अथ स्थापना-गीता छंद
एकेक शशि के नखत अट्ठाईस नभ में चमकते।
सब अर्ध गोलक सदृश निचले भाग से ही दमकते।।
इन सब विमानन मध्य स्वर्णिम कूट पर जिनधाम हैं।
पूजूँ जिनेश्वर बिंब मैं आह्वान कर इत ठाम हैं।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्र विमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्र विमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्र विमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-वसंततिलका छंद
गंगा नदी जल भरा कनकाभ झारी।
धारा करूँ त्रय जिनेश्वर पाद में मैं।।
नक्षत्र के जिननिकेतन नित्य पूजूँ।
स्वामिन्! अनंत भव दु:ख हरो अभी ही।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं
निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर संग घिस चंदन गंध लाया।
पादारविंद प्रभु के चर्चूं अभी मैं।।नक्षत्र.।।२।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान धवलाक्षत पुंज धारूँ।
मेरा अखंड पद नाथ मिले मुझे अब।।नक्षत्र.।।३।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं
निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब सुरभी करते दशों दिक्।
पादारविंद जिनके अर्पण करूँ मैं।।नक्षत्र.।।४।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।।
फेनी सुहाल गुझिया बरफी बनाके।
हे नाथ! अर्पण करूँ क्षुध रोग नाशो।।नक्षत्र.।।५।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जलती हरती अंधेरा।
हे नाथ! आरति करूँ निज ज्ञान चमके।।नक्षत्र.।।६।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं
निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ सुगंध वर धूप सुअग्नि में मैं।
संपूर्ण कर्म झट भस्म बनें न दुख दें।।नक्षत्र.।।७।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार वर द्राक्ष बदाम लेके।
अर्पूं तुम्हें सब मनोरथ पूर्ण कीजे।।नक्षत्र.।।८।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ भर थाल चढ़ाय देऊँ।
मेरा अनर्घ पद नाथ मुझे दिलादो।।नक्षत्र.।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
श्री जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले स्वात्म साम्राज्य, त्रिभुवन में सुखशांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार, कुसुमांजलि अर्पण करूँ।
मिले सर्वसुखसार, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा
सब नक्षत्र विमान में, जिनगृह जिनवर बिंब।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, मिटे सर्व छल डिंभ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
शंभु छंद
कृत्तिका नक्षत्र के छह तारे, इनका आकार वीजना सम।
परिवार तारका सहित सभी, छह हजार छह सौ बहत्तरम्।।
इन सबमें जिनमंदिर शाश्वत, वंदन से सारे पाप हरें।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, वे निज आतम संपत्ति भरें।।१।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतकृत्तिकानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
रोहिणी नखत के पण तारे, गाड़ी की उद्धिका समाकार।
परिवार तारका सहित सकल, पचपन सौ साठ सुश्रुताधार।।इन.।।२।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतरोहिणीनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मृगशीर्षा के त्रय तारा हैं, मृग के शिर सम आकार धरें।
तेतीस सौ छत्तिस सब तारे, ये सब विमान अकृत्रिम खरे।।इन.।।३।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतमृगशीर्षानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आर्द्रा नक्षत्र के इक तारा, दीपक समान आकार धरे।
सब तारे ग्यारह सौ बारह, ज्योतिष विमान की मंद करें१।।इन.।।४।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतआर्द्रानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उडु पुनर्वसू के छह तारा, तोरण समान आकार कहा।
छ्यासठ सौ बहत्तर सब तारे, चमकें विमान ये अधर अहा।।इन.।।५।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतपुनर्वसुनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र पुष्य के त्रय तारा, आकार छत्र सदृश कहे।
सब तारे तेतिस सौ छत्तिस, इनके विमान अति चमक रहें।।इन.।।६।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतपुष्यनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आश्लेषा छह तारा संयुत, बांमी की शिखा सदृश मानें।
तारे छ्यासठ सौ बाहत्तर, परिवार समेत मुनी जानें।।इन.।।७।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतआश्लेषानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उडु मघा चार तारा संयुत, गोमूत्र पंक्ति आकार धरें।
चौवालिस सौ अड़तालिस सब, तारे निशि में सुप्रकाश करें।।इन.।।८।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतमघानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्वा फाल्गुनि के दो तारे, आकार बाण सम तुम जानो।
बाइस सौ चौबिस सब तारे, इनमें जिन प्रतिमा सरधानों।।इन.।।९।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतपूर्वाफाल्गुनिनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन—बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरा फाल्गुनी दो तारे, आकार कहा युग सम नभ मेंं।
बाइस सौ चौबिस सब तारे, इनके विमान गगनांगण में।।इन.।।१०।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतउत्तराफाल्गुनिनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र हस्त पांच तारा, आकार हाथ सम तुम जानों।
पचपन सौ साठ सकल तारे, इनमें जिन प्रतिमा सरधानों।।इन.।।११।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतहस्तनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चित्रा नक्षत्र का इक तारा, आकार नील पंकज सम है।
ग्यारह सौ बारह सब तारे, भूकायिक धातु विनिर्मित हैं।।इन.।।१२।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतचित्रानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
स्वाती नक्षत्र का इक तारा, दीपक सम अतिशय शोभ रहा।
ग्यारह सौ बारह सब तारे, बहु देवी देव निवास वहाँ।।इन.।।१३।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतस्वातिनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र विशाखा चउ तारे, अधिकरण सदृश आकार धरें।
चौवालिस सौ अड़तालिस सब, तारे बहु मंद प्रकाश करें।।इन.।।१४।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतविशाखानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अनुराधा के छह तारे ये, मोती माला आकार धरें।
छ्यासठ सौ बाहत्तर तारे, परिवार देवनित वास करें।।इन.।।१५।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतअनुराधानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ज्येष्ठा नक्षत्र के त्रय तारे, ये वीणा शृंग समान कहे।
तेतिससौ छत्तिस सब तारे, परिवार देव इन मध्य रहें।।इन.।।१६।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतज्येष्ठानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र मूल के नौ तारे, बिच्छू समान आकार धरें।
दस सहस आठ सब तारे हैं, आधे गोलक सु विमान धरें।।इन.।।१७।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतमूलनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्वाषाढ़ा के चउ तारे, दुष्कृत वापी आकार धरें।
चौवालिस सौ अड़तालिस सब, तारे ये मंदप्रकाश करें।।इन.।।१८।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतपूर्वाषाढानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्राषाढा के चउ तारे, ये सिंह कुंभ सम माने हैं।
चौवालिस सौ अड़तालिस सब, तारे ये मंद प्रकाशे हैं।।इन.।।१९।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतउत्तराषाढानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अभिजित् नक्षत्र के त्रय तारे, हाथी के शिर सम दिखते हैं।
तेतिस सौ छत्तिस सब तारे, इनके विमान ही दिखते हैं।।इन.।।२०।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतअभिजित्नक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र श्रवण के त्रय तारे, आकार मृदंग समान धरें।
तेतिस सौ छत्तिस सब तारे, शाश्वत हैं इन में देव भरें।।इन.।।२१।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतश्रवणनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र धनिष्ठा पण१ तारे, गिरते पक्षी सम दिखते हैं।
पचपन सौ साठ सर्व तारे, ये जन मन प्रमुदित करते हैं।।इन.।।२२।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतधनिष्ठानक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शतभिषज नखत इक सौ ग्यारह, तारे ये सैन्य सदृश दिखते।
इक लाख सु तेइस सहस चार सौ बत्तिस सब तारे दिपते।।इन.।।२३।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतशतभिषक् क्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन—बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उडुपूर्वा भाद्रपदा के दो, तारे गज पूर्व शरीर समा।
बाइससौ चौबिस सब तारे, नभ में रात्रि में चमक घना।।इन.।।२४।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतपूर्वाभाद्रपदनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन बिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरा भाद्रपद दो तारे, हाथी के पूर्व शरीर सदृश।
बाइस सौ चौबिस सब तारे, नभ में चमचमते सभी नखत।।इन.।।२५।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतउत्तराभाद्रपदनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन— बिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रेवति उडु के बत्तिस तारे, ये नाव समान दिखें नभ में।
पैंतिस हजार अरु पाँच शतक, चौरासी सब तारे गिनने।।इन.।।२६।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतरेवतीनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अश्विनी नखत के पाँच तारका, घोड़े के शिर सम दिखते।
पचपन सौ साठ सभी तारे, रात्री में किंचित तम हरते।।इन.।।२७।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतअश्विनीनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भरणी नक्षत्र त्रय तारा युत, चूल्हे के सम नभ में दिखते।
तेतिस सौ छत्तिस सब तारे, रात्रि में मंद मंद चमकें।।इन.।।२८।।
ॐ ह्रीं परिवारतारासमेतभरणीनक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य
सब नखत सूर्य के गमन क्षेत्र, में ही नित विचरण करते हैं।
ढाई द्वीपों के बाहर के, नक्षत्र गमन नहिं करते हैं।।
नर लोक मध्य इक सौ बत्तिस, शशि के छत्तिस छ्यानवे हैं।
इस आगे संख्यातीत नखत, सबमें जिनगृह को वंदन है।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके असंख्यात्नाक्षत्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक नखत के छह आदि, मूल तारा बतलाये हैं।
ग्यारह सौ ग्यारह से गुणिते, परिकर तारा कहलाये हैं।।
इन सब ताराओं की संख्या, इस मध्य लोक में असंख्य हैं।
सब के विमान में जिन मंदिर, ये मुनिग्ाण से भी वंदित हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कृत्तिकादिनक्षत्रसम्बन्धिमूलतारापरिवारताराविमानस्थितसंख्यातीत—
जिनालयजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबही नक्षत्र विमानों में, समतलपर दिव्य कूट शोभें।
परिवार तारका के विमान उनमें भी दिव्य कूट शोभें।।
इनपर जिनमंदिर बने हुये जिन प्रतिमा इक सौ आठ-आठ।
इन सब असंख्य जिनप्रतिमा को पूजत हो मंगल ठाठ-वाट।।३।।
ॐ ह्रीं असंख्यातग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला महार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं ज्योतिर्वासिदेवविमानस्थित—असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
दोहा
सब नक्षत्र विमान में, पद्मासन जिनबिंब।
नमूँ नमूँ नत शीश मैं, हरो सकल जग दंभ।।१।।
चाल-शेर
जय जय जिनेन्द्र धाम सर्व पाप हरंता।
जय जय जिनेन्द्र धाम श्रेष्ठ पुण्य भरंता।।
जय जय जिनेन्द्र बिंब रत्न मणिमयी बनें।
चेतन इन्हें नमें स्वयं चिन्मूर्ति परिणमें।।२।।
नक्षत्र के विमान पृथिवी काय धातु के।
एकेंद्रि जीव इनमें जन्म धारते मरते।।
इन जीव के उद्योत नाम कर्म उदय से।
ये बिंब नित्य चमकते हैं शीत किरण से।।३।।
इनके हैं चउ हजार देव विक्रिया करें।
सहादि रूप धार के वाहन बना करें।।
ये अल्प पुण्य से यहां नित क्लेश धारते।
सम्यक्त्व यदि मिले तो चित्त शांति पावते।।४।।
सम्यक्त्व की महिमा अचिन्त्य पार नहीं है।
सम्यक्त्व के बिना जगत की पार नहीं है।।
सम्यक्त्वरत्न शीघ्र मुक्ति प्राप्त करावे।
सम्यक्त्वरत्न आत्म सुधापूर पिलावे।।५।।
जो नित्य इन विमान के जिनगेह वंदते।
वे निज अनंत गुण से स्वयं को हि मंडते।।
वे मोह को यमराज को भि खंड खंडते।
बस तीन रत्न से हि स्वयं स्वात्म मंडते।।६।।
देवाधिदेव! आपकी मैं वंदना करूँ।
सम्यक्त्वरत्न ना छुटे ये प्रार्थना करूँ।।
बस बार बार इसी हेतु अर्चना करूँ।
‘सुज्ञानमती’ पूर्ण करो याचना करूँ।।७।।
घत्ता
जय ज्योतिषि जिनगृह, हरत अशुभ ग्रह, नवग्रह सुरगण तुम पूजें।
जिन वंदत नव ग्रह, होते शुभ ग्रह, मिलता निजगृह जिन पूजें।।८।।
ॐ ह्रीं असंख्यातग्रहविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला महार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शंभु छंद
जो भव्य जैन ज्योतिर्विमान की, जिनप्रतिमा को यजते हैं।
वे सर्व अमंगल दोष दूर कर, नित नव मंगल भजते हैं।।
गुणमणि यश से इस भूतल पर, निज को आलोकित करते हैं।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ किरणों से, तिहुंलोक प्रकाशित करते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:।।