहुत दुःख हुआ कि इधर के जैन समाज को इस विषय में ध्यान देना चाहिए।
वेणूर में भी भगवान बाहुबलि के दर्शन किये। यहाँ से विहार करते हुए कुन्दकुन्दद्रि पर्वत के दर्शनार्थ वहाँ तलहटी में नीचे ठहरी। कुन्दकुन्दद्रि एक छोटा-सा पर्वत है। इस पर चढ़कर ऊपर पहुँचे, वहाँ एक छोटा-सा मंदिर है, जिसमें श्री कुन्दकुन्ददेव के चरण विराजमान हैं, उनकी वंदना की। कहते हैं कि- श्री कुन्दकुन्द ने यहीं इस मंदिर में बैठकर, अनेक ग्रंथ लिखे थे।
यह स्थल देखकर मन में यह बात अवश्य आई कि- ‘‘ये महान् आचार्य खुले जंगल में या खुले किसी भी स्थान में बैठकर ग्रंथ रचना नहीं कर सकते थे। कभी हवा, आंधी आ गई, कभी वर्षा आ गई तो ताड़ के पत्र उड़ जायें, फट जायें, कट जायें तो कैसा होगा? अतः यह निश्चित है कि उन्होंने इन ग्रंथों का लेखन मंदिर या गुफा आदि में बैठकर ही किया होगा
।’’ यहाँ पर कुन्दकुन्ददेव के इतिहास को स्मरण करते हुए -दो तीन दिन तक मैं रही। अनन्तर आगे विहार कर दिया।
हुम्मच
कई दिनों पूर्व हुम्मच के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति जी मार्ग में आकर मेरी व्यवस्था बना रहे थे। इनकी भी भक्ति भावना बहुत अच्छी थी। मेरे हुम्मच के प्रवेश में भट्टारक जी ने अच्छा स्वागत किया।
यहाँ पर मैं ठहरी। भगवान का अभिषेक देखा, दर्शन किया और आहार किया। इधर दो-तीन दिन तक मैं ठहरी। एक दिन भट्टारक जी ने सभा में बालकों का कार्यक्रम रखा, कई बालकों ने भाषण किया।
कुछ बालक कन्नड़ भाषा में बोले, कुछ बालक मराठी में बोले, कुछ हिन्दी में बोले और कुछ बालक इंग्लिश में बोले-बहुत अच्छा लगा। इसके बाद मेरा आशीर्वाद प्रवचन हुआ मैंने भी कुछ हिन्दी में, कुछ कन्नड़ में, कुछ मराठी में और कुछ संस्कृत में उपदेश किया।
भट्टारक जी ने इसके बाद मेरे समक्ष तीन बालक खड़े किये और बताया कि मैंने इन्हें आगे श्रवणबेलगोल, मूडविद्री और हुम्मच इन तीन स्थानों के भट्टारक पद के योग्य निर्धारित किया है, आप इन्हें आशीर्वाद दीजिये।
मैंने उनकी बुद्धि की तीक्ष्णता को देखते हुए कुछ प्रश्न किये, उन बालकों ने अच्छे उत्तर दिये, संतोष हुआ। ये तीनों भट्टारक बन चुके हैं।
धर्मस्थल क्षेत्र दर्शन
इस कर्नाटक में ‘धर्मस्थल’ नाम से प्रसिद्ध एक स्थान है। यद्यपि यह कोई ‘तीर्थक्षेत्र’ नहीं है फिर भी यहां वीरेंद्र जी हेगड़े ने सन् १९८२ में एक विशालकाय लगभग ४० फुट ऊँची भगवान् बाहुबलि की प्रतिमा विराजमान करके प्रतिष्ठा करायी है अतः अब तीर्थ अवश्य बन गया है।
उस समय सन् १९६६ में वहाँ मैं संघ सहित पहुँची, तब श्रीमंदिर जी में ठहरी थी। यहां वीरेंद्र जी हेगड़े की माता मेरे पास आर्इं। मैं कुछ-कुछ कन्नड़ में बातचीत कर लेती थी अतः उनसे वार्तालाप हुआ पुनः वे अपने गृह चैत्यालय के दर्शनार्थ हम सभी को साथ ले गर्इं। वहाँ उनके चैत्यालय में एक चांदी का सहस्रदल कमल छोटा सा था।
उस पर चन्द्रप्रभ जिनप्रतिमा विराजमान थी। दर्शन कर बड़ा अच्छा लगा। हेगड़े की माता की गुरुभक्ति और धर्मप्रभावना अच्छी लगी। वहां की एक प्रसिद्धि यह है कि वहां मंजुुनाथ का एक मंदिर है, जिसमें हर एक जाति के लोग खूब चढ़ावा चढ़ाते हैं, खूब मनौती करते हैं अतः यहाँ पैसे का अतुल भंडार भरा रहता है। यहां के धर्माधिकारी हेगड़े जी हमेशा सदावर्त करते हैं। ‘‘जहां भोजन बनता रहे और जो भी आवे भोजन करता रहे, कोई बंधन न हो, उसे सदावर्त कहते हैं।’’
धर्मस्थल के इस सदावर्त की सन् १९५३-५४ में क्षुल्लिका विशालमती जी खूब प्रशंसा किया करती थीं। सो यहां आकर ऐसी सदावर्त परंपरा सुनकर मन बहुत प्रसन्न हुआ।
वैसे हेगड़े परिवार जैन है, फिर भी इनके यहाँ यह ‘मंजूनाथ’ का मंदिर कैसे बना? और इनके परिवार में यह परंपरा कबसे रही है? देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ।
मैंने विचार किया
‘‘यह हुंडावसर्पिणी का ही दोष है कि जहाँ अन्य धर्मों के आश्रित स्थल इतने प्रभावशाली, आकर्षक और महान बन गये हैं।
काश! यदि जैन धर्म के आश्रित आज कुछ ऐसे चमत्कार हों, ऐसे प्रभावशाली क्षेत्र हों और ऐसी सदावर्त की परंपरा चले, तो कितना अच्छा हो ।’’
इन्हीं भावनाओं को भाते हुए एक-दो दिन मैं वहां ठहरी पुनः विहार कर दिया।
सहस्रफणा पार्श्वनाथ
इधर से विहार करते हुए बीजापुर आ गई। यहाँ से निकट में बाबानगर पहुँची।
वहां भगवान पाश्र्वनाथ की सहस्रफणा मूर्ति के दर्शन कर बहुत ही प्रसन्नता हुई।
यह मूर्ति भी अतिशय प्राचीन है।
वर्षा से कठिनाई
इधर एक दिन छोटे गाँव में रात्रि में विश्राम था। वहाँ जैन के घर नहीं थे। वर्षा बहुत हो चुकी थी।
कुंआ कुछ दूर था। मार्ग में मिट्टी काली थी, चिकनी थी तथा गीली होने से फिसलन हो गई अतः ब्र. सुगनचंद जी आदि पानी भरने गये। वे लोग चिकनी मिट्टी में बहुत परेशान हुए।
इन लोगों ने मुझे तो कुछ बताया नहीं बल्कि ब्र. जी ने संघ में पत्र डाल दिया। उधर संघ में मुनिश्री अजितसागर जी ने पत्र पढ़ा, उन्हें लगा कि माताजी को इधर विहार में बहुत कष्ट हो रहा है अतः वे कुछ क्षण के लिए चिंतित हो उठे और अकस्मात् उनके मुख से कुछ शब्द निकल पड़े- ‘‘ओह! आज इस समय मैं अपनी मां की कुछ भी व्यवस्था आदि नहीं कर सकता हूँ ।’’
उसी क्षण पास बैठे हुए एक मुनिश्री ने इसका कारण पूछा, तब उन्होंने ब्र. सुगनचंद के पत्र का समाचार बताकर दुःख व्यक्त किया। यह बात मुझे जब मालूम पड़ी तब बहुत ही आश्चर्य हुआ। यहाँ से आगे विहार कर मैं सोलापुर आ गई।