प्रातःकाल आशीर्वाद देकर इन सबको मैंने भेज दिया। इसके बाद दर्शन के लिए श्रावकों का तांता लग गया। ८ से ९ बजे तक मेरा उपदेश हुआ। अनन्तर कमंडलु के लिए पानी आ गया। हम लोगों ने शुद्धि की और आहार के लिए निकले, श्रावकों के कई चौके थे, सभी साध्वियों के निरंतराय आहार हो गये। यहाँ से चूलगिरि सिद्धक्षेत्र सात किलोमीटर दूर था। यह तो बड़वानी नाम से प्रसिद्ध नगर है। मध्यान्ह में ब्र. दाखाबाई आर्इं। ये आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी महाराज की शिष्या थीं। घर में ही धर्माराधना कर रही थीं। इनसे वार्तालाप होने के बाद यह सोचा कि- कुछ दिन यहाँ रहकर चूलगिरि जाया जाये चूँकि वहाँ तो बाइयां चौका करने वाली चाहिए। यहां के लोग उपदेश से अच्छे प्रभावित हुए। कई दिन बाद दाखाबाई ने कहा- ‘‘माताजी! आप चूलगिरि पधारें, तो मैं आपके संघ की और चौके आदि की सारी व्यवस्था संभाल लूँगी।’’ साथ में कई एक श्रावक-श्राविकाएँ भी वहाँ रहने के लिए तैयार हो गये थे।
खुले दरवाजे रखकर रात्रि विश्राम
यहाँ बड़वानी की धर्मशाला में हम लोग रात्रि में एक कमरे में सोते थे। यात्रियों की बसें आकर यहीं धर्मशाला में ठहरती थीं। एक दिन हम लोग रात्रि में अपने कमरे में सो रहे थे। रात्रि में करीब ग्यारह-बारह बजे थे, कुछ यात्री कमरे का किवाड़ खोलकर अन्दर देखने लगे। तभी एक आदमी ने बुंदेलखंडी भाषा में कहा- ‘‘इतै तो बिरमचारी परे हैं।’’ हम सभी उठकर बैठकर गर्इं।
वास्तव में हम सभी सफेद साड़ी पहनती हैं, उसे ही ओढ़-लपेटकर सर्दी के दिनों में घास पर सो रही थीं। उसने समझा ब्रह्मचारी लोग हैं अतः ऐसा बोलकर बाहर चला गया। प्रातः जब इन यात्रियों ने हम सभी आर्यिकाओं के दर्शन किये, तब वे महानुभाव सकुचाने लगे। मेरे संघ की आर्यिकाओं ने कहा- ‘‘कोई बात नहीं, इतै तो बिरमचारी परे थे।’’
यहाँ यह एक हंसी का विषय बन गया था। ब्र. दाखाबाई ने मुझसे कहा- ‘‘माताजी! रात्रि में सोते समय कमरे का दरवाजा बंद कर लिया करो।’’ मैंने कहा- ‘‘हम लोग कभी दरवाजा बंद नहीं करते हैं। हाँ! यदि कोई ऐसा स्थान है, जहाँ के दरवाजे सड़क आदि पर हैं, तब दरवाजा बंद कर लेते हैं अन्यथा जैन-धर्मशाला में कमरे के दरवाजे क्या बंद करना?’’
खैर! तब से सर्दी के दिनों में प्रायः दरवाजा बंद करने की आदत डाली थी। गर्मी में तो कोई बात ही नहीं रहती है, खुले में ही सोना पड़ता है। यहाँ कुछ दिन रहकर मैंने चूलगिरि के लिए विहार कर दिया। वहाँ पहुँचकर मंदिरों के दर्शन कर भगवान् आदिनाथ की विशालकाय प्रतिमा के दर्शन किये। उस समय का आनंद अनुभवगम्य ही था पुनः ऊपर शिखर पर जाकर निर्वाण भूमि की वंदना की।
बावनगजा क्षेत्र परिचय
यह चूलगिरि सतपुड़ा शैलों मेें सबसे ऊँची चोटी कही जाती है। यहाँ पहाड़ के मध्य में एक ही पाषाण में उकेरी हुई भगवान आदिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी ८४ फुट ऊँची मूर्ति है। सर्वसाधारण में यह बावनगजाजी के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में इस प्रांत में हाथ को ही कच्चा गज मानने की परंपरा थी, चूंकि यह प्रतिमा बावन हाथ ऊंची है।
जैन तीर्थों में एक यही मूर्ति इतनी विशाल-उत्तुंग है। इसके बराबर ऊँची अन्य कोई प्रतिमाएँ नहीं हैं। इस प्रतिमा में कोई लेख न होने से इसका निर्माण काल ज्ञात नहीं है अतः लोग इसे चतुर्थकालीन भी कहते हैं। इन बावनगजाजी-भगवान आदिनाथ के अभिषेक के लिए पहाड़ी पर दोनों तरफ सीढ़ियां बनी हुई हैं।
पहाड़ की चोटी पर चूलगिरि मंदिर है। यही सिद्धभूमि है। यहीं से इंद्रजीत और कुंभकर्ण आदि अनेक मुनि मोक्ष गये हैं, जैसा कि प्राकृत निर्वाण कांड में पढ़ते हैं-
बडवाणीवरणयरे दक्खिणभायम्हि चूलगिरिसिहरे।
इंदजियकुंभयण्णो णिव्वाणगया णमो तेसिं।।१२।।
बड़वानी नगर से दक्षिण की ओर चूलगिरि शिखर से इंद्रजीत और कुंभकर्ण आदि मुनि मोक्ष गये हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हॅूं। ऊपर मंदिर में तीन मुनिराजों के चरणचिन्ह बने हुए हैं तथा दो प्रतिमाएँ भी विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त महामंडप में और भी अनेक मूर्तियाँ विराजमान हैं। इस चूलगिरि की तलहटी में १९ जिनमंदिर हैं, एक मानस्तंभ है और चार धर्मशालाएं हैं।
ऋषभजयंती महोत्सव
उधर श्रवणबेलगोल में भगवान् आदिनाथ के पुत्र बाहुबलि की ५७ फुट उत्तुंग प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक होने वाला था। मैंने यहाँ पर चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भगवान् आदिनाथ का जन्मदिवस होने से उन ८४ फुट उत्तुंग भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा का अभिषेक कराने की भावना व्यक्त की। श्रावकों ने इस पर विचार-विमर्श करके निर्णय किया और छोटा-मोटा आयोजन रखने की सूचना कर दी गई।
१०८ कलशों से तथा दूध, दही, इक्षुरस आदि पंचामृत से अभिषेक की रूपरेखा बनाई गई। लोगों को डर था कि ‘‘कहीं अभिषेक के निमित्त से मधुमक्खी के छत्तों से मक्खियाँ निकलकर उपद्रव न कर दें।’’ किन्तु मैंने आत्मविश्वास से कह दिया- ‘‘मधुमक्खियों का उपद्रव नहीं होगा, आप लोग निश्चिंत होकर अभिषेक की व्यवस्था बनाइये।’’
वह मंगलदिवस आ गया। मुझे बहुत खुशी थी कि- ‘‘श्रीबाहुबलिजी का अभिषेक देखने को नहीं मिला तो न सही, हम लोग उनके पिताश्री भगवान् आदिनाथ की ८४ फुट उँची प्रतिमा का अभिषेक यहाँ देखेंंगे।’’ आस-पास के गाँवों के कुछ श्रावक-श्राविकाएँ एकत्रित हो गये थे और अच्छे समारोह से अभिषेक संपन्न हुआ था।
इतनी विशालकाय प्रतिमा के मस्तक पर पहले पंचामृत अभिषेक किया गया पुनः १०८ कलशों से अभिषेक किया गया किन्तु मूर्ति पूरी तौर से गीली नहीं हुई। फिर भी निराबाध रूप से अभिषेक संपन्न हुआ पुनः पूजा होकर भगवान की जन्मजयंती पर मेरा प्रवचन हुआ। इस मध्य एक चर्चा बनी थी किन्तु सहज ही शांत हो गई। लिखित बात प्रमाण होती है- अभिषेक के समय बोलियाँ की गई थीं। उनमें से एक बोली किसी जैनेतर ने ले ली थी। पता न चल पाने से उसी के नाम छूट गर्इं पुनः जब उसका नाम पूछा गया, तब वह जैनेतर मालूम पड़ा।
लोगों में आपस में चर्चा बन गई। किन्हीं ने कहा- ‘‘चूँकि बोली इनके नाम से छूट चुकी है अतः अभिषेक इनसे ही कराना होगा।’’ किन्हीं ने कहा- ‘‘नहीं, यह बोली स्थगित करके फिर से की जाये, यहाँ क्षेत्र पर जैनेतर को अभिषेक करने की मनाही है।’’ जैन-जैन ही आपस में उलझने लगे। मेरे पास समस्या लाये, मैंने कहा- ‘‘आगम के अनुसार और अपनी गुरुपरम्परा के अनुसार जैनेतर से अभिषेक नहीं कराना चाहिए। स्वस्थ परम्परा नहीं बिगाड़नी चाहिए।’’
इसके बाद प्रमुख श्रावकों ने बताया- ‘‘यहाँ लिखित प्रमाण मौजूद है कि इस क्षेत्र पर दिगम्बर जैन ही अभिषेक पूजा कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं।’’ कुछ क्षण पश्चात् उन महानुभाव ने स्वयं कहा- ‘‘ठीक है, मैंने बोली ली है, रुपये भेजूँगा। अभिषेक कोई और-आप लोगों में से ही कर लेवें।’’ चर्चा शांत हुई लोगों में प्रसन्नता का वातावरण बना रहा।
आनन्द से कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। उस चर्चा के प्रसंग में मेरे मन में यह विचार पैदा हुआ कि- ‘‘सभी दिगम्बर जैन तीर्थों की कमेटी और सभी दिगम्बर जैन मंदिरों की कमेटी के विधान में यह नियम अवश्य होना चाहिए कि ‘‘यहाँ दिगम्बर जैन ही भगवान की पूजा-अभिषेक कर सकते हैं अन्य कोई नहीं।’’
ऐसे ही दान लेने में भी नियम होना चाहिए कि- ‘‘यहाँ दिगम्बर जैनों से ही दान लिया जाता है, अन्य लोगों से नहीं।’’ अभिषेक आदि की बोलियों के समय भी यह नियम रहना चाहिए कि- ‘‘यहाँ किसी भी कार्यक्रम में, कोई भी बोली दिगम्बर जैन ही ले सकते हैं, अन्य नहीं।’’ इसी प्रकार तीर्थों के मंदिरों में यदि यह भी नियम रहे, तो कितना अच्छा हो कि- ‘‘वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज में दो पंथ प्रचलित हैं-बीस पंथ और तेरह पंथ।
इन दोनों सम्प्रदाय वाले दिगम्बर जैन, यहाँ अपनी-अपनी विधि से अभिषेक और पूजन कर सकते हैं, कोई रोक-टोक नहीं है।’’ यह नियम दिगम्बर जैन तीर्थों पर सहज लागू किया जा सकता है, चूँकि तीर्थों पर पूरे भारतवर्ष से दिगम्बर जैन लोग दर्शन करने के लिए आते हैं और अपनी पंथ परम्परा के अनुसार अभिषेक-पूजा करके प्रसन्न होते हैं।
दूसरी बात यह है कि-‘‘दोनों पंथ वाले सर्वत्र दान भी तो देते ही हैं।’’ हां! गाँव अथवा शहर के दिगम्बर जैन मंदिरों में यह परम्परा लागू करना कठिन है, वहाँ जिस पंथ के जो मंदिर हैं, ठीक हैं। हस्तिनापुर में इस जम्बूद्वीप स्थल में मैंने यही परम्परा लागू कर दी है। सन् १९७५ में ही संस्थान की मीटिंग में पास करा दिया था कि दोनों सम्प्रदाय वाले अपनी-अपनी परम्परा से अभिषेक-पूजन कर सकते हैं।
यद्यपि मैं स्वयं चारित्र-चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागरजी की परम्परा की कट्टर हूं और जयधवला के प्रमाण, श्रीपूज्यपाद आचार्यकृत पंचामृत अभिषेक पाठ आदि शास्त्राधारों से भी बीसपंथ के अनुसार ही शिष्यों को आदेश देती हूँ, फिर भी दिगम्बर जैन समाज में चालू हुए पंथभेद को देखकर और संघर्षों में उदारमना होकर ही मैंने यह नियम यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर बना दिया है। यह समन्वयात्मक पद्धति सब तीर्थक्षेत्रों पर अपनाई जाये तो तीर्थों पर बहुत ही शांति मिलेगी।
देखो! अनेक कट्टर से कट्टर तेरापंथी भी दक्षिण में भगवान बाहुबलि का पंचामृत अभिषेक कर आते हैं। मैं यहाँ क्षेत्र पर लगभग २०-२५ दिन रही हूँ। श्रवणबेलगोल जाकर वापस आने वाले अनेक यात्रियों की बसें यहाँ आर्इं।
लोगों ने हमारे संघ के भी दर्शन किये। उधर ब्र. सुगनचंद आदि भगवान बाहुबलि का महामस्तकाभिषेक देखकर अन्य तीर्थों की भी यात्रा करके वापस आ गये। इसके बाद मैंने भी संघ सहित यहाँ से विहार कर दिया। विहार के समय यहाँ के लोगों ने यहीं पर चातुर्मास करने के लिए अत्यधिक आग्रह किया था किन्तु हमें चूंकि आगे बढ़ना ही था। इच्छा थी कि सनावद, इंदौर होते हुए उदयपुर में आचार्यश्री शिवसागर जी के संघ में पहुँच जावें।
पावागिरि क्षेत्र दर्शन
यहाँ से विहार कर मैं पावागिरि सिद्धक्षेत्र पर आ गई, इसे ऊन भी कहते हैं। यहाँ पर चार मुनियों का निर्वाण माना गया है। यथा-
पावागिरिवरसिहरे सुवण्णभद्दाइमुणिवरा चउरो।
चेलणाणईतडग्गे णिव्वाणगया णमो तेसिं।।१३।।
चेलना नदी के किनारे पावागिरि के शिखर से सुवर्णभद्र आदि चार मुनि मोक्ष गये हैं, उनको मेरा नमस्कार होवे। वि.सं. १९९१ से यह क्षेत्र प्रकाश में आया है। यहाँ एक किंवदन्ती प्रचलित है कि एक बल्लाल राजा ने १०० मंदिर निर्माण कराने की प्रतिज्ञा की थी, जिसमेें से ९९ मंदिर बन गये थे, एक कम रह गया था अतः इस गाँव या क्षेत्र को ‘ऊन’ कहते हैं। यहाँ पर खनन में जिनप्रतिमाएँ और चरणचिन्ह मिले हैं।
क्षेत्र की जैन धर्मशाला के मध्य में एक महावीर मंदिर बना हुआ है, एक चन्द्रप्रभ मंदिर है। इन दोनों मंदिरों के मध्य में सामने एक मानस्तंभ हैै। इनके सामने ही ग्वालेश्वर या शांतिनाथ का मंदिर है। यह मंदिर एक उँची टेकड़ी पर बना हुआ है। सुवर्णभद्र आदि मुनियों की निर्वाण-भूमि यहीं मानी जाती है। इस शांतिनाथ मंदिर से उतर कर कुछ दूर पर एक ऊँची टेकरी मिलती है, इसे पंचपहाड़ी कहते हैं।
इस पर छह छोटे-छोटे नवीन मंदिर बने हुए हैं। बहुत से पुराने मंदिरों के भग्नावशेष पड़े हुए हैं। यहाँ भगवान बाहुबलि की भी एक प्रतिमा विराजमान है। आचार्य श्री शांतिसागर जी के चरणचिन्ह भी बने हुए हैं, यह क्षेत्र खरगौन जिले में है।
सनावद आगमन
क्षेत्र दर्शन कर खरगोन होते हुए मैं सनावद के निकट बेड़िया नाम के एक छोटे से गाँव में आ गई। यहाँ मंदिर के दर्शन किये और विश्राम किया। यहाँ आहार के बाद सामायिक करके हम लोग मंदिर में बैठे हुए थे। सनावद से कुछ श्रावक-श्राविकाएं आ गये, दर्शन किये और पास में बैठ गये। उनमें से एक नवयुवक ने पूछा- ‘‘बड़ी माताजी कौन सी हैं?’’ मैंने सहज ही आर्यिका पद्मावती की ओर संकेत कर कहा- ‘‘ये हैं।’’ चूँकि ये उम्र में बड़ी थीं।
किन्तु आर्यिका पद्मावती माताजी ने तत्काल ही विनय से मेरी ओर संकेत करके कहा- ‘‘बड़ी माताजी ये ही हैं।’’ एक क्षण के लिए वह श्रावक ऊहापोह में पड़ गया पुनः निश्चय करके ही मेरे पास बैैठकर प्रार्थना करते हुए बोला- ‘‘माताजी! हम लोग आपके विहार की व्यवस्था समझने के लिए सनावद से आये हैं।’’ सनावद में कितने जैन घर हैं? कितने मंदिर हैं? इत्यादि कुछ चर्चायें हुर्इं, अनन्तर मैंने अपने विहार की रूपरेखा बता दी। उस नवयुवक का नाम था देवेंद्रकुमार शाह।
इसने बातचीत के मध्य सनावद के रखबचन्द पांड्या की धर्मपत्नी कमलाबाई का परिचय दिया और बताया कि ‘ये महिला समाज में अग्रणी हैं, कुशल कार्यकर्ता हैं और गुरुओं की भक्त हैै। साथ ही उसने बताया कि सनावद में एक मेरे साथी मोतीचंद सर्राफ हैं, उन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है, वे भी अच्छे गुरुभक्त हैं। उसी रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने एक स्वप्न देखा था कि- ‘‘मेरा छोटा भाई प्रकाशचंद आकर, नमस्कार करके, मेरे चरणों के निकट बैठ गया है।’’
मोतीचंद का परिचय सुनते ही मुझे वह स्वप्न याद आ गया। मैंने मन ही मन सोचा- ‘‘हो सकता है, यह मोतीचंद मेरे प्रति समर्पित होकर मेरे भक्त बन जावें।’’ वहाँ से विहार हो गया। मैं चैत्र सुदी पूर्णिमा को सनावद आ गई। लोगों ने प्रातःकाल बैंडबाजे के साथ स्वागत किया, जुलूस के साथ लाये, मंदिरों के दर्शन कराते हुए धर्मशाला में जुलूस को सभा के रूप में परिणत कर दिया। मैं संघस्थ आर्यिकाओं के साथ तख्त पर बैठ गई। सभा में स्त्री-पुरुष अपने-अपने स्थान पर बैठ गये।
मैं कुछ क्षण मौन से बैठी रही, तभी एक नवयुवक ने आकर श्रीफल चढ़ाकर प्रार्थना की- ‘‘माताजी! हम लोगों को मंगल आशीर्वाद प्रदान कीजिये।’’ इसके बाद मैंने मंगल प्रवचन करते हुए मंगल आशीर्वाद दिया। सभा विसर्जित हुई । उसी समय देवेन्द्र कुमार ने मुझे परिचय दिया कि-‘‘जिन्होंने श्रीफल चढ़ाकर प्रार्थना की थी, ये ही मोतीचंद हैं।’’ मैंने उनकी ओर देखकर प्रसन्नता व्यक्त की और शुद्धि करने चली गई। समय पर भगवान के दर्शन कर, हम लोग आहार के लिए निकले। निरंतराय आहार के बाद सामायिक किया। यहाँ चैत्र मास में भी गर्मी खूब पड़ रही थी।
संघस्थ ब्र. सुगनचंद को लू लग गई थी, स्वास्थ्य गड़बड़ हो गया था। आर्यिका जिनमती जी को भी गर्मी से परेशानी हो रही थी। ४-५ दिन यहाँ विश्राम रहा। यहाँ से सिद्धवरकूट दर्शन करने की भावना प्रबल थी किन्तु यहाँ के लोग आग्रह कर रहे थे- ‘‘माताजी! अब आप यहाँ ही ठहरें, गर्मी बहुत है, कुछ दिन बाद सिद्धवरकूट के दर्शन करना।
हम लोग आपका चातुर्मास यहीं करायेंगे।’’ हमें चातुर्मास के पूर्व आचार्य श्री शिवसागर जी के संघ में उदयपुर पहुुँचने की इच्छा थी किन्तु जिनमती को गर्मी सहन न होने से, मैंने आपस में सभी आर्यिकाओें से विचार-विमर्श किया, तब यही रहा कि- ‘‘अब गर्मी में तो यहीं रुका जाय, भक्तिमान लोग हैं, आगे देखा जायेगा।’’ लोगों ने कहा- ‘‘माताजी! चातुर्मास के बाद हम लोग आपको मुक्तागिरि क्षेत्र की यात्रा करायेंगे पुनः आपको आचार्य संघ में पहुँचा देंगे।’’
यहाँ की भक्ति विशेष देखकर मैंने ब्र. सुगनचंद से कहा- ‘‘ब्रह्मचारी जी! अब इतनी गर्मी में विहार करना मुश्किल है अतः आप जा सकते हैं। चातुर्मास के बाद ही मेरा विहार होगा।’’ ब्र. सुगनचंद जी भी मेरा आशीर्वाद और आज्ञा लेकर वहाँ से निकलकर, उदयपुर संघ में चले गये। हम लोग यहीं रह गये। यहाँ मेरे संघ में पाँच साध्वियाँ थीं।
कु. शीला ब्रह्मचारिणी तथा गौराबाई ब्रह्मचारिणी थीं। यहाँ महिला मंडल और नवयुक मंडल सक्रिय थे। श्री रखबचंद पांड्या और उनकी धर्मपत्नी संघ व्यवस्था आदि में आगे थे। साथ ही मंदिर माय सेठानी भी प्रतिदिन चौका करती थीं। श्रीचंद, त्रिलोकचंद, विमलचंद, मोतीचंद आदि हर एक व्यवस्था और भक्ति में एक से एक बढ़कर थे।
मध्यलोक रचना रूपरेखा
यहाँ मध्यलोक रचना की चर्चा आई। लोगों ने रुचि से यह विवरण सुना और सभी को यह भावना बनी कि- यह भव्य रचना सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र में ही होनी चाहिए। चूंकि यह क्षेत्र नर्मदा नदी के किनारे है अतः यहाँ यह रचना बहुत ही सुन्दर बनेगी। श्रवणबेलगोल की यात्रा करके अन्य तीर्थों की यात्रा करते हुए कुछ यात्रीगण इधर सिद्धवरकूट यात्रा के लिए सनावद आये थे।
उनसे टिकैतनगर में पिता श्री छोटेलाल जी को पता चला कि- ‘‘आर्यिका ज्ञानमती माताजी इस समय सनावद में ठहरी हुई हैं।’’ तब उन्होंने अपने हाथ से ६-७ पेज का एक बड़ा सा पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा कि- ‘‘हम लोग श्रवणबेलगोल के बाहुबलि भगवान का महामस्तकाभिषेक देखने के लिए एक बस में गये थे। हमारी उत्कट इच्छा थी कि दक्षिण में कहीं न कहीं ज्ञानमती माताजी (मेरी पुत्री) के दर्शन हो जायेंगे। यात्रा में प्रमुख हेतु आपके दर्शनों का ही था।
किन्तु अनेक तीर्थों पर पहुँचने पर भी आपका पता हम लोग नहीं लगा पाये। तुम्हारी मां के तीन प्रतिमा के व्रत होने से जगह-जगह कुंये के पानी की बहुत दिक्कत हुई। अनेक जगह दूर-दूर कुंआ मिलने से टाइम-बेटाइम खिचड़ी आदि कुछ खाने को मिला, तो कभी नहीं भी मिला। वे भी तुम्हारे दर्शनों के लिए तड़फती ही रहीं। आखिरकार बस में पराधीन हुए हम सपरिवार पुत्र-पुत्रवधू समेत वापस घर आ गये….।’’
इस पत्र में पिता ने अनेक प्रकार के मार्ग के कष्टों को लिखा था और श्रवणबेलगोल में उनकी बस दूर खड़ी हुई थी। वहाँ से कुंये का पानी मीलों पर कहीं मिल पाया था और भगवान बाहुबलि के दर्शन भी जैसे-तैसे ही पैदल चलकर हो पाये थे। उस समय पिताजी को कमर के दर्द आदि होने से पैदल चलना काफी कठिन था।
केवल मेरे दर्शन की भावना से ही इन्होंने इस यात्रा में जाना स्वीकार किया था। अतः उनके हृदय पर जो आघात पहुँचा था, रास्ते में कहीं भी मेरे दर्शन न मिल सकने से जो मानसिक वेदना व अशांति हुई थी, उसे ही उन्होंने कुछ शब्दों में लिखकर प्रकट कर दिया था और अन्त में मेरी सान्त्वना व आशीर्वाद के दो शब्द चाहते थे।
वह पत्र सनावद में मुझे प्राप्त हुआ। मैंने पूरा पढ़ लिया और संकोचवश वैसे ही अपनी चौकी पर डाल दिया। मोतीचन्द ने भी वह पत्र उठाकर पढ़ लिया और उनकी आँखें सजल हो गर्इं। मैंने कुछ भी लक्ष्य नहीं दिया। कुछ देर बाद मन में सोचने लगी- ‘‘अहो! मोह का माहात्म्य अचिन्त्य है! देखो, ये लोग अभी भी मुझे अपनी पुत्री मान रहे हैं और मोह से व्यथित हो तड़फ रहे हैं। वास्तव में भला कौन किसका पिता है? कौन किसकी माता है? और कौन किसकी पुत्री है?……’’
ऐसा सोचकर उस पत्र की और उसके विषय की पूर्ण उपेक्षा कर दी। बाद में सन् १९६८ के प्रतापगढ़ (राज.) के चातुर्मास में जब ये लोग आये, तब मुझे मालूम हुआ कि- ‘‘पिताजी ने जो पत्र लिखा था, उसके उत्तर की प्रतीक्षा में दो शब्द आशीर्वाद की प्रतीक्षा में महीनों पागल जैसे रहे हैं, हर दिन की डाक में मेरा पत्र खोजते रहते थे। बाद में बहुत रोये हैं और बोले कि- ‘‘देखो! ज्ञानमती माताजी कितनी निष्ठुर हैं, मेरे इतने बड़े पत्र का एक शब्द भी उत्तर नहीं दिया।
अरे! किसी भी श्रावक से दो शब्द लिखा देतीं, तो क्या था?’’ बस, उनके जीवन में यह पहला और अंतिम पत्र था। उसके बाद तो उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा। इसके बाद जब वे प्रतापगढ़ में मिले और जब कभी मेरे पास आकर बैठते, अपना कुछ सुख-दुःख कहना चाहते या कुछ पूछना चाहते, तभी उनकी एक पुत्री कामिनी, जो साथ में आई थी और जिसकी बुद्धि तीक्ष्ण थी, मैं उसे मेरे पास छोड़ने के लिए कह देती तो वे हँसकर बोलते- ‘‘माताजी! आप बहुत स्वार्थी हो, कामनी को रखने के सिवाय और कुछ बात ही नहीं करती हो…..।’’
पुनः कहते- ‘‘देखो! अभयमती मेरी बिटिया कितनी कमजोर हो गई है। आपका शरीर भी संग्रहणी की बीमारी से कितना गिर गया है…..
अब मैं अपनी किसी भी बिटिया को आपके पास नहीं छोडूँगा। आप उसे भी दीक्षा दिला दोगी….।’’ इतना कहते, पुनः हँसने लगते और उठकर चले जाते थे। आज उस पत्र का संस्मरण होते ही मैें सोचने लगती हूँ कि- ‘‘सचमुच में मेरा हृदय परिवार के लोगों के प्रति कितना निर्मम था? वास्तव में जिन्हें घर से निकालकर मोक्षमार्ग में लगा सकी हूँ, उन्हीं के प्रति वात्सल्य हुआ है।
अहो! इस मोह को जीते बिना मोक्ष प्राप्ति असंभव है।’ वहाँ सनावद में अकृत्रिम चैत्यालय रचना की रूपरेखा बनती गई, लोगों की रुचि बढ़ती गयी और इन सब कार्यों में मोतीचंदजी तथा रखबचंद्रजी और कमलाबाई आगे हो गये। मोतीचन्द ने एक बालकृष्ण नाम के अपने परिचित पेंटर को बुलाया और मुझसे रचना के एक-दो विषयों को समझाकर उसके चित्र बनवाये। सर्वप्रथम सुमेरुपर्वत का चित्र बनवाया गया।
इसमें चारोेंं ओर वन में हरियाली दिखलायी गयी, पास में फव्वारे दिखाये गये अतः यह चित्र बहुत ही सुन्दर दिखने लगा। आगे जयपुर में ‘जिनस्तवनमाला’ और ‘सामायिक’ नाम की पुस्तक के कवर पर यह चित्र छप चुका है। दूसरा चित्र हिमवान् पर्वत के पद्म सरोवर से गिरती हुई ‘गंगानदी’ का था। इसमें नीचे कुंड में पर्वत पर गंगादेवी के भवन की छत पर, कमलासन पर जटाजूट सहित जिन प्रतिमा थीं, उनके मस्तक पर गंगानदी गिरते हुए दिखायी गई थी। यह चित्र भी लाखों लोगों को दिखाया गया है।
सिद्धवरकूट क्षेत्र दर्शन
मैंने सिद्धवरकूट के लिए विहार किया। गर्मी में वहाँ कई दिन रही। वहाँ पर एक हजार फुट के घेरे में यह रचना बनाने के लिए मोतीचंद ने अपने साथियों सहित ज्येष्ठ की भयंकर धूप में खुले मैदान मेंं जगह को मापा। इनका उत्साह और दौड़धूप देखकर मेरे मन में यह भाव आता था कि- ‘‘इस रचना को पृथ्वी पर साकार रूप देने के लिए ऐसे उत्साही लोग ही समर्थ हैं।’’
क्षेत्र परिचय
प्राकृत निर्वाण काण्ड में लिखा है-
रेवाणइये तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूटे।
दो चक्की दहकप्पे आहुट्ठयकोडि णिव्वुदे वंदे।।११।।
रेवा नदी के किनारे पश्चिम दिशा की ओर सिद्धवरकूट क्षेत्र है। वहाँ से दो चक्रवर्ती, दस कामदेव और साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं, उनको मेरा नमस्कार होवे। दस कामदेव के नाम वहाँ दीवार पर लिखे हैं, वे ये हैं-
१. सनत्कुमार २. वत्सराज ३. कनकप्रभ ४. मेघप्रभ ५. विजयराज
यहाँ दस मंदिर हैं। एक बाहुबलि की प्रतिमा लगभग ७ फुट की विराजमान हैं। इस क्षेत्र के निकट ओंकारेश्वर मंदिर है। उसका आकार प्रायः ॐ जैसा है। यह मान्धाता टापू पर है, जो नर्मदा और कावेरी के मध्य में है। मान्धाता एक पहाड़ी है जो प्रायः एक वर्गमील में है। यह मंदिर आजकल हिंदुओं के अधिकार में है। इस मंदिर का सूक्ष्म अवलोकन करने से लगता है कि वह मूलतः दिगम्बर जैन मंदिर रहा होगा।
यहाँ के भग्नावशेष से भी जैन मंदिर का अनुमान लगता है। कुछ स्थापत्य विशेषज्ञों ने तो यहाँ तक अनुमान लगाया है कि ओंकारेश्वर मंदिर, कोल्हापुर का अंबिका मंदिर और अजमेर के ख्वाजा साहब की दरगाह, इन तीनों की रचना शैली में बहुत बड़ी समानता है।
इस क्षेत्र के दर्शन करने के लिए पहले नाव से जाते थे। हम सभी आर्यिकायें भी नाव में बैठकर ही क्षेत्र पर पहुँचे थे। यहां १०००²१००० फुट की जगह मापकर उसका मध्य निकाला गया और उसमें सर्वप्रथम सुमेरुपर्वत का शिलान्यास कराने का विचार बनाया गया। मैं वापस सनावद आ गई थी। इंदौर के महानुभाव, जो कि इस तीर्थक्षेत्र की कमेटी में प्रमुख थे, वे लोग सनावद आये। पं. नाथूलाल जी ने अनेक प्रश्न किये- ‘‘माताजी! क्या आप यह रचना बनवायेंगी? मैंने कहा- ‘‘मैं तो मात्र नक्शा बता दूँगी, श्रावक बनवायेंगे।
मैं न तो रुपये-पैसे की याचना करुँगी न, निर्माण कराऊँगी। इस समूह में बाबूलाल जी पाटोदी, कैलाश चन्द जी चौधरी, सेठ हीरालाल जी कासलीवाल, धन्नालाल जी गोधा, माणिकचन्द जी काला, रतनलाल जी बड़ोदिया आदि महानुभाव उपस्थित थे।
इन सभी ने इस रचना की प्रशंसा की और यहीं बनाना चाहिए, ऐसी भावना व्यक्त की। मेरे उत्तर से पं. नाथूलाल जी आदि भी प्रसन्न हुए। इन लोगों ने समझ लिया कि ये माताजी रुपये-पैसे की याचना करके निर्माण कार्य नहीं करायेंगी, मात्र ग्रन्थों के आधार से नक्शा बनवा देंगी, काम तो श्रावकों को ही करना-कराना होगा।
इसके बाद सनावद के रखबचन्द जी पांड्या आदि ने सक्रिय कदम उठाया, सुमेरुपर्वत का एक नक्शा बनवाया गया। मैंने कहा- सोलापुर में म्हसवड़ गाँव की महिला ब्र. कु. कंकूबाई आई थीं। वे इस रचना की रूपरेखा से बहुत प्रभावित थीं। उन्होंने कहा था-‘‘कहीं भी इसका निर्माण हो तो सुमेरुपर्वत मेरी तरफ से बनना चाहिए।’’
इस बात को सुनकर विचार-विमर्श करके यहाँ से मोतीचन्द और त्रिलोक चन्द ये दोनों महानुभाव म्हसवड़ गये। वहाँ पर इन लोगों ने कंकूबाई से बातचीत की। उन्होंने भी पचास हजार रुपये की स्वीकृति देकर यह कहा कि- ‘‘शिलान्यास का मुहूर्त निकालो, हम आयेंगे।’’ शिलान्यास के मुहूर्त के अवसर पर कु. कंकूबाई आर्इंं।
सिद्धवरकूट में सुमेरु का शिलान्यास कार्य सम्पन्न हुआ। लोगों ने कंकूबाई को आदर दिया। कुछ लोग खण्डवा आदि स्थानों पर इन्हें ले गये। कुछ दिन बाद कंकूबाई का पत्र आया कि- ‘‘मुझे उस प्रांत में एक-दो स्थान में जाकर बड़ा दुःख हुआ, वहाँ तो खण्डवा में सोनगढ़ी लोगों से परिचय कराया। मुझे तो उस प्रांत में कार्य करने से संतोष नहीं है।’’
पत्र की भाषा मुझे याद नहीं है किन्तु अभिप्राय यही था। वे शिलान्यास के समय दस हजार रुपये लाई थीं, सो रखबचन्द जी पांडया को दे गई थीं। इन्होंने लिखा कि मैंने जो पचास हजार की स्वीकृति दी है, काम शुरू होने पर क्रम-क्रम से रुपये भेज दूँगी।
सोनगढ़ साहित्य बहिष्कार
वास्तव में यहाँ सनावद में सन् १९६५ में इंदुमती माताजी का संघ सहित चातुर्मास हुआ था। उस समय वहाँ श्रावकों ने सोनगढ़ साहित्य का अपने मंदिर से बहिष्कार कर दिया था। कहते हैं कि यह सोनगढ़ साहित्य के विरोध और बहिष्कार का पहला प्रसंग था अतः यहाँ पर भी सोनगढ़ पार्टी अलग थी और मुनिभक्त समाज अलग था।
मुनिभक्तों में सौ. कमलाबाई और महिलाएँ बहुत आगे थीं अतः मुझे इस सोनगढ़ पंथ से न कोई डर था और न कोई परेशानी ही। इधर कुछ दिनों बाद इंदौर समाज के विशेष आग्रह से मैंने संघ सहित इंदौर के लिए विहार कर दिया।
इंदौर में शिक्षण शिविर
यहाँ सनावद के नवयुवक मंडल और महिला मंडल ने इंदौर में शिक्षण-शिविर का आयोजन किया। इसमें द्रव्य संग्रह, छहढाला, तत्त्वार्थ सूत्र आदि का शिक्षण दिया गया एवं प्रतिदिन एक घंटा चर्चायें होती थीं। पं. मिश्रीलाल जी आदि चर्चा में भाग लेते थे। कंवरीलाल जी, फूलचन्द जी कासलीवाल आदि ने भी अच्छी रुचि ली थी।
यहाँ मारवाड़ी मंदिर, इतवारिया मंदिर आदि कई मंदिरों में मेरा उपदेश हआ, लोगों में गुरुभक्ति अच्छी थी। अनेक महानुभाव मिलकर यहीं चातुर्मास कराने के लिए श्रीफल चढ़ाने आये। श्रीफल चढ़ाकर प्रार्थना की और बताया कि- छहों गोट के लोग पहली बार एक साथ मिलकर आपके पास प्रार्थना करने आये हैं। इधर सनावद के लोग चूंकि यहाँ भी बार-बार आते-जाते रहते थे। सौ. कमलाबाई पांड्या तो मेरे पास ही रह रही थीं। ये लोग सनावद में चातुर्मास कराना चाहते थे।
मैंने कहा- ‘‘उदयपुर में आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज संघ सहित ठहरे हुए हैं, उनसे आज्ञा ले आइये, वे जहाँ के लिए कहेंगे, वहीं मैं चातुर्मास करूँगी।’’ सनावद के मोतीचन्द, त्रिलोकचन्द, श्रीचन्द आदि कई महानुभाव अतिशीघ्र ही उदयपुर पहुँच गये। आचार्यश्री से निवेदन किया, तभी कुछ ऊहापोह करके आचार्यश्री शिवसागर जी ने संघस्थ ब्र. चांदमलजी-गुरुजी से सनावद चातुर्मास की स्वीकृति के लिए पत्र लिखवा दिया।
पत्र लिखने के कुछ ही क्षण बाद इंदौर से कई महानुभाव आचार्यश्री के पास पहुँचे। तब आचार्यश्री ने कहा- ‘‘भाई! अभी-अभी तो मैंने सनावद के लिए स्वीकृति देकर पत्र लिखा दिया है।’’ अनेक अनुनय-विनय के बाद इंदौर के लोग वापस आ गये। इधर सनावद के लोगों ने आकर बताया कि वहाँ कोई महानुभाव बैठे हुए थे, आचार्यश्री ने कहा- ‘‘देखो! आर्यिका ज्ञानमती जी इतनी दूर बैठकर भी मेरी आज्ञा मंगाकर चातुर्मास करती हैं, वे हजारों मील दूर थीं, फिर भी मेरी आज्ञा मंगाती थीं।
यद्यपि वे मेरे गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से दीक्षित हैं, फिर भी मुझे गौरव देती हैं, यह इनकी विशेषता ही है……।’’ इन शब्दों को कहते हुए आचार्यश्री शिवसागर जी को मेरे प्रति कितना गौरव और वात्सल्य था, इससे सनावद के ये लोग अतीव प्रभावित हुए। इधर इंदौर की सभा में दोनों पक्ष के लोग काफी अधिक उलझ रहे थे।
मैंने बहुत ही प्रेम से लोगों को शांत किया। चूँकि इतना अधिक उत्साह होते हुए भी जब इंदौर में चातुर्मास का ‘नहीं’ हो गया, तब दुःखी मन होने से आवेश में उन लोगों के मुख से कुछ हल्ला-गुल्ला के माहौल में कुछ भी कह देना कोई बड़ी बात नहीं थी, हालांकि उखड़ने वाले, उलझने वाले दो-चार लोग ही थे। यहां पर सेठ हीरालालजी कासलीवाल-भईया जी भी आये थे। उन्होंने मध्यलोक रचना के बारे में चर्चाएँ की थीं। सेठानी कंचनबाई जी भी आई थीं।
उन्होंने अनेक चर्चायें कीं, पुनः वे बोलीं- ‘‘माताजी! यह भव्य रचना आप इंदौर में बनवाइये। मेरे यहां कंचनबाग में बहुत बड़ी जगह है। यहाँ शहर में सभी साधन सुलभ रहेंगे और हजारों-लाखों लोग दर्शन करते रहेंगे।……।’’ किन्तु उस समय मेरे मस्तिष्क में यही बात थी कि- ‘‘यह रचना तीर्थक्षेत्र पर ही होनी चाहिए। चूूंकि पवित्रता आदि की रक्षा जैसी तीर्थ पर संभव है, वैसी शहरों में संभव नहीं है’’ अतः मैंने सेठानी जी की बातों को सुनकर, हँसकर टाल दिया और कहा- ‘‘जहाँ योग होगा वहीं होगा……।’’
यहाँ पर पुराने बुजुर्ग लोगों ने आकर अच्छी भावनाएँ व्यक्त कीं। कहने लगे- ‘‘माताजी! जैन समाज में मैंने बहुत दिनों बाद आप जैसी विदुषी साध्वी को देखा है। आपका प्रवचन प्रभावशाली है। आप जैसी आर्यिकाओं को इंदौर जैसी नगरी-जैनपुरी में चातुर्मास करना आवश्यक है। चलो, इस बार न सही, अगला चातुर्मास तो आप यहीं कीजिये। आपके यहाँ के चातुर्मास से जैनधर्म की अच्छी प्रभावना होगी……।’’
तब मेरे मन में सहसा आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी के प्रति यहाँ की घटी घटनायें याद आ गर्इं कि जैसा पूर्व में सुना था, फिर भी मैं सोचने लगी- ‘‘इस शहर में, जहाँ कुछ मुनि विरोधी लोग रहे होंगे, वहाँ गुरु भक्तों की भी कमी नहीं है……..मैं देखती हूँ कि प्रायः प्रतिवर्ष यहाँ कोई न कोई मुनिसंघ रहते ही हैं और धर्म प्रभावना के अनेक कार्य भी होते ही रहते हैं।’’
सनावद की ओर पुनः विहार
चातुर्मास का समय निकट आ रहा था अतः सनावद वालों के आग्रह से मैंने सनावद की ओर विहार किया। उस समय इंदौर के कितने ही भक्त पुरुष और महिलायें आँखों में अश्रु भर कर रो रहे थे। विहार के समय जिन-जिन घरों के सामने से मैं निकलती थीं उन-उन घरों के श्रावक-श्राविकाएँ दरवाजे पर मुझे रोककर दूध से चरण धोते थे और आरती करते थे।
एक दरवाजे पर पुरुष वर्ग चरण प्रक्षालन करने लगे, महिलाएँ दरवाजे पर खड़ी रहीं। मैंने पूछा- ‘‘ऐसा क्यों?’’ तब लोगों ने बताया- ‘‘माताजी! इस घर में पुरुष वर्ग मुनिभक्त हैं और महिलाएँ सोनगढ़ी हैं।’’ मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ।
खैर! आज भी ऐसे घर बहुत हैं, जहाँ सोनगढ़ और मुनिभक्त दोनों विचारधारा के लोग हैं। दिल्ली में भी कई श्रावक मुनिभक्त हैं और उनकी धर्मपत्नी, बहनें, माता आदि सोनगढ़ी हैं, वे हम सभी साधुओं के पास आती भले ही हैं किन्तु नमस्कार और आहारदान की भावना नहीं रखती हैं।