२.१ मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद से ज्ञान पाँच प्रकार का कहा गया है। ‘‘मतिश्रुतावधिमन: पर्ययकेवलानिज्ञानम्’’ इति तत्त्वार्थसूत्रं। इन पाँच प्रकार के ज्ञानों में मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, और केवलज्ञान,—ये चार ज्ञान स्वार्थ हैं। अर्थात् इन चार ज्ञानों के द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं, अनुभव में आते हैं, परन्तु इनके द्वारा दूसरों के लिये प्रतिपादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये वचनात्मक नहीं हैं। श्रुत ज्ञान स्वार्थ भी है तथा परार्थ भी है। श्रुतज्ञान वचनात्मक है, अत: इसके द्वारा तत्वार्थ का प्रतिपादन दूसरों के लिये भी कर सकते हैं।
सर्वज्ञ वीतरागी हितोपदेशी तीर्थंकर परमदेव की पुनीत दिव्य ध्वनि से जो तत्वों का उपदेश हुआ, उसको यथावत् हृदयंगम करके चार ज्ञान के धारक श्रुतकेवली गणधर परमदेव ने द्वादशांग रूप से उसका प्रतिपादन किया। आचार्य परम्परा से वही द्वादशांग ज्ञान अक्षुण्ण रूप से प्रतिपादित होता रहा। लेकिन कालान्तर में ज्ञान के क्षयोपशम की हीनता के कारण विस्मरण होने का प्रसंग आया तब परोपकारी आचार्यों ने उसे अक्षरों में लिपिबद्ध करके द्रव्य श्रुत रूप आगम की रचना की।
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेद्म।
अर्थ—श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और वह दो प्रकार का है। पहला अंग बाह्य अनेक भेद वाला और दूसरा अंग प्रविष्ट बारह भेद वाला है।
श्रुतज्ञान के मूल दो भेद हैं—एक अंगप्रविष्ट और दूसरा अंगबाह्य। अंगप्रविष्ट आचारांग आदि के भेद से बाहर प्रकार का है। भगवान महावीर रूपी हिमाचल से निकली हुई वाग्गंगा के अर्थरूप जल से जिनका अन्त:करण अत्यन्त निर्मल हैं, उन बुद्धि ऋद्धि के धनी गणधरों द्वारा गं्रथ रूप में रचे गए आचारांग आदि बारह अंग हैं।
गणधर देव के शिष्य—प्रशिष्योें द्वारा अल्पायु, बुद्धि बल वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगो के आधार से रचे गये संक्षिप्त गं्रथ अंगबाह्य हैं। कालिक, उत्कालिक आदि के भेद से अंग बाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाघ्यायकाल में जिनके पठन—पाठन का नियम है उन्हें कालिक कहते हैं तथा जिनके पठन—पाठन का कोई नियम समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि अंगबाह्य ग्रंथ हैं।
यह श्रवण, श्रुत, ज्ञानविशेष है, केवल श्रवण मात्र (सुनना मात्र) इसका अर्थ नहीं है अर्थात् ‘श्रुत’ शब्द सुनने, रूप अर्थ की मुख्यता से निष्पादित है तो भी रूढ़ि से उसका वाच्य कोई ज्ञान विशेष है। जैसे कुश को छेदता है, काटता है, वह कुशल होता है तथापि रूढ़िवश उसका अर्थ पर्य्यवदान (विमल, मनोज्ञ) क्षेम होता है—न कि कुश का काटना। उसी प्रकार ‘श्रवण’ ‘श्रुत’ है ऐसा कहने पर भी सिर्फ सुनना मात्र श्रुत नहीं है, परन्तु ज्ञानविशेष है। वह ज्ञानविशेष क्या है ? इस बात को ध्यान में रखकर ‘श्रुतं मतिपूर्वं यह कहा है। मति है पूर्व निमित्त कारण जिसका वह मतिपूर्व कहलाता है।
जो प्रमाण को पूरता है वह पूर्व कहलाता है, पूर्वशब्द की व्युत्पत्ति है। अथवा मतिज्ञान का लक्षण पूर्व में कह चुके हैं। वह मति जिसके पूर्व में हैं, वह मतिपूर्व श्रुत कहलाता है।
केवलज्ञानी भगवान महावीर के द्वारा कहे गये अर्थ-पदार्थ को उसी काल में और उसी क्षेत्र में क्षयोपशम विशेष से उत्पन्न चार प्रकार के-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्ययरूप निर्मल ज्ञान से युक्त, ब्राह्मणवर्णी, गौतम गोत्री, अन्य मतावलम्बी वेद-वेदांग के पारंगत और जीव-अजीवविषयक संदेह को दूर करने के लिए श्रीवर्द्धमान तीर्थंकर के पाद-मूल में जाकर इन्द्रभूति ने केवलज्ञान से विभूषित उन भगवान महावीर के द्वारा कथित अर्थ को ग्रहण किया।
पुन: उन इन्द्रभूति ने भावश्रुतरूप पर्याय से परिणत होकर बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की रचना एक ही मुहूर्त में कर दी।
भट्टारक भगवान महावीर के उपदेश से श्रावण कृष्णा एकम् तिथि को पूर्वाण्हकाल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। पुन: उसी दिन अपराण्ह काल में अनुक्रम से पूर्वों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया।
आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति अंग, नाथधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्त:कृद्दशांग, अनुत्तरौपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादशांग के नाम हैं।
१. आचारांग-अठारह हजार पदों के द्वारा मुनियों के आचार/आचरण/चर्या का वर्णन करने वाला पहला आचारांग श्रुत है। यथा-
शिष्य पूछता है कि हे भगवन्! मैं वैâसे विचरण करूँ ? वैâसे ठहरूँ ? वैâसे बैठूँ ? वैâसे शयन करूँ ? वैâसे भोजन करूँ ? और वैâसे भाषण करूँ-बोलूँ ? जिससे पाप का बंध न हो।
तब आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य! तू यत्नपूर्वक-सावधानीपूर्वक (समितिपालनयुक्त यत्नाचारपूर्वक) विचरण कर, यत्नपूर्वक ठहर, यत्नपूर्वक बैठ, यत्नपूर्वक शयन कर, यत्नपूर्वक भोजन कर और यत्नपूर्वक वचन बोल जिससे कि पाप का बंध नहीं होगा।
२. सूत्रकृतांग-छत्तीस हजार पदों के द्वारा यह अंग ज्ञानविनय-प्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्य-छेदोपस्थापना और व्यवहार धर्मक्रिया की प्ररूपणा करता है तथा स्वसमय (जैनागम) और परसमय (अन्य मतावलम्बी ग्रंथों) को भी कहता है।
३. स्थानांग-ब्यालीस हजार पदों के द्वारा एक से लेकर, उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है। जैसे-यह जीव चैतन्य गुण से समन्वित धर्म वाला होने से एक है, ज्ञान-दर्शन उपयोग रूप से दो प्रकार का है तथा कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना व्ाâे भेद से तीन प्रकार का है इत्यादि।
४. समवायांग-एक लाख चौंसठ हजार पदों के द्वारा समस्त पदार्थों के समवाय का वर्णन करने वाला यह अंग है। उनमें से द्रव्यसमवाय की अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान हैं।
क्षेत्रसमवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तक नामक प्रथम इन्द्रकबिल, ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु नाम का इन्द्रक विमान और सिद्धक्षेत्र ये सब समान प्रमाण वाले हैं अर्थात् इन सबका विस्तार ४५ लाख योजन प्रमाण है। कालसमवाय की अपेक्षा एक समय एक समय के बराबर है और एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है। भावसमवाय की अपेक्षा केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है।
५. व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग-दो लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करने वाला यह पाँचवाँ अंग है।
६. नाथधर्मकथांग-पाँच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से तीर्थंकरों की धर्मदेशना, संदेह को प्राप्त गणधरदेव के संदेह को दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथा और उपकथाओं का वर्णन करने वाला यह अंग ‘‘ज्ञातृधर्मकथांग’’ के नाम से भी जाना जाता है।
७. उपासकाध्ययनांग-ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इस प्रकार ग्यारह प्रतिमारूप व्रतों के द्वारा उपासकों-श्रावकों के लक्षण, उनके व्रतारोपण-व्रत धारण करने की विधि और उनके आचरण का वर्णन यह ‘‘उपासकाध्ययन अंग’’ नामक ग्रंथ करता है।
८. अन्त:कृद्दशांग-तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रातिहार्य प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुए दश-दश अन्तकृत केवलियों का वर्णन करता है।
जिन्होंने संसार का अन्त कर दिया उन्हें ‘‘अन्तकृतकेवली’’ कहते हैं। वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कंविल, पालम्ब और अष्टपुत्र ये दश अन्तकृत्केवली हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभदेव आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में और दूसरे दश-दश अनगार दारुण उपसर्गों को सहनकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृतकेवली हुए। इन सबकी दशा का जिसमें वर्णन किया जाता है उसे ‘‘अन्तकृद्दश’’ नामक अंग कहते हैं।
९. अनुत्तरौपपादिकदशांग-बानवे लाख चवालीस हजार पदों द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन करके प्रातिहार्यों को प्राप्त करके पाँच अनुत्तर विमानों में गए हुए दश-दश महामुनियों का वर्णन करने वाला यह अंग है।
उपपाद जन्म ही जिनका प्रयोजन है उन्हें औपपादिक कहते हैं। विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान हैं। जो इन अनुत्तरों में उपपाद जन्म से पैदा होते हैं उन्हें अनुत्तरौपपादिक कहते हैं। ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र ये दश अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभनाथ आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दश-दश महासाधु दारुण उपसर्गों को जीतकर विजयादिक पाँच अनुत्तरों में उत्पन्न हुए।
इस तरह अनुत्तरोें में उत्पन्न होने वाले दश साधुओं का जिसमें वर्णन किया जावे, उसे अनुत्तरौपपादिकदशांग नाम का अंग कहते हैं।
१०. प्रश्नव्याकरणांग-तिरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी इन चार कथाओं का वर्णन करता है अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल संबंधी धन-धान्य, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, जय और पराजय संबंधी प्रश्नों के पूछने पर उनके उपाय का लाभ वर्णन करने वाला यह अंग है।
जो नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों का और दूसरे समयों-ग्रंथों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ पदार्थ का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं पश्चात् परसमय की आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छह द्रव्य, नव पदार्थों का वर्णन किया जाता है, उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं।
तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियों का एवं उनकी पुण्यकथा का वर्णन करने वाली संवेदनी कथा है।
नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि पाप-फलों को बतलाने वाले निर्वेदनी कथा है। यह संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा है।
यहाँ समस्त कथाओं के मध्य में जो विक्षेपणी कथा है उसे सबके सामने नहीं कहना चाहिए। क्योंकि जिसे जिनवचनों का ज्ञान नहीं है वह कदाचित् परसमय का प्रतिपादन करने वाली इन कथाओं को सुनकर मिथ्यात्वपने को स्वीकार कर सकता है अत: उसके लिए विक्षेपणी कथा का उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं को ही कहना चाहिए-वे ही उसके लिए सुनने योग्य हैं।
यह दशवाँ अंग प्रश्न की अपेक्षा से हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, जय-पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का निरूपण भ्ाी करता है।
११. विपाकसूत्रांग-एक करोड़ चौरासी लाख पदों के द्वारा पुण्य-पाप कर्मों के विपाक-फल का वर्णन करता है।
इन ग्यारह अंगों के कुल पदों का जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार प्रमाण है।
१२. दृष्टिवाद अंग-इसमें कौत्कल, काण्ठेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांधपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड और अश्वलायन आदि क्रियावादियों के एक सौ अस्सी मतों का मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्बलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावादियों के चौरासी मतों का, शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कण्व, माध्यंदिन, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु, जैमिनी आदि अज्ञानवादियों के सड़सठ (६७) मतों का तथा वशिष्ट, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि,रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूल आदि वैनयिकवादियों के बत्तीस मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है।
पूर्व में कहे हुए क्रियावादी आदि के कुल भेद तीन सौ त्रेसठ होते हैं।
इस प्रकार इन ३६३ पाखंड मतों का वर्णन और निराकरण दृष्टिवाद अंग में किया गया है।
परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।
परिकर्म भी पाँच प्रकार का है-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति।
चन्द्रप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्ब की ऊँचाई आदि का वर्णन करता है।
सूर्यप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्ब की ऊँचाई, दिन की हानि-वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करता है।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए नाना प्रकार के मनुष्य तथा अन्य तिर्यंच आदि का और पर्वत, द्रह, नदी, वेदिका, वर्ष, आवास, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है।
द्वीपसागर प्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म बावनलाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीप सागर के अन्तर्भूत नाना प्रकार के अन्य पदार्थों का वर्णन करता है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा रूपी अजीवद्रव्य अर्थात् पुद्गल, अरूपी अजीवद्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल, भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीवराशि का वर्णन करता है।
२. सूत्र-अठासी (८८) लाख पदों के द्वारा जीव एकान्त से अबन्धक है, अलेपक है, अकर्ता है, अभोक्ता है, निर्गुण है, सर्वगत ही है इत्यादि ३६३ (तीन सौ त्रेसठ) मतों का वर्णन करने वाला ‘‘सूत्र’’ है।
यह सूत्र नामक अर्थाधिकार त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषवाद का भी वर्णन करता है।
३. प्रथमानुयोग-इसमें पाँच हजार पदों के द्वारा पुराण गं्रथों का वर्णन किया गया है।
जिनेन्द्रदेव ने जगत में बारह प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण जिनवंश और राजवंशों का वर्णन करते हैं।
प्रथमानुयोग में जिस बारह पुराणों के उपदेश का कथन आया है, उनके नाम इस प्रकार हैं-
hj6
१. अरिहंत अर्थात् तीर्थंकरों का पुराण २. चक्रवर्तियों का पुराण ३. विद्याधरों का पुराण ४. नारायण-प्रतिनारायण पुराण ५. चारण ऋद्धिधारियों का प्रमाण ६. प्रज्ञाश्रमणों के वंश का वर्णन करने वाले पुराण ७. कुरुवंश पुराण ८. हरिवंश पुराण
९. इक्ष्वाकुवंश पुराण १०. काश्यपवंश पुराण ११. वादियों के वंश का वर्णन करने वाला पुराण १२. नाथवंश पुराण।
४. पूर्वगत-पंचानवे करोड़, पचास लाख, पाँच पदों द्वारा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आदि का वर्णन करने वाला पूर्वगत अर्थाधिकार है। इसके चौदह भेद आगे कहेंगे।
५. चूलिका-यह पाँच प्रकार की है-जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता।
जलगता चूलिका में दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ (२०९८९२००) पदों के द्वारा जल में गमन और जलस्तम्भन के कारणभूत मंत्र-तंत्र और तपश्चर्यारूप अतिशय आदि का वर्णन आता है।
स्थलगता चूलिका भी उतने ही अर्थात् दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदों द्वारा पृथ्वी के भीतर गमन करने के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरणरूप अतिशय आदि का तथा वास्तुविद्या और भूमि संबंधी अन्य शुभाशुभ कारणों का भी वर्णन करती है।
मायागता चूलिका भी उपर्युक्त पदों द्वारा इन्द्रजाल आदि के कारणों का वर्णन करती है।
रूपगता चूलिका में इतने ही पदों द्वारा सिंह, घोड़ा, हिरण आदि के आकाररूप से परिणमन करने के कारणभूत मंत्र-तंत्र का तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन है।
आकाशगता चूलिका भी उपर्युक्त २०९८९२०० पदोें द्वारा आकाशगमन में निमित्तभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण का वर्णन करती है।
इन पाँचों ही चूलिका की समस्त पद संख्या दश करोड़ उनचास लाख छियालिस हजार आती है।
उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणप्रवादपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसारपूर्व।
इन चौदह पूर्वों की सम्पूर्ण वस्तुओं का जोड़ एक सौ पंचानवे (१९५) होता है और एक-एक वस्तु में बीस-बीस प्राभृत होते हैं इसलिए सम्पूर्ण प्राभृतों का प्रमाण तीन हजार नौ सौ (३९००) होता है।
‘‘एक-एक प्राभृतों के चौबीस-चौबीस अनुयोग द्वारों के नाम से अर्थाधिकार होते हैं।’’ ऐसा कसायपाहुड़ में कहा है।
१. उत्पादपूर्व—दश वस्तुगत दो सौ प्राभृतों के एक करोड़ पदों द्वारा जीव-काल और पुद्गलों के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का वर्णन करता है।
२. अग्रायणीय पूर्व-चौदह वस्तुगत दो सौ अस्सी प्राभृतों के छ्यानवे लाख पदों द्वारा अंगों के अग्र-परिमाण का कथन करता है और वह सात सौ सुनय-दुर्नय, पाँच अस्तिकाय, छहद्रव्य, साततत्त्व, नवपदार्थ आदि का वर्णन भी करता है।
३. वीर्यानुप्रवाद पूर्व-इसमें आठ वस्तुगत एक सौ साठ प्राभृतों का सत्तर लाख पदों के द्वारा आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, भववीर्य और तपोवीर्य का वर्णन है।
४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व-अठारह वस्तुगत तीन सौ आठ प्राभृतों के साठ लाख पदों द्वारा जीव-अजीव के अस्तित्त्व और नास्तित्त्व धर्म का वर्णन करता है।
५. ज्ञानप्रवाद पूर्व-बारहवस्तुगत दो सौ चालीस प्राभृतों के एक कम एक करोड़ पदों द्वारा पाँच ज्ञान, तीन अज्ञानों का वर्णन करता है।
६. सत्यप्रवादपूर्व-बारह वस्तुगत दो सौ चालीस प्राभृतों के एक करोड़ छह पदों द्वारा वचनगुप्ति, वाक्संस्कार के कारण, वचनप्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, अनेक प्रकार के वक्ता, अनेक प्रकार के असत्यवचन और दश प्रकार के सत्यवचन इन सबका वर्णन करता है।
दश प्रकार के सत्य के नाम इस प्रकार हैं-नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीतिसत्य, संवृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य, भावसत्य और समयसत्य के भेद से सत्यवचन दश प्रकार का है। इनका विशेष वर्णन गोम्मटसार जीवकाण्ड से देखना चाहिए।
७. आत्मप्रवादपूर्व-सोलह वस्तुगत तीन सौ बीस प्राभृतों के छब्बीस करोड़ पदों द्वारा जीव वेत्ता है, विष्णु है, भोक्ता है, बुद्ध है इत्यादिरूप से आत्मा का वर्णन विस्तार से करता है।
८. कर्मप्रवादपूर्व-बीस वस्तुगत चार सौ प्राभृतों के एक करोड़ अस्सी लाख पदों द्वारा आठ प्रकार के कर्मों का वर्णन करता है।
९. प्रत्याख्यानपूर्व-तीस वस्तुगत छह सौ प्राभृतों के चौरासी लाख पदों द्वारा द्रव्य, भाव आदि की अपेक्षा परिमित कालरूप और अपरिमित कालरूप प्रत्याख्यान, उपवास विधि, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का वर्णन करता है।
१०. विद्यानुवादपूर्व-पन्द्रह वस्तुगत तीन सौ प्राभृतों के एक करोड़ दश लाख पदों द्वारा अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं का और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और चिन्ह इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता है।
११. कल्याणवादपूर्व-दश वस्तुगत दो सौ प्राभृतों के छब्बीस करोड़ पदों द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणों के चार क्षेत्र, उपपाद स्थान, गति, वक्रगति तथा उनके फलों का, पक्षी के शब्दों का और अरिहंत अर्थात् तीर्थंकर, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि महाकल्याणकों का वर्णन करता है।
१२. प्राणावायपूर्व-दश वस्तुओं का, दो सौ प्राभृतों के तेरह करोड़ पदों के द्वारा कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद को, भूतिकर्म अर्थात् शरीर आदि की रक्षा के लिए किए गए भस्मलेपन सूत्रबन्धनादि कर्म, जांगुलि प्रक्रम (विषविद्या) और श्वासोच्छ्वास के विभाग को विस्तार से बतलाने वाला प्राणावायपूर्व है।
१३. क्रियाविशालपूर्व–दशवस्तुगत दो सौ प्राभृतों के नौ करोड़ पदों के द्वारा लेखनकला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणों का, शिल्पकला का, काव्यसम्बन्धी गुण-दोष विधि का और छन्दनिर्माण कला का वर्णन करने वाला क्रियाविशालपूर्व है।
१४. लोकविन्दुसारपूर्व-दशवस्तुगत दो सौ प्राभृतों के बारह करोड़ पचास लाख पदों के द्वारा आठ प्रकार के व्यवहारों का, चार प्रकार के बीजों का, मोक्ष को ले जाने वाली क्रिया का और मोक्षसुख का वर्णन करने वाला यह चौदहवाँ पूर्व है।
अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद ये पद के तीन भेद माने गए हैं। इनमें से मध्यम पद के द्वारा अंग एवं पूर्वों का पदविभाग किया गया है।
पद तीन प्रकार के होते हैं-अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद। इनमें से अनियत अक्षरों का समूह ‘‘अर्थपद’’ है। जैसे-ग्रंथ को लाओ, देवपूजा करो इत्यादि।
आठ अक्षरों के समूह को ‘‘प्रमाणपद’’ कहते हैं। यथा—अनुष्टुप् छंद के एक-एक चरण में आठ-आठ अक्षर होते हैं इत्यादि।
मध्यमपद के अक्षरों का प्रमाण सर्वकाल (हमेशा) निश्चित ही रहता है। कहा भी है-परमागम में अंग पूर्वों की पदसंख्या मध्यम पदों के द्वारा ही बतलाई गई है। उस एक मध्यमपद के अक्षरों का प्रमाण कहते हैं-
सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षरों का एक मध्यम पद होता है।
अर्थात् एक मध्यमपद में सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षर होते हैं। इस प्रकार से द्वादशांग के समस्त पदों की संख्या कहते हैं-
द्वादशांग के सब मध्यम पदों का प्रमाण एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अठावन हजार पाँच है।
अर्थात् ११२८३५८००५ पद द्वादशांग में होते हैं ऐसा अभिप्राय है।
प्रकीर्णक अर्थात् सामायिक आदि चौदह अंग बाह्यों के अक्षर आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पिचहत्तर प्रमाण होते हैं।
अर्थात् ८०१०८१७५ अक्षर प्रकीर्णक-अंगबाह्य में होते हैं ऐसा अर्थ हुआ।
इतने अक्षरों से मध्यमपद नहीं होते हैं अतएव इतने अक्षरों के द्वारा अंग पूर्व की पदसंख्या नहीं बनती है, इसी कारण इन अक्षरों वेâ द्वारा ग्रथित—गूूँथे गये-वर्णित किए गए श्रुत की ‘अंगबाह्य’ संज्ञा मानी गई है।
२.७ अंगबाह्य के चौदह भेद-
सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका ये चौदह भेद अंगबाह्य के हैं।
१. सामायिक नामका श्रुत अंगबाह्य अर्थाधिकार नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह भेदों द्वारा समता भाव के विधान का वर्णन करता है।
अन्यत्र कहा भी है-तीनों ही सन्ध्याओं में या पक्ष और मास के संधि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अंतरंग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करना सामायिक है।
२. चतुर्विंशतिस्तव श्रुत उस-उस काल संबंधी चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करने की विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशयों के स्वरूप और तीर्थंकरों की वंदना की सफलता का वर्णन करता है।
३. वंदना नाम का अर्थाधिकार एक जिनेन्द्रदेव सम्बंधी और उनके जिनालय संबंधी वंदना के निरवद्यभाव का अर्थात् प्रशस्तरूप भाव का वर्णन करता है।
४. प्रतिक्रमण नामका अर्थाधिकार काल और पुरुष का आश्रय लेकर सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का निरूपण करता है।
प्रमाद कृत दैवसिक आदि दोषों का निराकरण जिसके द्वारा किया जाता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। वह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक और औत्तमार्थिक के भेद से सात प्रकार का है। दुष्षम आदि काल और छह संहनन से युक्त स्थिर तथा अस्थिर स्वभाव वाले पुरुषों का आश्रय लेकर यथायोग्य इन सातों प्रतिक्रमणों का प्ररूपण करने वाला यह प्रतिक्रमण अर्थाधिकार है।
५. वैनयिक नामका अर्थाधिकार ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय इन पाँच प्रकार के विनयों का वर्णन करता है।
६. कृतिकर्म नामका अर्थाधिकार अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु की पूजा आदि की विधि का वर्णन करता है।
उस कृतिकर्म के आत्माधीन होकर किए गए तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण, भेद फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है।
७. दशवैकालिक अर्थाधिकार मुनियों के आचार और गोचरी विधि का वर्णन करता है।
विशिष्ट काल को विकाल कहते हैं। उसमें जो विशेषता होती है उसे वैकालिक कहते हैं। वे वैकालिक दश हैं। उनको कहने वाला दशवैकालिक है।
८. उत्तराध्ययन अर्थाधिकार उत्तरपदों का वर्णन करता है। यह चार प्रकार के उपसर्गों का, बाईस प्रकार के परीषहों का एवं उन सबके सहन करने की विधि का तथा फल का प्रश्नोत्तर रूप में वर्णन करता है।
९. कल्पव्यवहार साधुओं के योग्य आचरण का और अयोग्य आचरण के होने पर प्रायश्चित विधि का वर्णन करता है।
कल्प नाम योग्य का है और व्यवहार नाम आचार का है उन सबका वर्णन करने वाला कल्पव्यवहार है।
१०. कल्पाकल्पिक द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है इस तरह इन सबका वर्णन करता है।
११. महाकल्प काल और संहनन का आश्रय कर साधुओं के द्रव्य-क्षेत्रादि का वर्णन करता है।
इसमें उत्कृष्ट संहनन आदि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर प्रवृत्ति करने वाले जिनकल्पी साधुओं के योग्य त्रिकालयोग आदि अनुष्ठान का और स्थविरकल्पी साधुओं की दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना आदि का विशेष वर्णन है।
१२. पुण्डरीक नामका अर्थाधिकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारणरूप, दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यग्दर्शन और संयम आदि अनुष्ठानों का वर्णन करता है।
१३. महापुण्डरीक समस्त इंद्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारण रूप तपोविशेष आदि आचरण का वर्णन करता है।
१४. निषिद्धिका अनेक प्रकार के प्रायिश्चत विधान का कथन करता है।
प्रमादजन्य दोषों के निराकरण करने को निषिद्धि कहते हैं और इस निषिद्धि अर्थात् बहुत प्रकार के प्रायश्चित के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को निषिद्धिका कहते हैं।
अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि बारह भेद हैं जिन्हें बुद्धि आदि अतिशयकारी ऋद्धियों से संपन्न गणधर देवों ने स्मरण करके गं्रथरचना की है।
आरातीय आचार्यकृत अंग अर्थ के आधार से रचे गए गं्रथ अंगबाह्य हैं।
श्रुत अर्थ के ज्ञाता गणधर देव के शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्प आयु एवं अल्प बुद्धि वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गए संक्षिप्त ग्रंथ अंगबाह्य हैं।
वह अंगबाह्य कालिक, उत्कालिक आदि विकल्प से अनेक प्रकार का है।
कालिक और उत्कालिक आदि की अपेक्षा उस अंगबाह्य के अनेक भेद हैं। स्वाध्याय काल में जिनके पठन-पाठन का नियम अर्थात् नियतकाल है वे ‘कालिक’ कहलाते हैं तथा जिनके पठन-पाठन का कोई नियत समय न हो वे ‘उत्कालिक’ हैं।
उत्तराध्ययन आदि अनेक प्रकार के अंगबाह्य ग्रंथ हैं।
यह द्वादशांग वाणी ग्रंथों में श्रुतदेवीरूप से भी वर्णित की गई है।
श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदह पूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए।
प्राfतष्ठातिलक नामक ग्रंथ में श्रुत के बारह अंगों में निबद्ध सरस्वती माता को एक स्तोत्र के माध्यम से इस प्रकार स्वीकार किया है—
बारह अंगों में से प्रथम जो ‘‘आचारांग’’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘‘सूत्रकृतांग’’ मुख है, ‘‘स्थानांग’’ कण्ठ है, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएँ हैं, ज्ञातृकथांग और उपासकाध्ययनांग ये दोनों अंग उस सरस्वती देवी के दो स्तन हैं, अंतकृद्दशांग यह नाभि है, अनुत्तरदशांग श्रुतदेवी का नितम्ब है, प्रश्नव्याकरणांग यह जघन भाग है, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये दोनों अंग उन सरस्वती देवी के दोनों पैर हैं। ‘‘सम्यक्त्व’’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व अलंकार हैं और ‘‘प्रकीर्णक श्रुत’’ सुन्दर बेल-बूटे सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहाँ पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है।
श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्व पदार्थों की सम्पूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह ‘‘श्रुतदेवता’’ अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परमब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगोें के लिए यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिए भुक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है।
हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिए प्रमुख कारण हो, इसलिए मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरणकमलों को नमस्कार करता हूूूँ।
श्रीवीरसेनाचार्य ने भी धवला ग्रंथ में कहा है-
जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य हैं अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकार के मल (अतीचार) और तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन रूप उन्नत तिलक से विराजमान है और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिनके आभूषण हैं ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो।
जिसका आदि-मध्य और अन्त से रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जागृतचक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को नमस्कार हो।
सरस्वती स्तोत्र में भी सरस्वती देवी के लक्षण कहते हैं। जैसे—
चन्द्रार्क कोटिघटितोज्वलदिव्यमूर्ते। श्रीचन्द्रिकाकलितनिर्मल शुभ्रवासे।।
कामर्थदायिकलहंससमाधिरूढ़े। वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि।।
अर्थ—करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करने वाली, चन्द्र किरण के समान अत्यंत स्वच्छ एवं श्वेत वस्त्र को धारण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर आरूढ़ दिव्यमूर्ति श्री सरस्वती देवी हमारी प्रतिदिन रक्षा करें।
दिव्य कमल के समान नेत्रों वाली, हंस वाहन पर आरूढ़, वीणा और पुस्तक को हाथ में धारण करने वाली सरस्वती देवी है।
सरस्वती माता के सोलह नाम—
१. भारती २. सरस्वती ३. शारदा ४. हंसगामिनी ५. विद्वानों की माता ६. वागीश्वरी ७. कुमारी ८. ब्रह्मचारिणी ९. जगन्माता १०. ब्राह्मिणी ११. ब्रह्माणी १२. वरदा १३. वाणी १४. भाषा १५. श्रुतदेवी और १६. गो।
अन्यत्र एक सौ आठ नाम मंत्र भी सुने जाते हैं।
सरस्वती देवी की मूर्ति जैन मंदिरों में भी देखी जाती हैं, ये चार निकाय वाले देवों में से किसी निकाय की देवी नहीं हैं बल्कि द्वादशांग जिनवाणी स्वरूप माता ही हैं इसलिए मुनियों के द्वारा भी वंद्य हैं ऐसा जानना चाहिए। वस्त्र-अलंकारों से भूषित होने पर भी वे सरागी नहीं हैं। वस्त्र से वेष्टित शास्त्र के समान वे सरस्वती की प्रतिमाएँ भी सभी के द्वारा सर्वदा पूज्य ही हैं इसलिए विद्वानों को इस विषय में किंचित् भी शंका नहीं करनी चाहिए।
भगवान महावीर स्वामी के प्रमुख शिष्य गणधर देव श्री गौतम स्वामी के द्वारा दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहाचार्य को प्रदान किया गया, लोहाचार्य ने भी जम्बूस्वामी को दिया अत: परिपाटी-परम्परा क्रम से ये तीनों भी सकलश्रुत के धारक माने गये। पुन: अपरिपाटी-अक्रम परम्परा से सकलश्रुत के पारगामी संख्यात हजार हुए हैं।
उसके पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु नाम वाले ये पाँच आचार्य परम्परा क्रम से चौदह पूर्व के धारी श्रुतकेवली हुए। तत्पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थस्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन नामके ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और दश पूर्व के ज्ञाता हुए तथा उपरिम चार पूर्वों के एक देश ज्ञाता हुए हैं।
तदनन्तर नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्रुवसेन, कंसाचार्य नामके ये पाँच आचार्य परिपाटी क्रम से सभी अंग और पूर्वों के एक देश धारक हुए। उसके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु, लोहार्य नाम वाले चार आचार्य एक आचारांग के धारी थे तथा शेष दश अंग एवं चौदह पूर्वों के एक देश ज्ञाता थे।
उसके पश्चात् चौदह पूर्वों का एक देश ज्ञान आचार्य परम्परा से चलता हुआ श्रीधरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ था।
सौराष्ट्र देश के गिरिनगर-गिरनार की ‘‘चन्द्र’’ नामक गुफा में निवास करने वाले अष्टांगमहानिमित्त के पारगामी-ज्ञानी श्रीधरसेन आचार्य ने एक बार मन में विचार किया कि आगे भविष्य में अंग श्रुत का व्युच्छेद-खंडन हो जाएगा अत: किसी भी उपाय से उस अंग श्रुतज्ञान की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए, तब उन्होंने पंचवर्षीय साधुसम्मेलन में सम्मिलित दक्षिणदेशवासी आचार्यों के पास एक लेख-संदेश भिजवाया।
लेख में लिखित श्रीधरसेनाचार्य के वचनों पर विचार-विमर्श करके उन आचार्यों ने श्रुत को अच्छी प्रकार से ग्रहण एवं धारण करने में समर्थ, देश, कुल, जाति से शुद्ध दो दिगम्बर मुनियों को आन्ध्रदेश के वेणा नदी के तट से गिरनार की ओर विहार करा दिया-भेज दिया।
सौराष्ट्र देश के गिरिनगरपुर के समीप ऊर्जयन्त पर्वत पर चंद्रगुफा में निवास करने वाले महातपस्वी, मुनिश्रेष्ठ, आग्रायणीय पूर्व स्थित पंचमवस्तुगत चतुर्थ महाकर्म प्राभृत के ज्ञाता श्रीधरसेनाचार्य थे। उन्होंने अपनी आयु का अंत निकट जानकर और आगे श्रुत का विच्छेद होने वाला है-हो जायेगा अत: मुझे इसे किसी निपुणमति-बुद्धिमान के लिए प्रदान करना चाहिए ऐसा विचार करके वेणानदी के तट पर महामहिम उत्सव में एकत्रित हुए मुनियों के पास एक ब्रह्मचारी के द्वारा लेख-पत्र भिजवाया।
उन मुनियों ने ब्रह्मचारी से लेख प्राप्त करके समस्त मुनिसभा के बीच में उन महात्मा महामुनि का लिखित संदेश सुनाया कि—
ऊर्जयन्त तट के निकट चन्द्रगुफा निवासी मैं धरसेन आचार्य वेणाक तट पर एकत्रित स्वस्ति श्रीमान् मुनियों की वंदना करते हुए इस कार्य के लिए निवेदन करता हूँ कि मेरी आयु अब थोड़ी ही शेष बची है और मेरे पास स्थित श्रुत का आगे व्युच्छेद हो जाएगा अत: आप लोग श्रुत को ग्रहण-धारण करने में समर्थ ऐसे दो शिष्य मुझसे श्रुत को प्राप्त करने तथा आगे की श्रुत परम्परा चलाने हेतु मेरे पास भिजवाने का अनुग्रह करें।
उन मुनियों ने श्रीधरसेनाचार्य के लेख का अभिप्राय भलीभाँति समझ कर उपर्युक्त गुणों के धारक दो मुनियों का पूरे संघ में से अन्वेषण करके श्री धरसेनाचार्य के पास भेज दिया। वे दोनों विहार करते हुए ऊर्जयन्त पर्वत पर पहुँच गए।
एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीधरसेनाचार्य ने स्वप्न में देखा कि समस्त शुभ लक्षणों से समन्वित दो सुन्दर वृषभ-बैल मेरी तीन प्रदक्षिणा करके नम्रीभूत अंगों से मेरे चरणों में झुककर नमन कर रहे हैं। तब संतुष्टमना आचार्य ‘‘जयतु श्रुतदेवता’’ इस वाक्य का उच्चारण करके निद्रा से उठकर बैठ गए। उसी दिन प्रात:काल दक्षिणापथ से विहार करते हुए वे दोनों मुनि वहाँ पहुँच गए। उन दोनों मुनियों ने कृतिकर्म विधिपूर्वक श्रीधरसेन भगवन्त को नमस्कार किया। पुन: दो दिन के बाद तीसरे दिन विनयपूर्वक श्री धरसेन- भट्टारक से निवेदन किया—
भगवन्! आपके पत्रानुसार हम दो मुनि आपके पादमूल में आ गए हैं। ‘‘बहुत अच्छा’’ ऐसा बोलकर आचार्यश्री ने भी उन दोनों को आश्वस्त किया। तब श्रीधरसेनाचार्य ने चिन्तन किया कि—‘‘स्वैराचारी-स्वच्छन्द प्रवृत्ति वाले मुनियों को दिया गया विद्यादान संसार भय को बढ़ाने वाला है।’’ यद्यपि शुभ स्वप्न के दर्शन से उन्होंने इन दोनों मुनियों की योग्यता को जान लिया था फिर भी ‘‘अच्छी तरह से परीक्षा कर लेने पर हृदय पूर्ण सन्तुष्ट हो जाता है’’ ऐसा निर्णय करके उन्होंने दोनों को दो विद्या मंत्र दिए जिसके एक मंत्र में एक अक्षर अधिक था एवं दूसरे मंत्र में एक अक्षर कम था। ‘‘आप दोनों षष्ठोपवास-बेला (दो उपवास) करके इन विद्याओं की सिद्धि करें’’ ऐसी आज्ञा देकर उन्हें गिरनार पर्वत पर भेज दिया।
श्रीनेमिनाथ जिनेश्वर की सिद्धभूमि पर दोनों मुनियों ने विधिपूर्वक विद्या साधना की तब उनके सामने दो विद्या देवियाँ प्रगट हो गईं।
तब उन दोनों मुनिराजों ने अपने सामने विद्या देवियों को देखा। एक अक्षर कम वाले मंत्र की साधना करने वाले मुनि के समक्ष जो देवी प्रगट हुई वह एक आँख वाली थी। अधिकाक्षर मंत्र की साधना करते हुए साधक मुनि के सम्मुख लम्बे-लम्बे दाँत वाली देवी प्रगट हुई। ‘‘देवताओं का स्वभाव-रूप ऐसा तो नहीं होता है’’ अर्थात् देवों का स्वरूप-आकार विकृत नहीं होता है ऐसा सोचकर मंत्रव्याकरण में कुशल उन दोनों मुनियों ने हीन अक्षर वाले मंत्र में एक वर्ण मिलाकर तथा अधिक अक्षर वाले मंत्र में एक अक्षर निकाल कर मंत्रों को शुद्ध किया। पुन: विधिवत् मंत्र साधना करने से उनके समक्ष दिव्य रूप वाली देवियाँ प्रगट हो गईं। ‘‘क्या कार्य है ?’’ ऐसा उन देवियों के पूछने पर ‘‘हम लोगों का कुछ भी कार्य-प्रयोजन नहीं है’’ मुनियों का उत्तर सुनकर वे दोनों अपने-अपने स्थान पर वापस चली गईं।
पुन: दोनों मुनियों ने श्री धरसेन आचार्य के पास आकर यथावत् समस्त वृत्तान्त विनयपूर्वक निवेदन किया, जिसे सुनकर सन्तुष्टमना श्रीधरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र एवं शुभ वार-दिन में उन दोनों को ग्रंथ अध्ययन प्रारंभ करा दिया।
यदि वे मुनि विद्यासिद्धि करने से पहले ही मंत्रों में संशोधन कर लेते तो आचार्य देव के प्रति श्रद्धा-भक्ति गुण का लोप हो जाता और यदि बाद में संशोधन नहीं करते तो कुशाग्र बुद्धि के अभाव में उनमें अपात्रता हो जाती।
अत: उन मुनियों की सर्वांगीण योग्यता देखकर आचार्यप्रवर धरसेन भट्टारक ने अपने में स्थित-अपने अंदर स्थित जो ज्ञान था इस द्वितीय पूर्व के अंतर्गत एकदेश विद्या-ज्ञान को उन्हें प्रदान किया। क्रमपूर्वक व्याख्यान करते हुए उन्होंने आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि के पूर्वाह्व काल में विधिपूर्वक गं्रथ समाप्त किया।
विनयपूर्वक गं्रथ का अध्ययन इन लोगों ने किया है इस बात से संतुष्ट होकर भूत जाति के व्यन्तर देवों ने पुष्प, बलि (नैवेद्य), शंख, तूर्य आदि के शब्दों से गुंजायमान एक बहुत बड़ी पूजा का आयोजन किया। उस पूजा को देखकर आचार्य भट्टारक देव ने उन मुनिराज का ‘‘भूतबलि’’ यह नामकरण कर दिया। दूसरे मुनि की भूतों ने पूजा करके उनकी अस्त-व्यस्त स्थित दन्तपंक्ति को हटाकर उन्हें एक समान कर दिया तब गुरुदेव ने उनका ‘‘पुष्पदन्त’’ यह नाम रख दिया।
उसके पश्चात् ‘‘गुरु वचन अलंघनीय होते हैं’’ ऐसा चिन्तन करके उन दोनों मुनियों ने वहाँ से विहार करके गुजरात के ‘‘अंकलेश्वर’’ ग्राम में आकर वर्षायोग किया।
यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को ग्रंथ का अध्ययन पूर्ण किया, उसके बाद विहार करके अंकलेश्वर नगर में पहुँच कर श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि को उन दोनों मुनियों ने वर्षायोग स्थापन किया।
उसके पश्चात् वर्षायोग समाप्त करके ‘‘पुष्पदन्त’’ आचार्य ‘‘जिनपालित’’ नामके अपने भानजे के साथ ‘‘वनवास ’’ देश को चले गये, ‘भूतबलि’ भट्टारक भी ‘तमिल’ देश को चले गये। उसके बाद पुष्पदन्ताचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर पुन: बीस सूत्र रचकर उनको पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि भगवान् के पास में भेज दिया। भूतबलि भगवान् जिनपालित मुनि को और उन बीसों सूत्रों को देखकर तथा जिनपालित के मुख से पुष्पदन्ताचार्य को अल्पायुष्क जानकर मन में चिन्तित हो गये।
‘‘महाकर्मप्रकृतिप्राभृत’’ का विनाश हो जाएगा ऐसा विचार करके, अपने सहपाठी पुष्पदंत मुनिराज के अभिप्राय को जान कर पुन: उन भूतबलि मुनिराज ने ‘‘द्रव्यप्रमाणानुगम’’ को आदि में करके ग्रंथ रचना की। उसके बाद षट्खंडागम सिद्धान्त की प्रतीति करके पुष्पदंत-भूतबलि दोनों आचार्य भी ग्रंथकर्त्ता कहे जाते हैं।
यहाँ जो ‘‘विंशतिसूत्राणि’’ पद से बीससूत्रों का वर्णन है उनसे बीस प्ररूपणा गर्भित सूत्रों को लेना चाहिए। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि श्रीपुष्पदन्ताचार्य ने प्रथमखण्ड के बीस प्ररूपणा गर्भित एक सौ सतत्तर (१७७) सूत्रों को रचा है और उसके बाद की समस्त रचना श्रीभूतबलि आचार्य द्वारा हुई है।
इसके अनंतर पुष्पदंत मुनि ने भी उस अपने भगिनीपुत्र (भानजे) जिनपालित को पढ़ाने के लिए इस करहाट नगर में छह खण्डों के द्वारा गुणस्थान, जीवसमास आदि बीस प्रकार की सत्प्ररूपणा से युक्त कर्मप्रकृति से युक्त प्रकरण का संक्षेप में सम्यक् रीति से जीवस्थानादि अधिकार की रचना की।
उन सौ सूत्रों को पढ़ाकर अनंतर भूतबलि गुरु के निकट उनका अर्थ जानने के लिए भेजा। वह जिनपालित भी शिष्यबुद्धि से उनके पास पहुँचे।
इसके अनंतर महात्मा भूतबलि ने उन पुष्पदन्त आचार्य के शिष्य जिनपालित द्वारा पढ़ी गई सत्प्ररूपणा को सुनकर जिनवाणी के पिपासु भव्य जीवों को अल्प आयु तथा अल्पबुद्धि का जानकर तथा पुष्पदंत गुरु के षट्खंडागम की रचना के अभिप्राय को जानकर द्रव्यप्ररूपणा अधिकार के बाद पुष्पदन्त गुरु द्वारा लिखित जिनपालित द्वारा सुनाए गए सौ सूत्रों सहित छह हजार सूत्र प्रमाण पाँच खण्डों के ग्रंथों की रचना कर तीस हजार सूत्रों में छठे महाबन्ध नामक गं्रथ को बनाया।
इस प्रकार भूतबलि महाराज ने षट्खंडागम ग्रंथ की रचना की। अनंतर असद्भाव स्थापना से पुस्तकों में आरूढ़ कर-लिपिबद्ध करके चातुर्वर्ण्य संघ की सन्निधि में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन पुस्तक संबंधि उपकरणों-वेष्टन आदि द्वारा विधिपूर्वक पूजा की।
उस कारण से यह ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी की तिथि श्रुतपंचमी के नाम से पर्व के रूप में अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त हुई, जिसके कारण जैन समुदाय आज भी इस दिन श्रुतज्ञान की पूजा करते हैं।
तदनन्तर भूतबलि महाराज ने उन जिनपालित मुनि से पुष्पदन्त गुरु के निकट षट्खंडागम नामक ये ग्रंथ भिजवाए।
इसके पश्चात् पुष्पदंत गुरु ने भी जिनपालित के हाथ में सुस्थित षट्खंडागम ग्रंथ को भले प्रकार से देखकर आश्चर्य में पड़ते हुए-‘अरे! मेरे द्वारा विचारा गया कार्य सम्पन्न हो गया’’ कह कर समस्त अंगों में उल्लास से भरकर अर्थात् अति प्रसन्नतापूर्वक चातुर्वर्ण्य-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकारूप संघ से युक्त होकर पूजा करवाई।
उन पुष्पदंत आचार्य ने भी भूतबलि आचार्य की भाँति उसी तरह गंध, अक्षत, माला, वस्त्र, चन्दोवा, घण्टा, ध्वजा आदि के द्वारा श्रुतपंचमी के दिन सिद्धान्त महागम की पूजा करवाई। यह श्रुत अवतार का संक्षिप्त इतिहास पढ़कर सभी ज्ञानपिपासुओं को भी प्रतिवर्ष श्रुतपंचमी (ज्येष्ठ शु. पंचमी) के दिन सरस्वती माता की विशेष आराधना करनी चाहिए।