—बसंततिलका—
बुद्ध्यौषधीरससुविक्रियदेशवीर्य—
व्योमक्रियर्द्धितपसा सहितान् मुनीशान्।
सत्केवलावधिमन:परिगान् सुबीज—
सत्कोष्ठबुद्धिपदसारितया प्रसिद्धान्।।
श्रोतृन् सुभिन्नसुगवां लघुदूरतोक्ष—
स्पर्शश्रवोरसनिका, वरनासिकानाम्।
वेतृन सुगोचरगणान् दशसर्वपूर्व—
वेतृन् निमित्तकुशलान् स्तुमहे महर्षीन्।।२।।युग्मं।।
प्रत्येकबुद्धवरवादिगणान् प्रधीकान्
बुद्ध्यर्द्धियुक्तिकलितान् द्विनव स्तवीमि।
विट् खिल्लजल्लपरमामसु सर्वतश्च।
रोगापहान् वासुविधान् वरदृष्टिचव्रै:।।३।।
—शार्दूलविक्रीडितम्—
कुर्वाते लघु वाग्दृशौ सुभविनां मृत्युं विषेण क्रुधा।
यत्पाणावपि दुग्धमध्वमृतसत् प्राज्यप्रभं जायते।।
दुर्भोज्यं गदितायवै: सुपतितं गह्णन्ति वाचो नरां—
स्तद्वस्तान् मुखदृग्विषामृतघृताद्यास्राविणो नौम्यहम्।।४।।
—आर्या—
लघिमागरिमामहिमा प्राकाम्यैश्वर्यकामरूपित्वै:।
व्यधनाप्तिवश्यधातै: स्तौमि मुनीन् विक्रियर्द्धिगतान्।।५।।
—शार्दूलविक्रीडितम्—
भुक्तं यत्र दिने गृहे यतिजनैर्न क्षीयते तद्दिने।
तच्छेषं च सुभोजितेऽखिलनरे यत्र स्थितं तत्र ये।।
सर्वे नाकिनरादय: सुखतया तिष्ठन्ति तुच्छावनौ।
तेक्षीणादिमहानसालयगुणा भान्तूभये सर्वत:।।६।।
—उपजाति:—
अन्तर्मुहूर्त्तेन श्रुतं समस्तं, ध्यायन्ति ये कष्ठविषादमुक्ता:।
पठन्ति लोकं न्यसितुं क्षमाश्चांगुल्या त्रिधा ते बलिनो भवन्तु।।७।।
—आर्या—
दिविजलदलफलकुसुमबीजाग्निशिखासु जानुपंक्तिगता:।
चारणनामान् इमे क्रियर्द्धियुक्तान् नमामि च वैतान्।।८।।
—उपजाति—
उग्रं तपोदीप्ततपस्तपन्तु तप्तं तपो घोरतपो महच्च।
ये सप्तधा घोरपराक्रमाश्च ब्रह्माऽपि ते सन्तु विदे त्रिगुप्ता:।।९।।
—बसंततिलका—
नानातपोतिशयलब्धमहर्द्धिमुख्या:
सूर्यादयो मुनिवरा जगतां प्रयान्त:।।
कुर्वन्तु ऋद्धिनिचयं शुभचन्द्रकस्य
संघस्य दुष्टदुरितानि हरन्तु सन्त:।।१०।।
(इति गणधरवलयस्तवनं समाप्तम्।।)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।
(मण्डल पर सामने ६ देवियों के ६ अर्घ्य चढ़ावें)
सौधर्म इन्द्र मान्य पद्म ह्रद कमल पे जो।
श्रीधन सुपुत्र बुद्धि को देती हैं भक्त को।।
श्रीदेवी ये तीर्थेश मात को सदा सेवें।
गणधर चरण भक्ता इन्हें हम अर्घ्य को देवें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवि! इदं अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
ह्री देवी महापद्म हृद कमल में नित बसें।
भक्तों को लज्जा आदि गुणों को जो दे सकें।।
जिनमात को अनुराग भाव से सदा भजें।
गणधर चरण भक्ता इन्हें हम अर्घ्य से जजें।।२।।
ॐ ह्रीं ह्रीदेवि! इदं अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
सरवर तिगिंछ कंज में देवी धृती कहीं।
धैर्यादि गुणों को सदा भक्तों को दे रहीं।।
जिनवर प्रसू की भक्ति से सेवा सदा करें।
गणधर चरण भक्ता को अर्घ्य दे सुखी करें।।३।।
ॐ ह्रीं धृतिदेवि! इदं अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
हृद केसरी कमल में कीर्ति देवी नित बसें।
सब जन को श्रेष्ठ भोग सुयश आदि दे सकें।।
जिनमात की सेवा करें गणधर चरण नमें।
इनको चढ़ाते अर्घ्य कीर्ति लोक में भ्रमें।।४।।
ॐ ह्रीं कीर्तिदेवि! इदं अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
हृद महापुंडरीक में बुद्धी सुरी रहें।
ये भेदज्ञान बुद्धि दे जिनभक्तिरत रहें।।
जिनमात की सेवा करें परिवार समेता।
गणधर चरण भक्ता जजें हम अर्घ्य समेता।।५।।
ॐ ह्रीं बुद्धिदेवि! इदं अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
हृद पुंडरीक कंज में लक्ष्मी सुरी कहीं।
जिनदेव के शासन की लक्ष्मी बढ़ा रहीं।।
जिनराज प्रसू की करें सेवा सुभक्ति से।
गणधर चरण भक्ता इन्हें हम अर्घ्य से जजें।।६।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीदेवि! इदं अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री ह्री धृति कीर्ति, बुद्धी लक्ष्मी नाम।
छह देवी पूर्णार्घ्य से, जजूं करूं सम्मान।।
ॐ ह्रीं श्री—आदिदेव्य: इदं पूर्णार्घ्यं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं स्वाहा।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
गणधरगुरु के ऋद्धिमय, मंत्र सुअड़तालीस।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, नमूँ नमूँ नत शीश।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।