-अथ स्थापना-
(तर्ज-करो कल्याण आतम का……)
नमन श्री नेमि जिनवर को, जिन्होंने स्वात्मनिधि पायी।
तजी राजीमती कांता, तपो लक्ष्मी हृदय भायी।।
परिव्राड् बन सवूँ भगवन्! पधारो मुझ मनोम्बुज में।
करूँ मैं अर्चना रुचि से, अहो उत्तम घड़ी आई।।१।।
नमन श्री…।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमस्थानप्रदायक! श्रीनेमिनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमस्थानप्रदायक! श्रीनेमिनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमस्थानप्रदायक! श्रीनेमिनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
(तर्ज-ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी…..)
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान -२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
भव भव में नीर पिया, नहिं प्यास बुझा पाये।
तुम पद धारा देने, पद्माकर जल लाये।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, जल धारा करने आये हैं।।
भगवान.।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
चंदन चंदा किरणें, नहिं शीतल कर सकते।
तुम पद अर्चा करने, केशर चंदन घिसके।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, चरणों में चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
निज सुख के खंड हुए, नहिं अक्षय पद पाये।
सित अक्षत ले करके, तुम पास प्रभो! आये।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, सित पुंज चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
हे नाथ! कामरिपु ने, त्रिभुवन को वश्य किया।
इससे बचने हेतू, बहु सुरभित पुष्प लिया।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, ये पुष्प चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
बहुविध पकवान चखे, नहिं भूख मिटा पाये।
इस हेतू चरु लेकर, तुम निकट प्रभो! आये।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, नैवेद्य चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
निज मन में अंधेरा है, अज्ञान तिमिर छाया।
इस हेतू दीपक ले, प्रभु पास अभी आया।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, हम आरति करने आये हैं।।
भगवान.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
कर्मों ने दु:ख दिया, तुम कर्मरहित स्वामी।
अतएव धूप लेके, हम आये जगनामी।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, हम धूप जलाने आये हैं।।
भगवान.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
बहुविध के फल खाये, नहिं रसना तृप्त हुई।
ताजे फल ले करके, प्रभु पूजूँ बुद्धि हुई।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, फल अर्पण करने आये हैं।।
भगवान.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
प्रभु तुम गुण की अर्चा, भवतारन हारी है।
भवदधि में डूबे को, अवलंबनकारी है।।
परिव्राज्य परमपदप्राप्ति हेतु, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।
भगवान.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
यमुना नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
श्रीनेमिनाथ के चरण में धार मैं करूँ।।
चउसंघ में सब लोक में भि शांति कीजिए।
बस ये ही एक याचना प्रभु पूर्ण कीजिए।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हे नेमि! श्वेत शंख आप चिन्ह शोभता।
ये सुरभि पुष्प भी तो घ्राण नयन मोहता।।
प्रभु पाद कमल में अभी पुष्पांजलि करूँ।
सब रोग शोक दूर हों निज संपदा भरूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रीसमुद्रविजय शौरीपुरि, नृप पितु मात शिवादेवी।
गर्भ बसे शुभ स्वप्न दिखाकर, तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी।।
गर्भकल्याणक पूजा करते, मिले राह कल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रावण शुक्ला छठ में मति श्रुत, अवधिज्ञानि प्रभु जन्मे थे।
मेरू पर जन्माभिषेक में, देव देवियाँ हर्षे थे।।
जन्मकल्याणक पूजा करते, मिले राह उत्थान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
चले ब्याहने राजुल को, पशु बंधे देख वैराग्य हुआ।
श्रावण सुदि छठ सहस्राम्र वन, में प्रभु दीक्षा स्वयं लिया।
दीक्षा तिथि जजते मिल जावे, बुद्धि आत्मकल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
आश्विन सुदि एकम पूर्वाण्हे, ऊर्जयंत गिरि पर तिष्ठे।
केवलज्ञान सूर्य प्रगटा तब, प्रभु को वांसवृक्ष नीचे।।
समवसरण में किया सभी ने, पूजा केवलज्ञान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।४।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां श्रीनेमिनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
प्रभु गिरनार शैल से मुक्ती, रमा वरी शिवधाम गये।
सुदि आषाढ़ सप्तमी सुरगण, वंद्य नेमि जगपूज्य हुए।।
जो निर्वाण कल्याणक पूजें, मिले राह निर्वाण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां श्रीनेमिनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
गुणरत्नाकर तीर्थकर, तुम पद परम पुनीत।
कुसुमांजलि करके यहाँ, मैं अर्चूं धर प्रीत।।१।।
अथ मंडलस्योपरि तृतीयकोष्ठके पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं ज्ञानमूर्तिगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं जिनसेव्यगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं जिनाधिपगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं जिनकान्तगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं जिनप्रीतगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं जिनाधिराट्गुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं जिनप्रियगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं जिनधुर्यगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं जिनार्चांघ्रिगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं जिनाग्रिमगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं जिनस्तुतगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं जिनहंसगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं जिनत्रातृगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं जिनर्षभगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं जिनाग्रगगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं जिनधृद्गुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं जिनचक्रेशगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं जिनदातृगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं जितात्मकगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं जिनाधिकगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं जिनालक्षगुणसमन्विताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं जिनशांतगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं जिनोत्कटगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं जिनाश्रितगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
ॐ ह्रीं जिनाल्हादिगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
ॐ ह्रीं जिनातर्क्यगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
ॐ ह्रीं जिनान्वितगुणविशिष्टाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
ॐ ह्रीं शमदमशासनोपदेशकजैनगुणसमन्विताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
ॐ ह्रीं जैनवरगुणविशिष्टाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
ॐ ह्रीं जैनस्वामिगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
ॐ ह्रीं जैनपितामहगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
ॐ ह्रीं जैनेड्यगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
ॐ ह्रीं जैनसंघार्च्यगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
ॐ ह्रीं जैनभृद्गुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
ॐ ह्रीं जैनपालकगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
ॐ ह्रीं जैनकृद्गुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
ॐ ह्रीं जैनधौरेयगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
ॐ ह्रीं जैनेशगुणविशिष्टाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
ॐ ह्रीं जैनभूपतिगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
ॐ ह्रीं जैनेड्गुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
ॐ ह्रीं जैनाग्रिमगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
ॐ ह्रीं जैनपितृगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
ॐ ह्रीं जैनहितंकरगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
ॐ ह्रीं जैननेतृगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
ॐ ह्रीं जैनाढ्यगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
ॐ ह्रीं जैनधृदगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
ॐ ह्रीं जैनदेवराड्गुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
ॐ ह्रीं जैनाधिपगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
ॐ ह्रीं जैनात्मगुणविशिष्टाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
ॐ ह्रीं जैनेक्ष्यगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
ॐ ह्रीं जैनचक्रभृद्गुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१।।
ॐ ह्रीं जिताक्षगुणधारकाय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
ॐ ह्रीं जितकंदर्पगुणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
ॐ ह्रीं जितकामगुणसमन्विताय श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५४।
-पूर्णार्घ्य-
पंचमहाव्रत पंचसमिति, त्रय गुप्ति सहित जो माना।
वर चारितमय परीव्राज्य पद, जग में सर्व प्रधाना।।
परिव्राज्य पद परम प्रदाता, प्रभु को नित्य भजूँ मैं।
नेमिनाथ को अष्टद्रव्य ले, हर्षित भाव जजूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमस्थानप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय नम:।
(तर्ज-चंदन सा बदन…….)
नेमी भगवन्! शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
कर जोड़ खड़े, तव चरण पड़े, हम शीश झुकाते चरणों में।।टेक.।।
यौवन में राजमती को वरने, चले बरात सजा करके।
पशुओं को बांधे देख प्रभो! रथ मोड़ लिया उल्टे चल के।।
लौकांतिक सुर संस्तव करके, पुष्पांजलि की तव चरणों में।।नेमी.।।१।।
प्रभु नग्न दिगंबर मुनि बने, ध्यानामृत पी आनंद लिया।
वैवल्य सूर्य उगते धनपति ने, समवसरण भी अधर किया।।
तब राजमती आर्यिका बनी, चतुसंघ नमें तव चरणों में।।नेमी.।।२।।
वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, अठरह हजार मुनिराज वहाँ।
राजीमति गणिनी आदिक, चालिस हजार संयतिकाएँ वहाँ।।
इक लाख सुश्रावक तीन लाख, श्राविका झुकीं तव चरणों में।।नेमी.।।३।।
सर्वाण्ह यक्ष अरु कूष्मांडिनि, यक्षी प्रभु शंख चिन्ह माना।
आयू इक सहस वर्ष चालिस, कर सहस देह उत्तम जाना।।
द्वादशगण से सब भव्य वहाँ, शत-शत वंदें तव चरणों में।।नेमी.।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें।
चउ दिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्म कहें।।
सौ इन्द्र मिले पूजा करते, नित नमन करें तव चरणों में।।नेमी.।।५।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहुकोशों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।
तनु नीलवर्ण सुंदर प्रभु को, सब वंदन करते चरणों में।।नेमी.।।६।।
तरुवर अशोक था शोकरहित, सिंहासन रत्न खचित सुंदर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
निज सात भवों को देख भव्य, प्रणमन करते तव चरणों में।। नेमी.।।७।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहे, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चंवर।
सुरपुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि पैले योजन भर।।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, अतिभक्ति लीन तव चरणों में।।नेमी.।।८।।
हे नेमिनाथ! तुम बाह्य और अभ्यंतर लक्ष्मी के पति हो।
दो मुझे अनंत चतुष्टयश्री, जो ज्ञानमती सिद्धिप्रिय हो।।
इसलिए अनंतों बार नमें, हम शीश झुकाते चरणों में।।नेमी.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्य-परमपदप्राप्तये श्रीनेमिनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो सप्तपरमस्थान तीर्थंकर विधान सदा करें।
वे भव्य क्रम से सप्तपरमस्थान की प्राप्ती करें।।
संसार के सुख प्राप्त कर फिर सिद्धिकन्या वश करें।
सज्ज्ञानमति रविकिरण से भविमन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।