सम्यक्त्ववंत महंत चारण ऋद्धिमंत मुनीश्वरा।
आकाश जल थल में सदा विचरण करें ऋद्धीधरा।।
उन योगियों अरु ऋद्धियों की मैं यहाँ अर्चा करूँ।
आह्वानन कर थापूँ यहाँ मन में सहज श्रद्धा धरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सुरगंगा का शुचिनीर, तनुमल शुद्ध करे।
मिल जावे भवदधि तीर, मुनि पद धार करें।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।१।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचनद्रव सम शुचिगंध, तन की ताप हरे।
ऋषिचरण सरोरूह चर्च, भव संताप हरें।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।२।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि रश्मि सदृश सित धौत, तंदुल गंध भरे।
अक्षय आतम सुख हेत, तुम ढिग पुंज धरें।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।३।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
अरविंद कुमुद मचकुंद सुरभित मन भावें।
मदनारिजयी पदकंज, पूजत हरषावें।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।४।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर बरफी पकवान, ताजे थाल भरें।
हो स्वात्म सुधारस पान, तुम ढिग भेंट धरें।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।५।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक जगमग ज्योति, तम अज्ञान हरे।
पूजत मुनिचरण सरोज, मन की भ्रांति टरे।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।६।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु धूप सुगंध, खेवत धूम्र उड़े।
गुरुपद पंकज की भक्ति, करते सौख्य बढ़े।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।७।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला एला बादाम, उत्तम सरस लिये।
मिल जावे निज सुख धाम, तुम पद अर्प्य किये।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।८।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसुविधि शुभ अर्घ बनाय, तुम पद मैैं पूजूँ।
रत्नत्रय निधि को पाय, संकट से छूटूँ।।
चारण ऋद्धी नवभेद, परमानंद करें।
जो पूजें भक्ति समेत, नवनिधि ऋद्धि भरें।।९।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारणऋद्धि समूह को जलधारा से नित्य।
पूजत ही शांती मिले, चउसंघ में भी इत्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बकुल कमल बेला कुसुम, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
श्रीमुनिवर गुणवान, अनुपम सुख की खान हो।
मैं पूजॅूं धर ध्यान, पुष्पांजलि करके यहाँ।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
जिस ऋद्धि बल से मुनिवरा आकाश में भी चल रहे।
बैठे लगा आसन चलें या कायोत्सर्ग से चल रहे।।
इस नभस्तलगामित्च ऋद्धि को जजूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट दूर हों गुरु छांव से।।१।।
ॐ ह्रीं नभस्तलगामित्वचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल में चलें जलकाय जन्तू, घात नहिं होवे वहाँ।
यह ऋद्धि अतिशय दयाधारी मुनी पा सकते यहाँ।।
इस नीर चारणक्रिया ऋद्धी को जजॅूं नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संकट दूर हों गुरु छांव से।।२।।
ॐ ह्रीं जलचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो चार अंगुल भूमि तजकर अधर ही नभ में चलें।
घुटने बिना मोड़े खड़े ही ऋद्धि के बल से चलें।।
इस ऋद्धि जंघाचारणी को मैं जजूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट दूर हों गुरु छांव से।।३।।
ॐ ह्रीं जंघाचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वन के फलों पर पुष्प पत्तों पर चरण धर के चलें।
इस ऋद्धि से नहिं जीव को पीड़ा कभी हो सुख भले।।
फलपुष्प पत्र सु चारिणी ऋद्धी जजूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट दूर हों गुरु छांव से।।४।।
ॐ ह्रीं फलपुष्पपत्रचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नी शिखा पर चलें बाधा जीव को नहिं रंच हो।
जो धूयें का अवलंब कर अस्खलित पग चलते अहो।।
यह अग्नि धूम सुचारणी ऋद्धी जजूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट दूर हों गुरु छांव से।।५।।
ॐ ह्रीं अग्निधूमचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मेघ पर भी चलें अप्कायिक दया से पूर्ण हैं।
बहु मेघ जलधारा बरसतीं पर चलें व्रत पूर्ण हैं।।
यह मेघधारा चारणी ऋद्धी जजूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट दूर हों गुरु छांव से।।६।।
ॐ ह्रीं मेघधाराचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मकड़ियों के तंतु पर अत्यंत हल्के पग रखें।
अति शीघ्र कर जावें गमन, बाधा न हो कुछ जंतु के।।
इस तंतुचारण ऋद्धि को मैं पूजहूँ नित भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट दूर हों गुरु छांव से।।७।।
ॐ ह्रीं तंतुचारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूर्य चंद्र सुतारका नक्षत्र ग्रह की किरण का।
अवलंब् लेकर गमन करते बहुत योजन भी सदा।।
यह ऋद्धि ज्योतिषचारिणी मैं नित्य पूजूँ भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट दूर हों गुरु छांव से।।८।।
ॐ ह्रीं ज्योतिश्चारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धि से मुनि वायु पंक्ती, के सहारे चल सकें।
अस्खलित पद विक्षेप करते, बहुत कोशों चल सकें।।
यह ऋद्धि वायूचारणी, मैं नित्य पूजूँ भाव से।
सब रोग शोक दरिद्र संंकट, दूर हों गुरु छांव से।।९।।
ॐ ह्रीं मरुच्चारणक्रियाऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाश में जल में व भू पर पुष्प फल पत्रादि पर।
चलते ऋषीश्वर ऋद्धि बल से अग्नि लौ के भी उपर।।
ये योगिगण हमको शरण दें भक्तवत्सल जान कर।
हम पूजते उन साधु को नव रिद्धि को शुचि भाव धर।।१०।।
ॐ ह्रीं नवविधचारणक्रियाऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं चारणऋद्धिभ्यो नम:।
चारणऋद्धि समेत ऋषि, नमूूँ नमूँ नत भाल।
गाऊँ गुणमाला अबे, हे गुरु करो निहाल।।१।।
गुरुवर! काल अनादी से, मैं इस भव वन में भटक रहा।
अब तक काल अनंतानंते, बीत गया अब श्रांत हुआ।।
नाथ! निगोद राशि में मैंने, एक श्वांस में अठ दश बार।
जन्म मरण बहु किये वहाँ पर, काल बिताया अमित अपार।।२।।
जैसे तैसे भू जल वायू, अग्निकाय में जन्म लिया।
वनस्पती के सुंदर-सुंदर, तन धर धर मैं भ्रमण किया।।
सुभग कर्म से जुही केतकी, कमल गुलाब सुपुष्प हुआ।
अगणित विध के लता वृक्ष औ, पत्रांकुर तन प्राप्त किया।।३।।
कहीं कदाचित् चिंतामणि सम, त्रस पर्याय मिली भगवन्।
वहाँ शंख केंचुआ बिच्छू खटमल मक्खी मच्छर बन बन।।
कभी हुआ पंचेन्द्रिय प्राणी, हाथी घोड़ा अज भैंसा।
कर्म उदय से भूख प्यास, आतप आदिक दुख से रोता।।४।।
सिंह व्याघ्र सर्पादि पशू हो, निबल जंतु के प्राण लिये।
कभी निबल हो बहु दुख भोगे, पशु पक्षी तन धार नये।।
कहूँ कहाँ तक गया नरक में, वहाँ परस्पर घात प्रहार।
आरे से चीरें तन फाड़ें, तपे तेल में देते डार।।५।।
कुंभीपाक पकाते तन को, मुग्दर से मारें चूरें।
वैतरणी औ सेमरतरु के, दु:ख अनंंते भरपूरे।।
हाहाकार करूण क्रंदन कर, रोया नाथ! बहुत विलखा।
वहाँ न कोई रक्षक मेरा, सभी दु:ख इकला सहता।।६।।
मनुजगती में दीन दरिद्री, हीन अंग हो दुखी हुआ।
इष्ट वियोग, अनिष्ट योग से, शोकातुर हो रुदन किया।।
कुछ शुभ संचित यदी किया मैं, देवगती में जन्म लिया।
देख देख वैभव अन्यों का, मन के दुख से दुखी हुआ।।७।।
मरते क्षण संक्लेश भाव धर, एकेन्द्रिय में कूद गया।
पुन: उसी विध पंच परावर्तन सागर में डूब गया।।
कहूँ कहाँ तक नाथ! कहानी, बहुत पुरानी बहुत बड़ी।
तुम तो सभी जानते भगवन्! शरण लिया मैं धन्य घड़ी।।८।।
अब मैंने सम्यक् निधि पाई, भव भ्रमणों का अंत किया।
तुम सम ही मैं भी हूूँ भगवन्! ज्ञान स्वरूपी जान लिया।।
अनंत दर्शन ज्ञान ज्योतिमय, अनंतसुख शक्तीशाली।
कर्मों ने ही प्रभु तुम मुझमें, अंतर डाल दिया भारी।।९।।
तुम त्रिभुवनपति न्याय धुरंधर, ऐसा सुन मैं शरण गही।
दुष्ट कर्म को शीघ्र निकालो, मेरी रक्षा करो सही।।
हे प्रभु! बोधि समाधी देवो, मम परिणाम विशुद्ध करो।
मेरी रत्नत्रय संपत्ती, मूझको दे संतुष्ट करो।।१०।।
मैं नित पूजूँ साधु, गणधर चरण सरोज को।
‘‘ज्ञानमती’’ निधि साध, ऋद्धि सिद्धि पाऊँ स्वयं।।
ॐ ह्रीं नावविधचारणऋद्धिभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।