भगवान अरनाथ एवं मल्लिनाथ के अन्तराल में नंदिषेण बलभद्र एवं पुण्डरीक नारायण हुए हैं। तीसरे भव पूर्व ये राजपुत्र थे। एक राजपुत्र ने शल्य सहित तपश्चरण करके आयु के अंत में संन्यास विधि से मरण करके प्रथम स्वर्ग में देवपद पाया, वहाँ से चयकर सुभौम चक्रवर्ती के बाद छह सौ करोड़ वर्ष बीत जाने पर इसी भरतक्षेत्र में चक्रपुर नगर के राजा वरसेन की लक्ष्मीरानी से पुण्डरीक नाम का पुत्र हुआ। इन्हीं वरसेन राजा की दूसरी वैजयंती रानी से नंदिषेण नाम का बलभद्र उत्पन्न हुआ। इन दोनों की आयु छप्पन हजार वर्ष की थी, शरीर की ऊँचाई छब्बीस धनुष (२६²४·१०४ हाथ) की थी। किसी एक दिन इन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन ने अपनी पद्मावती नाम की पुत्री ‘पुण्डरीक’ नारायण के लिए प्रदान की। पहले भव में एक सुकेतु नाम का राजा था, जो कि अत्यंत अहंकारी, दुराचारी तथा पुण्डरीक का शत्रु था। क्रम से कुछ पुण्य के संचय से ‘निशुंभ’ नाम का राजा हुआ, उसने चक्ररत्न के द्वारा तीन खण्डों पर विजय प्राप्त कर अर्धचक्री पद प्राप्त कर लिया। जब उसने पुण्डरीक राजा के साथ पद्मावती के विवाह का समाचार सुना तो बहुत ही कुपित हुआ। उस निशुंभ प्रतिनारायण ने बहुत बड़ी सेना साथ लेकर पुण्डरीक के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। भयंकर युद्ध में उसने अपना चक्ररत्न पुण्डरीक राजा पर चला दिया। उस चक्ररत्न ने भी पुण्डरीक को अपना स्वामी बना लिया तभी पुण्डरीक ने निशुंभ अर्धचक्री का वध कर दिया और उसी क्षण ये देवों द्वारा भी मान्य नारायण एवं बलभद्र प्रसिद्ध हो गए। किसी समय भाई पुण्डरीक की मृत्यु से विरक्तमना हो, शिवघोष मुनि के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर शुद्ध परिणामों से घातिया कर्मों का नाश कर केवली हो गए। अनेक भव्यों को धर्मामृत का पान कराकर पुन: अघातिया कर्मों का भी नाश कर सिद्ध परमात्मा हो गए। ऐसे नंदिषेण बलभद्र सिद्ध भगवान हम सभी के मोक्षमार्ग को प्रशस्त करें, यही भावना है।