अथ स्थापना (शंभु छंद)
इस मध्यलोक में ढाइद्वीप तक, कर्मभूमियाँ मानी हैं।
सब इक सौ सत्तर भव्यहेतु, ये शिवपथ की रजधानी हैं।
इनमें नवदेव रहें उत्तम, उन सबको पूजूँ भक्ती से।
आह्वानन स्थापन करके, गुणमणि को ध्याऊँ युक्ती से।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अथ अष्टक (नरेन्द्र छंद)
सरयूनदि का शीतल जल ले, जिनपद धार करूँ मैं।
साम्यसुधारस शीतल पीकर, भव भव त्रास हरूँ मैं।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर चंदन घिस, जिनपद में चर्चूं मैं।
मानस तनु आगंतुक त्रयविध, ताप हरो अर्चूं मैं।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल अक्षत से, प्रभु नव पुंज चढ़ाऊँ।
निजगुणमणि को प्रगटित करके, फेर न भव में आऊँ।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही मोगरा सेवंती, वासंती पुष्प चढ़ाऊँ।
कामदेव को भस्मसात् कर, आतम सौख्य बढ़ाऊँ।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी लड्डू पेड़ा, रसगुल्ला भर थाली।
तुम्हें चढ़ाऊँ क्षुधा नाश हो, भरें मनोरथ खाली।।
कर्मभूमि के नवेदवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णदीप में ज्योति जलाऊँ, करूँ आरती रुचि से।
मोह अंधेरा दूर भगे, सब ज्ञान भारती प्रगटे।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांगी अग्निपात्र में, खेवत उठे सुगंधी।
कर्म जलें सब सौख्य प्रगट हों, पैले सुयश सुगंधी।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आडू लीची सेब संतरा, आम अनार चढ़ाऊँ।
सरस मधुर फल पाने हेतू, शत-शत शीश झुकाऊँ।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अर्घ्य बनाकर, सुवरण पुष्प मिलाऊँ।
भक्तिभाव से गीत नृत्य कर, प्रभु को अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
कर्मभूमि के नवदेवों को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितअर्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
यमुना सरिता नीर, प्रभु चरणों धारा करूँ।
मिले निजात्म समीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित खिले सरोज, जिनचरणों अर्पण करूँ।
निर्मद करूँ मनोज, पाऊँ निजगुण संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
पंच परम गुरु धर्म श्रुत, जिनप्रतिमा जिनधाम।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले निजातम धाम।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शंभु छंद—
जिनके पांचों कल्याणक में, इन्द्रादि महोत्सव करते हैं।
जो ज्ञान दर्श सुख वीर्यमयी, आनन्त्य चतुष्टय धरते हैं।।
ऐसे अर्हंत अनंत गुणों के, धारी अच्युत परमात्मा।
घाती विरहित केवलज्ञानी, सब जजूूँ शुद्ध अर्हंतात्मा।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितार्हत्परमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो शुक्लध्यानमय अग्नी में, आठों कर्मेन्धन भस्म करें।
परमानंदामृत सरवर में, अतिशय निमग्न हो सौख्य भरें।।
कृतकृत्य परम सिद्धात्मा ये, लोकाग्र शिखर पर तिष्ठ रहें।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ा करके, मेरे सब कर्म कलंक दहें।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितसिद्धपरमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पंचाचार स्वयं पालें, भव्यों से भी पलवाते हैं।
ये शिवपथ विघ्न विनाश करें, रत्नत्रय से नित पावन हैं।।
जल गंधादिक से पूजूँ मैं, ये मुझको मोक्षमार्ग देवें।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय दें, मुझको भी निज सम कर लेवें।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थिताचार्यपरमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो द्वादशांग अरु अंगबाह्य, श्रुत पढ़ते और पढ़ाते हैं।
अष्टांगनिमित्त महाज्ञानी, गुरु उपाध्याय कहलाते हैं।।
इन गुरु के चरण कमल पूजूँ, मुझमें भी ज्ञानज्योति प्रगटे।
ये द्रव्य भावश्रुत पूरे हों, फिर केवलज्ञान ज्योति चमके।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितोपाध्याय-परमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों आराधन आराधें, नित धर्मामृत पीते रहते।
पर्वत वन गुफा कंदरा में, शुद्धात्म ध्यान करते रहते।।
ये साधु स्वात्म सुख साध्य करें, फिर सिद्धिरमा के स्वामी हों।
मैं पूजूँ गुरु के चरण कमल, मेरा मन शिवपथगामी हो।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितसर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
जो लोक और अलोक के, स्वरूप को कहे।
केवलि प्रणीत धर्म ये, संसार दुख दहे।।
बाजा बजाके भक्ति, गीत नृत्य मैं करूँ।
मंगलमयी जिनधर्म जजूँ, मृत्यु को हरूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितजिनधर्मेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
द्वादशांग हे वाङ्मय! श्रुतज्ञानामृतसिंधु।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ायके, तरूँ शीघ्र भवसिंधु।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितजिनागमेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
त्रिभुवन में जिनचैत्य हैं, संख्यातीत अनंत।
अकृत्रिम कृत्रिम सभी, जजूँ करूँ भव अन्त।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितकृत्रिमाकृत्रिम-
जिनचैत्येभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
अकृत्रिम कृत्रिम सभी, पूजूँ जिनवर धाम।
मिले स्वात्म वैवल्यपद, जहाँ पूर्ण विश्राम।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितकृत्रिमाकृत्रिमजिन-
चैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु परमेष्ठी हैं।
जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा, जिनमंदिर त्रिभुवन वंदित हैं।।
ये भूत भविष्यत् में अनंत, संप्रति में जितने भी होवें।
उन सबको पूजूँ भक्ती से, मेरा सुख भी अक्षय होवे।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ भूतभविष्यद्वर्तमानकालसंबंधि-अर्हत्सिद्धा-
चार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिभुवनतिलकजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
-गीता छंद-
जय जय जिनेश्वर देव, तीर्थंकर प्रभू जिन केवली।
जय सिद्ध परमेष्ठी सकल, गणधर गुरू श्रुतकेवली।।
जय जय गुरू आचार्यवर, उवझाय साधूगण मुनी।
जिनधर्म जिनआगम जिनेश्वर, बिंब जिनगृह सुख खनी।।१।।
नवदेवता जयशील हैं, ये कर्मभूमी में रहें।
ये सर्व मंगल लोक में, उत्तम शरणमय हो रहें।।
इनकी करूँ मैं वंदना, कर जोड़ नाऊँ शीश को।
इनकी करूँ मैं अर्चना, शत-शत झुकाऊँ शीश को।।२।।
जिनधर्म में कुछ गुण नहीं, सुर देविगण बलि मांगते।
इस विधि कहें जो मूढ़जन, वे दर्शमोहिनि बांधते।।
जो केवली श्रुत संघ को, जिनधर्म सुर को दोष दें।
वे मोहिनी दर्शन अशुभ को, बांधकर दुख भोगते।।३।।
जिनकेवली को रोग हो, आहार भी लेकर जियें।
श्रुत में कहा है मांस भक्षण, साधुगण निर्लज्ज हैं।।
ये सब असत ् अपवाद हैं, हे नाथ! मैं इनसे बचूँ।
सम्यक्त्वनिधि रक्षित करूँ, हे नाथ! भवदुख से बचूँ।।४।।
क्रोधादि अशुभ कषाय का, उद्रेक जब अति तीव्र हो।
चारित्र मोहिनि बंध हो, नहिं चरित धारण शक्ति हो।।
चारित्रमोह अनादि से, हे नाथ! निर्बल कर रहा।
मेरी अनंती आत्मशक्ती, छीन कर दुख दे रहा।।५।।
करके कृपा हे नाथ! अब, चारित्रमोह निवारिये।
चारित्र संयम पूर्ण हो, भवसिंधु से अब तारिये।।
प्रभु आप ही पतवार हो, मुझ नाव भवदधि में फंसी।
अब हाथ का अवलंब दो, ना देर कीजे मैं दुखी।।६।।
इन आठ कर्मों में अधिक, बलवान एकहि कर्म है।
इसके अठाइस भेद हैं, बहु भेद सर्व असंख्य हैं।।
ये मोहिनी ही स्थिती, अनुभागबंध करे सदा।
ये मोहिनी संसार का, है मूल कारण दुःखदा।।७।।
हे नाथ! ऐसी शक्ति दो, मैं सर्व ममता छोड़ दूँ।
निज देह से भी होऊँ निर्मम, सर्व परिग्रह छोड़ दूँ।।
निज आत्म से ममता करूँ, निज आत्म की चर्चा करूँ।
निज आत्म में तल्लीन हो, निज आत्म की अर्चा करूँ।।८।।
ऐसा समय तुरतहिं मिले, निज ध्यान में सुस्थिर बनूँ।
उपसर्ग परिषह हों भले, निज तत्त्व में ही थिर बनूँ।।
निज आत्म अनुभव रस पिऊँ,परमात्म पद की प्राप्ति हो।
निज ‘ज्ञानमति’ ज्योती दिपे, जो तीनलोक प्रकाशि हो।।९।।
-दोहा-
जब तक नहिं परमात्म पद, तुम पद में मन लीन।
एक घड़ी भी नहिं हटे, बनूँ आत्म लवलीन।।१०।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितार्हत्सिद्धाचार्यो-
पाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्यजन त्रिभुवनतिलक जिनधाम की अर्चा करें।
त्रिभुवन चतुर्गति भ्रमण से, निज की स्वयं रक्षा करें।।
अतिशीघ्र ही त्रिभुवनतिलक निज सिद्धपद को पायेंगे।
निज ज्ञानमति सुख पूर्ण कर, फिर वे यहाँ नहिं आएंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।