दोहा
वर्तमान के बहुत विध, कष्ट स्वयं हो दूर।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भरपूर।।१।।
अथ प्रथमवलये मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
शेर छंद
जब मेघ अतीवृष्टि से भू जलमयी करें।
नदियों की बाढ़ में बहें जन डूबकर मरें।।
जो भक्त आप पूजतें वे पुण्य योग से।
अतिवृष्टि अपने देश से वे दूर कर सकें।।१।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि—उपद्रवनाशनसमर्थाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
निंह मेघ बरसते सभी जल के लिये तरसें।
पशु पक्षी मनुज प्यास से निज प्राण को तजें।।
मुनिसुव्रतनाथ आप की पूजा ही मेघ सम।
अमृतमयी जलवृष्टि से तर्पित करें जन मन।।२।।
ॐ ह्रीं अनावृष्टि—उपद्रवनाशनसमर्थाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दुर्भिक्ष हो अकाल हो असमय में जन मरें।
भगवन्! तुम्हारी भक्ति से जन पाप परिहरें।।
होवे सुभिक्ष सब तरफ जब पुण्य घट भरें।
तब मेघ भी समय समय वर्षा सुखद करें।।३।।
ॐ ह्रीं दुर्भिक्षोपद्रवनाशनकराय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
धन से भरी तिजोरियाँ ताले लगा दिये।
डाकू लुटेरे चोर आये लूट ले गये।।
बहु श्रम से कमाया गया धन हानि जो होती।
प्रभु भक्ति से हानी न हो धन रक्षणा होती।।४।।
ॐ ह्रीं चोरलुंटकादि—उपद्रवनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो राज्यकर के हेतु ही अधिकारी राज्य के।
छापा या टैक्स आदि से धन लूट ले जाते।।
इस विध से राज्य भय से घिरें निर्धनी बनें।
प्रभु के चरणकमल भजें फिर से धनी बनें।।५।।
ॐ ह्रीं आयकरादिराज्यभयोपद्रवनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नाना प्रकार श्रम करें फिर भी न धन बढ़े।
दारिद्र से उन सामने संकट बड़े बड़े।।
परिवार के पोषण में भी असमर्थ हो रहें।
मुनिसुव्रत पूजा करें धन सम्पदा लहें।।६।।
ॐ ह्रीं दारिद्रदु:खविनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
तनु में ज्वरादि रोग हो पीड़ाएँ हों घनी।
बहु औषधि लेते भी व्याधियाँ हो चौगुनी।।
भगवान मुनिसुव्रत की अर्चना करें।
ज्वर शूल आदि रोग को वे क्षण में परिहरें।।७।।
ॐ ह्रीं ज्वरशूलरोगादिनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जब पीलिया कुष्ठादि जलोदर भगंदरा।
नाना प्रकार रोग शोक हों भयंकरा।।
तुम नाम के जपे समस्त रोग नष्ट हों।
हे नाथ! आप भक्ति से जन पूर्ण स्वस्थ हों।।८।।
ॐ ह्रीं कामलाकुष्ठजलोदरभगंदरादिव्याधिनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध के नेत्र रोग हों अंधा करें यदि।
औषधि व शल्य चिकित्सा से हो न लाभ भी।
ऐसे समय में जो मनुष्य प्रभु शरण गहें।
हो नेत्र ज्योति स्वच्छ मन प्रसन्नता लहें।।९।।
ॐ ह्रीं नानाविधनेत्ररोगविनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो प्राण को भी घातती वैंसर महाव्याधी।
अति कष्टदायी वेदना से हो न समाधी।।
तब भक्त आप मंत्र को जपते जो भाव से।
सब वेदना व व्याधि भी भगती हैं देह से।।१०।।
ॐ ह्रीं प्राणघातिवैंसरमहाव्याधिविनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
हृदय रोग से पीड़ित मनुज न पावते साता।
बहुधन करें खर्चा परन्तु बढ़ती असाता।।
जिनराज पादकमल की लेते यदि शरण।
हों पूर्ण स्वस्थ नहीं हो अकाल में मरण।।११।।
ॐ ह्रीं हृदयरोगपीड़ानिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मुनियों की जो निन्दा करें घृणा करें कभी।
वे हों कुरूप नद्यरूप पावते तभी।
मन में सदा दु:खी रहें यदि आप को यजें।
होवें सुरूप कामदेव सर्वसुख भजें।।१२।।
ॐ ह्रीं कुरूपादिकष्टनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शंभु छन्द
स्त्री पुत्रादि स्वजन परिजन, जो अपने को अतिप्रिय होवें।
वे दूर बसें या मर जावें, तब इष्ट वियोग दु:खद होवे।।
उस समय चित्त संतप्त किये, रोते विलाप करते प्राणी।
होते प्रसन्न क्षण भर में ही, यदि मिल जावे प्रभु की वाणी।।१३।।
ॐ ह्रीं प्राणघातक—इष्टवियोगजदु:खनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शत्रु हों या प्रतिकूल स्वजन, भार्या आदिक शत्रुसम हों।
इनका वियोग वैसे होवे, ऐसी चिन्ता प्रतिक्षण मन हो।।
ऐसे अनिष्ट संयोगों से, संतप्त हृदय प्रतिदिन रोवे।
जिनवर की पूजा करने से, निश्चिन्त प्रसन्नमना होवें।।१४।।
ॐ ह्रीं अनिष्टसंयोगमहादु:खशातनाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
घर में या व्यापारों में भी, मन के प्रतिकूल क्रियायें हों।
मानस पीड़ा होवे प्रतिदिन, आकुलता हो व्याकुलता हो।।
प्रतिक्षण मन पीड़ा से तनु में, नानाविध रोग प्रगटता हो।
प्रभु की पूजा से आधि नशे, मन में अतिशय प्रफुल्लता हो।।१५।।
ॐ ह्रीं सर्वमानसिकतापविनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
वचनों से प्रिय भी वचन कहें फिर भी जन-जन अति क्रोध करें।
या जिह्वा में हो रोग विविध या गूँगे हों बहु दु:ख भरें।।
इस विधि वाचनिक कष्ट जो भी नश जाते प्रभुवर भक्ति से।
वचनसिद्धि मिले सब जन वश हों, पूजा का फल मिलता विधि से।।१६।।
ॐ ह्रीं सर्ववाचनिककष्टनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यह पुद्गल के परमाणु से निर्मित है काया अस्थिर है।
फिर भी इसमें कुछ पीड़ा हो आत्मा भी होता अस्थिर है।।
नानाविध कायिक कष्टों से छुटकारा पाते भाक्तिक जन।
हे नाथ! आपकी पूजा से सब मिट जाते जग के क्रन्दन।।१७।।
ॐ ह्रीं नानाविधकायिककष्टशातनाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो वायुयान से गगन गमन करते ऊपर में उड़ जाते।
यदि अकस्मात् दुर्घटना हो ऊपर से नीचे गिर जाते।।
प्रभु नाम जपें तत्क्षण ही तब तनु में किंचित् नहीं चोट लगे।
मरणान्तक पीड़ा से बचते, दीर्घायु हों दु:ख दूर भगें।।१८।।
ॐ ह्रीं सर्वलोहपथगामिनीदुर्घटनादिभयनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रेल में बैठे अतिशीघ्र बहुतेक कोश यात्रा करते।
यदि एक्सीडेंट आदि होवे तो आकस्मिक मृत्यु लभते।।
जिनराज भक्ति का ही प्रभाव ऐसी बहुविध दुर्घटनाओं में।
परिपूर्ण सुरक्षित बच जाते, या एक्सीडेंट टलें क्षण में।।१९।।
ॐ ह्रीं सर्वलोहपथगामिनीदुर्घटनादिभयनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बस कार आदि यात्रा साधन सुख देते आज सभी को भी।
संघट्टन आदि बहुत विध की दुर्घटनाएँ होती हैं फिर भी।।
यदि नाम मंत्र जपते उस क्षण दुर्घटना से बच जाते हैं।
यदि मरें कदाचित् फिर भी वे शुभ स्वर्ग सौख्य पा जाते हैं।।२०।।
ॐ ह्रीं सर्वचतुष्चक्रिकादुर्घटनादिसंकटमोचनाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो चलें तिपहिए, वाहनादि, उनके संघट्टन आदि विविध।
गिरने पड़ने से एक्सीडेंट, आदिक दुर्घटनाओं से नित।।
नाना आतंक दिखें जग में, प्रभु भक्ती से टल जाते हैं।
सब विध अकालमृत्यु टलती, भाक्तिक दु:ख से बच जाते हैं।।२१।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रिचक्रिकादुर्घटनादिकष्टनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो पहिये के साइकिल आदिक, वाहन से चलते अकस्मात्।
बस ट्रक आदिक के टक्कर से, गिर जाते बहुविध कष्ट प्राप्त।।
प्रभु नाम मंत्र के जपते ही, केचित् निंह चोट लगे तन में।
अपमृत्यु आदि भय टल जाते, मानव दीर्घायु हों जग में।।२२।।
ॐ ह्रीं सर्वद्विचक्रिकादुर्घटनातंकनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भूपर भूकंप कभी होता, बहुतेक मनुज मर जाते हैं।
घर ग्राम आदि भी नश जाते, बहुते पशु भी मर जाते हैं।।
प्राकृतिक कोप भूकम्प आदि दुर्घटनाएँ भी टल जाती हैं।
जो भक्त आपको जजते हैं, उनकी रक्षा हो जाती है।।२३।।
ॐ ह्रीं भूकम्पदुर्घटनानिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नदियों में बाढ़ यदि आवे, कितने ही ग्राम डूब जाते।
कितने नर नारी पशु पक्षी, जल में डूबे तब मर जाते।।
इन आकस्मिक जल संकट से, भाक्तिक जन ही बच सकते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु का ही प्रभाव, ये संकट भी टल सकते हैं।।२४।।
ॐ ह्रीं नदीपूरप्रवाहसंकटमोचनाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो नदी, समुद्र, नहर आदिक, में अकस्मात् गिर जाते हैं।
तुम नाम मंत्र जपते तत्क्षण, वे सहसा ही तिर जाते हैं।।
जिनदेव भक्ति की महिमा ही, भवसागर भी तिर सकते हैं।
प्रभु मुनिसुव्रत की भक्ती से, हम भी सब संकट हरते हैं।।२५।।
ॐ ह्रीं नदीसमुद्रादिपतनकष्टनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
बिच्छू आदिक विषधर जंतु, सर्पादिक काले नाग यदी।
हालाहल विष उगले डस लें, निंह बचा सकें कोई वैद्य यदी।।
ऐसे भय यदी भयंकर भी, जीवन नाशक आ जाते हैं।
मुनिसुव्रत जिनकी भक्ती से, निर्विष हो जीवन पाते हैं।।२६।।
ॐ ह्रीं वृश्चिकसर्पादिविषधरविषनिर्णाशनाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टापद व्याघ्र सिंह आदिक, हिंसक पशुओं ने घेरा हो।
जीवन बचने की आश न हो, संकट का घोर अंधेरा हो।।
भय से भयभीत हुए प्राणी, यदि नाममंत्र प्रभु का जप लें।
तत्क्षण ही क्रूर जन्तुगण भी, शांति भावों से मिलें जुलें।।२७।।
ॐ ह्रीं अष्टापदव्याघ्रसिंहादिक्रूरहिंसकजंतुभयनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हाथी, घोड़े, गौ, बैल आदि पशुगण यदि हमला करते हैं।
सींगों वाले भयभीत करें, दौड़ें मारें वध करते हैं।।
ऐसे प्राणीमात्र से भी नर, निंह बाधा किंचित् पाते हैं।
जो मन में चिंते प्रभूमंत्र, वे निर्भय हो बच जाते हैं।।२८।।
ॐ ह्रीं गजाश्वगोवृषभादिप्राणिगणभयविनाशकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाराच छंद
जो विषाक्त गैस पैलती शरीर नाशती।
मानवों पशुगणों के प्राण को संहारती।।
श्री जिनेन्द्रदेव के पदाब्ज की समर्चना।
सर्व गैस आदि कष्ट दूर होयं रंच मा।।२९।।
ॐ ह्रीं विषाक्तवाष्पक्षरणादिसंकटनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आज जो रसोईघर में गैसपात्र जल रहे।
जो कभी फटें व अग्नि से अनेक को दहें।।
प्राण कष्टदायी चुल्लिकादि दु:ख वारते।
जो जिनेन्द्र को जजें समस्त पाप टारते।।३०।।
ॐ ह्रीं वाष्पचुल्लिकादिदुर्घटनाकष्टनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आज बम फटें कहीं अनेक प्राणी मारते।
आत्मघाति लोग भी अनेक को संहारते।।
ग्राम सद्म भी बड़े बड़े ही बम गिरे नशें।
आप पाद पूजते समस्त आपदा नशें।।३१।।
ॐ ह्रीं बमविस्फोटकादि—आकस्मिकसंकटनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उग्रवादि लोग आज मानवों को मारते।
बेकसूर प्राणियों के प्राण को संहारते।।
मानसीक वेदना धरें अनेक नित्य ही।
नाम मंत्र आप का हरे अनेक भीति ही।।३२।।
ॐ ह्रीं आतंकवादिजनकृत्—आकस्मिकमरणादिभयविनाशकाय श्रीमुनि—
सुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आज जो दहेज की प्रथा महान घातिनी।
बालिकाओं का जनम हुआ है कष्ट की खनी।।
भारभूत जन्म भी सुधन्य धन्य लोक में।
आप नाम के जपे अपूर्व सौख्य दे घने।।३३।।
ॐ ह्रीं बालिकाजन्मकष्टनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मानसिक कष्ट देह व्याधि आदि दु:ख से।
कूप में गिरें विषादि खाय के मरा चहें।।
तुच्छ योनि हेतु आत्मघात है सुबुद्धि हो।
आप नाम के जपे हि पूर्ण आयु लाभ हो।।३४।।
ॐ ह्रीं कूपनदीपतनविषादिभक्षणनिमित्तापघातभावनिवारणाय श्रीमुनि—
सुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु हो अकाल में न पूर्ण आयु पा सकें।
कर्म की उदीरणा से बहुविधे निमित्त बनें।।
नाथ पाद को जजें अपूर्व पुण्य को भरें।
दीर्घ आयु हो यहाँ समस्त कष्ट को हरें।।३५।।
ॐ ह्रीं नानाविधदुर्घटनादिअकालमृत्युनिवारणाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूत औ पिशाच व्यंतरादि कष्ट दें घने।
डाकिनी व शाकिनी ग्रहादि भी निमित्त बनें।।
दु:ख हो पिशाचग्रस्त आप वश्य ना रहें।
नाथ पाद पूजते समस्त कष्ट को दहें।।३६।।
ॐ ह्रीं भूतपिशाचव्यंतरादिबाधानिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौबोल छन्द
कचित् श्रम से धन ही धन हो, सब व्यापार सफल होते।
पुण्य उदय से हों उद्योगपति, सब जन—जन के प्रिय होते।।
जिन पूजा का ही माहात्म्य, जो धन से घर भण्डार भरें।
भाक्तिक जन प्रभु पूजा कर, शीघ्र स्वात्मनिधि प्राप्त करें।।३७।।
ॐ ह्रीं बहुविधव्यापारसफलताकारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
गृहलक्ष्मी अनुकूल रहे, पतिव्रत से घर को मोहे।
पति की अनुगामी बन करके, दान धर्म से नित सोहे।।
ऐसी पत्नी मिलती जिसको, वे पुण्यात्मा कहलाते।
मुनिसुव्रत प्रभु पूजा का फल, इस भव परभव में पाते।।३८।।
ॐ ह्रीं उभयकुलकमलविकासिनीधर्मपत्नीप्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीमुनि—
सुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुत्र पौत्र संतति मिलती नित, कुलदीपक संतान मिले।
मात पिता की कीर्ति बढ़ाकर, धर्मनिष्ट हों स्वस्थ भले।।
भरत, बाहुबलि, राम सदृश सुत, ब्राह्मी सीता सम कन्या।
मुनिसुव्रत तीर्थंकर को नित, पूजत पाते जगवंद्या।।३९।।
ॐ ह्रीं पुत्रपौत्रादिकुलदीपकसंततिप्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीर्घ आयु पाते वे भविजन, जो प्रभु चरण कमल जजते।
अशुभ भाव से दूर रहें नित, जिनवर के गुण में रमते।।
मनुज देव योनी को पाते, सम्यग्दर्शन महिमा से।
अत: जजूँ मैं भक्तिभाव से, उत्तम आयु मिले जिससे।।४०।।
ॐ ह्रीं दीर्घायु:प्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चारों ओर पैलती कीर्ति, सद्गुण से निज को भरते।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित से आत्मा को शोभित करते।।
कई जन्म के पुण्य योग से, ऐसा योग सुलभ होवे।
मुनिसुव्रत की पूजा करते, यश सौरभ प्रसरित होवे।।४१।।
ॐ ह्रीं चतुर्दिव्कीर्तिसौरभव्यापकपुण्यप्रापकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राजमान्यता प्राप्त करें सब, जन जन के अति प्रिय होते।
सब जन उनके गुण गाते ऐसी महिमा से खुश होते।।
जिनवर भक्ती का प्रभाव यह, सब जन संतर्पित करते।
और अधिक क्या जिनभक्ति से, तीर्थंकर भी बन सकते।।४२।।
ॐ ह्रीं राज्यमान्यतादिप्रशंसनगुणप्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन जन भी आज्ञा पालें, ऐसी गरिमा को पाते हैं।
इस भव में इन्द्रादि सदृश, अतिशायी वैभव पाते हैं।।
ये सब मुनिसुव्रत पूजन का, उत्तम फल जग में माना।
भक्त बने भगवान स्वयं, ऐसा आश्चर्य जगत जाना।।४३।।
ॐ ह्रीं आज्ञापालनविभवप्रदायकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अंत समय में रोग वेदना, आर्तरौद्र दुर्ध्यान न हों।
क्रोध मान माया लोभादिक, राग द्वेष दुर्भाव न हों।।
देव शास्त्र गुरु पंचपरम गुरु इनका ही बस ध्यान प्रभो।
महामंत्र का मनन श्रवण हो, अंत समाधी मरण प्रभो।।४४।।
ॐ ह्रीं अन्त्यसमाधिमरणफलप्रदाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ये, रत्नत्रय शिवदाता हैं।
निश्चय औ व्यवहार मार्ग ये, परमानन्द विधाता हैं।।
मुनिसुव्रत तीर्थंकर प्रभु की, भक्ति करें जो भव्य सदा।
वे ही तीन रत्न पा लेते, त्रिभुवन लक्ष्मी लें सुखदा।।४५।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयप्रदायकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमा सुमार्दव आर्जव, शौच सत्य संयम तप भी।
त्याग अकिंचन ब्रह्मचर्य ये, दशवर धर्मधरें यति ही।।
इन धर्मों को पाते वे ही, जो जिनपूजा नित करते।
मुनिसुव्रत के चरणकमल की, भक्ति से शिवपद लभते।।४६।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशधर्मप्रदायकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि विनय आदि, सोलह सुभावना मानी हैं।
तीर्थंकर पद की जननी ये, सर्वश्रेष्ठ जिनवाणी हैं।।
तीर्थंकर पदकमल चर्चते, सदा भावना भाते हैं।
तीर्थंकर प्रकृति को बांधे, त्रिभुवनपति बन जाते हैं।।४७।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिसोलहकारणभावनाफलप्रदाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहिरात्मा अन्तरात्मा परमात्मा जीव त्रिविध मानें।
स्वपर भेदविज्ञानी मुनिवर, शुद्धात्मा को पहचानें।।
सतत ध्यान कर शुद्ध बनें वे, जो जिनचरणकमल षट्पद।
निजशुद्धात्मतत्त्वप्राप्ती हितु, मैं भी नित्य जजूँ जिनपद।।४८।।
ॐ ह्रीं अन्तरात्मस्वरूपनिजशुद्धात्मध्यानकारिपदप्रदाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य—शंभु छंद
अतिवृष्टि अनावृष्ट्यादि कष्ट, जो मानव को दु:ख देते हैं।
श्री मुनिसुव्रत की पूजा से, भविजन सब दु:ख को मेटे हैं।।
नीरोग बनें दीर्घायु हों, सब सुख सम्पत्ति भर लेते हैं।
यह जिनपूजन का ही प्रभाव, बहुयश सौरभ को देते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि—अनावृष्ट्यादि—विविधसंकटनिवारकाय श्रीमुनिसुव्रतनाथ—
तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।