-दोहा-
तीर्थंकर अरनाथ! तुम, चक्ररत्न के ईश।
ध्यान चक्र से मृत्यु को, मारा त्रिभुवन ईश।।१।।
आह्वानन विधि से यहाँ, मैं पूजूँ धर प्रीत।
रोग शोक दु:ख नाशकर, लहूँ स्वात्म नवनीत।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-अडिल्ल छंद-
सिंधुनदी को नीर, स्वर्णझारी भरूँ।
मिले भवोदधितीर, तीन धारा करूँ।।
श्री अरनाथ जिनेन्द्र, जजूँ मन लाय के।
समतारस पीयूष, चखूँ तुम पाय के।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर चंदन घिसा, कटोरी में भरा।
रागदाह हरने को, चर्चं सुखकरा।।श्री अर.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रकिरण सम उज्ज्वल, अक्षत ले लिये।
तुम आगे मैं पुंज, धरूँ सुख के लिए।।श्री अर.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा जुही गुलाब, पुष्प सुरभित लिये।
भव विजयी के चरणों, में अर्पण किये।।श्री अर.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपुआ रसगुल्ला, बहु मिष्टान्न ले।
क्षुधारोग हर हेतु, चढ़ाऊँ नित भले।।
श्री अरनाथ जिनेन्द्र, जजूँ मन लाय के।
समतारस पीयूष, चखूँ तुम पाय के।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक ले करूँ, आरती नाथ की।
मोहध्वांत हर लहूँ, भारती ज्ञान की।।श्री अर.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर वर धूप, अग्नि में खेवते।
कर्म दूर हो नाथ! चरण युग सेवते।।श्री अर.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल पूग बदाम, आम केला लिये।
शिवफल हेतू तुम, पद में अर्पण किये।।श्री अर.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत, आदिक वसु द्रव्य ले।
अर्घ चढ़ाऊँ ‘‘ज्ञानमती’’ निधियाँ मिलें।।श्री अर.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
अर जिन चरण सरोज, शांतीधारा मैं करूँ।
चउसंघ शांती हेत, शांतीधारा जगत में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी पुष्प, सुरभित निजकर से चुने।
श्री जिनवर पदपद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सखी छंद-
फाल्गुन कृष्णा तृतिया में, प्रभु गर्भ निवास किया तें।
सुरपति ने उत्सव कीना, हम पूजें भवदुखहीना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं फाल्गुनकृष्णातृतीयायां श्रीअरनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर शुक्ला चौदस के, प्रभुजन्म लिया सुर हर्षे।
मेरू पर न्हवन हुआ है, इन्द्रों ने नृत्य किया है।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं मार्गशीर्षशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअरनाथजिनजन्मकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदी दशमी तिथि में, दीक्षा धारी प्रभु वन में।
इंद्रों से पूजा पाई, हम पूजें मन हरषाई।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं मार्गशीर्षशुक्लादशम्यां श्रीअरनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक सुदि बारस तिथि में, केवल रवि प्रकटा निज में।
बारह गण को उपदेशा, हम पूजें भक्ति समेता।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं कार्तिकशुक्लाद्वादश्यां श्रीअरनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय
अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
शुभ चैत्र अमावस्या में, मुक्तिश्री परणी प्रभु ने।
इन्द्रोें ने की प्रभु अर्चा, पूजन से निजसुख मिलता।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं चैत्रकृष्णामावस्यायां श्रीअरनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
अरहनाथ की वंदना, करे कर्मअरि नाश।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजते, मिले सर्वगुण राशि।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथजिनपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
ज्ञान दर्श सुखवीर्यमय, गुण अनंत विलसंत।
सुमन चढ़ाकर पूजहूँ, हरूँ सकल जगफंद।।१।।
।।अथ मंडलस्योपरि चतुर्थवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
विष्णुपद—छंद
आप नाम ‘श्रीवृक्षलक्षणा’ इंद्र सदा गावें।
दिव्य अशोक वृक्ष इक योजन मणिमय दर्शावें।।
श्री अरप्रभु को मैं नित पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवृक्षलक्षणनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अनंतलक्ष्मी प्रिया साथ में, आलिंगन करते।
सूक्ष्मरूप होने से भगवन् ‘श्लक्ष्ण’ नाम धरते।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्लक्ष्णनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अष्ट महाव्याकरण कुशल हो, सर्वशास्त्रकर्ता।
प्रभु आप ‘लक्षण्य’ नामधर सब लक्षण भर्ता।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं लक्षण्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘शुभलक्षण’ श्रीवृक्ष शंख पंकज स्वस्तिक आदी।
प्रातिहार्य मंगल सुद्रव्य शुभ लक्षण सौ अठ भी।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं शुभलक्षणनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभू ‘निरक्ष’ इंद्रिय से विरहित सौख्य अतींद्रिय हैं।
इंद्रिय निग्रहकर जो ध्याते वे निज सुखमय हैं।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं निरक्षनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभू ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहाये नेत्र कमलसम हैं।
नासादृष्टि सौम्य छवि लखते नेत्र प्रफुल्लित हैं।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुण्डरीकाक्षनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुष्कल’ आत्मगुणों से भगवन्! तुम परिपुष्ट हुये।
भक्तजनों का पोषण करते जो तुम शरण भये।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुष्कलनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभू ‘पुष्करेक्षण’ पंकज दल सदृश नेत्र लम्बे।
निजमन कमल खिलाने हेतू भवि तुम अवलंबे।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पुष्करेक्षणनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभो ‘सिद्धिया’ स्वात्मलब्धि मुक्ती के दायक हो।
भक्तों की सब कार्यसिद्धि हित तुम ही लायक हो।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धियानामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभो! ‘सिद्धसंकल्प’ सर्व संकल्प सिद्ध कीना।
भक्तों के भी सकल मनोरथ पूरे कर दीना।।श्री.।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धसंकल्पनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धात्मा’ प्रभु तुम आत्मा ने सिद्ध अवस्था ली।
सिद्ध शिला पर आप विराजे अनवधि गुणशाली।।श्री.।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धात्मानामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नाम! ‘सिद्धसाधन’ शिवसाधन रत्नत्रय धारा।
जिनने आप चरण को पूजा उन्हें शीघ्र तारा।।श्री.।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धसाधननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
ज्ञेयवस्तु सब जान लिया है नहीं शेष कुछ भी।
‘बुद्धबोध्य’ अतएव कहाये, लिया सर्वसुख भी।।श्री.।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं बुद्धबोध्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
रत्नत्रय गुण विभव प्रशंसित सब जग में प्रभु का।
‘महाबोधि’ अतएव आप ही हरो सर्व विपदा।।
श्री अरप्रभु को मैं नित पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाबोधिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
परम श्रेष्ठ अतिशायी पूजा ज्ञान लहा तुमने।
सदा गुणों से बढ़ते रहते ‘वर्द्धमान’ जग में।।श्री.।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं वर्द्धमाननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
बड़ी-बड़ी ऋद्धी के धारक आप ‘महर्द्धिक’ हो।
गणधर मुनिगण वंदित चरणा आप सौख्यप्रद हो।।श्री.।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महर्द्धिकनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
वेद-चार अनुयोग ज्ञान के अंग-उपाय तुम्हीं।
अत: आप ‘वेदांग’ ज्ञानप्राप्ती के हेतु तुम्हीं।।श्री.।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं वेदांगनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
वेद-आत्मविद्या शरीर से भिन्न आतमा है।
इसके ज्ञाता भिन्न किया तनु अत: ‘वेदविद्’ हैं।।श्री.।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं वेदविद्नामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘वेद्य’ आप ऋषिगण के द्वारा ज्ञान योग्य माने।
स्वसंवेद्य ज्ञान वो पाते जो पूजन ठाने।।श्री.।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं वेद्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘जातरूप’ तुम जनमे जैसे रूप दिगंबर है।
प्रकृतरूप निर्दोष आपका भविजन सुखप्रद है।।श्री.।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं जातरूपनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
विद्वानों में श्रेष्ठ ‘विदांवर’ आप पूर्णज्ञानी।
तुमपद पंकज भक्त शीघ्र ही वरते शिवरानी।।श्री.।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं विदांवरनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आगम से तुम जानन योग्य कहे।
केवलज्ञान से हि या प्रभु जानन योग्य रहे।।श्री.।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं वेदवेद्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘स्वयंवेद्य’ प्रभु स्वयं सुअनुभव गम्य आप ही हैं।
स्वयं स्वयं का अनुभव करके हुये केवली हैं।।श्री.।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं विवेदनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नाथ ‘विवेद’ वेदत्रय विरहित स्त्री पुरुषादी।
हो विशिष्ट विज्ञानी भगवन्! आतम सुखस्वादी।।श्री.।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं विवेदनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘वदताम्बर’ प्रभु वक्तागण में सर्वश्रेष्ठ तुम ही।
सब भाषामय दिव्यध्वनी से उपदेशा तुम ही।।श्री.।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं वदताम्बरनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-दोहा-
नाथ! ‘अनादिनिधन’ तुम्हीं, आदि अंत से हीन।
अतिशय लक्ष्मीयुत तुम्हीं, पूजूँ भक्ति अधीन।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनादिनिधननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्त’ आप सुज्ञान से, प्रगट सर्वथा मान्य।
सर्व अर्थ प्रकटित किया, जजत मिले धन धान्य।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं व्यक्तनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘व्यक्तवाक्’ प्रभु तुम वचन, सर्व प्राणि को गम्य।
सभी अर्थ स्पष्ट हो, नमत जन्म हो धन्य।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं व्यक्तवाक््नामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभो! ‘व्यक्तशासन’ तुम्हीं, त्रिभुवन में स्पष्ट।
सब विरोधविरहित सुमत, नमूँ नमूँ अति इष्ट।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं व्यक्तशासननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादिकृत् ’ ऋषभसम धर्मतीर्थ करतार।
द्विविध धर्म उपदेशकृत् , जजूँ नमूँ शत बार।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं युगादिकृत्नामसमन्विताय श्रीअरनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगाधार’ युग स्वयं के, धर्मतीर्थ के नाथ।
दिव्यध्वनि से बोध दे, किया त्रिलोक सनाथ।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं युगाधारनामसमन्विताय श्रीअरनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभु ‘युगादि’ तुम धर्मयुग, का व्रके प्रारंभ।
मोक्षमार्ग जग को दिया, जजूँ तुम्हें तज दंभ।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं युगादिनामविभूषिताय श्रीअरनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘जगदादिज’ निज तीर्थ को, करके अविच्छिन्न।
धर्मतीर्थकर्ता हुये, पूजूँ चित्त प्रसन्न।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं जगदादिजनामसमन्विताय श्रीअरनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
निज प्रभाव से इंद्रगण को भी कर अतिक्रांत।
प्रभु ‘अतींद्र’ तुमको जजूँ, मिले सौख्य निर्भांत।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अतीन्द्रनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नाथ! ‘अतींद्रिय’ ज्ञानसुख, आप अतीन्द्रिय मान्य।
इंद्रिय के गोचर नहीं, नमूँ मिले सुख साम्य।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अतींद्रियनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘धीन्द्र’ पूर्ण वैâवल्यमय, बुद्धी के हो ईश।
शुद्ध बुद्धि मेरी करो जजूँ नमाकर शीश।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं धीन्द्रनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
परम मोक्ष ऐश्वर्य का, अनुभव करते आप।
प्रभु ‘महेन्द्र’ तुमको नमूँ, हरो सकल संताप।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महेन्द्रनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित दूरके, अतींद्रिय सुपदार्थ।
एक समय में देखते, ‘अतींद्रियार्थदृक्’ नाथ।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अतींद्रियार्थदृक््नामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
इन्द्रिय विरहित आप हैं, आत्म सौख्य परिपूर्ण।
अत: ‘अिंनद्रिय’ मुनि कहे, नमत सर्व दुखचूर्ण।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अिंनद्रियनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अहमिंद्रों से पूज्य प्रभु, ‘अहमिन्द्रार्च्य’ महान।
अहं अहं कह संपदा, मिले जजत ही आन।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं अहमिन्द्रार्च्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपातीति
स्वाहा।
बड़े-बड़े सब इन्द्र से, पूजित आप जिनेश।
सभी ‘महेंद्रमहित’ कहें नमूँ हरो भवक्लेश।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महेंद्रमहितनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चउविध पूजा से महित, त्रिभुवन पूज्य ‘महान्’।
नमूँ सदा मैं भाव से, करो स्वात्म धनवान्।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महान्नामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
सबसे ऊँचे उठ चुके, ‘उद्भव’ जगत्प्रसिद्ध।
जन्म श्रेष्ठ जग में धरा, पूजत करो समृद्ध।।४३।।
ॐ ह्री अर्हं उद्भवनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
धर्मसृष्टि के बीजप्रभु, ‘कारण’ आप प्रसिद्ध।
भविजन मुक्ती हेतु हो, नमत कार्य सब सिद्ध।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं कारणनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
युग कि आदि में सृष्टि के ‘कर्ता’ आप जिनेश।
असि मषि आदिक षट् क्रिया उपदेशी परमेश।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं कर्तानामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
भवसमुद्र के पार को, पहुँचे ‘पारग’ नाथ।
मुझको पार उतारिये, नमूँ नमूँ नत माथ।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पारगनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
भव-सागर सुपांचविध, इससे तारणहार।
‘भवतारग’ तुमको जजूँ भरो सौख्य भण्डार।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं भवतारगनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभु ‘अगह्य’ निंह अन्य के अवगाहन के योग्य।
तुम गुणपार न पा सकें, पूजत सौख्य मनोज्ञ।।४८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अगाह्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगिगम्य प्रभु अति गहन आप अलक्ष्य स्वरूप।
जजूँ ‘गहन’ अतिशय कठिन आप रूप चिद्रूप।।४९।।
ॐ ह्रीं अर्हं गहननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुह्य’ योगि गोचर तुम्हीं, सर्वजनों से गुप्त।
नमूँ नमूँ मुझ मन बसो, करो मोह अरि सुप्त।।५०।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुह्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपजाति-छंद
‘परार्ध्य’ स्वामी सबमें प्रधाना।
उत्कृष्ट ऋद्धी सुख के निधाना।।
पूजूँ तुम्हें श्री अरनाथ ध्याऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।५१।।
ॐ ह्रीं अर्हं परार्ध्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘परमेश्वर’ आप ही हैं।
उत्कृष्ट मुक्ती श्रीनाथ ही हैं।।पूजूँ.।।५२।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमेश्वरनामसमन्विताय श्रीअरनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्त ऋद्धी प्रभु आप में हैं।
अत: ‘अनंतर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।५३।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तर्द्धिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमेय ऋद्धी मर्याद हीना।
अत: ‘अमेयर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।५४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अमेयर्द्धिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचिन्त्य ऋद्धी निंह सोच सकते।
अत: ‘अचिन्त्यर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।५५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्यर्द्धिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘समग्रधी’ ज्ञेयप्रमाण बुद्धी।
वैâवल्यज्ञानी प्रभु आप ही हो।।
पूजूँ तुम्हें श्री अरनाथ ध्याऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।५६।।
ॐ ह्रीं अर्हं समग्रधीनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! तुम मुख्य सभी जनों में।
हो ‘प्राग्र्य’ इससे मैं नित्य वंदूँ।।पूजूँ.।।५७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्राग्र्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक मंगल शुभ कार्य में ही।
तुम्हें स्मरते प्रभु ‘प्राग्रहर’ हो।।पूजूँ।।५८।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्राग्रहरनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकाग्र के सम्मुख हो रहे हो।
‘अभ्यग्र’ इससे मुनिनाथ कहते।।पूजूँ.।।५९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अभ्यग्रनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रत्यग्र’ नूतन संपूर्ण जन में।
प्रभो! विलक्षण तुम ही कहाते।।पूजूँ.।।६०।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रत्यग्रनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सभी के तुम ‘अग्र्य’ मानें।
मैंने शरण ली अतएव आके।।पूजूँ.।।६१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अग्र्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण जन में प्रभु अग्रसर हो।
अतएव ‘अग्रम’ कहते सुरेंद्रा।।पूजूँ.।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्हं अग्रिमनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ज्येष्ठ सबमें ‘अग्रज’ कहाते।
त्रैलाक्य में नाथ तुम्हीं बड़े हो।।पूजूँ.।।६३।।
ॐ ह्रीं अर्हं अग्रजनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महातपा’ घोर सुतप किया है।
बारह तपों को मुझको भि देवो।।पूजूँ.।।६४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महातपनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेजोमयी पुण्य प्रभो! धरे हो।
‘महासुतेजा’ तुम तेज पैâला।।पूजूँ.।।६५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महातेजनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महोदर्क’ तुम्हें कहे हैं।
महान तप का फल श्रेष्ठ पाया।।पूजूँ.।।६६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महोदर्कनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐश्वर्य भारी प्रभु आपका है।
अत: ‘महोदय’ जग में तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महोदयनामसमन्विताय श्रीअरनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कीर्ती चहूँदिश प्रभु की सुपैâली।
‘महायशा’ नाम कहा इसी से।।पूजूँ.।।६८।।
ॐ ह्रीं अर्हं महायशनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! महाधाम तुम्हीं कहाते।
विशाल ज्ञानी सुप्रताप धारी।।पूजूँ.।।६९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाधामनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासत्त्व’ अपार शक्ती।
हे नाथ! मुझको निज शक्ति देवो।।पूजूँ.।।७०।।
ॐ ह्रीं अर्हं महासत्त्वनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाधृती’ धैर्य असीम धारी।
आपत्ति में धैर्य रहे मुझे भी।।पूजूँ.।।७१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाधृतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधैर्य’ त्रिलोक में भी।
क्षोभादि भय से निंह आकुली थे।।पूजूँ.।।७२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाधैर्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महावीर्य’ अनंतशक्ती।
महान तेजोबल वीर्य शाली।।पूजूूँ.।।७३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महावीर्यनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासंपत्’ सर्वसंपत्।
समोसरण में तुम पास शोभे।।
पूजूँ तुम्हें श्री अरनाथ ध्याऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।७४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महासंपत्नामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाबल’ तनु शक्ति भारी।
ऐसी जगत् में निंह अन्य के हो।।पूजूँ.।।७५।।
ॐ ह्री अर्हं महाबलनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शिखरणी-छंद-
‘महाशक्ती’ धारो त्रिभुवन गुरू आप सच में।
महा उत्साही थे बहुविध तपा आप तप भी।।
प्रभू श्री अरजिनवर नित प्रति जपूँ भाव मन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक् कर लूँ आत्म तन से।।७६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाशक्तिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाज्योती’ स्वामी, अद्भुत परंज्ञानमय हो।
मुझे ज्ञानज्योती झटिति प्रभु दो पूर्ण सुख हो।।प्रभू.७७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाज्योतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाभूती’ स्वामी, विभव अतिशायी जगत में।
प्रभो राजें सिंहासन मणिमय पे अधर ही।।प्रभू.।।७८।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाभूतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभू की जो शोभा ‘महाद्युति’ नामा धरत है।
नहीं ऐसी कांती रतनमणि में भी दिखत है।।प्रभु.।।७९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाद्युतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
महाबुद्धी पूर्णा ’महामति’ का नाम धरती।
हमें भी दे दीजे सुमति भगवन्! होय सुगती।।प्रभू.।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महानीती’ धारो सकल जन का न्याय करते।
महा दुष्कर्मों से अलग करके सौख्य भरते।।प्रभू.।।८१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महानीतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाक्षान्ती’ स्वामी परम करुणा भव्य जन पे।
निकालो दु:खों से करम अरि को माफ करते।।प्रभू.।।८२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाक्षान्तिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महादय’ हो स्वामी, सकल भवि प्राणी पर दया।
किया शिष्यों से भी सतत पलवायी अिंहसा।।प्रभू.।।८३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महादयनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
महाविद्वान् भगवान शिवप्रद ‘महाप्राज्ञ’ तुम हो।
मुझे दीजे बुद्धी भवदधि तरूँ युक्ति करके।।प्रभू.।।८४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाप्राज्ञनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
महाभागी स्वामी सुखकर ‘महाभाग’ तुम हो।
महा पूजा पायी सुरपति किया भक्ति रुचि से।।प्रभू.।।८५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाभागनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
निजानंदात्मा हो सुखमय ‘महानंद’ प्रभु हो।
मुझे दीजे स्वामी सकल सुखकर मोक्षपदवी।।प्रभू.।।८६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महानंदनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाकवि’ हे स्वामिन्! सकल सुखदायी वचन हैं।
प्रभो दीजे शक्ती मुझ वचन सिद्धी प्रगट हो।।
प्रभू श्री अरजिनवर नित प्रति जपूँ भाव मन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक् कर लूँ आत्म तन से।।८७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाकविनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महामह’ हे स्वामिन्! सुरपति करें आप अर्चा।
महा तेजस्वी हो अखिल जनता सौख्य भरता।।प्रभू.।।८८।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामहनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाकीर्ती’ स्वामी सुयश तुम व्यापा भुवन में।
प्रभू पादाम्बुज को सतत प्रणमूँ स्वात्मनिधि दो।।प्रभू.।।८९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाकीर्तिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाकान्ती’ धारो अतुल छवि है आप तनु की।
सभी आधी व्याधी हरण करके स्वस्थ कर दो।।प्रभू.।।९०।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाकान्तिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभो! ऊँचे देही, ‘महावपु’ तुम ही चरम हो।
मिटा दो बाधायें विघ्न हरता आप जग में।।प्रभू.।।९१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महावपुनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अिंहसा जीवों की अभयद ‘महादान’ करते।
हमारी रक्षा भी झटिति प्रभु कीजे जगत् से।।प्रभू.।।९२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महादाननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभो! केवलज्ञानी युगपत् ‘महाज्ञान’ गुण से।
सभी लोकालोकं विशद त्रयकालिक लखत हो।।प्रभू.।।९३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाज्ञाननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभो! एकाग्री हो शिवप्रद ‘महायोग’ गुण से।
स्वयं में ही साधा निजसुख महाध्यान बल से।।प्रभू.।।९४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महायोगनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
गुणों की खानी हो अतिशय ‘महागुण’ मुनि कहें।
गुणों को दे दीजे सकल मुझ दोषादि हन के।।प्रभू.।।९५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महागुणनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
सुमेरू पे तेरा न्हवन करते इंद्रगण भी।
महापूजा पायी ‘महामहपति’ आज जग में।।प्रभू.।।९६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामहपतिनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
सुरेंद्रों के द्वारा प्रभु ‘प्राप्तमहाकल्याणपंचक’।
गरभ जन्मादी में उत्सव किया देवगण ने।।प्रभू.।।९७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्राप्तमहाकल्याणपंचकनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
सभी के स्वामी हो अतिशय ‘महाप्रभु’ भुवन में।
निवारो मोहारी बहुत दुख देता जु मुझको।।प्रभू.।।९८।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाप्रभुनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महाप्रातीहार्याधिश’ चमर छत्रादिक लहा।
शतेंद्रों से पूजित त्रिभुवन विभव आप चरणों।।प्रभू.।।९९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाप्रातिहार्याधिशनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
‘महेश्वर’ हो स्वामी सुरपति अधीश्वर तुमहि हो।
सुभक्ती से वंदूँ झटिति शिवलक्ष्मी वरद हो।।प्रभू.।।१००।।
ॐ ह्रीं अर्हं महेश्वरनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-चौपाई-
सब पर्याय अनंतानंत, प्रभु में अंतर्लीन बसंत।
पिया नंतपर्याय जिनंद, जजूँ सिद्ध हो परमानंद।।१०१।।
ॐ ह्रीं अर्हं निष्पीतानंतपर्यायनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस शील के ईश, ब्रह्मचर्य से त्रिभुवन शीश।
ब्रह्मा-स्वात्मतत्त्व में लीन, बने सिद्ध पूजत भव क्षीण।।१०२।।
ॐ ह्रीं अर्हं अष्टादशसहस्रशीलेशनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
गुणस्थान चौदहवें काल, ‘अइउऋऌ’ उच्चारण काल।
जिन अयोगि तत्क्षण लोकाग्र, नमूँ सिद्ध हो मन एकाग्र।।१०३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचलघुअक्षरस्थितनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धद्रव्य से सिद्ध महान्, नमूँ नमूँ परमात्म प्रधान।
पाऊँ स्वात्मतत्त्व का ध्यान, बने अंतरात्मा भगवान।।१०४।।
ॐ ह्रीं अर्हं द्रव्यसिद्धनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
—चौबोल छंद—
जिन अयोगि द्विचरम समय में, प्रकृति बहत्तर पृथक् किया।
उनको आशिष देकर छोड़ा, परमानंद पियूष पिया।।
उनको पूजत मुझको भी तो, ऐसा द्विचरम समय मिले।
कर्मनाश कर निज सुख पाऊँ, केवलज्ञान प्रसून खिले।।१०५।।
ॐ ह्रीं अर्हं द्वासप्ततिप्रकृत्याशिषनामसमन्विताय श्रीअर्नााथ—तीर्थंकराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक वेदनी मनुषगती अनुपूर्वि आयु पंचेन्द्रि सुभग।
त्रस बादर पर्याप्त यशस्कीर्ती आदेय गोत्र भी उच्च।।
तीर्थंकर मिल तेरह प्रकृती, अंत समय में नष्ट हुईं।
मानों नमन किया सिद्धों को, उन पूजत निज तृप्ति हुई।।१०६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रयोदशप्रकृतिप्रणुतनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अलोक प्रकाशी, केवलज्ञान लबालब पूर्ण भरा।
गुण अनंत बतलाने वाला, यही एक गुण श्रेष्ठ खरा।।
इससे काल अनंतानंते, सिद्ध मोक्ष में सौख्य भरें।
केवल ज्ञानज्योति हेतू हम, नमन अनंतों बार करें।।१०७।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञाननिर्भरनामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
गुण अनंत में एक ज्ञान ही, चिन्मय जीव स्वरूप धरे।
ज्ञान बिना गुण भले अनंते, उनकी कीमत कौन करें।।
ज्ञानमात्र से ध्यानमग्न हो, केवलज्ञान सूर्य चमकें।
ऐसे सिद्धों को नित पूजत, मेरी आत्मज्योति चमके।।१०८।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानैकचिज्जीवघननामसमन्विताय श्रीअर्नााथतीर्थंकराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा
पूर्णार्घ्य-शंभु-छंद
श्री वृक्षलक्षणा आदिक एक सौ, आठ नाम अतिशयकारी।
मैं पूजूँ ध्याऊँ भक्ति करूँ, पा जाऊँ निज संपति सारी।।
बहिरात्म अवस्था छोड़ नाथ! अंतर आतम शुद्धात्म बनूँ।
तुम भक्ति युक्ति से शक्ति पाय मुक्तिपद पा जिनराज बनूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवृक्षलक्षणादि—अष्टोत्तरशतनाममंत्रविभूषिताय श्री- अरनाथतीर्थंकराय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
-जाप्यमंत्र-
१. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ—अरनाथतीर्थंकरेभ्यो नम:।
अथवा
१. ॐ ह्रीं अर्हं तीर्थंकरचक्रवर्तिकामदेवपदसमन्वित—श्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ-
अरनाथेभ्यो नम:।
(दोनों में से कोई भी एक मंत्र १०८ बार या ९ बार सुगंधित पुष्पों से या लवंग से या पीले चावल से जपें)
-दोहा-
हस्तिनागपुर में हुये, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्षथल, पूजूँ अर भगवान।।१।।
-त्रिभंगी छंद-
पितु नृपति सुदर्शन सोमवंशवर, प्रसू मित्रसेना सुत थे।
आयू चौरासी सहस वर्ष धनु, तीस तनू स्वर्णिम छवि थे।।
गुरु तीस गणाधिप मुनि पचास, हज्जार आर्यिका साठ सहस।
श्रावक इक लाख व साठ सहस, श्राविका लाख त्रय धर्मनिरत।।२।।
-पंचचामर छंद-
जयो जिनेश! आप तीर्थनाथ तीर्थरूप हो।
जयो जिनेश! आप मुक्तिनाथ मुक्तिरूप हो।।
जयो जिनेश! आप तीन लोक के अधीश हो।
जयो जिनेश! आप सर्व आश्रितों के मीत हो।।३।।
सभी सुरेन्द्र भक्ति से सदैव वंदना करें।
सभी नरेन्द्र आपकी सदैव अर्चना करें।।
सभी खगेन्द्र हर्ष से जिनेन्द्र कीर्ति गावते।
सभी मुनीन्द्र चित्त में तुम्हीं को एक ध्यावते।।४।।
अपूर्व तेज आप देख कोटि सूर्य लज्जते।
अपूर्व सौम्य मूर्ति देख कोटि चन्द्र लज्जते।।
अपूर्व शांति देख क्रूर जीव वैर छोड़ते।
सुमंद मंद हास्य देख शुद्ध चित्त होवते।।५।।
अनेक भव्य आपके पदाब्ज पूजते सदा।
अनेक जन्म पाप भी क्षणेक में नशें तदा।।
अनेक जीव भक्ति बिन अनंत जन्म धारते।
अनेक जीव भक्ति से अनंत सौख्य पावते।।६।।
अनंत ज्ञानरूप हो अनंत ज्ञानकार हो।
अनंत दर्शरूप हो अनंत दर्शकार हो।।
अनंत सौख्यरूप हो अनंत सौख्यकार हो।
अनंत वीर्यरूप हो अनंत शक्तिकार हो।।७।।
-दोहा-
अरतीर्थंकर जगप्रथित, मीन चिन्ह से नाथ! ।
पावें अविचल कीर्ति को, जो पूजें नत माथ।।८।।
कामदेव चक्रीश प्रभु, अठारवें तीर्थेश।
‘‘ज्ञानमती’’ वैवल्य हित, नमूँ नमूँ परमेश।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअरनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भाक्तिकजन तीर्थंकरत्रय—विधान भक्ती से करते हैं।
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, अरनाथ प्रभू को यजते हैं।।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सब रोग शोक भय हरते हैं।
नवनिधि ऋद्धी सिद्धी पाकर, वैवल्य ज्ञानमति लभते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।