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06 सुदर्शनमेरु संबंधी सोलहवक्षारगिरि
July 31, 2024
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jambudweep
(पूजा नं.6)
सुदर्शनमेरु संबंधी सोलहवक्षारगिरि
जिनालय पूजा
—अथ स्थापना—शम्भुछन्द—
मेरु सुदर्शन के पूरब दिश, गिरि वक्षार बखाने हैं।
सीता नदि के उत्तर-दक्षिण चार-चार ये माने हैं।।
मेरू के पश्चिम विदेह में, आठ अचल वक्षार कहे।
सीतोदा के दक्षिण-उत्तर, चार-चार हैं शोभ रहे।।१।।
—दोहा—
सोलह गिरि वक्षार के, सोलह जिनगृह सिद्ध।
यहाँ थापना विधि करूँ, पूज वरूँ सुख सिद्ध।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरâसंबन्धिपूर्वापरविदेहस्थषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्ध-कूटजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरसंबन्धिपूर्वापरविदेहस्थषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्ध-कूटजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरसंबन्धिपूर्वापरविदेहस्थषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्ध-कूटजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अथाष्टक-त्रिभंगीछंद
(चाल-तीर्थंकर की धुनि गणधर….)
सीतानदि का जल, सुरभित उज्ज्वल, अमल भाव से मैं लाया।
भरि कंचन कलशा, जिनपद परसा, मन अति हरषा गुण गाया।।
वक्षार गिरी पर, सोलह जिन घर, जिनवर प्रतिमा चरण जजों।
प्रभु करुणासागर, सुख रत्नाकर, शरणागत तुअ शरण भजों।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-सर्वजिनबिम्बेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घनसार सुचंदन, षटपद गुंजन, दाह निकन्दन ले आया।
जिनवर पदवन्दन, समरस स्यंदन१,भव आक्रन्दन छुटवाया।।
वक्षार गिरी पर, सोलह जिन घर, जिनवर प्रतिमा चरण जजों।
प्रभु करुणासागर, सुख रत्नाकर, शरणागत तुअ शरण भजों।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से प्रक्षालित तंदुल सुरभित, शशिकर सदृश भरि लीना।
जिनवर पद सन्निध, पुंज समर्पित, धवल सौख्य हित मैं कीना।।वक्षार.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चम्पादिक सुमना, सुमनस प्रियना, सुरभी करना मैं लाया।
मधुकर गुंजारे, काम विडारे, जिनपद धारे हरषाया ।।वक्षार.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पायस घृत पूआ, फेनी खोवा, ताजे साजे थाल भरे।
जन घ्राण नयन मन, तर्पित व्यंजन, जिनवर सन्निध भेट करें।।वक्षार.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ले दीपक आला, गोघृत डाला, बत्ती ज्वाला ज्योति धरे।
जिनवर की आरति, नित अवतारत, आरत वारत ज्योति करे।।वक्षार.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ले धूप सुगंधित, पाप विखंडित, धूपायन में खेय दिया।
दश दिश महकाते, धूम उड़ाते, कर्म जलाते देख लिया।।वक्षार.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
दाडिम नारंगी, फल मोसम्बी, अनन्नास भी मैंं लाया।
जन मन को प्रियकर, मधुर सरस फल, प्रभु ढिग धर कर सुख पाया।।
वक्षार गिरी पर, सोलह जिन घर, जिनवर प्रतिमा चरण जजों।
प्रभु करूणासागर, सुख रत्नाकर, शरणागत तुअ शरण भजों।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन तंदुल, पुष्प चरूवर, दीप धूप फल ले लीना।
प्रभु अर्घ्य चढ़ाकर, पुण्य बढ़ाकर, पाप नशाकर सुख लीना।।वक्षार.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
सीता नदी सुनीर जिनपद पंकज धार दे।
वेग हरूँ भवपीर, शांतीधारा शांतिकर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
जिनवर पद अरविंद पूजत ही सुख सम्पदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
—दोहा—
प्रथम मेरु पूरब अपर, सोलहगिरि वक्षार।
पुष्पांजलि कर पूजते, नाशे विघ्न हजार।।१।।
इति षोडशवक्षारस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य—सवैया छन्द—
सीता नदि के उत्तर तट पर, भद्रसाल वेदी के पास।
‘चित्रकूट’ वक्षार स्वर्णमय, चार कूट से मंडित खास।।
नदी तरफ के सिद्धकूट पर, श्री जिनमंदिर बना विशाल।
जल फल आदिक अर्घ्य बनाकर, पूजन करूँ मिटे जग जाल।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वविदेहस्थसीतानद्युत्तरतटे चित्रकूटवक्षार-पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतानदि के उत्तर तट पर क्रम से ‘पद्मकूट’ वक्षार।
स्वर्णवर्णमय चार कूट युत, देव देवियाँ करें विहार ।।
नदी तरफ के सिद्धकूट पर श्री, जिनमंदिर बना विशाल।
जल फल आदिक अर्घ्य बनाकर, पूजन करूँ मिटे जग जाल।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वविदेहस्थसीतानद्युत्तरतटे पद्मकूटवक्षार-पर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नलिन कूट’ पर जैन भवन में, विद्याधर गण करें विहार।
श्री जिनमूर्ती निरख-निरख कर, तृप्त हुए मन हरष अपार।।नदी.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वविदेहस्थसीतानद्युत्तरतटे नलिनकूट-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एकशैल’ वक्षार मनोहर सुर वनितायें करें विनोद।
जिनगृह की मुनि करें वंदना, समरसमय मन भरें प्रमोद।।नदी.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वविदेहस्थसीतानद्युत्तरतटे एकशैलकूट-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतानदि के दक्षिण तट पर, देवारण्य वेदिका पास।
अचल ‘त्रिकूट’ चार कूटों युत, जिनगृह युत वक्षार सनाथ।।नदी.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वविदेहस्थसीतानदीदक्षिणतटे त्रिकूट-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रम से फिर ‘वैश्रवण’ कूट है, देव देवियों से भरपूर।
वापी वन उद्यान मनोहर, मुनिगण करें पाप को दूर।।नदी.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वविदेहस्थसीतानदीदक्षिणतटे वैश्रवणनाम- वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अंजनात्मा’ नाम धराता, गिरि वक्षार सदा शुभकार।
सुर विद्याधर गगन गमनचर, ऋषिगण को भी है सुखकार।।नदी.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटे अंजनात्मावक्षारपर्वत-स्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ ‘अंजन’ वक्षार आठवां, योगीजन करते नित ध्यान।
निज आतम परमानंदामृत, अनुभव कर हो रहे महान।।
नदी तरफ के सिद्धकूट पर, श्री जिनमंदिर बना विशाल।
जल फल आदिक अर्घ्य बनाकर, पूजन करूं मिटे जग जाल।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिसीतानदीदक्षिणतटे अंजनवक्षारपर्वतस्थित-सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शम्भु छन्द—
पश्चिम विदेह सीतोदा के, दक्षिण में भद्रसाल वेदी।
उस सन्निध ‘श्रद्धावान’ कहा, वक्षार कनकमय पर्वत ही।।
नदि के सन्निध है सिद्धकूट, उसमें शाश्वत चैत्यालय है।
जल गंधादिक से पूजूँ मैं, मेरे हित सौख्य सुधालय है।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटे श्रद्धावाननाम-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतोदा के दक्षिण तट पर, गिरि ‘विजटावान्’ कहाता है।
वक्षार सदा चउ कूटों युत, सुर नर सबके मन भाता है।।नदि के.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटे विजटावान-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आशीविष’ है वक्षार कहा, इनपे रत्नों की वेदी है।
परकोटे उपवन वापी से, जिनगृह से कर्मन भेदी है।।नदि के.११।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटे आशीविष-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वक्षार ‘सुखावह’ अति सुन्दर, सुरललना की क्रीड़ा भूमी।
यतिगण के विहरण से पावन, सबको आनंदकारी भूमी।।नदि के.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीदक्षिणतटे सुखा-वहवक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सीतोदा के उत्तर तट पर शुभ देवारण्य बनी वेदी।
तसु सन्निध ‘चन्द्रमाल’ पर्वत, जन मन का मोह तिमिर भेदी।।
नदि के सन्निध है सिद्धकूट, उसमें शाश्वत चैत्यालय है।
जल गंधादिक से पूजूँ मैं, मेरे हित सौख्य सुधालय है।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटे चंद्रमाल-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वक्षार मनोहर ‘सूर्यमाल’, रत्नों के भवन सुहाते हैं।
सुरललनाओें की वीणा के तारों से जिन गुण गाते हैं।।नदि के.।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटे सूर्यमाल-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर ‘नागमाल’ वक्षार अचल, अनुपम कांती छिटकाता है।
जिनवर के दर्शन करते ही, सबके अघपुंज नशाता है।।नदि के.।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटे नागमाल-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वक्षार सोलवां ‘देवमाल’, रत्नों की कांति लजाता है।
जिनदेवदेव के गृह में नित, देवों का नृत्य कराता है।।नदि के.१६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपश्चिमविदेहस्थसीतोदानदीउत्तरतटे देवमाल-वक्षारपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-मद-अवलिप्तकपोलछन्द
सोलह गिरि वक्षार उन्हों पर सोलह मन्दिर।
वर सामग्री लाय सतत ही जजें पुरंदर।।
मैं इह पूजूँ भक्ति भाव से अर्घ्य चढ़ाऊँ।
आधि व्याधि भय शोक नाश निज सम्पति पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वापरविदेहस्थषोडशवक्षारपर्वतस्थितसिद्ध-कूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—
ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जयमाला
—गीताछन्द—
वक्षार कांचन वर्ण शुभ प्रत्येक पर चउ कूट हैं।
प्रत्येक में जिनभवन अनुपम, शेष त्रय पे सुर रहें।।
ये अचल विस्तृत पांच सौ योजन उदधि तक लम्ब हैं।
कुल अद्रि तक चउ शतक योजन नदि निकट शतपंच हैं।।१।।
—स्रग्विणी छन्द—
जै महामेरु के सोल वक्षार ते।
जै अनादि अनन्ते सदा राजते।।
जै उन्हों पे विराजे जिनेशालया।
जै वहां जैनमूर्ती सुसौख्यालया।।२।।
एक सौ आठ मूर्ती सुप्रत्येक में।
सर्वदा पूजते देव देवी उन्हें।।
कोई तीर्थेश की कीर्ति गाते वहाँ।
कोई धर्मी गुणों को गिनाते वहाँ।।३।।
रत्नमूर्ती मनो मोहनी सोहनी।
सर्व कर्मारिसेना हनी सो घनी।।
देव पूजें बड़ी भक्ति से आय के।
द्रव्य अर्पें सदा स्वर्ग से लाय के।।४।।
जो तुम्हें नाथ पूजें स्व पूजा लहें।
जो तुम्हें माथ नावें नमें सब उन्हें।।
जो तुम्हारे गुणों को सदा गावते।
कीर्ति उनकी सदा देवगण गावते।।५।।
जो तुम्हारे निकट नृत्यते भाव से।
इन्द्र ताकी सभा में नचें चाव से।।
जो तुम्हें चंवर ढोरे बड़े चाव से।इन्द्र ढोरे सदा चामरे तास के।।६।।
जो धरे शीश पे छत्र थारे प्रभो।
इन्द्र धारें सदा छत्र तापे विभो।।
जो बजावें मृदंगी धुनी झिल्लरी।
इन्द्र बाजे बजावें सदा ता घरी।।७।।
मैं बड़े पुण्य से नाथ पायो तुम्हें।
धन्य है धन्य है या घड़ी धन्य मैं।।
पूजता हूं बड़ी भक्ति श्रद्धा धरे।
केवलज्ञान की नाथ आशा धरे।।८।।
—दोहा—
कनकवर्ण वक्षार की, पूजा रची रसाल।
शाश्वत श्री जिनबिंब को, नितप्रति नाऊँ भाल।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शनमेरुसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थषोडशवक्षारपर्वतस्थित-सिद्धकूटजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
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