रचयित्री-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
ॐ नमोर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नम: श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगोपसर्गविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय, सर्वक्षामडामर-विनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ-सा नम: मम (…)१ सर्वज्ञानावरण कर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वदर्शनावरण कर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्ववेदनीयकर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वमोहनीयकर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वायु:कर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वनामकर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वगोत्रकर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वान्तरायकर्म छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वक्रोधं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वमानं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वमायां छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्व लोभं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वमोहं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वरागं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वद्वेषं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वगजभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वसिंहभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वाग्निभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वसर्पभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वयुद्धभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वसागरनदीजलभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वजलोदरभगंदर-कुष्ठकामलादिभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वनिगडादिबंधनभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्ववायुयानदुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्ववाष्पयानदुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वचतुश्चक्रिका-दुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वत्रिचक्रिकादुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वद्विचक्रिकादुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्ववाष्पधानीविस्फोटकभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वविषाक्तवाष्प-क्षरणभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वविद्युतदुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वभूकंपदुर्घटनाभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वभूतपिशाचव्यंतरडाकिनीशाकिन्यादिभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वधनहानिभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वव्यापारहानिभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वराजभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वचौरभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वदुष्टभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वशत्रुभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वशोकभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वसाम्प्रदायिकविद्वेषं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्ववैरं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वदुर्भिक्षं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वमनोव्याधिं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्व-आर्तरौद्रध्यानं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वदुर्भाग्यं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वायश: छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वपापं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्व-अविद्यां छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वप्रत्यवायं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वकुमतिं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वक्रूरग्रहभयं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वदु:खं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि सर्वापमृत्युं छिन्द्धि छिन्द्धि भिन्द्धि भिन्द्धि।
ॐ त्रिभुवनशिखरशेखर-शिखामणित्रिभुवनगुरूत्रिभुवनजनता-अभयदान-दायकसार्वभौमधर्मसाम्राज्यनायकमहति-महावीरसन्मतिवीरातिवीरवर्धमान-नामालंकृत-श्रीमहावीरजिनशासनप्रभावात् सर्वे जिनभक्ता: सुखिनो भवंतु।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं आद्यानामाद्ये जम्बूद्वीपे मेरोर्दक्षिणभागे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे भारतदेशे ….. प्रदेशे ….. नामनगरे वीरसंवत् ….. तमे ….. मासे ….. पक्षे ….. तिथौ …..वासरे नित्यपूजावसरे (….. विधानावसरे१) विधीयमाना इयं शान्तिधारा सर्वदेशे राज्ये राष्ट्रे पुरे ग्रामे नगरे सर्वमुनि-आर्यिका-श्रावकश्राविकाणां चतुर्विधसंघस्य शांतिं करोतु मंगलं तनोतु इति स्वाहा।
हे षोडश तीर्थंकर! पंचमचक्रवर्तिन्! कामदेवरूप! श्री शांतिजिनेश्वर! सुभिक्षं कुरु कुरु मन: समाधिं कुरु कुरु धर्मशुक्लध्यानं कुरु कुरु सुयश: कुरु कुरु सौभाग्यं कुरु कुरु अभिमतं कुरु कुरु पुण्यं कुरु कुरु विद्यां कुरु कुरु आरोग्यं कुरु कुरु श्रेय: कुरु कुरु सौहार्दं कुरु कुरु सर्वारिष्ट-ग्रहादीन् अनुकूलय अनुकूलय कदलीघातमरणं घातय घातय आयुर्द्राघय द्राघय सौख्यं साधय साधय, ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथाय जगत्शांतिकराय सर्वोपद्रव-शांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:। परमपवित्रसुगंधितजलेन जिनप्रतिमाया: मस्तकस्योपरि शांतिधारां करोमीति स्वाहा। चतुर्विधसंघस्य सर्वशांतिं कुरु कुरु तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु वषट् स्वाहा।