नियमासार की स्याद्वाद चन्द्रिका संस्कृत टीका की रचयित्री पू० गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माता जी भारत एवं विषेश तौर से दि० जैन समाज की अनुपम निधि हैं। वे पूर्व जन्म से ही अत्यन्त पुण्यात्मा है। आपका जन्म “शारद पूर्णिमा के दिन संवत् 1991 की विक्रमी (22 अक्टूवर 1934) को टिकैत नगर जि० बाराबंकी (उ०प्र०) में हुआ था। पूर्णिमा पूर्णता की प्रतीक है। इसकी सार्थकता माता जी के पूर्ण संयम के रूप में दृष्यमान है। आपके पिता श्रेश्ठी श्री छोटे लाल जी और मातु श्री मोहनी देवी इस कन्या रत्न के जन्म से गौरवान्वित हो गये थे। ऐसा ज्ञात होता है कि भ० ऋशभदेव की पु़ित्रयों ब्राह्मी एवं सुन्दरी के संयुक्त गुणों ने मिलकर मैना के रूप में अवतार लिया है। पूर्व जन्मों की त्यागतपस्या एवं धार्मिक संस्कारां से पवित्र इस बालिका में नैसर्गिक रूप से ही अध्यात्म के प्रति उत्कृश्ट रूचि थी। ये माँ की प्रथम संतान थी। इनके आठ बहिनें एवं चार भाइयां का संयोग हुआ। पूरा परिवार धर्म में आस्थावान है।
आपकी माँ अत्यन्त धर्म परायण महिला थी। बाल्यावस्था से ही मैना स्वाध्याय में रुचिवान थीं। पद्यनन्दि पचविषंतिका के स्वाघ्याय से इनके भावी गौरवमय, अध्यात्मिक, संयम एवं त्यागमय जीवन की पृश्ठभूमि निर्मित हुई। इनके हृदय में आजन्म की भावना बलवती हो गयी थी। लौकिक षिक्षा अत्यन्त अल्प होने पर भी इनका विवेक और ज्ञान अत्यन्त गरिश्ठ था। आ० देषभूशण महाराज से आपने 18 वर्श की आयु में सप्तम प्रतिमा रूप ब्रह्मचर्य व्रत धारणकर जीवन के स्वर्ण युग का सूत्रपात किया। यह बींसवी “शाताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी साध्वी के रूप में विख्यात हुईं। इन्होंने संघ मे रहना स्वीकार किया। पष्चात् इसी वर्श वि० सं० 2009 ई० सन् 1953 में आपने श्री महावीर जी में संघ के इन्ही आचार्य श्री से क्षुल्लिका वीरमती के रूप में दीक्षा ग्रहण की। 2 वर्श तक संघ में रहकर ज्ञानार्जन किया। कातन्त्र व्याकरण का अध्ययन मात्र दो माह में पूर्ण किया। तत्पष्चात् कुन्थलगिरी में चारित्र चक्रवर्ती आ० श्री “शान्तिसागर जी महाराज के दर्षन का सुअवसर प्राप्त हुआ। आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के दर्षन एवं संघ में निवास का योग मिला। वैराग्य दृढ़ होता गया। मोक्ष मार्ग में आगे गति हुई और विक्रम संवत 2013 में वैषाख बंदी 2 के “कुभ दिन माधौपुरा राजस्थान में अपने आचार्य “शान्तिसागर जी महाराज के पट्टाधीष आचार्य वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की और आर्यिका ज्ञानमती नाम से विभूशित हुई। बीस वर्श की आयु से ही आप लेखन कला में निपुण हुईं। तभी आपने प्रथम कृति जिन सहस्रनाम स्तोत्र की रचना कर विषाल साहित्य-सृजन का श्री गणेष किया।
त्याग-तपस्या के प्रभाव से आपके ज्ञानावरण कर्म का विषेश क्षयोपषम होने लगा था। प० पू० आचार्य वीरसागर जी की समाधि के पष्चात् आप उनके षिश्य आचार्य श्री षिव सागर जी के संघ में रत्नत्रय के विकास में संलग्न रहीं। संघस्थ साधु-साध्वियों को षिक्षा प्रदान करना, योग्य व्यक्तियो कों मोक्ष मार्ग में प्रेरित करना व उन्हें दीक्षा दिलवाना ये दोनों आपके प्रमुख कार्य थे। वात्सल्य इनके हृदय में प्रारम्भ से ही परिपूर्ण रूप से भरा हुआ था। तदन्तर आपने आ० श्री से आज्ञा लेकर चार आर्यिका व एक झुल्लिका वर्ग के साथ सम्मेदशिखर जी हेतु विहार किया। देष भर में तीर्थ दर्षन करते हुए आप सन् 1965 में श्रवण बेलगोला में भ० गोम्मटेष्वर बाहुबली की वन्दनार्थ पधारी। 15 दिन के प्रवास में उन्हें जम्बूद्वीप रचना का पावन संकल्प उदित हुआ। पाँच वर्श भारत-भम्रण के पष्चात् पुनः आप आचार्य संध में आ गईं। आ० षिवसागर जी की समाधि के पष्चात् आचार्य धर्मसागर जी पट्टाधीष आचार्य पद पर आसीन हुए। पू० माता जी भी इन्हीं के सानिध्य में धर्माराधना एवं संघ को ज्ञान प्रदान करती रहीं। अश्टसहस्री, कातन्त्र व्याकरण, राजवार्त्तिक जैसे अति क्लिश्ट ग्रन्थों का अध्ययन कराने में रूचिवान एवं साधिकार रूप में निपुणता को प्राप्त थीं। ज्ञान. ध्यान-तप में सदेव लीन रहकर वे साधु पद को सुषोभित कर रहीं थी। सन् 1972 में आप आर्यिका संध के साथ दिल्ली पधारीं। वहाँ पहाड़ी धीरज धर्मषाला में आपने दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान नामक जैन भूगोल विशयक संस्था की स्थापना कराई ताकि जम्बूद्वीप रचना का स्वप्न साकार किया जा सके। भ० महावीर 2500 वे निर्वाण महोत्सव के अवसर पर दिल्ली में आ० धर्मसागर महाराज के साथ समारोह सम्पन्न कर आप हस्तिनापुर तीर्थ के दर्षनार्थ पधारीं। वहाँ प्रेरणा करके वन्य क्षेत्र में ब्र० मोतीचन्द्र, सुकुमार चन्द तथा दिल्ली के प्रमुख लोगों द्वारा सुमेरु पर्वत की आधारषिला स्थापित कराई। यहीं से जम्बूद्वीप रचना का “शुभारम्भ हुआ। आ० धर्मसागर महाराज का भी संघ हस्तिनापुर पदार्पण हुआ। उन्होंने माता जी को हस्तिनापुर में ही रहकर अपने निर्देषन में जम्बूदीप रचना पूर्ण कराने का आदेष प्रदान कर सहारनपुर प्रस्थान किया। सन् 1975 से माता जी की कर्मस्थली हस्तिनापुर बन गई। प्राचीन मंदिर के निकटवर्ती धर्मषाला में रहकर अपने विद्वानों के षिविर का आयोजन प्रारम्भ कराया। उन्हें अनेकान्त शैली में प्रवचन का अभ्यास कराया। पं० बाबूलाल जमादार जी ने अपना पूर्ण सक्रिय सहयोग दिया। इधर माता जी का ग्रन्थ लेखन भी निर्बाध गति से चालू रहा।
जम्बूद्वीप में कुछ कमरो के निर्माण के पष्चात् भ० महावीर कमल मन्दिर की प्रतिश्ठा सन् 1979 में, अतिषय धवल एवं उत्तुंग सुमेरु की प्रतिश्ठा 1985 में, जिनबिम्बों की प्रतिश्ठा सन् 1987 में, भ० पाष्र्वनाथ पंच कल्याणक प्रतिश्ठा तथा 1990 में जम्बूद्वीप महामहोत्सव सम्पन्न हुए। इन महोत्सवां में राश्ट्रीय गरिमा के साथ महती धर्म प्रभावना हुई। यह सब पू० माता जी की कर्मठता एवं पावन आर्षीवाद का परिणाम है। यद्यपि इस अवधि में माता जी असाध्य रूप से रूग्ण भी हुईं, पुनर्जीवन सा हुआ तथापि साहित्य लेखन आदि कार्य सम्पन्न होते रहे। सन् 1976 से मुझे माता जी के दर्षन एवं मार्गदर्षन प्राप्त करने का अवसर मिलता रहा है विभिन्न षिविरों में माता जी द्वारा दिये गये उद्बोधन आज भी मानस पटल पर अंकित हैं। आपने लेखन, प्रवचन, अध्ययन कार्यों हेतु सदैव प्रेरित किया है। जम्बूद्वीप में दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान के माध्यम से अद्यावधि विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम संपन्न किये जाते है। यहाँ विभिन्न श्रेश्ठ साहित्य का प्रकाषन, सम्यज्ञान मासिक का प्रकाषन, आ० वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ, विभिन्न षिविर एवं संगोश्ठियाँ, भूगोल एवं गणितीय विशयों पर शोध कार्य हस्तिनापुर क्षेत्र में जन कल्याण कार्य, धार्मिक, मोक्ष मार्गीय चेतना का प्रसारण, विधान पूजन और प्रभावना के कार्र्य सम्पन्न होते हैं। ज्ञान ज्योति भ्रमण एवं भ० ऋशभदेव श्री विहार भी माता जी प्रेरणा से सफल हुए हैं। राश्ट्रीय स्तर पर जैन धर्म प्रचार में आप अग्रगणयों में है। जम्बूद्धीप महामहोत्सव के पष्चात् आपने पुनः देष में विहार किया। श्री अयोध्या जी क्षेत्र का पुनरुद्धार, मांगीतुगी सिद्धक्षेत्र का विकास आदि प्रमुख कार्यों में आपका नाम सदैव स्मृत रहेगा। इस वर्श का (98) चातुर्मास संघ सहित हस्तिनापुर में सम्पन्न हुआ। वे गणिनी पद को सार्थक रूप से सुषोभित कर रही हैं।
पू० माता जी प्रखर प्रज्ञा पुज हैं। बचपन से ही उनकी रुचि अभीक्ष्ण ज्ञानापयोग की रही है। प्रारम्भ से ही भोगों से वैराग्य उनके रोम-रोम में बसा हुआ है। थोड़ा सा भी निमित्त जब मिला उनकी उपादान “शाक्ति तत्परता से जागृत हुई है। वे शाल, वात्सल्य, सूझ-बूझ एवं प्रभावना की प्रतिमूर्त्ति हैं। वे मानव ही क्या, साधुपद के अनुरूप ही प्राणिमात्र के हित-चिन्तन और सम्पादन की अभ्यस्त हैं। दृढ़ता उनका स्वभाव है। ऊपर जो कार्य वर्णित किये गये है उनमें अनेकों बाधायें आई पर वे विचलित नही हुईं । एतद्विशयक उनकी उत्तमता निम्न पंक्तियों में सार्थक रूप से प्र्रकट होती है,
प्रारम्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारभ्य चोत्तम जनाः न परित्यजन्ति।। भर्तृहरि नीति।
उनका हृदय विषाल है, सामाजिक एकता और धर्म प्रभावना उनका मुख्य लक्षण है। किसी भी प्रकार की आगम और परम्परा सम्मत पूजा पद्धति विशयक विवाद से वे दूर रहती हैं। अपनी पद्धति दूसरों पर थोपने का उनका स्वभाव नहीं है। स्वयं अपने आवष्यकों का पालन करते हुए अन्यों के पालन में वे बाधा नहीं बनतीं। उनका व्यक्तित्व विषाल है। वे श्रेश्ठ माँ, वात्सल्यमयी माँ के रूप में सदैव समादृत हैं। वे निर्भय रहती हैं। सम्यक्त्व के प्रभाव से उनका यह पक्का विष्वास है कि जो कर्म का अषुभ उदय हो उसे सदैव स्वीकार कर समता से भोग लेना चाहिए ताकि पुनर्बन्ध से बचा जा सके। सारे देष में पद यात्रा कर वे अनुभव की धनी बनीं हैं। वे देव – शास्त्र – गुरु की अनन्य भक्त हैं। देव – भक्ति के विशय में उनकी प्रेरणा से बने या उद्धार को प्राप्त जिनालय और तीर्थ स्थान इसके प्रमाण हैं। वे आगमनिश्ठ हैं। आगम से हटकर कोई मत उन्हें स्वीकार नहीं है। आर्शमार्ग से प्रभावित, तप-संयम से विभूशित उनका व्यक्तित्व स्पृहणीय है। वे कर्मठता की प्रतिमूर्ति हैं। वे प्रभावना में आ० समन्तभद्र एवं अकलंक की अनुयायी तथा दिगम्बरत्व के स्थिरीकरण में कुन्द-कुन्द की अनुसारिणी हैं। एकाधिक बार गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने पर भी अपने उद्देष्य में सदैव सावधान रहकर कर्मषील रही हैं। वे जिनवाणी माँ की सेवा में निरन्तर लीन रहती हैं। वे प्रवचन पटु हैं। लेखन कार्य में अद्वितीय है। दो सौ से अधिक ग्रन्थ लेखन उनके अनवरत श्रम का प्रमाण है। अश्ट सहस्री का हिन्दी अनुवाद उनके अगाध दार्षनिक ज्ञान को सूचित करता है। गौतम गणधर और कुन्दकुन्द को वे सदैव हृदय में विराजमान रखती हैं। वे सदगुणों की भंडार हैं। पूज्य माता जी प्रत्येक कार्य को भलीभांति विचार विमर्ष करके ही करतीं हैं। इसलिए उन्हें अभीश्ट सफलता प्राप्त होती है। यह उक्ति उन पर सम्यक् चरितार्थ होती है,
सहसा विदधीत न क्रियां अविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृष्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।।
उनका स्वभाव मधुर, कोमल, सौम्य और प्रसादयुक्त है। उनका सबसे मैत्री भाव है, जो कि त्यागी वर्ग का सर्वश्रेश्ठ गुण है। वे सबका हित सम्पादन करती हैं गुणी जनों से प्रेम, विद्वानों पर वात्सल्य एवं हर्शमय व्यवहार उनके सहज पलता है। विपरीत स्वभावी जनों से वे सदैव मध्यस्थ रहती हैं। वर्तमान में प्रचलित निष्चय-एकांत का वे नाम देकर कभी खण्डन नहीं करती प्रत्युत आगम सिद्धान्त को प्रस्तुत कर विरोधियों को भी “शालीन पद्धति से समझाती हैं। उनके वाचन या लेखन में कहीं भी कटुता पूर्ण “शब्द प्रयोग नहीं पाया जाता दुःखी जीवों पर करुणा भाव से परिपूर्ण हैं। उनके सर्वतोभद्र एवं प्रखर व्यक्तित्व के विशय में कविवर “र्मनलाल ‘सरस’ की निम्न पक्तियाँ बरबस ध्यान आकर्शित कर लेती हैं।
है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती नारी की कला निराली है।
सच पूछो नारी के कारण यह धरती गौरव“शाली है।
अब सुने आप यह वह गाथा जो पग पग हमें बताती है।
तप-त्याग तपस्या में नारी कितनी आगे बढ़ जाती है।
जिसके अभिनन्दन से होता अभिनन्दन का अभिनन्दन है।
उस महा आर्यिका माता का किस तरह करें हम वन्दन है।
(उद्धृत आ० ज्ञानमती अभिनन्दन ग्रन्थ)
आ० वीरसागर महाराज ने उनका नामकरण सार्थक ही किया था। वे ज्ञान की अनपुम भण्डार हैं। एक अर्थ में वे ज्ञान युक्त अर्थात् अज्ञान से रहित हैं तथा दूसरे अर्थ में उनकी बुद्धि ज्ञान में तत्पर रहती है। ज्ञानापयोग की सभी विधाओं में उनका नाम सर्वापरि सूची में है।
ज्ञानमती माता जी का प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी भाशाओं तथा व्याकरण, छन्द, अलंकार, न्याय आदि विशयों पर पूर्ण अधिकार हैं वे संस्कृत भाशा में धाराप्रवाह लेखनी चलाने में समर्थ हैं। यही कारण है कि उनकी पावन लेखनी से मौलिक ग्रन्थ टीका, अनुवाद, काव्य, उपन्यास, नाटक, कहानी, बाल साहित्य, षिक्षण प्रषिक्षणात्मक साहित्य एवं पूजन-पाठविधान के रुप में चतुरनुयोगी श्रेश्ठ साहित्य की रचना हुई है। स्तोत्र एवं छन्द (पिंगल) अलंकार के तो वत्र्तमान युग का अद्वितीय काव्य लेखन आपकेे ज्ञान गौरव को द्विगुणित कर रहा है। वे प्रकाण्ड वैदुश्य की प्रतिमूर्ति हैं। कुल 200 के लगभग ग्रन्थों की रचना कर अपने मानदण्ड स्थापित किया। यहाँ दो-चार नाम निम्नलिखित हैं। अश्टसहस्री, स्याद्वाद चिन्तामणि टीका, नियमसार स्याद्वाद चन्द्रिका टीका एवं आ० पप्रभमलधारी देव कृत टीका का हिन्दी अनुवाद व पद्यानुवाद, दिगम्बर मुनि, समयसार टीका, आराधना, जिन स्तोत्र संग्रह, मुनिचर्या, जैन भूगोल, प्रवचन निर्देषिका, ज्ञानामृत, जन्बूद्वीप, त्रिलोक भास्कर, कल्पद्रुम विधान, मेरी स्मृतियाँ, जैनभारती आदि। ‘ खण्डागम संस्कृत टीका भी महत्वपूर्ण है। पू० माता जी ने सन् 1965 से लेखन कार्य प्रारम्भ किया सन् 1989 तक वे 170 ग्रन्थों की रचना कर चुकी थी। यहाँ डा० नन्दलाल जैन रीवाँ द्वारा दिया गया ग्रन्थ विशयक वर्णन प्रस्तुत करना अनुचित न होगा। यह निम्न प्रकार है।
आ० समन्तभद्र स्वामी ने देवागम स्तोत्र अपरनाम अप्तमीमांसा की रचना 114 “लोकों में की थी। यह वर्तमान में उपलब्ध न्याय का मूल ग्रन्थ माना जा सकता है। इस पर सातवीं “शाताब्दी में आ० भट्टाकलंकदेव ने 800 “लोंको में अश्टषती नाम के ग्रन्थ की रचना की। तत्पष्चात् आ० विद्यानन्दि ने उस पर 8 हजार “लोंको प्रमाण अश्ट सहस्री टीका का प्रणयन किया। यह न्याय विद्या का अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें मिथ्या एकान्तों का टीका में खण्डन कर अनेकान्त की सिद्धि की गई है। स्वसमय-पर समय का विस्तृत विवेचन है। इस महान ग्रन्थ पर हिन्दी टीका न होने के कारण पठन-पाठन में बड़ी असुविधा होती थी। कश्ट सहस्री नाम से विख्यात इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद के साथ पू० माता जी ने 445 “शार्शक, 317 भावार्थ ओर 61 सारांषों सहित टीका करके एक कीर्त्तिमान स्थापित किया है। यह बहुमूल्य कृति तीन खण्डों में 1474 पृश्ठों में प्रकाषित हुआ है। इसे स्याद्ववाद् चिन्तामणि टीका संज्ञा प्रदान की गई है। वस्तुतः अश्ट सहस्री जैसे दुरूह एवं जटिल तर्क ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करना लोहे के चने चबाना है। माता जी ने 1 बर्श में ही कर दिखाया । वे अत्यन्त साधुवाद की पात्र हैं।
मूलाचार को आ० कुन्दकुन्द की कृति मानकर माता जी ने बड़ी मनोहारी एवं सुस्पश्ट टीका की है। यह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाषित है। समयसार पूर्वाद्र्ध :- यह माता जी द्वारा ज्ञान ज्योति नाम से रचित टीका है।
अट्खण्डागम टीका :- यद्यपि ‘अट्खण्डागम मूल सूत्रग्रन्थ जो कि प्रथम लिपि बद्ध “शास्त्र है, पर पहले से ही आ० वीरसेन स्वामी कृत धवला नाम की विख्यात टीका है परन्तु इसमें भी अपेक्षित विशयों पर पू० ज्ञानमती जी को अतिरिक्त स्पश्टीकरण एवं विषद व्याख्या की आवष्यकता का अनुभव हुआ। इसी हेतु उन्होंने अपने संस्कृत भाशा ज्ञान के प्रयोग स्वरूप संस्कृत में ही विषेश टीका सरल रूप में लिखी है। उन्होंने कहा कि इस ग्रन्थ की टीका (धवला) टीका के अंषों को यथा स्थान-निकाल कर प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा नाम के प्रकरण की सरल टीका मेरे द्वारा लिखी जा रही है।1 इसका नाम उन्होंने ग्रन्थ के अनुरूप सिद्धान्त चिन्तामणि टीका रखा है। यह अवष्य पठनीय है। कातन्त्र :- इसकी हिन्दी अनुवाद सहित टीका प्रकाषित हुई है। व्याकरण क्षेत्र में पटुता प्राप्त करने हेतु माता जी अनेकों बार व्याकरण का पठन-पाठन कर चुकी है। यह टीका अभ्यास का प्रतिरूप है। स्याद्वाद चन्द्रिका:- नियमसार की प्रस्तुत टीका इस “शोध प्रबन्ध का विशय है। अतः इसका स्वरूप इसमें पठनीय है।