—अथ स्थापना (गीता छंद)—
इस प्रथम जम्बूद्वीप बीचे, पूर्व अपर विदेह हैं।।
इन मध्य बत्तिस देश में, शुभ कर्मभूमि सदैव हैं।।
भगवान सीमंधर व युगमंधर व बाहु सुबाहु हैं।
ये श्रीविहार करें वहाँ, आह्वान कर मैं पूजहूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अथ अष्टक (चाल-नंदीश्वर पूजा)
सीता नदि शीतल नीर, प्रभु पद धार करूँ।
मिट जावे भव भव पीर, आतम शुद्ध करूँ।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि गंध सुगंध, प्रभु चरणों चर्चंू ।
मिल जावे आत्म सुगंध, स्वारथवश अर्चंू ।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
कौमुदी शालि के पुञ्ज, नाथ! चढ़ाऊँ मैं।
निज आतम सौख्य अखण्ड, अर्चत पाऊँ मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतंं निर्वपामीति स्वाहा।
वर मौलसिरी व गुलाब, पुष्प चढ़ाऊँ मैं।
प्रभु मिले आत्मगुण लाभ, आप रिझाउँâ मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू पेड़ा पकवान, नाथ! चढ़ाऊँ मैं।
कर क्षुधा वेदनी हान, निज सुख पाऊँ मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति अखण्ड, आरति करते ही।
मिल जावे ज्योति अमंद, निज गुण चमके ही।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूप अगनि में खेय, सुरभि उड़ाऊँ मैं।
प्रभु पद पंकज को सेय, सम सुख पाऊँ मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला एला बादाम, फल से पूजूँ मैं।
पाऊँ निज में विश्राम, भव से छूटूं मैं।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य:मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु अर्घ्य रजत के पुष्प, थाल भराय लिया।
हो ‘‘ज्ञानमती’’ मन तुष्ट, आप चढ़ाय दिया।।
श्री विहरमाण जिनराज, मेरी अरज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज, मैं तुम चरण नमों।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरयुगमंधरबाहुसुबाहु
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा— नाथ पाद पंकेज, जल से त्रय धारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पाञ्जलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुख लाभ, जिन पद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
—दोहा—
इक सौ साठ विदेह में, बीस तीर्थंकर आज।
समवसरण में राजते, नमत सरें सब काज।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
(प्रथम वलय में २० अर्घ्य)
—पंचकल्याणक अर्घ्य (शंभु छंद)—
श्रीमती मात स्वप्ने देखें, श्रेयांस नृपति से फल पूछें।
तीर्थंकर सुत जननी होंगी, सुन माता मन में अति हर्षें।।
इन्द्रों ने उत्सव किया विविध, धनपति ने रत्नवृष्टि की थी।
हम पूजें गर्भकल्याणक नित,जिससे होवे धन की वृष्टी।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीमंधर प्रभु ने जन्म लिया, स्वर्गों में बाजे बाज उठे।
सुरपति के सिंहासन कंपे, इंद्रों के मस्तक मुकुट झुकें।।
प्रभु वृषभ चिन्ह पितु मात धन्य, जनता में हर्ष अपार हुआ।
हम पूजें जन्म कल्याणक नित, पूजत ही चित्त प्रसन्न हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर तीर्थंकर जन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर प्रभु जब राज्य छोड़, दीक्षा लेने का भाव किया।
लौकान्तिक सुर ने आकर के, प्रभु की संस्तुति कर पुण्य लिया।।
प्रभु ने जिन दीक्षा ग्रहण किया, अति घोर तपस्या करने को।
हम पूजें दीक्षा कल्याणक, निज जन्म मरण दुख हरने को।।३।।
ॐ ह्रा श्रीसीमंधरतीर्थंकर दीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को जब केवलज्ञान हुआ, धनपति ने तत्क्षण ही आकर।
गगनांगण में प्रभु समवसरण, रच दिया अखिल वैभव लाकर।।
पूरब विदेह में आज वहाँ,प्रभु समवसरण में राज रहे।
हम पूजें ज्ञानकल्याणक को, प्रभु समवसरण में राज रहे।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरतीर्थंकर केवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु घात अघाती कर्मांे को, निश्चित ही मुक्ती पायेंगे।
हम भी उनकी भक्ती करके, निश्चित ही कर्म जलायेंगे।।
उन प्रभु का मोक्षकल्याणक हम, भक्ती से पूजें पुण्य भरें।
आत्मा को शुद्धात्मा करके, निज मानव जीवन धन्य करें।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरतीर्थंकर मोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
जम्बूद्वीप में पूर्वदिश, पुण्डरीकिणी नाम।
सीमंधर प्रभु को जजूँ , शत शत करूँ प्रणाम।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
मेरू सुदर्शन पूर्व क्षेत्र विदेह में दक्षिण दिशी।
विजया नगरि दृढ़रथ पिता माता सुतारा ने निशी।।
शुभ स्वप्न सोलह देखकर हर्षितमना पतिदेव से।
फल पूछतीं प्रभु गर्भकल्याणक जजूँ अति भक्ति से।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगमंधरतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदि देवी मात की सेवा करें अति भक्ति से।
अति गूढ़ करतीं प्रश्न वे उत्तर दिया माँ युक्ति से।।
प्रभु जन्मते ही इन्द्रगण अति हर्ष से उत्सव किया।
सौधर्म सुरपति ने सुमेरू पर न्हवन विधिवत् किया।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगमंधरतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैराग्य प्रभु का जानकर देवर्षि सुरगण आ गये।
शुभ पालकी में बिठाकर उद्यान सुन्दर ले गये।।
सम्पूर्ण परिग्रह छोड़कर प्रभु ने स्वयं दीक्षा लिया।
मनपर्ययी ज्ञानी हुये शुभ ध्यान आत्मा का किया।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगमंधरतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शुक्लध्यान प्रभाव से चउ घातिया का क्षय किया।
वैâवल्य लक्ष्मी प्राप्त कर छ्यालीस गुण प्रगटित किया।।
जिन समवसृति में अधर राजें इंद्र शत मिल पूजते।
हम भी जजें वैâवल्य संपति प्राप्ति हेतू भक्ति से।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगमंधरतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गजचिन्हधारी नाथ ‘युगमंधर’ अघाती घातके।
निर्वाण पद को पायेंगे मैं जजूँ कर द्वय जोड़के।।
ये प्रभू संप्रति राजते सुविदेह जम्बूद्वीप में।
जो भक्ति से नित पूजते वे दर्श प्रभु का पायेंगे।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगमंधरतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
युगमंधर भगवान हैं, पंचकल्याणक ईश।
पूर्ण अर्घ्य ले मैं जजूँ , नमूँ नमाकर शीश।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री युगमंधरतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
श्री जम्बूद्वीप अपर विदेह, सीतोदा नदि के दक्षिण में।
श्री पुरी सुसीमा के राजा, उन रानी को शुभ स्वप्न दिखे।।
इन्द्रों ने गर्भोत्सव करके, प्रभु मात पिता की पूजा की।
हम भी जिन गर्भकल्याण जजें, मुझ गर्भ दु:ख छूटे झटिती।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बाहुतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब प्रभु ने जन्म लिया भू पर, देवों के आसन कांप उठे।
झुक गये मुकुट सब इंद्रों के, चल पड़े नगरि में भक्ती से।।
मृग चिन्ह सहित श्री बाहुनाथ ने, त्रिभुवन जन को मुदित किया।
मेरू पर सुरगण न्हवन किया, प्रभु जन्म जजत सुख प्राप्त किया।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बाहुतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भव तनु भोग विरक्त हुये, बारह भावन भाई उत्तम।
लौकान्तिक सुर ने स्तुति की, पालकी सजाई उस ही क्षण।।
‘‘सिद्धेभ्यो नम:’’ मंत्र पूर्वक, दीक्षा स्वयमेव लिया प्रभु ने।
सुरपति ने उत्सव किया तभी, मैं नमूँ नमूँ प्रभु चरणों में ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बाहुतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस तरु के नीचे प्रभुवर को, वैवल्यज्ञान रवि उदित हुआ।
वह तरु ‘ अशोक ’हो गया स्वयं, प्रभु समवसरण में शोभ रहा।
श्री बाहुनाथ तीर्थंकर प्रभु ,विहरण कर भविजन हर्षाते।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ाकरके, प्रभु धर्मामृत ध्वनि बरसाते।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बाहुतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु कर्म अघाती नाश सभी, निर्वाण धाम को पायेंगे।
उन मोक्षकल्याणक पूजा कर, हम भी निज कर्म नशायेंगे।।
तीर्थंकर प्रभु की पूजा से, निज आत्मा स्वयं तीर्थ बनती।
सम्पूर्ण अमंगल टल जाते, भव भव की जनम व्याधि नशती।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बाहुतीर्थंकर मोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
पंचकल्याणक अधिपती, बाहुनाथ परमेश।
पूर्ण अर्घ्य लेकर जजूँ, पाऊँ सौख्य हमेश।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री बाहुतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य:पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री सुबाहु तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—चौबोल छंद—
श्री जम्बूद्वीप अपर विदेह, सीतोदा के उत्तर में।
हैं पुरी अयोध्या के राजा, उन अंत:पुर आंगन में।।
रत्न बरसते पिता खुशी से, बांट रहे हैं जन-जन में।
इंद्र महोत्सव करते मिलकर, जजूँ गर्भकल्याणक मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुबाहुतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, इंद्र शची सह आते हैं।
जिन बालक को गोदी में ले, सुरगिरि पर ले ज्ते हैं।।
मर्कट चिन्ह सहित प्रभुवर का, जन्म महोत्सव करते हैं।
जिनवर जन्मकल्याणक जजते, हम सुख संपति भरते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुबाहुतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किंचित् कारण पाकर जिनवर,भव तनु भोग विरक्त हुये।
लौकान्तिक सुर स्तुति करते, प्रभु गुण में अनुरक्त हुये।।
रत्नजटित पालकि में प्रभु को, बिठा श्रेष्ठ वन पहुँचे।
प्रभुवर स्वयं दिगंबर दीक्षा,लेकर ध्यानमगन तिष्ठे।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुबाहुतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुत वर्ष तक तपश्चरण कर, कर्म घातिया दग्ध किया।
दोष अठारह दूर हुये, संपूर्ण गुणों को प्रगट किया।।
केवलज्ञान ज्योति जगते ही, समवसरण की है रचना।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजत ही मैं, निश्चित पाऊँ सुख अपना।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुबाहुतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीजे चौथे शुक्लध्यान से, योगनिरोध करेंगे ही।
निज के गुण अनंत को पाकर, शिवपद प्राप्त करेंगे ही।।
इंद्र सभी मिल मोक्षकल्याणक, उत्सव भक्ति करेंगे ही।
हम भी प्रभु का मोक्ष कल्याणक, पूजत सौख्य भरेंगे ही।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुबाहुतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री सुबाहु भगवान के, पंचकल्याणक वंद्य।
पूर्ण अर्घ्य कर भक्ति से, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री सुबाहुतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य (चौपाई )—
पूर्वापर बत्तीस विदेह, चार तीर्थंकर नित विहरेय।
पूजूँ पूरण अर्घ्य चढ़ाय, सब दुख संकट जांय पलाय।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरादिचतुस्तीर्थंकरेभ्य:
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
—अनंगशेखर छंद—
नमो नमो जिनेंद्रदेव! आप सौख्यरूप हो।
अनंत दिव्यज्ञान से ,समस्त लोक भासते।।
नमो नमो जिनेंद्रदेव! आप चित्स्वरूप हो।
अनंत दिव्य चक्षु से समस्त विश्व लोकते।।१।।
नमो जिनेंद्रदेव! आप सर्वशक्तिमान हो।
अनंत वस्तु देखते तथापि नहीं श्रांत हो।।
नमो जिनेंद्रदेव! आपमें अनंत गुण भरे।
गणींद्र भी गिनें तथापि पार पावते नहीं।।२।।
प्रभो! असंख्य भव्य जीव आपकी शरण गहें।
अनादि के अनंत दु:ख वार्धि से स्वयं तिरें।।
असंख्य जीव मानवश न आप पास आवते।
स्वयं हि वे अपार भव अरण्य में सदा फिरें।।३।।
अनेक जीव दृष्टि रत्न पायके निहाल हों।
अनेक जीव तीन रत्न पाय मालामाल हों।।
अनेक जीव आप भक्ति में विभोर हो रहे।
अनेक जीव मृत्यु को पछाड़ पुण्यशालि हों।।४।।
मुनींद्र वृंद हाथ जोड़ शीश नाय नाय के।
पुन: पुन: नमें तथापि तृप्ति ना लहें कभी।।
सुरेंद्रवृंद अष्टद्रव्य लाय अर्चना करें।
सुदिव्य रत्न को चढ़ाय तृप्ति ना लहें कभी।।५।।
नरेंद्रवृंद भक्ति में विभोर नृत्य भी करें।
सुरांगना जिनेंद्रभक्ति गीत गा रहीं वहाँ।।
खगेंद्रवृंद गीत गा संगीत वाद्य को बजा।
खगांगना के साथ नाथ! अर्चना करें वहाँ।।६।।
जिनेंद्र! आपकी सभा असंख्य भव्य से भरी।
तथापि क्लेश ना किसी को ये प्रभाव आपका।।
निरक्षरी ध्वनी खिरे सभी के कर्ण में पड़े।
सभी समझ रहें स्वयं प्रभो ! प्रभाव आपका।।७।।
सुभव्य जीव ही सुनें गुनें निजात्म तत्व को।
अपूर्व तेज आपका न कोई पार पा सके।।
जयो जयो जयो प्रभो! अनंत ऋद्धि पूर्ण हो।
करो मुझे निहाल नाथ! आप भक्ति जान के।।८।।
दोहा- सीमंधर युगमंधरा, बाहु सुबाहु जिनेश।
नमूँ ‘ज्ञानमती’ हेतु मैं, हरो सर्व भवक्लेश।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपस्थपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थ सीमंधरादिचतुस्तीर्थं-करेभ्य:जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
—गीता छंद—
जो विहरमाण जिनेंद्र बीसों का सदा अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोगकर फिर सर्व कल्याणक धरें।
स्वयमेव केवल ‘‘ ज्ञानमति ’’ हो मुक्ति लक्ष्मी वश करें ।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।