-स्थापना-गीताछंद-
इस जंबूद्वीप विदेह में, बत्तिस विदेह कहावते।
उनमें निरंतर काल चौथा, ही रहे मुनि गावते।।
होते वहाँ पर तीर्थकर, केवलि मुनिगण सर्वदा।
उन सर्व को मैं पूजहूँ, आह्वान विधि करके मुदा।।१।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं-भुजंगप्रयात छंद
मुनी चित्त सम स्वच्छ जल को लिया है।
प्रभू पाद में तीन धारा किया है।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।१।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घिसा गंध कर्पूर मिश्रित किया है।
प्रभू चर्ण में चर्च समसुख लिया है।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।२।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: चन्दनंं निर्वपामीति स्वाहा।
पयोराशि के फेन समश्वेत शाली।
धरूँ पुंज सन्मुख बनूँ भाग्यशाली।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।३।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्यः अक्षतंं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही मोगरा कंद की माल लेके।
चढ़ाऊँ तुम्हें स्वात्म सुख आश लेके।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।४।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जलेबी इमरती भरे थाल लाऊँ।
महातृप्तिकर आप चरणों चढ़ाऊँ।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।५।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: नैवेद्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की बाह्य का ध्वांत नाशे।
करूँ आरती ज्ञान की ज्योति भासे।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।६।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जले धूप अग्नी विषे गंध पैले।
जले कर्म वो जो सदा हैं विषैले।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।७।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
पनस आम अंगूर गुच्छे भले हैं।
तुम्हें अर्पते सत्फलों को फले है।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।८।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: फलंं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादी मिला अर्घ्य चरणों चढ़ाऊँ।
निजात्मीक संपत्ति मैं शीघ्र पाऊँ।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।९।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपसंबंधिद्वािंत्रशत्विदेहक्षेत्रस्थतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लिया नीर प्रासुक करूँ शांतिधारा।
सदा शांति होवे मिले भव किनारा।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
करूँ पुष्प अंजलि, जुही मोगरा ले।
भरूँ सौख्य संपति, जगत में निराले।।
जजूँ तीर्थकर आदि पद पंकजों को।
मिटाऊँ सभी जन्म के संकटों को।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(३२ ² ७ · २२४ अर्घ्य)
—दोहा—
बत्तिस देश विदेह में, बत्तिस आरजखंड।
तीर्थंकर जिन मुनि सभी, जजूँ हरूँ भवफंद।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शंभु छंद—
कच्छा विदेह के आर्यखंड, में क्षेमा नगरी रजधानी।
उस शाश्वत कर्मभूमि में नित, तीर्थंकर होते शिवगामी।।
जो कालअनादि से अब तक,आगे भि अनंतों कालों तक।
हो चुके हो रहे होवेंगे, उन तीर्थकरों को पूजूँ नित।।१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे क्षेमानगर्यां भूतभविष्यत्वर्त—
मानत्रैकालिकसर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस नगरी में सामान्य केवली, जितने भी हो चुके वहाँ।
हो रहे तथा जो होवेंगे, शतइन्द्रों से भी वंद्य वहाँंंं।।
उनके दर्शन वंदन पूजन से, कर्मकालिमा धुलती है।
निजपरमानंद सुधारसमय आध्यात्मिक ज्योति खिलती है।।२।।
श्री ह्रीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसामान्यकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के गणधर अगणित,अब तक भि अनंतों मुक्ति गये।
जो वर्तमान हैं आगे भी, होवेंगे वे जगवंद्य हुये।।
सब गणधर सात ऋद्धिधारी, मनपर्यय ज्ञानी होते हैें।
उनको पूजूँ मैं अर्घ चढ़ा, वे भव भव का मल धोते हैं।।३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे क्षेमानगर्यां त्रैकालिक—
गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारह सुअंग चौदह पूरब के, पाठी श्रुतकेवलि माने।
उस आर्यखंड में हुये हो रहे, होवेंगे मुनि परधाने।।
श्रुतज्ञान नेत्र से वे त्रिभुवन, अवलोकन करने वाले हैं।
उनकी पूजा हम नित्य करें, वे भवदुःख हरने वाले हैं।।४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आचार्य उपाध्याय साधु तथा,ऋषिमुनियति औ अगनार कहे।
ये सर्व तपोधन त्रिभुवन में, वंदित दिक्अंबर धार रहे।।
इनमें बहुतेक ऋद्धिधारी, सामान्य मुनि भी जितने हैं।
उन सब त्रैकालिक को पूजूँ, उनको सुरगण भी प्रणमें हैं।।५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिक-आचार्योपाध्याय—
सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के गर्भावतार जन्मोत्सव, तप औ ज्ञानभूमि।
निर्वाणभूमि ये पांच कल्याणक, की सब हैं पावनभूमि।।
सामान्यकेवली ऋषिमुनि की, तप ज्ञान तथा निर्वाणभूमि।
उन सबको पूजूँ अर्घ्य चढ़ा, हों जितनी वहाँ अतिशय भूमि।।६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थंकराणां
पंचकल्याणकस्थलसामान्यकेवलिऋषिमुन्यादिकस्य तपोज्ञाननिर्वाणस्थल—
अतिशयस्थलादिसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कच्छाविदेह के मध्य रजतगिरि,उसमें पहली कटनी पर।
दोनों भागों में इक सौ दस, विद्याधर नगर बने सुन्दर।।
उन सबमें सतत केवली मुनि,चारण ऋषिगण भी रहते हैं।
उन सबको पूजूँ अर्घ चढ़ा, वे निज पर शुद्धि करते हैं।।७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतप्रथमश्रेण्युभय—
पार्श्वयो: दशोत्तरशतनगरीषु शाश्वतकर्मभूमिषु निरंतरविहरमाणत्रैकालिक—
सर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है देश सुकच्छा आर्यखंड, मधि क्षेमपुरी नगरी जानो।
उसमें नित होते तीर्थंकर, वहाँ शाश्वत कर्मभूमि मानो।।
वे सब त्रैकालिक तीर्थंकर, जो कहे अनंतानंत वहाँ।
उन सबकी पूजा करने से, हो सब पापों का अंत यहाँ।।८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे क्षेमपुरीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस नगरी में सामान्य केवली, हुये हो रहे होवेंगे।
उन सबको वंदन करते ही, मेरे सब दुष्कृत धोवेंगे।।
इस भरतक्षेत्र के चारणऋषि, वहाँ पर जाकर दर्शन करते।
हम भक्ति-भाव से यहीं आज, पूजा करके संकट हरते।।९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वसामान्य—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के गणनायक भी, त्रैकालिक कहे अनंते भी।
उन सबको नमस्कार मेरा, मेरे दुःख का हो अंत अभी।।
इन गणधर की सुन दिव्यध्वनि, मुनिगण भी प्रमुदित होते हैं।
हम इनको अर्घ चढ़ाते ही, तन मन से पुलकित होते हैं।।१०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतकेवलि अंगपूर्व धारी, ये वहाँ सदा ही होते हैं।
केवलि समान ये मुनिगण भी, सब त्रिभुवन को अवलोके हैं।
बस अंतर केवल इतना ही, इनका श्रुतज्ञान परोक्ष रहे।
केवलि प्रभु का प्रत्यक्ष रहे, इन श्रुतकेवलि को प्रणमन हो।।११।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आचार्य उपाध्याय सर्व साधु, निज निजगुण से महिमाशाली।
ये वहाँ निरंतर होते हैं, शिवपथगामी गरिमाशाली।।
इनमें बहुऋद्धी युत मुनिगण, निर्ग्रंथ दिगम्बर साधूगण।
इन सर्व साधु को मैं पूजूँ, जितने भी त्रैकालिक यतिगण।।१२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो गर्भजन्म तप ज्ञान और, निर्वाण कल्याणक भूमि कहीं।
सामान्य केवलि औ मुनिगण, इनसे भी पावन भूमि वहीं।।
जो अतिशय क्षेत्र अन्य कुछ भी, तीनों कालों के माने हैं।
उन सबको अर्घ चढ़ा करके, हम सर्व अमंगल हाने हैं।।१३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वपंच—
कल्याणकक्षेत्रअन्यपावनक्षेत्रअतिशयक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस देश सुकच्छा के मधि है, विजयार्द्ध उसी की कटनी पर।
दोनों भागों में विद्याधर की, इक सौ दस नगरी सुन्दर।।
उनमें केवलि श्रुतकेवलि औ, आकाशगमन वाले मुनिगण।
सामान्य साधुगण नित विचरें, उनकी पूजा सुख यशमंडन।।१४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुकच्छादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य उभय—
विद्याधरश्रेणीषु दशोत्तरशतैकनगरीणां त्रैकालिककेवलिसर्वसाधुभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
है देश महाकच्छा विदेह, उस आर्यखंड के ठीक बीच।
विख्यात अरिष्टा नगरी में, तीर्थंकर होते जगत ईश।।
उन त्रयकालिक तीर्थंकर को, प्रणमूँ मैं भक्ति भाव पूर्वक।
निज आत्मानंद स्वभावी मुनि, उनको नित ध्याते रूचिपूर्वक।।१५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अरिष्टानगर्यां त्रैका—
लिकसर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इसमें सामान्य केवली भी, अगणित नित होते रहते हैं।
वे कर्म अरी को दूर भगा, निज की सुख संपत्ति वरते हैं।।
उनका रुचि से वंदन करते, निज केवल ज्ञान प्रगट होता।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, जिनभक्ति ही भवदधि नौका।।१६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वसामान्य—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब तीर्थंकर के गणनायक, मनपर्यय ज्ञानी होते हैं।
ये दिव्यध्वनि को सुनकर के, भविजन संबोधित करते हैं।।
वे विघ्न निवारक मंगलकर, सब दुख दारिद को हरते हैं।
इनकी पूजा भक्ति करके, हम सर्व व्याधि को हरते हैं।।१७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादश अंगों के पारंगत, श्रुतकेवलि महामुनी माने।
श्रुतज्ञान चक्षु से ये मुनिगण, सारे त्रिभुवन को पहिचानें।।
ये आत्म सुधारस आस्वादी, इनकी जो पूजा करते हैं।
वे आतम अनुभव रस पीकर, शिव रमणी को वश करते हैं।।१८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरी पाठक साधूगण सब, जिनकल्पी स्थविरकल्पी मुनि हैं।
ये वहाँ निरंतर होते हैं, निज आत्म तत्त्व के ज्ञानी हैं।।
इनके चरणों की भक्ति से, निजज्ञान सूर्य प्रकटित होगा।
रत्नत्रय की पूर्ति होगी, शिवपुर विश्राम तभी होगा।।१९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वाचार्योपा—
ध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के शुभ गर्भ जन्म, तप ज्ञान और निर्वाण पांच।
कल्याणक उत्सव इंद्र करें, उनसे पवित्र भू तीर्थराज।।
उन सब कल्याणक तिथियों की, कल्याणकभू तीर्थस्थल की।
मैं नितप्रति पूजा करता हूँ, मुझको मिल जावे सिद्धगति।।२०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे सर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस देश महाकच्छा के मधि, रजताचल की कटनी ऊपर।
इक सौ दश विद्याधर नगरी, उन सबमें विहरें साधु प्रवर।।
केवलि श्रुतकेवलि ऋद्धियुत, मुनिगण वहाँ संतत रहते हैं।
हम उनको अर्घ्य चढ़ा करके, बहु रोग शोक दुख हरते हैं।।२१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहाकच्छादेशविदेहमध्यरजताचलस्य विद्याधरश्रेणीषु
केवलिश्रुतकेवलिऋषिमुनियति—अनगारेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कच्छावति देश विदेह मध्य, आरजखंड बीच अरिष्टपुरी।
इस नगरी में हों तीर्थंकर, जो धर्मतीर्थ के हैं चक्री।।
उन भूतभावि औ वर्तमान, तीर्थंकर को वंदन करके।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, वे भक्तों को निजसम करते।।२२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अरिष्टपुरीनगर्यां
त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस नगरी में केवलज्ञानी, जितने भी संप्रति होते हैं।
हो चुके हैं तथा आगे होंगे, वे सब भवदधि के सेतु हैं।।
उन सब शिवगामी मुनियों को, उन गंधकुटी को नमस्कार।
हम उनको अर्घ चढ़ाते हैं, वे हमें करें भवसिंधु पार।।२३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलि—
भ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के गणधर अगणित, जो समवसरण के भूषण हैं।
जिन बिन दिव्यध्वनि नहीं खिरे, जो अतिशय गुण से पूरण हैं।।
उन सब त्रैकालिक गणनायक, गणधर परमेष्ठी को वंदूँ।
नित अर्घ चढ़ा करके प्रणमूँ, सब आधि व्याधि दुख को खंडूँ।।२४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतज्ञानी सब श्रुुत पारंगत, मुनिवर श्रुतकेवलि कहलाते।
ये निश्चित ही शिवगामी हैं, कतिपय भव से ही तर जाते।।
ऐसे श्रुतगामी को वंदन, मेरा श्रुतज्ञान विकास करो।
मैं भक्ति भाव से नित पूजूँ, मेरे भव दुख का नाश करो।।२५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आचार्य उपाध्याय साधूगण, सब नग्न दिगबंर होते हैं।
ये अर्हन्मुद्रा के धारी, त्रिभुवन से पूजित होते हैं।।
इनके चरणों की पूजा से, निज में चारित्र प्रगट होता।
जो परमामृत से तृप्तीकर, सब द्रव्य भावमल को धोता।।२६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वाचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के कल्याण पाँच, जो इंद्र मनाया करते हैं।
अगणित केवलियों से पावन, स्थान तीर्थ भी बनते हैं।।
ये तीर्थक्षेत्र सब भव्यों को, भवदधि से तारन हारे हैं।
हम सब उनको नित प्रति पूजें, वे पावन करने वाले हैं।।२७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे सर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस कच्छावति के ठीक बीच, लंबा विजयार्ध गिरी सुन्दर।
उसकी पहली कटनी पर ही, इक सौ दश शाश्वत बने नगर।।
उनमें विद्याधर मनुज रहें, वे मुनिपद धर तप तपते हैं।
केवलि श्रुतकेवलि हो जाते, हम उन सबको नित यजते हैं।।२८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकच्छकावतीदेशविदेहमध्यरजताचलस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिऋषिमुनियत्यनगारसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
आवर्ता देश विदेह कहा, उसमें आंरजखंड शाश्वत है।
उनके मधि है खड्गा नगरी में तीर्थंकर धर्मतीर्थ पति हैं।।
उन त्रयकालिक तीर्थंकर की, पूजा भक्ती अर्चा करते।
निज परमाह्लाद प्रगट होता, जिनके बल पूर्ण सुखी बनते।।२९।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे खड्गानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो केवलज्ञान प्रगट करते, भव्यों को मार्ग दिखाते हैं।
उनकी भक्ति से मुनिगण भी, निज में ही निज को ध्याते हैं।।
उन सब केवलीज्ञानी प्रभु की, हम अर्चा पूजा करते हैं।
निज आत्म तत्त्व को प्राप्त करें, बस यही प्रार्थना करते हैं।।३०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशगण के नायक गणधर, सब समवसरण में रहते हैं।
तीर्थंकर प्रभु के प्रमुख शिष्य, ये ऋद्धि समन्वित रहते हैं।।
इनकी पूजा सब विघ्नों का, संहार करे दुख नाश करे।
सब ऋाfद्ध सिद्धि नव निधि देकर, भक्तों की पूरी आश करे।।३१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतिंसधु पारंगत श्रुतज्ञानी , द्वादश अंगों के हैं ज्ञाता।
इनकी पूजा से भव्यजीव, निजपर के हों सम्यक ज्ञाता।
चारणऋद्धि से युत मुनिगण, वे भी इन मुनि को भजते हैं।
हम इनको अर्घ चढ़ा करके, निज आतम सुख को चखते हैं।।३२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउविधसंघ के नेता सूरी, औ पढ़ें पढ़ावें उपाध्याय।
जो आत्म साधना में रत हैं, वे साधु कहाते स्वात्मध्याय।।
ये रत्नत्रयनिधि के स्वामी , हम इनकी अर्चा करते हैं।
मेरा रत्नत्रय पूर्ण करो, यह ही अभिलाषा रखते हैं।।३३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिक-आचार्योपाध्यायसर्व—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पंच कल्याणक भूमि वहाँ पर, आर्यखंड में मानी हैं।
जो अन्य मुनिश्वर की तप ज्ञान, मोक्ष भूमि भी मानी हैं।।
उन सबकी पूजा करने से, मेरा मन निर्मल होवेगा।
निज में निज को पा जाने से, परमात्मा प्रगटित होवेगा।३४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे तीर्थंकर—अन्यमुनिआदि—
कस्य त्रैकालिकतीर्थक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्वता देश मध्य शोभे, विजयार्ध गिरी त्रयकटनीयुत।
पहली कटनी पर विद्याधर के, नगर बने हैं इक सौ दश।।
उनमें नित चौथा काल रहे, अतएव सदा मुनि रहते हैं।
केवलिश्रुतकेवलि मुनिगण को, हम नित प्रति वंदन करते हैं।।३५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थ—आवर्तादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिककेवलिश्रुतकेवलिऋषिमुनियत्यनगारसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ देश लांगलावर्ता है, उसमें इक आर्यखंड उत्तम।
तीर्थंकर चक्री नारायण, प्रतिनारायण बलदेवोत्तम।।
ये पुरुष शलाका वहाँ नित्य, मंजूषा नगरी में होते।
जो धर्मतीर्थ के तीर्थंकर, उनको पूजें हम नत होके।।३६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे मंजूषानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वहाँ आर्यखंड में संतत ही, केवलज्ञानी भगवान बने।
उन सबकी गंधकुटी रचना, सुरगण करते प्रभु को प्रणमें।।
वे परमानंद अमृत पीकर, आत्मा को पूर्ण सुखी करते।
हम उनको अर्घ चढ़ा करके, पूजत ही निजसंपत्ति लभते।।३७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब गणधर चौंसठ ऋद्धि धरें, चारों ज्ञानोें के धारी हैं।
इन बिन नहिं द्वादशांग वाणी, जो भव्यों को कल्याणी है।।
उन गणधर गुरु को हम पूजें, वे भव्यों के रक्षक माने।
उनकी पूजा से सब सुख हो, सब मंगल हो यह सरधाने।।३८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व—
गणधरचरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूर्वों के ज्ञाता गुरु , श्रुतकेवलि अगणित होते हैं।
वे निज से निजमें निज को ही, ध्याध्याकर प्रमुदित होते हैं।।
उन आत्मरसास्वादी मुनि की, हम नितप्रति अर्चा करते हैं।
निज आत्मसुधारस मिल जावे, यह ही अभिलाषा करते हैं।।३९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहक्षेत्रार्र्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषि मुनि यति औ अनगार भेद, निर्ग्रंथ साधु के माने हैं।
आचार्य उपाध्याय साधू से, इनमें ही भेद बखाने हैं।।
ये निज आत्मा के आराधक-साधक हैं सच्चे साधू हैं।
हम इनको पूजें अर्घ चढ़ा, ये निजसमतारस स्वादी हैं।।४०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व—
आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके गर्भावतार आदि, कल्याणक पाँच कहे जाते।
वे तीर्थंकर निज पदरज से ही, भू पर्वत तीर्थ बना देते।।
अगणित मुनिगण भी तप करके, निर्वाण धाम को पाते हैं।
उनसे पवित्र सब क्षेत्रों को, हम रुचि से अर्घ चढ़ाते हैं।।४१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरै:
अन्यमुनिगणैश्चपवित्रतीर्थक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस लांगलावर्ता देश बीच, विजयार्धगिरी त्रयकटनीयुत।
उसकी पहली कटनी पर है, विद्याधर नगरी इक सौ दस।।
वहाँ पर जो मुनिगण होते हैं, वे कर्म काट शिवपद पाते।
हम उनको अर्घ चढ़ा करके, पूजन करते अति हरषाते।।४२।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थलांगलावर्तादेशविदेहमध्ये विजयार्धगिरिविद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिककेवलिश्रुतकेवलिसर्वसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कला देश सप्तम विदेह, उनमें जो आरजखंड रहे।
इस बीच औषधी नगरी है, उसमें तीर्थंकर सतत रहे।।
उनकी दिव्यध्वनि भव्यों को, नित मोक्ष मार्ग दिखलाती है।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, हमको वह राह दिखाती है।।४३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे औषधीनगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस आर्यखण्ड में अगणित मुनि, केवलज्ञानी होते रहते।
वे निज भक्तों के सर्व पाप, निज दर्शन से धोते रहते।।
उन त्रैकालिक केवलियों की, हम नित प्रति अर्चा करते हैं।
हमको भी केवल ज्ञान मिले, नित यही भावना करते हैं।।४४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के बारहगण के, गणधर होते चारों ज्ञानी।
ये भविजन खेती को सींचें, सबको करते शिवपथगामी।।
हम सब गणधर गुरु को पूजें, वे हमको निज सम्पत्ति देवें।
सब रोग शोक दुख दारिद को, वे इक क्षण में ही हर लेवें।।४५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो द्वादशांगश्रुत के ज्ञानी, निज ज्ञान प्रदान करें सबको।
वे परमानन्दामृत पीते, वाणी से तृप्त करें सबको।।
उन श्रुत केवलियों की पूजा, भक्तों का ज्ञान बढ़ाती है।
जो पूजें उनके अशुभ कर्म, की होनहार टल जाती है।।४६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे सर्वत्रैकालिकश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आचार्य उपाध्याय सर्व साधु, रत्नत्रय निधि के स्वामी हैं।
भव्यों को शिक्षा दीक्षा दें, ये शिवपुर के अनुगामी हैं।।
इनके दर्शन वंदन करने, सुर असुर मनुजगण आते हैं।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, मेरा मन कमल खिलाते हैं।।४७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ तीर्थंकर के पंचकल्याणक, कुछ के होते दो तीन चार।
सामान्य केवली मुुनियों के, होते रहते नित प्रति विहार।।
इन सबकी रज से पावन भू, बस तीर्थ क्षेत्र बन जाती है।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, भविजन मन शुद्ध बनाती है।।४८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे तीर्थंकरसामान्यकेवलि—
अन्यमुनिआदिकस्यतीर्थक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कलादेश के ठीक मध्य, लम्बा रजताचल शोभ रहा।
इस पर विद्याधर नगर बनें, उनमें जिनधर्म प्रवर्त्त रहा।।
केवलिश्रुतकेवलि महामुनि , नित प्रति वहां होते रहते हैं।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, मेरे भव दुःख को दहते हैं।।४९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिककेवलिश्रुतकेवलिसर्वसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कलावती अष्टमविदेह, इसमें छः खण्ड कहे जाते।
है आर्य खण्ड में पुंडरीकणी, नगरी उसमें सुर आते।।
इसमें अतीत औ भाविकाल, के तीर्थंकर अनन्त माने।
श्री सीमन्धर प्रभु वर्तमान, इन सबकी हम पूजा ठाने।।५०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे पुण्डरीकिणीनगर्यां
त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सामान्य केवली सदा यहाँ, अगणित होते ही रहते हैंं
भविजन को उपदेशामृत से, नितप्रति सन्तर्पित करते हैं।।
निजआतम अनुभव पाने को, हम उनकी पूजा करते हैं।
जो भविजन पूजा भक्ति करें, वे भवसागर से तरते हैं।।५१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे सर्वत्रैकालिककेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के अगणित गणधर, सब ऋद्धी के स्वामी होते।
भक्तों के विघ्न विनाशक ये, जग के अंतयार्मी होते।।
इन गणधर गुरु के चरणों की, जो पूजा अर्चा करते हैं।
वे सर्वामङ्गल दूर भगा, निज सुख सम्पति को भरते हैं।।५२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो श्रुत सागर के पारङ्गत, वे श्रुत केवली कहाते हैं।
वे निज वाणीमय किरणों से, नित भव्य कमल विकसाते हैं।।
उनकी पूजा करने से ही, सब ईतिभिति आपत्ति टले।
हम पूजें अर्घ चढ़ाकरके, तब निज की सुख सम्पत्ति मिले।।५३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आचार्य उपाध्याय सर्व साधु, उन शाश्वत कर्मभूमियों में।
निज आत्म साधना करते हैं, पर को नितप्रति संबोधें वे।।
नित समतारस के आस्वादी, उपसर्ग परीषह सहन करें।
हम उनको प्रणमें बार-बार, वे मेरा भी दुःखहरण करें।।५४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसर्वसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के चरणों की रज, पृथ्वी पर्वत को तीर्थ करे।
सामान्यकेवली और साधु, वे भी पृथ्वी को तीर्थ करे।।
उन पंचकल्याणक तीर्थ क्षेत्र, औ अन्य तीर्थ क्षेत्रों को भी।
हम पूजें अर्घ चढ़ाकर के , मेरे संकट हो दूर सभी।।५५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व—
तीर्थक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस देश पुष्कलावती मध्य, रजताचल चाँदी का सुन्दर।
इसकी कटनी पर विद्याधर, सर्वत्र विचरते हैं सुखकर।।
उन कर्मभूमि में सतत केवली, साधूगण होते रहते।
हम उनकी पूजा करते हैं, वे सुरनर से वन्दित रहते।।५६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपुष्कलावतीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—रोलाछंद—
वत्सादेश विदेह, आर्य खण्ड है उसमें।
पुरी सुसीमा एक, रजधानी है उसमें।।
भूत भविष्यतकाल, के अनन्त तीर्थंकर।
युगमंधर भगवान, विचरें अभी वहाँ पर।।५७।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे सुसीमानगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल ज्ञानी ईश, वहाँ अनन्ते होते।
कर्मअरी को नाश, सौख्य अनंते भोगें।।
उनकी पूजा भक्ति, भव समुद्र से तारे।
हम पूजें इत आज, मेरे कर्म विदारे।।५८।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री गणधर गुरुदेव, रहते समवशरण में।
निज भक्तों के ख्यात, विघ्न विनाशक जग में।।
अर्घ चढ़ाकर आज, हम उन गुरु को पूजें।
मिटे सर्व संताप, कर्मअरी भी धूजें।।५९।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशाङ्ग श्रुत ज्ञान, पूर्ण भरा है घट में।
श्रुत केवलि भगवान, उनको हम नित प्रणमें।
उनकी पूजा भक्ति, स्वपर ज्ञान विस्तारें।
शरणागत को शीघ्र, भवसमुद्र से तारें।।६०।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरीपाठक साधु, वहाँ विहार करें नित।
जो जन भव से भीत, वे होते उन आश्रित।।
मन वच तन से शुद्ध, हम उन सबको प्रणमें।
करो कृपा गुरुदेव, सदा रहूँ तुम शरणें।।६१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक क्षेत्र, तीरथ क्षेत्र वहाँ पर।
अतिशय गुण से ख्यात, बहुते क्षेत्र वहाँ पर।।
उन सबको मैं नित्य, अर्घ चढ़ाऊँ रुचि से।
करो भवोदधि पार, तीर्थ मुझे निजरज से।।६२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वत्सादेशविदेह, उसके मधि विजयारध।
विद्याधर के देश, उसमें हैं इकसौदस।।
वहाँ केवली वृन्द, साधूगण नित रहते।
उनको पूजूँ नित्य, वे सब दुख को हरते।।६३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थवत्सादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुवत्सारम्य, आर्यखण्ड उसमें हैं।
पुरी कुण्डला एक, तीर्थंकर उसमें हैं।।
त्रैकालिक तीर्थेश, उन सबको मैं पूजूँ।।
आत्म सुधारस पाय, भव-भव दुःख से छूटूँ।।६४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे कुण्डलानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगणित मुनिवरवृंद, केवल ज्ञान प्रकाशे।
गंधकुटी के मध्य, अन्तरिक्ष से राजे।।
इन्द्रादिक से वंद्य, भवसमुद्र तरते हैं।
हम भी पूजें नित्य, वे मुझ दुख हरते हैं।।६५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के पास, गणधर देव विराजें।
करें देशना नित्य, भविमन कमल विकासें।।
उनकी पूजा भक्ति, जो जन रुचि से करते।
समता रस को पाय शीघ्र भवोदधि तरते।।६६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत केवलि भगवान, निजानंद रसस्वादि।
होते भक्त महान, जो उनके चरणाश्रित।।
मैं भी भक्ति बढ़ाय, अर्घ चढ़ाकर पूजूँ।
करो विघ्न सब नाश, पुनर्जन्म से छूटूँ।।६७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरि उपाध्याय साधु, नग्न दिगम्बर मुनि हैं।
रागादिक से दूर, इन्द्रों से वंदित हैं।।
इनका वंदन नित्य, सर्व दुखों को चूरे।
भव्य जनों के नित्य, सर्व मनोरथ पूरे।।६८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व—आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक क्षेत्र, तीरथ क्षेत्र अनेकों।
पुण्य पुरुष के पाद, रज से पावन हैं वो।।
उन सबको मैं नित्य, अर्घ चढ़ाकर पूजूँ।
करो हमें भवतीर, जन्ममरण से छूटूँ।।६९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुवत्सा मध्य, रजत गिरी चाँदी का।
विद्याधर के देश, कर्मभूमि वहाँ नीका।।
केवल ज्ञानी और, अगणित साधु वहाँ पर।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, तिरूँ शीघ्र भवसागर।।७०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवत्सादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावत्सा शुभदेश, उसके आरजखंड में।
अपराजिता प्रसिद्ध, नगरी है उस मधि में।।
तीर्थंकर भगवान, जन्म वहीं पर लेते।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, वे सुख सम्पत्ति देते।।७१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अपराजितानगर्यां
त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस आरजखंड माहिं, बहुत केवली रहते।
आत्म सुधारस मग्न, भव भव दुख को दहते।।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, मुझे आत्मनिधि दीजे।
भवभव क्लेश मिटाय, प्रभु निज सम कर लीजे।।७२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री गणधर गुरुदेव, रहते समवसरण में।
वंदे श्रीजिनदेव, रहते उन चरणन में।।
उन गणधर को नित्य, सुर नरगण मिल पूजें।
मैं भी पूजूँ नित्य, जन्म मरण दुख छूटें।।७३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मभूमि वहाँ नित्य, श्रुतकेवलि मुनि रहते।
ईति भीति पर चक्र, दोष नहीं वहाँ रहते।।
शास्त्र ज्ञान फल पाय, कर्मकलंक मिटाते।
उन को अर्घ्य चढ़ाय, नमूँ नमूँ गुण गाके।।७४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरी पाठक साधु उत्तमचारित पालें।
आत्मतत्त्व को ध्याय, राग द्वेष को टालें।।
उनको पूजें नित्य, चक्रवर्ति सुरपति भी।।
हम भी पूजें नित्य, मिले आत्मनिधि निज की।।७५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो-
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक क्षेत्र, दोय तीन कल्याणक।
अन्य मुनि के क्षेत्र, तपो ज्ञान शिवसाधक।।
ये सब तीर्थ महान् , उनको पूजूँ रुचि से।
तीन रत्न गुणवान, बनूँ इसी ही विधी से।।७६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावत्सा के मध्य रजताचल चाँदीमय।
विद्याधर के देश , इक सौ दश संपतिमय।।
इनमें जो मुनिनाथ, केवलि श्रुतकेवलि हैं।
उनको जजूँ त्रिकाल, आतमनिधि मुझ ही है।।७७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावत्सादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वत्सावती विदेह उसके आरजखंड में।
तीर्थंकर नित होय नगरी प्रभंकरा में।।
परमानंद निकेत प्राप्त करें निजबल से।
पूजूँ भक्ति समेत छूटूँ भवभव दुःख से।।७८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे प्रभंकरानगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगणित मुनिगण नित्य, रत्नत्रय के बल से।
केवल ज्ञान को पाय, बसे मोक्षपुर जाके।।
उनको अर्घ्य चढ़ाय, रत्नत्रय निधि पाऊँ।
कर्मकलंक मिटाय, केवल ज्ञान उपाऊँ।।७९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारहगण के नाथ गणधर देव कहाते।
तीर्थंकर के पास, समवशरण में राजे।।
मनवचकाय लगाय उनको अर्घ्य चढ़ाऊँ।
जन्म मरण दुख नाश, फेर न भव में आऊँ।।८०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशांग वारिधि, में अवगाहन करते।
श्रुतकेवलि भगवान् , भक्तों के दुख हरते।।
उनकी पूजा भक्ति, सम्यग्ज्ञान प्रकाशे।
वे मुनिगण के नित्य, चित्तकमल विकसाते।।८१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरी पाठक साधु, जिनकल्पी मुनि होते।
करते संघ में वास, स्थविरकल्पि मुनि होते।।
मन वच तन से शुद्ध, उनको नित्य जजूँ मैं।
करूँ निजातम शुद्ध, समरस सौख्य चखूँ मैं।।८२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक क्षेत्र, अतिशयक्षेत्र वहाँ पर।
जो पूजें जन नित्य, वसुविध अर्घ्य चढ़ाकर।।
पावन क्षेत्र महान, इन रज शीश चढ़ावें।
मिटे जगत् का क्लेश, फेर न भव में आवें।।८३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वत्सावती विदेह, मध्य रजतगिरि सोहै।
विद्याधर के देश से सुरनर मन मोहै।
केवलि जिन भगवान् अगणित साधु वहाँ पर।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय मिले न फेर भवान्तर।।८४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवत्सावतीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रम्यादेश विदेह, आर्यखण्ड है उसमें।
अंकानगरी नित्य, तीर्थंकर हो उसमें।।
भूत भविष्यत् और वर्तमान तीर्थंकर।
उनको अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ सौख्य हितंकर।।८५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अंकानगर्याम् त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यहाँ असंख्ये साधु केवलज्ञानी होते।
भावकर्म अरु द्रव्य कर्ममलों को धोते।।
उनकी पूजा भक्ति, निज पर ज्ञान प्रकाशे।
जिसके बल से भव्य, केवलज्ञान विकासे।।८६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के शिष्य, गणधर देव प्रमुख हैं।
दिव्यध्वनी को नित्य, दो नय से वर्णत हैं।।
निश्चय औ व्यवहार, द्वय रत्नत्रयधारी।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, वे जग मंगलकारी।।८७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत पारंगत साधु, स्याद्वाद किरणों से।
मिथ्यामत को नाश, सम्यग्ज्ञान प्रबोधें।।
इनका ज्ञान परोक्ष, भी त्रिभुवन को जाने।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, सर्व अमंगल हाने।।८८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु सरागी और, वीतरागी कहलाते।
सूरी पाठक नित्य, शिष्यों को समझाते।।
राग प्रशस्त समेत, मोक्ष मार्ग विकसाते।
बोधि पूरण हेतु, गुरु को अर्घ चढ़ाते।।८९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रम्या आरजखंड, पंचकल्याणक भूमी।
अगणित हों मुनिवृंद, उनसे पावन भूमी।।
भवसागर से भव्य जन को पार उतारें।
इनको पूजूँ नित्य, तीर्थनाम यह धारें।।९०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रम्या देश के मध्य, गिरि विजयार्ध कहाता।
विद्याधर के देश, उनमें बहुविध साता।।
मुनिगण होते नित्य, केवलज्ञानी ध्यानी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, बनूँ स्वपर विज्ञानी।।९१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरम्यादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुरम्या रम्य, आर्यखंड उसमें है।
तीर्थंकर से युक्त पद्मावति नगरी है।।
जगवंदित तीर्थेश, तीन काल वहाँ होते।
पूजूँ जगपरमेश, मेरे मन को शोधें।।९२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे पद्मावतीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस आरजखंड मािंह मुनि केवली अनंते।
निज पुरुषार्थ बलेन, कर्म अरी को खंडे।।
उनकी वंदन भक्ति, हमें सौख्य संपत्तिकर।
जो पूजें धर प्रीति, उनके सब संकटहर।।९३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थनाथ के शिष्य, गणधर देव अनंते।
हों उस आरजखंड में त्रिकाल गुणवंते।।
उन गुणधर गणईश की पूजा गुणकारी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, वे होवें सुखकारी।।९४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुतकेवलि भगवान्, ज्ञान चक्षु के धारी
रत्नत्रय से मान्य, रोग शोक दुखहारी।।
मम रत्नत्रय पूर्ण, करो यही इक इच्छा।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, करूँ ज्ञान प्रत्यक्षा।।९५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यथाजात जिनरूप, धरें सदा सब मुनिवर।
ध्याते शुद्धस्वरूप, गुणगण मंडित गुरुवर।।
सूरीपाठक साधु, त्रिविध गुणो से त्रयविध।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, मिले चरित तेरह विध।।९६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुरम्या माहिं, आरजखंड कहाता।
शाश्वत चौथा काल, स्वर्ग मोक्ष पथ दाता।।
तीर्थंकर से ख्यात, पाँच कल्याणक भूमि।
अन्य तीर्थ भी पूज, मिले आठवीं भूमि।।९७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुरम्या मध्य, रजताचल कटनीयुत।
विद्याधर के देश, इक सौ दश सुख संयुत।।
वहाँ रहें मुनिनाथ, केवलि श्रुतकेवलि भी।
पूजूँ शीश नवाय, मिले निजातम निधि भी।।९८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुरम्यादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रमणीया शुभदेश, नगरी शुभा वहाँ पर।
तीर्थंकर परमेश, होते रहते सुखकर।।
असि मषि आदिक षट्, कर्मों की वह भूमी।
तीर्थंकर को पूज, मिले हमें शिवभूमी।।९९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे शुभानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वहाँ असंख्ये साधु, केवल ज्ञान प्रकाशें।
निजवाणी से नित्य, मिथ्यातम को नाशें।।
ज्ञानपूर्ति के हेतु, उनको अर्घ चढ़ाउँâ।
स्वपर भेद विज्ञान, पाकर निजपद पाउँâ।।१००।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणधर गणधर देव, सर्वगुणों के दाता।
ऋद्धि सिद्धि से पूर्ण, सुखसंपत्ति विधाता।।
तीर्थंकर के शिष्य, दिव्यध्वनि विस्तारें।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, हमें शीघ्र ही तारें।।१०१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह पूर्व महान, ज्ञान धरें श्रुतज्ञानी।
अगणित गुण की खान, शुद्धातम के ध्यानी।।
धर्मध्यान के हेतु, इनकी पूजा वरणी।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, मिले भवोदधि तरणी।।१०२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत् मुद्राधार, सर्वगुणों को पालें।
सूरी पाठक साधु, निज के कर्म प्रजालें।।
दीक्षा शिक्षा दान, करते द्विविध मुनि हैं।
साधु साधना लीन, जजूँ उन्हें सुखप्रद वें।।१०३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक तीर्थ, तीर्थंकर के होते।
अन्य तीर्थ भी नित्य, मुनिगण से बन जाते।।
निजमन पावन हेतु, पावन तीर्थ जजूँ मैं।
वे भवि के भवसेतु, उन रज शीश धरूँ मैं।।१०४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रमणीया के मध्य, विजयारध गिरि सुदंर।
विद्याधर आवास, इस पर बनें निरंतर।।
उनमें मुनिगण नित्य, आत्म साधना करते।
सबको पूजूँ नित्य, ये सब भवदुख हरते।।१०५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थरमणीयादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश मंगलावति में, आर्यखंड मधि नगरी।
रत्नसंचया नाम, तीर्थंकर गुण लहरी।।
त्रयकालिक तीर्थेश, इस नगरी में माने।
पूज हरूँ भवक्लेश, सुख पाऊँ मनमाने।।१०६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे रत्नसंचयानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस आरजखंड माहिं, अगणित केवलज्ञानी।
होते हैं त्रयकाल, जग के अंतर्यामी।।
इनकी पूजा भक्ति, सब अज्ञान विनाशे।
जो पूजें धर प्रीति, ज्ञान ज्योति परकाशे।।१०७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणनायक गुरुदेव, विघ्न विनाशक ख्याता।
सब ऋद्धि समवेत, नवनिधि सिद्धि विधाता।।
हम पूजें नत शीश, सर्व अमंगल चूरें।
अशुभ कर्म को नाश, सर्व मनोरथ पूरें।।१०८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत पारंगत साधु, केवल ज्ञानी सम हैं।
श्रुतकेवली प्रसिद्ध, सब जग अवलोकत हैं।।
इनका ज्ञान परोक्ष, फिर भी मुक्ति प्रदाता।
वंदूँ शीश नवाय, धर्म शुक्ल के ध्याता।।१०९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिगणत्रिविध महान् , भव्जन शिवपथदर्शक।
रत्नत्रय निधिमान, भव्यकमल के हर्षक।।
निज आतम को शुद्ध, करें करावें संतत।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, करो हमें स्वातमरत।।११०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के पाँच, कल्याणक से पावन।
अन्य साधुगण नित्य, जहाँ करते निज साधन।।
वे सब तीर्थ प्रसिद्ध, आत्म शुद्धि में साधक।
उनको पूजूँ नित्य, वे हैं पाप विनाशक।।१११।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगलावति के मध्य, रजताचल मनहारी।
विद्याधर के देश, शोभ रहें सुखकारी।।
केवलज्ञानी साधु, श्रुतज्ञानी सब विचरें।
पूजूँ भक्ति समेत, सर्वकाल जो विहरेंं।।११२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमंगलावतीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्मा देश विदेह में, आर्यखण्ड के मध्य।
अश्वपुरी में तीर्थकर, उन्हें नमूँ जग वंद्य।।११३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अश्वपुरीनगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्यखण्ड में नित्य ही, केवलज्ञानी होय।
उनकी पूजा भक्ति से, भव भव में सुख होय।।११४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर सब तीर्थेश के, करें देशना नित्य।
उनको पूजूँ अर्घ्य ले, मिले आत्मसुख नित्य।।११५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशांग श्रुत के धनी, श्रुतकेवली विख्यात।
उनकी पूजा नितकरूँ, मिले स्वात्म साम्राज्य।।११६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सूरी पाठक साधुगण, नितप्रति करें विहार।
उनको पूजें भक्ति से, हो मम आत्म सुधार।।११७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक क्षेत्र बहु, अन्य और भी तीर्थ।
उन सबकी पूजा करूँ, मम आत्मा हो तीर्थ।।११८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मा देश विदेह के, मध्य रजतगिरि रम्य।
विद्याधर के केवली, मुनिगण जजूँ प्रसन्न।।११९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुपद्मा खंड षट् , आरजखंड के मध्य।
सहपुरी में तीर्थकर, सतत रहे जग वंद्य।।१२०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे सिंहपुरीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इसही आरजखंड में, केवलज्ञानी नंत।
उन सबकी पूजा करूँ, मिटे जगत का फंद।।१२१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के निकट में, गणधर गुरु राजंत।
उन सब की पूजा करूँ, हो सब दुख का अंत।।१२२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदह विद्या में कुशल, सर्वज्ञान के ईश।
श्रुतकेवलि को नित जजूँ, कर अंजलि नत शीश।।१२३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंच महाव्रत पालते, पंचमगति की आश।
त्रिविध साधु को पूजते, मिले आत्म गुणराशि।।१२४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक से तथा, निर्वाणादिक क्षेत्र।
उन सबको पूजूँ सदा, खुले ज्ञान के नेत्र।।१२५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुपद्मा बीच में, रजताचल पर नित्य।
विद्याधर पुर में नमूँ, केवलि साधु प्रसिद्ध।।१२६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुपद्मादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश महापद्मा वहाँ, आर्यखंड के बीच
महापुरी में तीर्थकर, जजत धुले भवकीच।।१२७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे महापुरीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इसके आरजखंड में, केवलज्ञानी ईश।
नित्य विहरते मैं उन्हें, जजूँ नमाकर शीश।।१२८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादश गण के गणपति, विघ्न विनायक नाम।
उन सबको में नित जजूँ, झुक झुक करूँ प्रणाम।।१२९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत केवलि प्रसाद से, सब जग में हो क्षेम।
आत्मशुद्धि हित नित जजूँ, हो स्वधर्म से प्रेम।।१३०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपाध्याय शिक्षित करें, दीक्षा दें आचार्य।
साधु स्वात्मसाधन निरत, पूजूँ अर्घ चढ़ाय।।१३१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्याणक पावन धरा, निर्वाणादिक पवित्र।
उन सब तीर्थों को जजूँ , मन हो शीघ्र पवित्र।।१३२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश महापद्मा मधी, रजताचल पर नित्य।
विद्याधर पुर में मुनी, केवलि जग स्तुत्य।।१३३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहापद्मादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश पद्मकावति वहां, आर्यखंड के मध्य।
विजयपुरी में तीर्थकर, उन्हें जजूँ शिरनम्य।।१३४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे विजयपुरीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस ही आरजखंड में, केवलज्ञानी नाथ।
नित विहरें उनको नमूँ, सदा नमाकर माथ।१३५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमानंद पियूष से, तृप्त सदैव प्रसन्न।
गणधर गुरु को नित जजूँ, मुझ मन करें प्रसन्न।।१३६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व विघ्नघन चूरते, भव्य सस्य हित मेघ।
श्रुतकेवलि मुनि को जजूँ, वे भवदधि के सेतु।।१३७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनकल्पी मुनि जिन सदृश, स्थविरकल्पि मुनि संघ।
सूरी पाठक साधु को, जजूँ मिटे भव द्वन्द।।१३८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महापुरुष पद धूलि से,पावन तीर्थ प्रसिद्ध।
उन सबको नित पूजते, मम आत्मा हो सिद्ध।।१३९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश पद्मकावति विषें, विजयारध विख्यात।
विद्याधर पुर में जजूँ, केवलि मुनि गण ख्यात।।१४०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थपद्मकावतीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंखा देश विदेह में, आर्यखंड के बीच।
अरजानगरी में जजूँ, तीर्थंकर नतशीश।।१४१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अरजानगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानावरण विनाश कर, केवलज्ञानी सिद्ध।
उन सबकी पूजा करूँ, मिले सिद्धि नवनिद्ध।।१४२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणधर गणधर चरण की, शरण लिया में अद्य।
जजूँ अर्घ ले तुम चरण, पूर्ण करूँ श्रुत सर्व।।१४३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अष्टांग निमित्त में, कुशल सर्वश्रुत पूर्ण।
उन श्रुतकेवलि को जजूँ, करूँ कर्म अरि चूर्ण।।१४४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउविध संघ के अधिपती, सूरि सर्व जग वंद्य।
पाठक साधु भी जजूँ, करूँ जन्म निज धन्य।।१४५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर पदपद्म से, भू पर्वत भी तीर्थ।
अन्य साधु से भी बनें, उन्हें जजूँ नतशीश।।१४६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंखा देश विदेह मधि, रजतगिरी अति श्वेत
विद्याधरपुर में जजूँ, केवलि साधु समेत।।१४७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थशंखादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नलिनी देश विदेह में, आर्यखंड के बीच।
विरजा नगरी में जजूँ, तीर्थंकर जग ईश।।१४८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे विरजानगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्यखंड में केवली, विचरण करें सदैव।
उन सबकी पूजा करूँ, बनूँ सिद्ध स्वयमेव।।१४९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर देव महान हैं, कहें तत्त्व विस्तार।
उनके चरणों को जजूँ , मिले तत्त्व का सार।।१५०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्व श्रुत के धनी, पढ़े पढ़ावें नित्य।
उन श्रुतकेवलि को जजूँ, धरूँ धर्म में प्रीति।।१५१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अट्ठाइस गुण मूलधर, नग्न दिगंबर देव।
सूरि पाठक साधु त्रय, इन्हें जजूँ धर नेह।।१५२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुण्य पुरुष के गर्भ जनि, तपो ज्ञान निर्वाण।
इन निमित्त से तीर्थ जो , उन्हें जजूँ बहुमान।।१५३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नलिनी देश विदेह मधि, रजताचल पर खास।
विद्याधरपुर के जजूँ, केवलि साधु समाज।।१५४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थनलिनीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुमुदा देश विदेह के, आर्यखंड में नित्य।
पुरी अशोका में जजूँ ,तीर्थंकर सब सिद्ध।।१५५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्यखंड में केवली, होते सतत अनंत।
उन सबकी पूजा करूँ, रोग शोक दुख अंत।।१५६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर मुनिगण अमित हैं, निजआतम रसलीन।
उनको अर्घ चढ़ाय के, करूँ कर्म रस छीन।।१५७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आतम रस अनुभवें, श्रुतकेवली मुनीश।
उनके पद पंकज जजूँ, कर अंजलि नतशीश।।१५८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा शिक्षा में कुशल, सूरि पाठक देव।
ध्यान साधना साधु की, करूँ त्रिविध गुरु सेव।।१५९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक तीर्थ औ, अन्य तीर्थ जो होय।
उन सबकी पूजा करूँ, स्वात्म शुद्धि मम होय।।१६०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुमुदा देश विदेह में, रजताचल शुचिवर्ण।
वहाँ केवली साधुगण, जजूँ नित्य उन चर्ण।।१६१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थकुमुदादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरिता देश विदेह में, आर्यखंड विख्यात।
वीतशोक नगरी वहां, बाहुजिन हैं आज।।
भूत भविष्यत्काल के, तीर्थंकर हैं नंत।
सब के चरण सरोज को, पूजत हो भव अंत।।१६२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे वीतशोकानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस ही आरजखंड में, केवलिनाथ अनंत।
उन सबके चरणों नमूँ, हो मम सौख्य अनंत।।१६३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यंत्र मंत्र औषधि निमित्त, सर्वशास्त्र में दक्ष।
गणधरगुरु को नित नमूँ, मम आत्मा हो स्वच्छ।।१६४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्व सब शास्त्र को, पढ़े पढ़ावें नित्य।
उन श्रुत केवलि को जजूँ, उनके पद आश्रित्य।।१६५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरी पाठक साधुगण, नित विहरें उस माहिं।
उन सबके पदकंज को, नमूँ नमूँ शिर नाय।।१६६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर पद धूलि से, तीर्थ बनें जग पूज्य।
अन्य और भी तीर्थ को, जजूँ सुरासुरपूज्य।।१६७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरिता देश विदेह में, विजयारध रजताभ।
विद्याधर के नगर में, जजूँ सर्व मुनिराज।।१६८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसरितादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु त्रैकालिक—
सर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—चौपाई—
वप्रादेश विदेह महान् , उसमें आर्यखंड सुखदान।
विजयानगरी में तीर्थेश, पूजन करत हरूँ भव क्लेश।।१६९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे विजयानगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सतत केवली विहरें वहाँ, गंधकुटी में राजें तहाँ।
आत्म सुधारस चखने हेतु, पूजूँ उन्हें भवोदधि सेतु।।१७०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के शिष्य प्रधान, गणधर देव सर्वगुण खान।
ऋद्धि सिद्धि चउज्ञान समेत, जजूँ उन्हें निजशुद्धी हेत।।१७१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर व्यंजन भौमादिनिमित्त, सर्वशास्त्र में कुशल प्रसिद्ध।
उन श्रुतकेवलि को नित जजूँ, पुनर्जन्म के दुख से बचूँ।।।१७२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउसंघ के नायक आचार्य, शिष्य पढ़ावें गुरु उपध्याय।
आत्मसाधना में रत साधु, उनको जजूँ हरूँ सब व्याधि।।१७३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वआचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के पंच कल्याण, अन्य मुनी के तप निर्वाण।
इनसे पावन तीर्थ प्रसिद्ध, नित्य जजूँ पाऊँ निज सिद्धि।।१७४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वप्रादेश विदेहनि मध्य, रजताचल विद्याधर संग।
उनमें केवलि और मुनींद्र, उन्हें जजत होऊँ भवतीर्ण।।१७५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुवप्रा कहा विदेह, उनके आर्यखंड में येह।
नगरी वैजयंति सुखदान, तीर्थंकर पद जजूँ महान।।१७६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे वैजयंतीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यथाख्यात चारित्र समेत, केवलज्ञानी जग हित हेत।
पंचम चारित प्राप्ती हेतु, पूजूँ उन्हें भवोदधि सेतु।।१७७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारहगण नायक यति ईश, धर्मध्यान में अतिशय प्रीति।
गणधर गुरु को जजूँ त्रिकाल, मनवचतन त्रययोग संभाल।।१७८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यथाजात मुद्राधर यती, पिछी कमंडलु श्रुत में रती।
श्रुतकेवलि मुनिगण त्रयकाल, नमूँ नमूँ नाऊँ निज भाल।।१७९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण छत्तिस पचीस अठवीस, धारण करते महामुनीश।
सूरि उपाध्याय साधु महान्, सबको जजूँ सौख्य प्रदजान।।१८०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व—आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक भूमि पवित्र, अन्य तीर्थ भी जगत् पवित्र।
वे सब तीर्थ जजूँ मन लाय, मन विशुद्धि का यही उपाय।।१८१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुवप्रा मधि विजयार्ध, विद्याधर नगरी विख्यात।
वहाँ केवली श्रुतधर साधु, नित्य विचरते पूजूँ आज।।१८२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुवप्रादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश महावप्रा के मध्य, आर्यखंड में नगरी भव्य।
नाम जयंती में तीर्थेश, त्रयकालिक को नमूँ हमेश।।१८३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे जयंतीनगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्यखंड में नित विहरंत, केवलज्ञानी श्रीभगवंत।
ज्ञान ज्योति प्रगटावन हेतु, नित प्रति जजूँ हरूँ भवखेद।।१८४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण मे रहें गणींद्र, नमें उन्हें शत इन्द्र मुनीन्द्र।
ऋद्धि सिद्धि संपति दातार, जजूँ उन्हें गुणवृंद अपार।।१८५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत समुद्र पारंगत नाथ, श्रुतकेवलि निजज्ञान सनाथ।
श्रुतफल अच्युतपद के हेतु, जजूँ उन्हें वे सब दुख देत।।१८६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सामायिक चारित्र धरंत, सूरि पाठक साधु महंत।
इन सबको पूजूँ धर प्रीत, ये सबके हि अकारण मीत।।१८७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुण्य पुरुष पदरज से पूत, पावन तीर्थ धर्म अनुस्यूत।
उन्हें जजूँ निजशुद्धी हेत, वे सबको समकित निधि देत।।१८८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश महावप्रा के बीच, रजताचल विद्याधर मीत।
वहाँ केवली साधु मुनीन्द्र, उन्हें नमूँ वे परम पवित्र।।१८९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थमहावप्रादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश वप्रकावती विदेह, आर्यखंड के बीच वसेय।
अपराजिता नगरि में नित्य, तीर्थंकर हो पूजूँ नित्य।।१९०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अपराजितानगर्यां
त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रियज्ञान शून्य भगवान, त्रिभुवनव्यापी ज्ञान निधान।
सर्व केवली गुणगण ईश, अर्घ चढ़ाय जजूँ जगदीश।।१९१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप्ततप्त बल दीप्ति महान्, बिन आहर भि शक्ति महान्।
गणधर देव चरण अमलान, पूजत देवें ऋद्धि निधान।।१९२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूर्व, ज्ञाननेत्र से लखें अपूर्व।
श्रुतकेवलि गुरु भव्य सनाथ, पूजत होवे जन्म कृतार्थ।।१९३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुत—
केवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यजनों के प्रिय आधार, सूरि पालते पंचाचार।
उपाध्याय गुरु साधु मुनीश, त्रयविधि गुरु जजूँ नतशीश।।१९४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूपर्वत नगरादि अजीव, पुण्य पुरुष से तीर्थ अतीव।
भवि जीवों को फल दातार, पूजूँ तीर्थ सदा सुखकार।।१९५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश वप्रकावति के मध्य, रजताचल विद्याधर रम्य।
वहाँ केवलि मुनिगण नित्य, सबको पूजूँ रूचि से इत्य।।१९६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थवप्रकावतीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधा देश विदेह अनूप, आर्यखंड मे नगरी भूप।
चक्रपुरी में पूजूँ आज,त्रयकालिक तीर्थंकर नाथ।।१९७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे चक्रपुरीनगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित सब दूरार्थ, अवलोके नित सर्व पदार्थ।
केवलज्ञानी श्री जिनदेव, अर्घ चढ़ाय करूँ उन सेव।।१९८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षीणालय ऋद्धि धरंत, अगणित जीव वहाँ निवसंत।
गण्ाधर गुरु को पूजूँ यहाँ, पापपुंज सब खंडें यहाँ।।१९९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आयुर्वेद निमित्त अष्टांग, सब श्रुत ज्ञान धरें सर्वांग।
उनको नित्य नमूँ पंचांग, अर्घ चढ़ाय लहूं श्रुत सांग।।२००।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर भेद विज्ञानी संत, चारण ऋद्धि पाय भ्रमंत।
अकृत्रिम जिनगृह वंदंत, त्रयविध मुनिगण जजूँ तुरंत।।२०१।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्योपाध्याय—
साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्याणक स्थल हों तीर्थ, अन्य और भी बनें पुनीत।
उन तीर्थों को नमूँ त्रिकाल, वे मन शुद्ध करें तत्काल।।२०२।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधादेश मध्य विजयार्ध, चक्री अर्ध विजय से सार्थ।
विद्याधर के मुनिगण वहाँ, केवलिगण सब पूजूँ यहाँ।।२०३।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थगंधादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुगंधा नाम विदेह, उसका आर्यखंड शुभ येह।
खड्गपुरी में होते सदा, तीर्थंकर उन पूजूँ मुदा।।२०४।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे खड्गपुरीनगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अलोक विलोकें सर्व, केवलज्ञानी में गुण सर्व।
उनको पूजूँ हर संदेह, हो जाऊँ मैं शीघ्र विदेह।।२०५।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के शिष्य प्रधान, चौंसठ ऋद्धि से सुखदान।
गणधर चरणों वंदन करूँ, निजके सब दुख खंडन करूँ।।२०६।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधरचरणेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म प्रवाद पूर्व का सार, करते आतम गुण विस्तार।
सर्व शास्त्र का जानें मर्म, उनको जजते हो शिवशर्म।।२०७।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन से प्रगटें सम्यक्त्व, महार्षियों का यही महत्व।
सूरी पाठक साधू भेद, इनको जजूँ हरूँ भव खेद।।२०८।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक तीर्थ महान् ,अन्य तीर्थ भी पुण्य निधान।
अतिशय क्षेत्र अन्य भी होंय, उनको जजत सर्वसुख होय।।२०९।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश सुगंधा मधि विजयार्ध, विद्याधर नगरों से ख्यात।
केवलि जिन औ साधु महान् , होते वहाँ जजूँ गुणखान।।२१०।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थसुगंधादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश गंधिला में षट्खंड, उसमें इक शुभ आरजखंड।
पुरी अयोध्या में तीर्थेश, अर्घ चढ़ाकर जजूँ हमेश।।२११।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अयोध्यानगर्यां त्रैकालिक—
सर्वतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेरह विध चारित को धार, केवल ज्ञान लिया सुखसार।
दर्पणवत् झलके सब लोक, पूर्ण ज्ञान को जजूँ प्रमोद।।२१२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अस्ति नास्ति आदिक सत भंग, स्याद्वादमय धरें अभंग।
उन गणधर गुरु को अर्चंत, मिले आत्मगुण सौख्य अनंत।।२१३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनेकांतमय धर्म महान्, सब एकांतवाद की हान।
जैनधर्म सब धर्म प्रधान, जजूँ उन्हें इन युत श्रुतखान।।२१४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परकर दत्त लेंय आहार, जिनका युक्ताहार विहार।
उन गुरु के पद पंकज जजूँ, चतुर्गति के दुःख से बचूँ।।२१५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व—आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तीर्थंकर से पावन तीर्थ, अन्य अनेक कहाते तीर्थ।
उन सबको पूजूँ मन लाय, रोग शोक दुःख दारिद जाय।।२१६।।
ॐ हीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश गंधिला मधि विजयार्ध, विद्याधर से बना कृतार्थ।
उस पर केवलि ओर मुनीश, सबको जजूँ नमाकर शीश।।२१७।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधिलादेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधरश्रेणीषु
त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधमालिनी देश विदेह, आर्यखंड में नगरी येह।
पुरी अवध्या में तीर्थेश, जजूँ सुबाहु और सब ईश।।२१८।।
ॐ ह्री जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे अवध्यानगर्यां त्रैकालिकसर्व—
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चय औ व्यवहार त्रिरत्न, इनको लेकर किया प्रयत्न।
निज में ज्ञानसूर्य प्रकटाय, उन सबको पूजूँ मन लाय।।२१९।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकिंवदुसार तक शास्त्र, उनके ज्ञानी गण आचार्य।
गणधर देवों के चरणाब्ज, जजते खिले भव्य मन अब्ज।।२२०।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्र्कालिकसर्वगणधर—
चरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शास्त्रज्ञान है नेत्र तृतीय, उन युत श्रुतज्ञानी अद्वितीय।
उनके पद की पूजा करूँ, निज आतम सुख अनुभव करूँ।।२२१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वश्रुतकेवलिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूरी पाठक साधू अनंत, तीनों काल वहाँ विहरंत।
उनका नाम मंत्र जो लेय, सो सब दुःख जलांजलि देय।।२२२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्व-आचार्यो—
पाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थ नाथ से बनते तीर्थ, जहाँ प्रवर्ते धर्म सुतीर्थ।
सब तीर्थों को पूजूँ यहाँ, आत्म विशुद्धी करते यहाँ।।२२३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहक्षेत्रार्यखंडे त्रैकालिकसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधमालिनी देश सुबीच, कहा रजतगिरि शुभ्र गिरीश।
उस पर विद्याधर के वहाँ, केवलि मुनिगण अर्चूं यहाँ।।२२४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थगंधमालिनीदेशविदेहमध्यविजयार्धपर्वतस्य विद्याधर—
श्रेणीषु त्रैकालिकसर्वकेवलिश्रुतकेवलिसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—पूर्णार्घ्य
बत्तिस देश विदेह में, जिनवर मुनिगण आदि।
पूरण अर्घ चढ़ायके, जजूँ हरूँ भव व्याधि।।१।।
ॐ ह्नीं जंबूद्वीपस्थद्वात्रिंशद्विदेहक्षेत्रसंबंधिसर्वतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुत—
केवलिसर्वसाधुभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)—
इन शाश्वत क्षेत्र विदेहों में, नित आर्यिकाएँ विचरण करतीं।
सम्यक्त्वरत्न से भूषित हों, रत्नत्रय का पालन करतीं।।
इनमें गणिनी मातायें भी, संयतिकाएं जग वंदित हैं।
नर चक्रवर्ति श्रावकगण से इन्द्रादिक से भी पूजित हैं।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थद्वात्रिंशत्विदेहक्षेत्रसंबंधिगणिनीसमेतसर्वसंयतिकार्यिकाभ्य:
र्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐलक, क्षुल्लक ग्यारह प्रतिमा-धारी वहाँ विचरण करते हैं।
सम्यक्त्वरत्न से भूषित हैं, संसारजलधि से तिरते हैं।।
उन सबको इच्छामि करके, हम अर्घ्य चढ़ाकर नमते हैं।
ये परम्परा से शिव पाते, हम इनकी भक्ती करते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थद्वात्रिंशत्विदेहक्षेत्रसंंबंधिसर्व-ऐलकक्षुल्लकेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन शाश्वत क्षेत्र विदेहों में, जितनी क्षुल्लिकाएँ विचरण करतीं।
हम उनको अर्घ्य चढ़ा करके, इच्छामि करें वे देशव्रती।।
ये ग्यारह प्रतिमा धारण कर, सम्यक्त्वरत्न से भवहरिणी।
श्रावकगण से ये पूजित हैं, इनकी भक्ती भी भवतरणी।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थद्वात्रिंशत्विदेहक्षेत्रसंबंधिसर्वक्षुल्लिकाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधि—द्वात्रिंशत्विदेहक्षेत्रस्थसर्वतीर्थंकरकेवलि—
गणधरश्रुतकेवलिसर्वसाधुभ्यो नम:।
-सोरठा-
गणपति मुनिपति वंद्य, सुरपति नरपति से नमित।
पूजूँ भक्ति अमंद, आनन्द कंद जिनंद को।।१।।
—गीता छंद—
जय-जय जिनेश्वर तीर्थकर, जय केवली जिन साधुवर।
जय-जय गणीश्वर ऋद्धिधर, श्रुतकेवली श्रुतज्ञानधर।
जय-जय चतुर्विध संघनायक, सूरिवर पाठक सकल।
जय-जय मुनीश्वर साधुगण, जय-जय कल्याणक तीर्थथल।।२।।
कच्छा सुकच्छा महाकच्छा, कच्छकावति देश हैं।
आवर्त लांगलवर्त पुष्कल, पुष्कलावति देश हैं।।
वत्सा सुवत्सा महावत्सा, वत्सकावति जानिये।
रम्या सुरम्या रम्यणीया, मंगलावति मानिये।।३।।
पद्मा सुपद्मा महापद्मा, पद्मकावति क्षेत्र हैं।
शंखा व नलिनी कुमुद सरिता, पश्चिमी दिश देश हैं।
वप्रा सुवप्रा महाव्रपा, वप्रकावति जानिये।
गंधा सुगंधा गंधिला औ, गंधमालिनी मानिये।।४।।
बत्तिस विदेह सुख्यात हैं, प्रत्येक में छह खंड हैं।
हैं पांच पांच म्लेच्छ खंड, इक-इक सु आरज खंड हैं।।
प्रत्येक आरज खंड में, है राजधानी मध्य में।
तीर्थेश चक्री हलधरादिक, जन्मते हैं इन्हीं में।।५।।
तीर्थेश पंच कल्याणकों के, ईश धर्म चलावते।
कुछ तीन कल्याणक व दो, कल्याणकों को पावते।।
इनके समवसरणादि में, गणधर रहें मुनिगण रहें।
बारह सभा के भव्यगण, सुन दिव्यध्वनि शिवपद लहें।।६।।
यहँ शाश्वती है कर्म भू, शिव के किवाड़ खुले रहें।
दुर्भिक्ष ईती भीति औ, पर चक्र आपद ना रहें।
यहाँ न्यूनतम से चार तीर्थंकर अधिक बत्तीस हों।
उन सर्व के पादाब्ज में, संतत नमाऊँ शीश को।।७।।
एकेन्द्रियादिक योनियों में, नाथ! मैं रुलता रहा।
चारों गती में ही अनादी, से प्रभो भ्रमता रहा।।
मैं द्रव्य क्षेत्र रु काल भव औ, भाव परिवर्तन किये।
इनमें भ्रमण से ही अंनता—नंत काल विता दिये।।८।।
बहु जन्म संचित पुण्य से, दुर्लभ मनुष योनी मिली।
हा! बालपन में जड़ सदृश, सज्ज्ञानकालिका ना खिली।।
बहु पुण्य के संयोग से, प्रभु आपकी पूजा करें।
अब शक्ति ऐसी दीजिये, निज के अखिल गुणमणि भरें।।९।।
हे नाथ! बहिरातम दशा को, छोड़ अन्तर आतमा।
होकर सतत ध्याऊँ तुम्हें, हो जाऊँ मैं परमातमा।।
संसार का संसरण तज, त्रिभुवन शिखर पे जा बसूं।
निज के अनंतानंत गुण को, पाय निज में ही बसूं।।१०।।
—दोहा—
तुम प्रसाद से भक्तगण, हो जाते भगवान्।
‘ज्ञानमती’ निज संपदा, पा करके धनवान्।।११।।
ॐ ह्नीं जम्बूद्वीपस्थद्वािंत्रशद्विदेहसंबंधिसर्वतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुतकेवलि—
सर्वसाधुसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीताछंद—
जो भव्य जंबूद्वीप के, तीर्थंकरो को तीर्थ को।
केवलिप्रभू, गणधरगुरु, श्रुतकेवली सब साधु हो।।
नित पूजते हैं भक्ति से, वे आत्मनिधि को पावते।
फिर ‘ज्ञानमति’ रविकिरण से, भविजन कमल विकसावते।।१।।
—पूर्णार्घ्य-शंभु छंद—
जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में, चउ जिनवर विहरण करते हैं।
पूरब धातकि पश्चिम धातकि में, चउ चउ जिनवर राजत हैं।।
पूर्वापर पुष्करार्ध में भी, चउ चउ तीर्थंकर शोभ रहें।
इन बीस तीर्थंकर को यजते, हम परम अतीन्द्रिय सौख्य लहें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं जम्बूद्वीपविदेहक्षेत्र- पूर्वधातकीखण्डद्वीप-पश्चिमधातकीखण्ड-
द्वीपसंबंधिविदेहक्षेत्र – पूर्वपुष्करार्धद्वीप – पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिविदेह-
क्षेत्रस्थितविद्यमान – श्रीसीमंधर – युगमंधर – बाहु-सुबाहु- संजातक-स्वयंप्रभ-
ऋषभानन-अनंतवीर्य-सूरिप्रभ-विशालकीर्ति-वङ्काधर-चंद्रानन-चंद्रबाहु-भुजंगम-
ईश्वरनाथ-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्यनामविंशतितीर्थंकरेभ्य:
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।