-अथ स्थापना (गीता छंद)-
वर पूर्व धातकिखण्ड में, जो पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें सदा विहरें जिनेश्वर, चार शिव परमेश हैं।।
उन कर्मभूमी में सदा, जिनधर्म अमृत बरसता।
मैं पूजहूँ आह्वान कर, निज आत्म अनुभव छलकता।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभ-
ऋषभाननअनंतवीर्यतीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभ-
ऋषभाननअनंतवीर्यतीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभ-
ऋषभाननअनंतवीर्यतीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं स्थापनं ।
-अथ अष्टक (शेर छंद )-
हे नाथ! आप पाद में त्रय धार मैं करूँ।
निज चित्त ताप शांति हेतु आश मैं धरूँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य:जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप चर्ण में चंदन विलेपते।
संपूर्ण ताप नष्ट हो निज तत्त्व लोकते।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य:संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप अग्र शालि पुञ्ज चढ़ाऊँ ।
अक्षय अखण्ड सौख्य हेतु आश लगाऊँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतंं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप चर्ण पुष्पमाल चढ़ाऊँ।
संपूर्ण सौख्य पाय देह कांति बढ़ाऊँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप सामने नैवेद्य चढ़ाऊँ।
उदराग्नि को प्रशमित करूँ निज शक्ति बढ़ाऊँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! दीप लेय आप आरती करूँ।
अज्ञान तिमिर नाश ज्ञानभारती भरूँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप भक्ति से सम्यक्त्व को पाऊँ।
वर धूपघट में धूप खेय कर्म जलाऊँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! श्रेष्ठ फल चढ़ाय अर्चना करूँ।
चारित्र लब्धि पाय दु:ख रंच ना भरूँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ!अर्घ्य लेय रजत पुष्प मिलाऊँ।
निजात्म तत्त्व प्राप्ति हेतु अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
तीर्थंकरों के पादकमल चित्त में धरूँ।
अनिष्ट के संयोगजन्य दु:ख को हरूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
नाथ पाद पंकेज, जल से त्रय धारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पाञ्जलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुखलाभ, जिन पद पंकज पूजते।।११।।
-दोहा-
समवसरण में राजते, तीर्थंकर परमेश।
पुष्पाञ्जलि कर पूजते, नशें सर्वमन क्लेश।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
श्री संजातक तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—नरेंद्र छंद—
पूर्व धातकी विदेह पूरब, सीतानदि उत्तर में।
अलकापुरि में देवसेन पितु , मातु देवसेना के।।
गर्भ बसे श्री संजातक प्रभु,सुरपति सुरगण पूजें।
पुनर्जन्म के नाश हेतु हम, गर्भकल्याणक पूजें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संजातकतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदि देवियों पूजित माँ से, जन्म लिया तीर्थेश्वर।
सुरपति जिन बालक को लेकर, बैठे ऐरावत पर।।
सुरगिरि पहुँचे जन्म महोत्सव,किया इंद्रगण मिलकर।
जन्मकल्याणक मैं नित पूजूँ ,मिले जनम अविनश्वर।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संजातकतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रवी चिन्हयुत प्रभु विरक्त जब, इंद्र सभी मिल आये।
मणिमय रत्न पालकी में तब, प्रभुवर को बैठाये।।
मनहारी उद्यान पहुँच कर ,प्रभु ने जिनदीक्षा ली।
दीक्षाकल्याणक जजते ही,मिले स्वात्मगुण शैली।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संजातकतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुत काल तक तपश्चरण कर, दीक्षा वन में पहुँचे।
शुक्लध्यान में लीन प्रभू तब, केवल रवि बन चमके।।
धनपति समवसरण रच करके, ज्ञानकल्याणक पूजें।
गंधकुटी में संजातक प्रभु,पूजत भव से छूटें।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संजातकतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संप्रति केवलज्ञानी जिनवर, शिवरमणी पायेंगे।
मृत्यु नाश मृत्युञ्जय होकर, सिद्धालय जायेंगे।।
इंद्र सभी प्रभु मोक्षकल्याणक,पूजेंगे भक्ती से।
मैं भी पूजूँ मोक्षकल्याणक ,नशें कर्म युक्ती से।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संजातकतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य (दोहा)—
श्री संजातक नाथ हैं, पंचकल्याणक नाथ।
मैं अनाथ भक्ती करूँ , मुझको करो सनाथ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री संजातकतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—चौबोल छंद—
विजय मेरु पूरब विदेह में, सीता नदि दक्षिण तट में।
विजया नगरी मित्रभूति पितु , सुमंगला माँ आँगन में।।
रत्न बरसते धनपति द्वारा, इंद्रों ने तब आकर के।
गर्भमहोत्सव किया मुदित हो, हम भी पूजें रुचि धरके।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वयंप्रभतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य स्वयंप्रभ तीर्थंकर ने, पृथ्वी पर जब जन्म लिया।
इंद्राणी माँ के प्रसूतिगृह ,जाकर शिशु का दर्श किया।।
सौधर्मेंद्र प्रभू को लेकर, रूप देख नहिं तृप्त हुआ।
नेत्र हजार बनाकर निरखे, जन्मोत्सव कर मुदित हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वयंप्रभतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्र चिन्हयुत प्रभु विरक्त हो,अनुप्रेक्षा चिंतें मन में।
रत्नखचित पालकी सजाकर, इंद्र सभी आये क्षण में।।
श्रेष्ठ मनोहर वन में पहुँचे, प्रभु ने दीक्षा स्वयं लिया।
मनपर्ययज्ञानी ध्यानी को, जजत मिले वैराग्य प्रिया।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वयंप्रभतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मौन सहित प्रभु तपश्चरण कर, ध्यानलीन तिष्ठे उत्तम।
शुक्लध्यान से घात घातिया, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियाँ जिनगुण गायें।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वयंप्रभतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संप्रति जिनवर समवसरण में, भव्यों को संबोध रहे।
सर्व कर्म हन शिव पायेंगे, उन वंदत शिवसौख्य लहें।।
इंद्र असंख्यों देव देवियों , सहित नित्य वंदन करते।
गणधर वंदित मोक्षकल्याणक,पूजत निज संपति भरते।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वयंप्रभतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
नाथ स्वयंप्रभ विश्व में, शत इंद्रों से वंद्य।
नमूँ नमूँ मैं भक्ति से, मिटे सर्वदुख द्वंद्व।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री स्वयंप्रभतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य:पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री ऋषभानन तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—गीता छंद—
वर धातकी पश्चिम विदेहे, नदी सीतोदा तटे।
नगरी सुसीमा पिता नृपकीर्ती प्रजापालक कहें।।
माँ वीरसेना गर्भ में, आये प्रभू त्रिभुवनपती।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, पूजत मिले अनुपम गती।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभाननतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृगपती चिन्ह समेत तीर्थंकर,प्रभू शुभ योग में।
जन्में उसी क्षण सर्व बाजे, बज उठे सुरलोक में।।
तिहुँ लोक में भी हर्ष छाया, तीर्थकर महिमा महा।
सुरशैल पर जन्माभिषव को, देखते ऋषिगण वहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभाननतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किंचित् निमित को प्राप्त कर, वैराग्य उपजा नाथ को।
देवर्षिगण आये वहाँ, संस्तव किया अति मुदित हो।।
पालकी मणिमय में बिठा, उद्यान सुंदर ले गये।
स्वयमेव दीक्षा ली प्रभो, त्रैलोक्य में वंदित हुए।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभाननतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश ऋषभानन प्रभू , वैवल्य लक्ष्मीपति हुये।
धनदेव कृत द्वादश सभा के , नाथ कमलापति हुये।।
अनुपम समवसृति मध्य में, तीर्थेश प्रभु राजें वहाँ।
द्वादश गणों के भव्य जिनध्वनि, सुनें अति प्रमुदित वहाँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभाननतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवान जब् शिव जायेंगे, तब जायेंगे फिरभी यहाँ।
उन भक्तगण प्रभु पूजकर, निज संपदा पाते अहा।।
प्रभु भक्ति भवदधितारणी,भवदु:ख संकटहारिणी।
संपूर्ण सौख्यप्रदायिनी, मैं जजूँ आनंदकारिणी।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभाननतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री ऋषभानन तीर्थकर, पंचकल्याणक ईश।
परम सिद्ध पद हेतु मैं, नमूँ नमाकर शीश।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभाननतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्र्घ्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।श्री अनंतवीर्य तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—रोला छंद—
पूर्व धातकी खण्ड, अपर विदेह नदी तट।
पुरी अयोध्या वंद्य, पिता मेघरथ सुरनुत।।
मात मंगला स्वप्न, अवलोकें हर्षित मन।
रत्नवृष्टि धनराज, करते थे प्रमुदित मन।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म लिया भगवान, इंद्र महोत्सव कीया।
हस्ति चिन्ह अमलान, त्रिभुवन आनंद लीया।।
पूजूँ भक्ति समेत, अनंतवीर्य भगवंता।
परमामृत सुख हेतु , नमूँ नमूँ शिवकांता।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु विरक्ति मन लाय, द्वादश भावन भायी।
लौकान्तिक सुर आय, चरण जजें शिर नाई ।।
इंद्र सुरासुर आय, तपकल्याण मनाया ।
पूजूँ मन हर्षाय, मिले जिनेश्वर छाया।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घोर तपस्या धार, घाति कर्म को नाशा।
केवल रवि प्रगटाय, सकल जगत परकाशा।।
समवसरण के ईश, दिव्यध्वनी के स्वामी ।
नमूँ नमूँ नत शीश,तुम हो अन्तर्यामी।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल कर्म को नाश, प्राप्त करेंगे शिव को।
सकल काल विश्राम, पावेंगे निजसुख को।।
तीर्थंकर भगवान, सिद्धिरमा के स्वामी।
जजत मिले भव अंत, बनूँ स्वात्म विश्रामी।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य (दोहा)—
तीर्थंकर पद कंज को, पंचम गति के हेतु ।
नमूँ नमूँ नत शीश मैं, मिले भवोदधि सेतु ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतवीर्यतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य (दोहा)—
संजातक अरु स्वयंप्रभ, ऋषभानन जिनराज।
जिनवर अनंतवीर्य को, जजत सरें सब काज।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकादि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
—दोहा—
वैभव अतुल अनंतयुत, समवसरण अभिराम।
रत्नत्रय निधि हेतु मैं, शत शत करूँ प्रणाम।।१।।
—शेर छंद—
हे नाथ! आप तीन लोक में महान हो।
हे नाथ! आप सर्व सौख्य के निधान हो ।।
मैं बार बार आप चरण वंदना करूँ।
सम्यक्त्व रत्न हेतु नाथ अर्चना करूँ।।२।।
हे नाथ! आप भक्ति से संपूर्ण दुख टरें।
हे नाथ! आप भक्ति रोग शोक को हरे।।
हे नाथ! आप भक्ति से सब आपदा टलें।
हे नाथ! आप भक्त को सब संपदा मिलें।।३।।
तुम भक्त को कभी भी इष्ट का वियोग ना।
तुम भक्त को कभी अनिष्ट का संयोग ना।।
तुम भक्त के संपूर्ण अमंगल विनश्यते।
तुम भक्त को सर्पादि जंतु डस नहीं सकें।।४।।
गज सिंह व्याघ्र क्रूर जंतु शांतचित बनें।
तुम भक्ति के प्रभाव शत्रु मित्रसम बनें।।
तुम भक्ति के प्रभाव ईति भीतियाँ टलें।
तुम भक्ति से व्यंतर पिशाच भूत भी टलें।।५।।
हे नाथ! आप पाय मैं निहाल हो गया।
सम्यक्त्व रत्न से ही मालामाल हो गया।।
मैं आप सदृश सिद्ध हूँ चिन्मूर्ति आतमा।
बस आप भक्ति से ही बना अंतरात्मा।।६।।
परमात्मा बन जाऊँ नाथ! शक्ति दीजिये।
चारित्र लब्धि पूर्ण करूँ युक्ति दीजिये।।
अपने ही चरण में प्रभो स्थान दीजिये।
सज्ज्ञानमती संपदा का दान दीजिये।।७।।
दोहा— नाथ!आपकी भक्ति से, भक्त बनें भगवान।
पुन: अनंतों काल तक, रहें पूर्ण धनवान।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थसंजातकस्वयंप्रभ-
ऋषभाननअनंतवीर्यनामविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
जो विहरमाण जिनेंद्र बीसों का सदा अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोगकर फिर सर्व कल्याणक धरें।
स्वयमेव केवल ‘‘ ज्ञानमति ’’ हो मुक्ति लक्ष्मी वश करें ।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।