—अथ स्थापना-गीता छंद—
जो साधु तीर्थंकर समवसृति में सदा ही तिष्ठते।
वे सात भेदों में रहें निज मुक्तिकांता प्रीति तें।।
ऋषि पूर्वधर शिक्षक अवधिज्ञानी प्रभू केवलि वहां।
विक्रियाधारी विपुलमतिवादी उन्हें पूजूँ यहाँ।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—नाराच छंद
साधु चित्त के समान स्वच्छ नीर लाइये।
साधु चर्ण धार देय पाप पंक क्षालिये।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण कांति के समान पीत गंध लाइये।
साधु चर्ण चर्चते समस्त ताप नाशिये।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्ररश्मि के समान धौतशालि लाइये।
चर्ण के समीप पुंज देत सौख्य पाइये।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के सुगंधि पुष्प थाल में भरें।
कामदेव के जयी मुनीन्द्र पाद में धरें।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरिका इमर्तियाँ सुवर्ण थाल में भरें।
भूख व्याधि नाश हेतु आप अर्चना करें।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप में कपूर ज्योति को जलाइये।
साधुवृंद पूजते सुज्ञान ज्योति पाइये।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट गंध अति सुगंध धूप खेय अग्नि में।
अष्ट कर्म भस्म होत आप भक्ति रंग में।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेब आम संतरा बदाम थाल में भरे।
पूजते ही आप चर्ण मुक्तिअंगना वरें।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध आदि से सुवर्ण पुष्प मेलिया।
सुख अनंत हेतु आप पाद में समर्पिया।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि आपको स्वयं वरे।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितसर्वऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
गुरुपद में धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—सोरठा—
द्विविध मोक्षपथ मूल, अट्ठाइस हैं मूलगुण।
साध करें अनुकूल, अत: साधु कहलावते।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
चाल-वंदों दिगम्बर गुरुचरण……
श्री ऋषभ जिनके पूर्वधर, सब पूर्व ज्ञानी ख्यात।
उन कही संख्या चार सहस सु सात सौ पच्चास।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर१।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथतीर्थंकरस्य पंचाशदधिकचतु:सहस्रसप्तशत-पूर्वधरऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीऋषभ के शिक्षकमुनी, इक शतक चार हजार।
पुनरपि पचास गिने गये, इनसे खुले शिवद्वार।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य पंचाशदधिकचतु:सहस्रएकशतशिक्षक-ऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव के ऋषि अवधिज्ञानी, नौ हजार प्रमाण।
इन पूजते भव व्याधि का हो, शीघ्र ही अवसान१।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य नवसहस्रअवधिज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव के मुनि केवली हैं बीस सहस प्रमाण।
इन भक्ति नौका जो चढ़ें वे लहें पद निर्वाण।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य वशतिसहस्रकेवलज्ञानिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रियाधारक मुनि वहाँ छह शतक बीस हजार।
वे भव्यजन की तृप्त करते तरण तारणहार।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य वशतिसहस्रषट्शतकविक्रियाधारिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि विपुलमति बारह सहस अरु, सात शतक पचास।
ये मन:पर्यय ज्ञान से नित करें भुवन प्रकाश।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य पंचाशदधिकद्वादशसहस्रसप्तशतविपुलमतिज्ञानि-ऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपाम्ति स्वाहा।
वादी मुनी बारह सहस अरु सात शतक पचास।
ये वाद करने में कुशल नित करें धर्म प्रकाश।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य पंचाशदधिकद्वादशसहस्रसप्तशतवादिऋषिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
समवसरण में ऋषभ के, ऋषि चौरासि हजार।
नमूँ नमूँ मैं अर्घ ले, जजूँ खुले शिवद्वार।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभनाथस्य चतुरशीतिसहस्रऋषिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय नम:।
(108 बार या 9 बार पुष्प या पीले तंदुल से जाप्य करें)
त्रिभंगी छंद
जय जय सब मुनिगण, भूषित गुणमणि, मूलोत्तर गुण पूर्ण भरें।
जय नग्न दिगम्बर मुक्ति वधूवर, सुरपति नरपति चरण परें।।
मैं पूजूँ तुमको, नित सुमती दो, पाप पुंज अंधेर टले।
होवे सब साता, मिटे असाता, पुण्य राशि हो ढेर भले।।१।।
—नाराच छंद—
नमूँ नमूँ मुनीश! आप पाद पद्म भक्ति से।
भवीक वृंद आप ध्याय कर्म पंक धोवते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।२।।
अठाइसों हि मूलगुण धरें दया निधान हैं।
अठारहों सहस्र शील धारते महान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।३।।
चुरासि लाख उत्तरी गुणों कि आप खान हैं।
समस्त योग साधते अनेक रिद्धिमान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।४।।
समस्त अंगपूर्व ज्ञान सिंधु में नहावते।
निजात्म सौख्य अमृतैक पूर स्वाद पावते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।५।।
अनेक विध तपश्चरण करो न खेद है तुम्हें।
अनंत ज्ञानदर्श वीर्य प्राप्ति कामना तुम्हें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।६।।
सु तीन रत्न से महान आप रत्न खान हैं।
अनेक रिद्धि सिद्धि से सनाथ पुण्यवान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।७।।
परीषहादि आप से डरें न पास आवते।
तुम्हीं समर्थ काम मोह मृत्यु मल्ल मारते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।८।।
बिहार हो जहाँ जहाँ सु आप तिष्ठते जहाँ।
सुभिक्ष क्षेम हो सदैव ईति भीति ना वहाँ।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।९।।
सुधन्य धन्य पुण्यभूमि आपसे हि तीर्थ हो।
सुरेंद्र चक्रवर्ति वंद्य भूमि भी पवित्र हो।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१०।।
जयो जयो मुनीश! आप भक्ति मोह को हरे।
जयो मुनीश! आप भक्त आत्मशक्ति को धरें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।११।।
अपूर्व मोक्षमार्ग युक्ति पाय मुक्ति को वरें।
पुनर्भवों से छूटके सु पंचमी गती धरें।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१२।।
मुनीश! आप पास आय स्वात्म तत्त्व पा लिया।
समस्त कर्म शून्य ज्ञान पुंज आत्म जानिया।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिये।।१३।।
—दोहा—
छट्ठे गुणस्थान से, चौदहवें तक मान्य।
नमूँ नमूँ सब साधु को, मिले ‘ज्ञानमति’ साम्य।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितप्रमत्तादिअयोगिगुणस्थान-
पर्यंतसर्वऋषिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
ऋषभदेव के समवसरण को, जो जन पूजें रुचि से।
मनवांछित फल को पा लेते, सर्व दुखों से छुटते।।
धर्मचक्र के स्वामी बनते, तीर्थंकर पद पाते।
केवल ‘ज्ञानमती’ किरणों से भविमन ध्वांत नशाते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।