संज्ञा—जिनके द्वारा संक्लेश को प्राप्त होकर जीव इस लोक में दु:ख को प्राप्त करते हैं और जिनका सेवन करके दोनों ही भवों में दारुण दु:खों को प्राप्त होते हैं उनको ‘‘संज्ञा’’ कहते हैं। संज्ञा नाम वाञ्छा का है। जिसके निमित्त से दोनों ही भवों में दारुण दु:ख की प्राप्ति होती है उस वाञ्छा को संज्ञा कहते हैं।
उसके चार भेद हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। इन आहार आदि चारों ही विषयों को प्राप्त करके और न प्राप्त करके भी दोनों ही अवस्थाओं में यह जीव संक्लेश और पीड़ा को प्राप्त होते रहते हैं। इस भव में भी दु:खों का अनुभव करते हैं और उसके द्वारा अर्जित पाप कर्म के उदय से परभव में सांसारिक दु:खों को भोगते हैं इसलिये ये संज्ञायें दु:खदाई हैं।
आहार संज्ञा—आहार के देखने से अथवा उसके उपयोग से और पेट के खाली होने से यद्वा असातावेदनीय कर्म का तीव्र उदय एवं उदीरणा होेने से आहार संज्ञा अर्थात् आहार की वाञ्छा उत्पन्न होती है। इस तरह आहार संज्ञा के चार कारण हैं जिनमें अंतिम एक असातावेदनीय की उदीरणा अथवा तीव्र उदय अंतरंग कारण है और तीन बाह्य कारण हैं।
भय संज्ञा—अत्यंत भयंकर पदार्थ के देखने से अथवा पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण आदि से यद्वा शक्ति के होने पर और अंतरंग में भयकर्म का तीव्र उदय, उदीरणा होने पर भयसंज्ञा उत्पन्न हुआ करती है। इसके चार कारणों में भी भय कर्म की उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
मैथुन संज्ञा—कामोद्रेक, स्वादिष्ट और गरिष्ठ रसयुक्त पदार्थों का भोजन करने से, कामकथा, नाटक आदि के सुनने एवं पहले के भुक्त विषयों का स्मरण आदि करने से तथा कुशील का सेवन, बिट आदि कुशीली पुरुषों की संगति, गोष्ठी आदि करने से और वेद कर्म का उदय या उदीरणा आदि से मैथुन संज्ञा होती है। इसमें भी चार कारणों में वेद कर्म का उदय या उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
परिग्रह संज्ञा—उत्तम वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि बाह्य पदार्थों के देखने से अथवा पहले के भुक्त पदार्थों का स्मरण या उनकी कथा श्रवण आदि करने से, परिग्रह अर्जन के तीव्र ममत्व भाव होने से एवं लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से इन चार कारणों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है। इनमें से लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा अंतरंग कारण है शेष तीन बाह्य कारण हैं। संज्ञाओं के स्वामी—छठे गुणस्थान तक आहारसंज्ञा है, आगे सातवें से ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होती है क्योंकि छठे से आगे असाता वेदनीय का तीव्र उदय अथवा उदीरणा नहीं है। भयसंज्ञा और मैथुनसंज्ञा भी छठे से आगे नवमें तक उपचार से ही है क्योंकि वहाँ ध्यान अवस्था है। परिग्रह संज्ञा दशवें तक उपचार से ही है क्योंकि वहाँ तक लोभ कषाय का सूक्ष्म उदय पाया जाता है। छठे से आगे इन संज्ञाओं की प्रवृत्ति मानने पर ध्यान अवस्था नहीं बन सकती है अत: मात्र कर्मों के उदय आदि के अस्तित्व से ही इनका अस्तित्व आगे माना गया है।