ऊपर कही हुई कथा को कहने वाला आचार्य वही पुरुष हो सकता है, जो सदाचारी हो, स्थिरबुद्धि हो, इन्द्रियों को वश में करने वाला हो, जिनकी सब इन्द्रियाँ समर्थ हों, जिसके अंगोपांग सुन्दर हों, जिसके वचन स्पष्ट परिमार्जित और सबको प्रिय लगने वाले हों, जिसका आशय जिनेन्द्रमतरूपी समुद्र के जल से धुला हुआ और निर्मल हो, जिसकी वाणी समस्त दोषों के अभाव से अत्यन्त उज्ज्वल हो, श्रीमान् हो, सभाओं को वश में करने वाला हो, प्रशस्त वचन बोलने वाला हो, गंभीर हो, प्रतिभा से युक्त हो, जिसके व्याख्यान को सत्पुरुष पसंद करते हों, अनेक प्रश्न तथा कुतर्कों को सहने वाला हो, दयालु हो, प्रेमी हो, दूसरे के अभिप्राय को समझने में निपुण हो, जिसने समस्त विद्याओं का अध्ययन किया हो और धीर, वीर हो, ऐसे पुरुष को ही कथा कहनी चाहिए। जो अनेक उदाहरणों के द्वारा वस्तुस्वरूप कहने में कुशल है, संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओं में निपुण है, अनेक शास्त्र और कलाओं का जानकार है, वही उत्तम वक्ता कहा जाता है। वक्ता को चाहिए कि वह कथा कहते समय अंगुलियाँ नहीं चटकावे,न भौंह ही चलावे, न किसी पर आक्षेप करे, न हँसे, न जोर से बोले और न धीरे ही बोले। यदि कदाचित् सभा के बीच में जोर से बोलना पड़े, तो उद्धतपना छोड़कर सत्यप्रमाणित वचन इस प्रकार बोले, जिससे किसी को क्षोभ न हो। वक्ता को हमेशा वही वचन बोलना चाहिए, जो हितकारी हो, परिमित हो, धर्मोपदेश से सहित हो और यश को करने वाला हो। अवसर आने पर भी अधर्मयुक्त तथा अकीर्ति को फैलाने वाले वचन नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार अयुक्तियों का परिहार करने वाली कथा की युक्तियों का सम्यक् प्रकार से विचार कर जो वर्णनीय कथावस्तु का प्रारंभ करता है, वह प्रशंसनीय श्रेष्ठ वक्ता समझा जाता है। बुद्धिमान् वक्ता को चाहिए कि वह अपने मत की स्थापना करते समय आक्षेपिणी कथा कहे, मिथ्यामत का खण्डन करते समय विक्षेपिणी कथा कहे, पुण्य के फलस्वरूप विभूति आदि का वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादन के समय निर्वेदिनी कथा कहे। इस प्रकार धर्मकथा के अंगभूत आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनीरूप चारों कथाओं का विचार कर श्रोताओं की योग्यतानुसार वक्ता को कथन करना चाहिए।