आठों विध कर्म नाश करके, अष्टम पृथ्वी को पाया है।
गुण आठ प्रधान अनंतानंत, गुणों को भी प्रकटाया है।।
परमानंदामृत आस्वादी, सिद्धालय में प्रभु तिष्ठ रहें।
ऐसे जिनवर की पूजा कर, हम भी निज सौख्य प्रसिद्ध लहें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आहृवाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरण् ।
क्षीरोदधी का नीर पय सम, स्वर्णझारी मैं भरूँ।
निज कर्म पंक्ति धोवने को, नाथपद धारा करूँ।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय चिदंबर चित्पुरुष तीर्थेश के पादाब्ज को।
शुभ गंध से चर्चन करूँ, मुझको सुगुण यश प्राप्त हो।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चैतन्य चिंतामणि जिनेश्वर को रिझाऊँ भक्ति से।
उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल पुंज अर्पूं युक्ति से।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा चमेली केवड़ा, सुरभित कुसुम अर्पण करूँ।
जिनराज पारसमणि जजत निज आत्म को कंचन करूँ।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पैनी इमरती रसभरी मिष्टान्न से भर थाल को।
निज आत्म अमृत स्वाद हेतू मैं चढ़ाऊँ नाथ को।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योती स्वर्ण दीपक में दिपे सब तम हरे।
निज ज्ञान ज्योती हो प्रगट इस हेतु हम आरति करें।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित दशांगी धूप खेऊँ धूप घट की अग्नि में।
निज आत्म यश सौरभ उठे सुख शांति पैâले विश्व में।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर अमृत फल सरस फल अर्प कर प्रभु पूजते।
स्वात्मैक परमानंद अमृत प्राप्त हो जिनभक्ति से।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत आदि लेकर अर्घ भर कर में लिया।
निज रत्नत्रय निधि लाभ हेतु नाथ को अर्पण किया।।
तीर्थंकरों के मोक्षकल्याणक, जजूँ नित भाव से।
निज सुख अतीन्द्रिय प्राप्त हेतू, सिद्ध पूजूँ चाव से।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तुम पद पंकज में सदा।
जग में शांती हेत, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दशदिशा।
तीर्थंकर पादाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
चिंतित फल देवो, मुझे, चििंच्चतामणि रत्न।
पुष्पांजलि से पूजते, मिलें शीघ्र त्रयरत्न।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्दश्यां ऋषभदेवमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापंचम्यां अजितनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाषष्ठ्यां संभवनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठ्यां अभिनंदननाथ मोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां सुमतिनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्थ्यां पद्मप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां सुपार्श्वनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां चंद्रप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाअष्टम्यां पुष्पदंतनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाअष्टम्यां शीतलनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लापूर्णिमायां श्रेयांसनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां वासुपूज्यजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं आषाढकृष्णाअष्टम्यां विमलनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां अनंतनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाचतुर्थ्यां धर्मनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां शांतिनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं ाfनर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपदायां कुंथुनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां अरनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लापंचम्यां मल्लिनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाद्वादश्यां मुनिसुव्रतनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाचतुर्दश्यां नमिनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां नेमिनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां पार्श्वनाथमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां महावीरजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
श्रीऋषभदेव चौदह दिन योग निरोधा नहीं विहार किया।
दो दिन तक वीर प्रभू बाइस जिन योग रोध इक माह किया।।
श्री ऋषभ वासुपूज नेमिनाथ पर्यंकासन से मुक्त हुये।
शेष सभी तीर्थंकर कायोत्सर्गासन से सिद्ध हुए।।
चौबिस जिनकी मुक्तितिथि, मुक्तिस्थान पवित्र।
नमूँ नमूँ नितभाव से, होवे चित्त पवित्र।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरमोक्षकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं मोक्षकल्याणकसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
स्वात्म सुधारस सौख्यप्रद, परमाह्लाद करंत।
गाऊँ जिनगुण मालिका, हो मुझ शांति अनंत।।१।।
जय जय जिनेश्वर तीर्थंकर प्रभु सिद्ध पद को पा लिया।
जय जय जिनेश्वर सर्व हितकर मोक्षमार्ग दिखा दिया।।
संपूर्ण कर्म विनाश कर कृतकृत्य त्रिभुवनपति बने।
यममल्ल को भी चूर कर प्रभु आप मृत्युंजयि बने।।२।।
तत्क्षण ऋजूगति से प्रभो लोकांत में जाकर बसें।
धर्मास्तिकाय अभाव से उससे उपरि नहिं जा सकें।।
तब इंद्रगण ने मोक्षकल्याणक मनाया हर्ष से।
चउविध असंख्यों देव ने उत्सव किया अतिभक्ति से।।३।।
देवेन्द्र ने त्रय कुंड की रचना करी विधिवत् वहाँ।
तीर्थेश का चौकोन कुण्ड सुगार्हपत्य कहा महा।।
इसमें जिनेश्वर देह का संस्कार करने हेतु से।
अग्नी प्रगट की मुकुट से अग्नीकुमार सुरेन्द्र ने।।४।।
गणधर सुकुंड त्रिकोन आह्वनीय अग्नी से दिपे।
सामान्य केवलि मुनी का है गोल कुंड समीप में।।
इसमें अगनि है दक्षिणाग्नी नाम इन त्रय कुंड में।
जो अग्नि भी वह भी वहाँ पूजित हुई सुरवृंद से।।५।।
निर्वाणकल्याणक समय की अग्नि भी तो पूज्य है।
देवेन्द्र ने वर्णन किया, यह कहे आदि पुराण है।।
जिनवर शरीर स्पर्श से सब क्षेत्र पर्वत पूज्य हैं।
जिनवर चरण की धूलि से पृथ्वी कहाती तीर्थ है।।६।।
सब इंद्रगण मिलकर वहाँ आनंद नृत्य किया तभी।
खुशियाँ मनाई भक्ति से स्तव किया बहुविध सभी।।
भगवन्! मुझे भी शक्ति ऐसी दीजिए यांचा करूँ।
पंडित सुपंडित मरण ऐसा मिले यह वांछा करूँ।।७।।
इस विध सुरासुर इंद्रगण गणधर गुरू मुनिगण सभी।
चक्राधिपति बलदेव नारायण मनुज मांगे सभी।।
फिर-फिर करें यांचा प्रभू से हर्ष से जय जय करें।
निर्वाणकल्याणक महोत्सव कर सफल निज भव करें।।८।।
मैं भी यहाँ पर नाथ के निर्वाण की पूजा करूँ।
मोहारि नाशन हेतु भगवन्! आपकी अर्चा करूँ।।
धनि धन्य है यह शुभ घड़ी धनि धन्य मेरा जन्म है।
धनि धन्य हैं ये नेत्र मेरे धन्य मेरा कंठ है।।९।।
प्रभु आप भक्ती से मुझे निज तत्त्व का श्रद्धान हो।
निज तत्त्व परमानंद में रम जाऊँ यह वरदान दो।।
आनन्त्य दर्शन ज्ञान सुख वीरजमयी निजआतमा।
शैवल्य ‘ज्ञानमती’ सहित बन जाऊँ मैं परमात्मा।।१०।।
जय जय तीर्थंकर, सर्वहितंकर, त्रिभुवन गुरुवर नित्य नमूँ।
निर्वाण कल्याणक, निजसुखदायक, भवदुखघातक नित प्रणमूँ।।११।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणकल्याणकेभ्यो जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो पंचकल्याणक महापूजा महोत्सव को करें।
वे पंचपरिवर्तन मिटाकर पंच लब्धी को धरें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप हो मुक्ति कन्या वश करें।
‘सुज्ञानमति’ रविकिरण से भविजन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।