अगले दिन आचार्यश्री का सनावद के चौके में पड़गाहन हो गया। मोतीचंद आदि ने पड़गाहन किया था। नवधाभक्ति करके खूब हर्षोल्लास से आचार्यश्री को आहार दिया। निरंतराय आहार होने के बाद आचार्यश्री को आंगन में तख्त पर बिठाकर आरती की।
इसके बाद आचार्यश्री बोले- ‘‘हाँ, भाई! हमें दक्षिणा चाहिए, बोलो क्या दक्षिणा देना है?’’ तभी मंदिरमाय ने ५००) रुपये दान में बोले पुनः आचार्यश्री ने मोतीचंद से प्रेरणा की। मोतीचंद ने भी २००) रुपये बोल दिये पुनः आचार्यश्री ने हंसते हुए कहा- ‘‘देखो, तुम लोग नियम लेवो, यह त्याग की दक्षिणा मुझे चाहिए।’’
तब इन लोगों को कुछ न कुछ नियम दिया और मोतीचन्द से बोले- ‘‘तुम्हें तो अब संघ में रहना है, घर जाने का त्याग करो।’’ मोतीचंद ने हँसते हुए कहा- ‘‘महाराज जी! अभी तो घर जाना है, फिर मैं पिताजी की आज्ञा लेकर आऊँगा, तब रहूँगा।’’ बाद में आचार्यश्री ने कहा- ‘‘देखो! इन सात सौ रुपयों से शांतिवीरनगर महावीरजी से ‘समाधि-तंत्र’ पुस्तके मंगाकर संंघों में वितरित कर देना।’’
आचार्यश्री की आज्ञा से ऐसा ही किया गया। आचार्यश्री श्रावकों से जितनी सरलता से हँसते हुए ‘‘दक्षिणा देना है’’ ऐसा बोलकर, जो शास्त्रदान-ज्ञानदान करा लेते थे, वह उनका बुद्धिचातुर्य ही था। आज भी हमें उनकी यह पद्धति याद आ जाती है। वास्तव में उनकी प्रेरणा से ही शांतिवीरनगर-महावीरजी में इतनी विशालकाय भगवान् शांतिनाथ की २५ फुट की मूर्ति विराजमान हुई है।
उन्होंने यह बात मुझे स्वयं कही थी कि- ‘‘माताजी! मेरे मन में विशाल खड्गासन प्रतिमा यहाँ महावीर जी में विराजमान कराने का भाव था, तब मैंने डीमापुर की महिला अंगूरीबाई से प्रेरणा की थी और मेरी प्रेरणा से उन्होंने यह मूर्ति यहाँ विराजमान करायी है।’’ इसके बाद और अन्य साधु-साध्वियों के आहार सनावद वालों के चौके में हुये। बाद में ये सब सनावद के लोग आचार्यश्री आदि साधुओं का और मेरा आशीर्वाद लेकर वहाँ से रवाना होकर सनावद पहुँच गये।
सन् १९६२ के दिसम्बर माह में मैंने आचार्य श्री का संघ ‘नावा’ राजस्थान से छोड़ा था। वहाँ से निकलकर पदमपुरा महावीरजी और मथुरा सिद्धक्षेत्र के दर्शन किये पुनः सन् १९६३ में अयोध्या, नौराही-रत्नपुरी, बनारस, चंपापुरी, राजगृही, कुण्डलपुर, पावापुरी, गुणावां दर्शन करते हुए सम्मेदशिखर पहुँची। महान तीर्थराज के दर्शन किये।
अनंतर सन् १९६४ में पुनः कलकत्ता चातुर्मास से सम्मेदशिखर आकर गिरिराज की वंदनाएँ कीं पुनः यहाँ से विहार करके उड़ीसा में खंडगिरि-उदयगिरि की यात्रा की। सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल मेंं विराजमान भगवान बाहुबलि के दर्शन किये। एक वर्ष उनके चरण सान्निध्य में रहने का शुभ अवसर मिला।
इसके बाद सन् १९६६ में मूडविद्री, कारकल, वेणूर, हुम्मच पद्मावती, धर्मस्थल, कुदकुंदाद्रि के दर्शन किये पुनः बीजापुर आकर निकटवर्ती क्षेत्र बाबा नगर के दर्शन किये। इसके बाद सोलापुर चातुर्मास के अनंतर विहार कर कुंथलगिरि के दर्शन करके तेर, पैठण, कचनेर आदि अतिशय क्षेत्रों के दर्शन किये और पुनः औरंगाबाद पहुँच गई। इसके बाद सन् १९६७ में एलोरा के दर्शन करके आगे बढ़कर गजपंथा और मांगीतुंगी के दर्शन किये पुनः बड़वानी, ऊन के दर्शन करके सिद्धवरकूट के दर्शन किये। उसके बाद सनावद से विहार कर राजस्थान में संघ में आ गई।
इन पाँच वर्षों में मैंने १९६३ में कलकत्ता में चातुर्मास किया। १९६४ में हैदराबाद में चातुर्मास किया। १९६५ में श्रवणबेलगोल में चातुर्मास किया। १९६६ में सोलापुर में किया तथा १९६७ में सनावद में चातुर्मास किया था। मैं संघ में सकुशल सब आर्यिकाओं और क्षुल्लिकाओं को लेकर आ गई। मुझे भी खुशी हुई और संघ में सभी साधु-साध्वियों को भी खुशी हुई।