वर्षायोग समाप्त होने के बाद आचार्यश्री ने संघ सहित महावीर जी की ओर विहार करने का कार्यक्रम निश्चित किया। प्रतापगढ़ की जैन समाज ने यात्रा कराने की सारी जिम्मेदारी संभाली थी। मोतीचंद ने भी अपना एक चौका रास्ते में रखा था। ब्र. शीलाबाई, गेंदीबाई, कला, मनोरमा आदि बाइयाँ मिलकर चौका करती थीं। प्रतिदिन कई-कई साधुओं को पड़गाहन कर, आहार देकर, ये लोग खूब हर्षित होते थे।
ब्र. चांदमल जी का समाधिमरण
ब्र. चांदमल काफी वृद्ध थे और बहुत ही कमजोर थे। मार्ग में जगह-जगह रुकने से कहीं स्थान अनुकूल मिलता, कहीं प्रतिकूल मिलता, तो वे काफी कष्ट का अनुभव करते थे किन्तु वे इस भाव से इस विहार में भी संघ के साथ रह रहे थे कि- ‘‘मेरी समाधि गुरुओं के निकट में अच्छी विधि से हो जाये।’’ भवानीमंडी में संघ ठहरा था। मंदिर में ऊपर छत पर चतुर्दशी का बड़ा प्रतिक्रमण होे रहा था। ब्र. चांदमल जी नीचे बैठे हुए थे। उन्होंने प्रातः ही आचार्य श्री से कहा था- ‘‘महाराज जी! आज मेरी नाड़ी रुक-रुक कर चल रही है।’’
ऐसा सुनकर महाराज जी ने और सभी ने उन्हें हँस लिया- ‘‘वाह जी! ब्रह्मचारी जी! आप तो बोल रहे हैं, बैठे हुए हैं और कह रहे है कि नाड़ी रुक-रुक कर चल रही है ।’’ मध्यान्ह में करीब दो बजे ब्रह्मचारी जी ने मुझे बुलाकर कहा-माताजी! आज आप मेरे पास ही विराजिये, मुझे पाठ सुनाइये, मेरी नाड़ी ठीक नहीं है ।’
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इनता सुनकर मैं उन्हीं के निकट बैठी उन्हें आध्यात्मिक पाठ सुनाती रही, संबोधन भी करती रही। मेरे पास एक आर्यिका जी और बैठी रहीं पुनः जब मुझे उनकी हालत कुछ गंभीर सी मालूम पड़ी, तभी मैंने ऊपर आकर आचार्यश्री को सूचना दी। आचार्यश्री संघ सहित आ गये। ब्रह्मचारी जी की इच्छानुसार उन्हे नग्न दिगम्बर बना दिया और यावज्जीवन चर्तुिवध आहार का त्याग देकर सल्लेखना दे दी। कुछ ही देर में उनके शरीर से आत्मा ने प्रयाण कर दिया।
देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ- वास्तव में उनका आयुर्वेदिक ज्ञान, नाड़ी ज्ञान उनके काम आया जिससे वे सावधान रहे, नहीं तो सभी साधु नित्य की तरह ऊपर प्रतिक्रमण करते ही रहते ओर ये इधर चले गये होते। उनकी समाधि से श्रावकों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि यदि अन्त में समाधि सुधारना है तो गुरुओं के संघ में आकर रहना चाहिए। जीवन भर की कमाई को साथ ले जाने के लिए यह सल्लेखनापूर्वक मरण ही समर्थ है।
‘‘अहो! सभी ने जीने की कला सिखायी किन्तु ‘मरने की कला’ सिखाने वाला एक जैन धर्म ही है। इस कला को सीखकर लोग मृत्युंजयी बन जाते हैं, अजर-अमर पद को प्राप्त कर लेते हैं।’’
शिष्य व्यवस्था
यहाँ भवानीमंडी में एक श्रावक अपनी कन्या को लेकर आये और आचार्यश्री से बोले- ‘‘महाराज जी! इसका विवाह हो चुका है, पतिगृह में इसको शांति नहीं है, अतः यह वहाँ नहीं जायेगी। मैं चाहता हूँ कि यह किन्हीं माता जी के पास रहकर धर्म अध्ययन कर आत्म कल्याण करे, चूँकि मैं पुनर्विवाह के पक्ष में नहीं हूँ।
इस बालिका की इच्छा भी संघ में रहने की है।’’ आचार्यश्री ने उसी समय मुझे बुलाया और मुझसे बोले- ‘‘ज्ञानमती माताजी! देखो, इस बालिका को अपने पास रखो, इसे ज्ञान और वैराग्य में योग्य बनाओ।’’ पुनः आचार्यश्री उन श्रावक से मेरे बारे में उसी समय कहने लगे-‘‘देखो, मेरे संघ में ये माताजी बहुत योग्य हैं। ये बालिका को भी संभाल लेती हैं, वृद्धा महिलाओं को भी संभालती हैं और युवती महिलाओं को भी वैराग्य की दिशा में मोड़ देती हैं।
ये ज्ञान की वृद्धि तो करती ही हैं, खूब पढ़ाती हैं, व्याकरण, न्याय आदि में निष्णात बना देती हैंं, साथ ही शिष्याओं में वैराग्य को कूट-कूटकर भर देती हैं अतः इनके पास रहकर आपकी बालिका सर्वगुण सम्पन्न बन जायेगी……।’’
वे श्रावक एक-दो दिन वहाँ ठहरने वाले थे, अतः वह बालिका उस समय मेरे साथ आ गई पुनः कुछ देर बाद भोजन के समय जहां उसके पिता ठहरे थे, वहाँ चली गई। इतनी ही देर में कई आर्यिकाएँ उससे बातें करने लग गर्इं। कहीं किसी ने बुलाकर अपने पास रहने की प्रेरणा दी, तो किसी दूसरी ने अपने पास रहने की प्रेरणा दी। मैं यह सब दृश्य देख रही थी। किसी ने आकर मुझे कहा भी कि देखो! कई साध्वियाँ उसके पीछे पड़ गई हैं परन्तु मैंने उपेक्षा कर दी पुनः अगले दिन मध्यान्ह में वह बालिका और उसके पिता दोनों मेंरे पास आकर बोले- ‘‘माताजी! अभी तो हम जा रहे हैं, इसे भी ले जा रहे हैं, फिर कभी योग होगा, तो इसे लायेंगे…..।’’
मैंने पूछा-‘‘क्यों, ऐसी क्या बात हुई?’’ बालिका बोली- ‘‘कई एक माताजी मुझे बुला-बुलाकर कहती हैं कि तुम मेरे पास रहो, तुम मेरे पास रहो……यहाँ तो बहुत ईर्ष्या द्वेष है। इससे तो घर ही भला है।’’ मैं एकदम देखती रह गई, कुछ भी नहीं बोली। वे दोनों वहाँ से चले गये। मैंने आचार्यश्री से भी कुछ नहीं कहा।
बाद में मैं सोचने लगी- ‘‘अहो! संसार समुद्र से पार होने का मार्ग मिलना कितना कठिन है? देखो, अकारण ही आचार्यश्री की आज्ञा में भी विघ्न डालने वाले कुछ साधु-साध्वी ही बन गये, कितने आश्चर्य की बात है? अरे! किसी को भी मोक्षमार्ग में लगाने के लिए परोपकार भावना ही प्रमुख होती है, यह स्वार्थपरता और शिष्य का लोभ इनमें क्यों आ गया है?’’
खैर! मैंने मेरे जीवन में किसी के शिष्य-शिष्याओं को आज तक अपने पास नहीं रखा है और न उन्हें अपने पास रहने के लिए प्रेरणा ही दी है।
मैंने सन् १९५६ में मूलाचार में पढ़ा था कि- ‘‘संगृहीतानि चात्मवशीकृतानि च क्षेत्रवास्तुधनधान्यपुस्तकोपकरणच्छात्रादीनि तेषां सर्वेषां नादानं न ग्रहणं आत्मीयकरणविसर्जनं।’’
दूसरों के द्वारा संगृहीत-खेत, मकान, धन, धान्य, पुस्तक, उपकरण-पिच्छी, कमंडलु, छात्र-शिष्य आदि को न लेना, न ग्रहण करना अर्थात् उन्हें अपना नहीं बनाना, यह अचौर्य महाव्रत है। तभी से मैंने यह नियम बना रखा है कि किसी के शिष्य-शिष्याओं ने यदि मेरे पास रहना भी चाहा, तो मैंने उन्हें उनके गुरु के पास रहने की ही शिक्षा दी है। सन् १९७५ में मैं मुजफ्फरनगर में थी। वहाँ सुपार्श्वसागर जी मुनि ने सल्लेखना ले रखी थी इसलिए उन्होंने मुझे बुलाया था अतः गई थी। वहां पंडित श्यामसुंदरलाल जी फिरोजाबाद वाले आये हुए थे।
वे एक दिन मेरे पास आकर निवेदन करते हुए बोेले- ‘‘माताजी! ये दो ब्रह्मचारिणियाँ दीक्षा लेना चाहती हैं, इन्हें आप समझा-बुझाकर अपने पास रखिये, तब तो इन्हें संरक्षण मिलेगा, ज्ञान मिलेगा-ये योग्य बन जायेंगी अन्यथा योग्य नहीं बन पायेंगी, जैसा कि मैं कई दिनों से अनुभव कर रहा हूँ ।’’
मैंने कहा-‘‘पंडित जी! मैं उन्हें स्वयं भला अपने पास रहने के लिए कैसे कह सकती हूँ? चूँकि वे यहाँ संघ में हैं ।’’ पंडित जी ने उन दोनों को बुलाकर मेरे पास बिठाकर, समझाया और शिक्षायें दी, पुनः मेरे से आग्रह करने लगे-‘‘आप भी इन्हें योग्य शिक्षा दीजिये।’’ मैंने कहा- ‘‘देखो, आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज कहते थे कि महिलाओं का अर्थात् ब्रह्मचारिणी और आर्यिकाओं का संरक्षण आर्यिकाओं के पास ही रहता हैं। जब तक कोई एक अनुभवी आर्यिका को गुर्वानी न बना लो तब तक दीक्षा के लिए वे स्वीकृति ही नहीं देते थे।’’ मैंने अपनी आ.पद्मावती आदि के कई उदाहरण भी सुनाये।
यही बात आचार्यश्री शिवसागर जी ने भी महावीर जी में ब्र. अशरफी बाई को कही थी कि ‘‘जब तुम किसी आर्यिका को गुर्वानी मानकर उनके पास रहना निश्चित करोगी और उन्हें आगे करके लावोगी, तभी मैं तुम्हें दीक्षा दूूँगा ।’’ इस प्रकार मैंने उन पंडित जी की प्रेरणा से इन दोनों को समझाया कि-‘‘तुम दोनों किसी न किसी को गुर्वानी बनाकर उनके पास रहोगी, तब तुम्हारे सुख-दुख में वे तुम्हें संभालेगी, उचित परिचर्या भी करेंगी, तुम्हें पढायेंगी ।’’
‘‘देखो! इस समय संघ में आर्यिका जिनमती जी, आर्यिका आदिमती जी, आर्यिका भद्रमती जी, आर्यिका संभवमती जी आदि कई आर्यिकायें ब़ड़ीr हैं-उनमें से तुम दोनों किन्हीं का आश्रय अवश्य ले लो ।’’
इन दोनों को मेरी वह शिक्षा बुरी लगी। उठकर एक मुनिजी के पास गई और उन्हें यह सब बता दिया। वे बोले-‘‘कुछ नहीं, उन सबको बकने दो, तुम दो हो और तुम्हारी माता भी साथ में हैं, चिंता मत करो, स्वतंत्र रहो, किसी के अनुशासन में रहने की कोई जरूरत नहीं है।’’ खैर! मैं तो कुछ दिनों बाद हस्तिनापुर आ गई। आचार्यश्री धर्मसागर जी से इन दोनों बालिकाओं ने और इनके माता-पिता ने भी दीक्षा ले ली। कुछ वर्ष बाद ये दोनों बहनें अस्वस्थ हो गई, तब आर्यिका दीक्षा से च्युत होकर घर चली गर्इं। मैं जब मुजफ्फरनगर की वह चर्चा याद करती हूँ तो रोमांच हो आता है।
‘‘अहो! यदि उन दोनों ने किसी को गुर्वानी बना लिया होता, तो शायद उनका स्थितीकरण संभव था, उनकी परिचर्या, वैयावृत्ति संभव थी। उन्हें दीक्षा छोड़ने का अवसर नहीं भी आता।’’ खैर! भवानीमंडी में आये हुए वे श्रावक जब चले गये, तब आचार्यश्री को सारी बातें मालूम हुई। उन्होंने सहसा मुझसे कहा- ‘‘ज्ञानमती जी! उसका संघ में रहना अच्छा था वह क्यों चली गई?
’’ महाराज जी को भी कुछ खेद अवश्य हुआ। अनंतर वहां से संघ का विहार महावीर जी की ओर हो गया। चमत्कारजी के दर्शन- इधर ‘सवाई माधोपुर’ नाम से एक गाँव है। वहाँ पर चमत्कारजी नाम से एक मंदिर प्रसिद्ध है। वहाँ के दर्शन किये और गाँव में संघ ठहर गया। गाँव में भी कई मंदिर हैं, उनके भी दर्शन किये।
क्षेत्र परिचय
एक खेत में भूगर्भ से यह भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमाजी किसी जोगी को स्वप्न होने के बाद प्राप्त हुई थीं, तभी से यहां का चमत्कार प्रसिद्ध है अतः इस क्षेत्र का नाम ही चमत्कार जी पड़ गया है। जहाँ से मूर्ति निकली थीं, वहाँ पर एक छतरी का निर्माण किया गया है। मंदिर में वही स्फटिक की भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान है। यहाँ अनेक जैन और जैनेतर मनोकामनाएँ लेकर आते हैं और इच्छा पूरी होने पर कुछ न कुछ निर्माण भी करा चुके हैं, ऐसी प्रसिद्धि है।
मुनिश्री का डोली से विहार
एक बार मुनिश्री सुबुद्धिसागरजी के पैर में कांटा लग गया था। वह पक गया और बहुत सूज गया। मुनिश्री पैदल नहीं चल सके। एक-दो दिन उनके निमित्त से संघ गांव में रुका रहा पुनः व्यवस्थापकों की आकुलता से आचार्यश्री की आज्ञा से मुनिश्री सुबुद्धिसागरजी ने डोली में बैठकर विहार किया। बाद में फुड़िया फूटकर पीव निकल जाने पर वे मुनिश्री साहस करके पैदल चलने लगे। अस्वस्थता में मुनि डोली में बैठकर विहार कर सकते हैं, ऐसी शास्त्र में आज्ञा है। अतएव संघ में यह परंपरा रही है। यथा-
डोली आदि में बैठकर गमन करने पर आचार्य उस मंद रोगी आदि साधु को, उसकी स्थिति समझकर, उसके दोष को दूर करने वाली मार्गशुद्धि से दूनी शुद्धि (प्रायश्चित्त) देते हैं। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘यदि मुनि और आर्यिका बीमारी आदि के प्रसंग में डोली में बैठकर विहार करते हैं, तो वे चारित्रहीन नहीं हैं, आगम की आज्ञा के अनुकूल ही हैं। ‘‘संघ में रहने का और संघ के साधुओं की चर्या बारीकी से देखने का मतलब यही है कि कौन-कौन सी चर्यायें आगम के अनुकूल हैं, यह जानकारी मिलती रहे और मोक्षमार्ग निराबाध चलता रहे, चूंकि आज पंचमकाल में हीन संहनन होने से जिनकल्पी मुनि तो हो नहीं सकते हैं और स्थविरकल्पी की चर्या में अनेक समस्याएँ आती हैं।
उनका समाधान आगम और गुरु-परम्परा के आलोक में करना चाहिए। ऐसा न करके कोई-कोई एकलविहारी साधु अनर्गलरूप से या तो शिथिल चर्या करके मोक्षमार्ग बिगाड़ देते हैं और या तो खूब खींचतान करके शास्त्र स्वाध्याय विशेष न होने से मोक्षमार्ग को बिगाड़ रहे हैं। जैसे कि एक मुनि चौके में पादप्रक्षालन के समय एक महिला के द्वारा चरण स्पर्श कर लेने पर वे चौके से निकल आये और उपवास कर लिया पुनः महिला ने कहा-यहाँ आचार्य श्रीधर्मसागर जी का संघ आया था। उन मुनियों के चरण छूके मैंने प्रक्षालन किया था। बस, इन मुनि ने आचार्य संघ की निंदा करना, उन्हें चारित्रहीन कहना शुरू कर दिया। मैंने देखा कि वे आगम के ज्ञान से पराङ्मुख थे, उनकी चर्या अनर्गल थी, अभी तो वे सोनगढ़ी-कहानपंथी बन गये हैं। इधर संघ विहार करते हुए श्री महावीरजी क्षेत्र पर आ गया। हम लोगों ने अतिशय प्राप्त भगवान महावीर स्वामी के दर्शन किये।