महर्शि वेद व्यास जी की सनातन वैदिक धर्म परम्परा मान्य प्रमाणित कृति में भगवान ऋशभदेव को आठवाँ अवतार निरूपित किया गया है। यथा –
अश्ठमे मेरूदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रम :।
दर्षयन् वत्र्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम्।।
राजा नाभि के पत्नी मेरुदेवी (मरुदेवी) के गर्भ से ऋशभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया इस रूप में उन्होंने परमहंसां (दि.श्रमणों) का वह मार्ग जो सभी आश्रमियों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास) के लिऐ वन्दनीय है, दिखाया। भागवत पुराण में ऋशभदेव के विभिन्न स्वरूप, व्यक्तित्व एवं कर्तृत्वआयामों को बड़ी श्रद्धा पूर्वक प्रकट किया गया हैं। यद्यपि कुछ स्वरूपान्तर भी है तथापि जैनधर्म मान्य मोक्ष मार्र्ग के स्वीकृत तत्वों, लोक रीति, सृजनात्मक और साधनरूपों की प्रामाणिकता इससे सिद्ध होती है। इसके पत्र्चम स्कन्ध में भ० ऋशभावातार का वर्णन है। जैन मान्यतानुसार ही यहाँ भी तीर्थकर ऋशभ को दि० श्रमण उल्लिखित किया गया हैं। दृश्टव्य है,
”तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान्दर्षयितुकामो वातरषनानां
श्रमणानामृशीणामूध्र्वन्थिानां “शुक्लया तनुवावतार।“
प्रकट है कि भ. ऋशभदेव श्रमण दि० संन्यासी ऊध्र्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिए “शुद्ध सत्त्वमय “शरीर (वज्र वृशभनाराच संहनन सहित परमौदारिक) सहित उत्नन्न हुए। श्री व्यास जी के अनुसार भ० ऋशभदेव सुन्दर सुडौल (समचतुस्र संस्थान) “ारीर, विपुल, र्कीति, तेज, बल, (अनन्त बल) ऐष्वर्य, यष, पराक्रम, “रवीरता आदि श्रेश्ठ गुणों के धारी थे। अतएव राजा नाभि ने उनका नाम ऋशभ रखा। समता “ाान्ति वैराग्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनों दिन बढ़ता जाता था । नाभिराय ने उन्हे राज्याभिशिक्त कर दिया। भ० ऋशभदेव ने काल के अनुसार अर्थात् कर्मभूमि योग्य धर्म का आचरण करके तत्व के न जानने वाले लोगों को उसकी षिक्षा दी। साथ ही सम सुहृदय और कारुणिक (अहिंसक) रहकर धर्म, अर्थ, यष, सन्तान, भोगसुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोकों को नियमित किया। इस कथन से स्पश्ट है कि भ० ऋशभ ने राज्यावस्था में लोक स्रश्टा के रूप में प्रजा को असि मशि कृशि षिल्प वाणिज्य और विद्या इन आजीविका के कर्मों में प्रवत्र्तित किया वे आदि ब्रह्मा कहलाये। उन्होंने ही समाज हित में क्षत्रिय, वैष्य, “शूद्र, वर्णों की स्थापना भी की। व्यास जी ने कहा कि ऋशभ देव के पुत्र भरत के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा। (अजनाभं नामैतद्वर्शं भारतमिति यत् आरम्भ व्यपदिषन्ति- (अ० 7/3)। पचम स्कन्ध के अध्याय 6/19 में व्यास जी कहते हैः-
नित्यानुभूतिनिजलाभनिवृत्ततृश्णः
श्रेयस्य तद्रचयना चिरसुप्तबुद्धेः।
लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोक-
मारव्यान्नमो भगवते ऋशभाय तस्मै।। 19 ।।
निरन्तर विशय भोगों की अभिलाशा करने के कारण अपने वास्तविक कल्याण से गिरकर एवं चिरकाल तक सुप्त-वेसुध हुए लोगों को जिन्होने करुणावष निर्भय आत्मलोक (आत्मज्ञान) अर्थात् आध्यात्मिक विद्या का उपदेष दिया और स्वयं निरंतर अनुभव होने वाले आत्म स्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृश्णाओं से मुक्त (वीतराग) थे उन भगवान ऋशभदेव को नमस्कार हों। इस ग्रन्थ में भ. को पारमहंस्य धर्म (श्रमण निग्र्रंथ) का आचरिता एवं प्रणेता घोशित किया गया है। इसके आधार पर इस सत्य को जन जन तक पहुँचाने की आवष्यकता है कि भ० महावीर ने जैन धर्म चलाया नहीं वे तो इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर थे इस अवसर्पिणी से पूर्व उत्सर्पिणी तथा उससे पूर्व उनकी अनादि परम्परा है जिनमें प्रत्येक में चैबीस-चोबीस तीर्थंकर अर्थात् अनन्तों तीर्थंकर महाप्रभु अवतरित हो चुके हैं और सभी ने एक अहिंसा अथवा जैन धर्म का प्रवत्र्तन प्रचार किया है। धर्म कोई नया चलाने की वस्तु नहीं है। इस अवसर्पिणी की कर्मभूमि कालावधि में ऋशभ से लेकर तेइसवें भ० पाष्र्वनाथ का अवतरण भ० महावीर से पूर्व हो चुका है। वर्तमान में पू० आर्यिका ज्ञानमती माता जी इस सत्य को जन तक पहुँचाने में प्रयत्नषील है। उनका प्रयास स्तुत्य है। भागवत में भ० ऋशभ देव का विस्तृत वर्णन है, जिज्ञासुओ को पठनीय है।