तर्ज-कभी राम बनके………..
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।टेक.।।
दश धर्मों में शौच धर्म प्यारा।
आतमा शुद्ध हो जिससे न्यारा।।
आह्वान करने, स्थापन करने, चले आये-मंदिर में चले आए।।१।।
आठों द्रव्यों का थाल सजाया।
धर्म पालन का भाव मन में आया।।
धर्मध्यान करने, कल्याण करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
क्षीर सागर का जल ले करके।
उत्तम शौच धर्म को मन में धरके।।
जलधार करने, त्रय ताप हरने, चले आए-मंदिर में चले आए।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
गंध से करूँ प्रभु पाद चर्चन।
उत्तम शौच धरम का अर्चन।।
भवताप हरने, मन शांत करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
शुभ्र तन्दुल अखण्डित लेकर।
करूँ पूजन मिले अक्षय पद।।
सुख प्राप्त करने, अक्षय धाम वरने, चले आए-मंदिर में चले आए।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
नाना पुष्पों को चुन-चुन के लाए।
कामबाण नाश हेतु चढ़ाए।।
आतमशांति वरने, संयम प्राप्त करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
ताजे व्यंजन बना करके लाए।
क्षुधारोग नाश हित प्रभु चढ़ाए।।
स्वास्थ्य लाभ करने, श्रेष्ठ धाम वरने, चले आए-मंदिर में चले आए।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
स्वर्णथाली में घृतदीप लाए।
आरती मोह तम को नशाए।।
अंधकार हरने, मोह नाश करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
अष्टगंध की धूप जलाकर।
उत्तम शौच धरम अपनाकर।।
कर्म नाश करने, सुख प्राप्त करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
केला अंगूर आदि फल लेकर।
करूँ शौच धर्म का अर्चन।।
मोक्ष प्राप्त करने, सिद्धि धाम वरने, चले आए-मंदिर में चले आए।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
आठों द्रव्यों का अर्घ्य बनाकर।
मैं चढ़ाऊँ ‘‘चंदनामति’’ आकर।।
गुण प्राप्त करने, सुखसार वरने, चले आए-मंदिर में चले आए।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
शांतिधारा करूँ जिनवर चरण में।
शांति प्राप्त हो जावे विश्वभर में।।
यही बात करने, मन को शांत करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पूजा पाठ करने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।
करूँ पुष्पांजलि प्रभु पद में।
भरूँ गुणपुष्प होकर विनत मैं।।
मन का ताप हरने, मंत्र जाप करने, चले आए-मंदिर में चले आए।।११।।
दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
-सोरठा छंंद-
धर्म शौच जगमान्य, पूजन कर मन शुद्ध हो।
अर्घ्य चढ़ाऊँ आन, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।
इति मण्डलस्योपरि पंचमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-दोहा छंद-
देवों का सुख भोगकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१।।
ॐ ह्रीं देवसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चक्रीपद सुख भोगकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।२।।
ॐ ह्रीं चक्रवर्तिपदवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नारायण पद प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।३।।
ॐ ह्रीं नारायणपदवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कामदेवपद प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।४।।
ॐ ह्रीं कामदेवपदवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्शजन्य सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।५।।
ॐ ह्रीं स्पर्शनेन्द्रियजन्यसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसनजन्य सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।६।।
ॐ ह्रीं रसनेन्द्रियजन्यसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राणजन्य सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।७।।
ॐ ह्रीं घ्राणेन्द्रियजन्यसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रजन्य सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।८।।
ॐ ह्रीं चक्षुइन्द्रियजन्यसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्णेन्द्रिय सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।९।।
ॐ ह्रीं कर्णेन्द्रियजन्यसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनवाञ्छित सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१०।।
ॐ ह्रीं मनोवाञ्छितभोगवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काय सु बल भी प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।११।।
ॐ ह्रीं कायसुखभोगवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धन कंचन सुख प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१२।।
ॐ ह्रीं धनसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वनिता सुख भी भोगकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१३।।
ॐ ह्रीं वनितासुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुंदर सुत भी प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१४।।
ॐ ह्रीं पुत्रसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भ्रातृप्रेम को प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१५।।
ॐ ह्रीं भ्रातृसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मित्र सुहितकर प्राप्तकर, इच्छा हुई न पूर्ण।
उस इच्छा को छोड़ अब, जजूँ शौच गुण पूर्ण।।१६।।
ॐ ह्रीं मित्रसुखवाञ्छाविहीनशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
पुत्र मित्र वनितादिक सुख नश्वर सभी।
परिजन पुरजन स्वहित न कर सकते कभी।।
इसीलिए शाश्वत सुख की अब कामना।
प्रभु पूजन से आत्मशुद्धि की भावना।।१।।
ॐ ह्रीं सकलपरिजनसंबंधिसुखवाञ्छाविहीन उत्तमशौचधर्मांगाय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय नम:।
तर्ज-जिस गली में………..
जिस गती में न उत्तम धरम मिल सके,
उस गती में मुझे नाथ! जाना नहीं।
जिस मती से धरम शौच पल ना सके,
उस मती को भी हे नाथ! पाना नहीं।।टेक.।।
हीरा सा यह मनुज तन मिला आज है।
लोभ में ही गया यदि तो क्या लाभ है।।
लोभ में ही गया यदि……….
जिस गती में धरम लाभ ना मिल सके,
उस गती में मुझे नाथ! जाना नहीं।।जिस….।।१।।
कुछ तो सीमा करो अपनी इच्छाओं की।
फिर तो शुचिता बढ़ेगी निजात्मा में भी।।
फिर तो शुचिता बढ़ेगी………….
लोभ का त्याग पूरा भी कर ना सको,
तो भी ज्यादा उसी में लुभाना नहीं।।जिस….।।२।।
लोभवश चक्रवर्ती नरक में गया।
भरत सम्राट् ने तज उसे शिव लहा।।
भरत सम्राट् ने तज………..
‘चन्दनामति’ जहाँ लक्ष्य की पूर्ति हो,
रत्नत्रय धारकर मुझको जाना वहीं।।जिस….।।३।।
नाथ! जयमाल में अर्घ्य अर्पित करूँ।
पाद कमलों में निज को समर्पित करूँ।।
पाद कमलों में…………….
पूज्य बनकर सदा पूज्य ही रह सकूं।
पुन: संसार में गोते खाना नहीं।।जिस…………..।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।